चमत्कार
1970 के साल की बात है. बेटी (दीप्ति, जिसे हम घर पर रिज्जी कहते हैं) के जन्म के बाद की पहली दिवाली की. जिस दिवाली को हम ठाठ से मनाना चाहते थे, पर मना नहीं पाए. दिवाली की पूर्व-संध्या यकायक चिंता और व्यग्रता का सबब बन गई. हम (मैं, और भाईसाब यानि भारद्वाज जी, जिनकी जल्दी ही छपने वाली किताब का ज़िक्र किया था मैंने, अभी तीन दिन पहले) घर लौटे, तो देखा कि रिज्जी बेहाल है. खांसी ऐसी कि रुक कर ही न दे, सांस लेने में मुश्किल, और चेहरा इतना लाल कि जैसे खून ही टपकने वाला हो. न तो ऐसी खांसी देखी थी पहले, और न उसकी वजह से सांस लेने में ऐसी परेशानी ! भाईसाब ने उसे गोद में लिया, और बोले : “चलो, अस्पताल चलो.” अस्पताल घर से ज़्यादा दूर नहीं था. जैसे ही अस्पताल के दरवाज़े पर पहुंचे, तो देखा कि सामने खड़ी एक ठसाठस भरी बस में डॉ. शत्रुघ्न अग्रवाल चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने उन्हें ज़ोर से, लगभग चीखते हुए आवाज़ दी, और वह बस से उतर गए. वह क़स्बे के इस ज़िला अस्पताल में सबसे कुशल चिकित्सक थे. उन्हें समस्या बताई तो वह रिज्जी का चेहरा देखते ही, कुछ घबराए से लगे. हमें लगभग खींचते हुए अस्पताल में ले गए. एक बड़ी टॉर्च मंगवाई, और रिज्जी के गले के भीतर तक का नज़ारा देखा. तुरत स्टोर-कीपर को बुलाया (जो संयोग से अभी तक वहां था) और उसे एंटी-डिफ्थीरिया-सीरम लाने को कहा. जब तक इंजेक्शन आए और लगे, उन्होंने कहा कि पांच मिनट की भी देर हो जाती तो बात बिगड़ जाती, आने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, और यदि हम आ भी गए होते तो भी कोई मदद नहीं मिल पाती, क्योंकि दिवाली की छुट्टियों में सिर्फ़ डॉ. गौड़ (हड्डी के डॉक्टर) ही यहां उपलब्ध होते, जो हाथ खड़े कर देते. इंजेक्शन लगाने के बाद उन्होंने रिज्जी को क्वेरंटाइन वार्ड में भर्ती कर लिया. यह कोई व्यवस्थित वार्ड नहीं था. एक अलग-थलग बरामदे में एक पलंग डाला हुआ था. उजाले और हवा से महरूम. स्टोर-कीपर ने आकर बताया कि उसके पास दो इंजेक्शन और रखे हैं, आपातकालीन उपयोग के लिए. अगले दिन तक हमें इनकी एवज़ में तीन इंजेक्शन जमा कराने होंगे. आज लोगों को यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि क़स्बे के सबसे बड़े कैमिस्ट के पास भी ये इसलिए उपलब्ध नहीं होते थे कि उसके पास फ़्रिज नहीं था. हमने ‘हां’ कह दिया, क्योंकि हमें भरोसा था कि भरतपुर में मेरा बचपन का मित्र रमेश सूचना मिलते ही वह इंजेक्शन लेकर (बर्फ़-भरे डिब्बे में रखकर) अगली रात, यानि दिवाली की रात तक आ जाएगा. ऐसा ही हुआ भी, और उसकी दिवाली भी हमारी तरह अस्पताल में ही बीती (मनी तो क्या कहूं?). डॉ. अग्रवाल ने छुट्टियों में प्रभारी रहने वाले डॉ. गौड़ को बुलाकर सारा केस समझा दिया. ये डॉ. गौड़ भी हमारे अच्छे मित्र थे, और अक्सर सायंकालीन भ्रमण में साथ रहा करते थे. इसके बाद डॉ. अग्रवाल किसी ट्रक में बैठकर गंगापुर के लिए रवाना हुए, हमें पूरी तरह आश्वस्त करते हुए कि वह रात ठीक से गुज़र जाने का मतलब होगा कि बेटी ने घाटी पार कर ली है. रात का गुज़रना बाक़ी था, पूरी आश्वस्ति केलिए. रात गुज़र गई, पर हमारा मन अभी भी पूरी तरह चिंता-मुक्त नहीं था.
अगले दिन दो और इंजेक्शन लग गए, और मेरा मित्र चूंकि इंजेक्शन ले आया था, तीन अतिरिक्त भी ताकि हमारे काम न आएं तो अस्पताल में औरों के काम आएं. इन अतिरिक्त इंजेक्शनों की ज़रूरत नहीं पड़ी, या शायद एक की पड़ी हो तो पड़ी हो. तीसरे दिन सुबह जब डॉक्टर ने रिज्जी के गले में झांका, तो उनका चेहरा खिल गया. उन्होंने बताया कि जीभ से लेकर गले के भीतर तक पसरी-फैली वह सफ़ेद झिल्ली पूरी तरह गायब हो चुकी थी, जिसे देखकर ही डॉ. अग्रवाल के चेहरे पर बनी चिंता की लकीरें हमने देखी थीं,
तबसे लेकर अब तक न जाने कितनी बार यह खयाल मन में आया है, आता रहा है, कि बच जाने और न बच पाने के बीच कोई बेहद महीन धागा ही होता है, लगभग अदृश्य सा. दो मिनट की भी देर हो जाती, और डॉ. अग्रवाल की बस रवाना हो जाती तो क्या होता? बहुत कल्पनाशील होने की ज़रूरत नहीं है इसका उत्तर देने में सक्षम होने के लिए. एक ऐसा उत्तर जिसे देने में डर लगता है, और मन नहीं मानता है कि वह उत्तर दिया जाए. भीतर से एक ही आवाज़ आती है कि चमत्कारों ने घटित होना बंद नहीं कर दिया है.
और जैसा संत ऑगस्टीन ने कहा था : “चमत्कार प्रकृति के प्रत्याख्यान के रूप में घटित नहीं होते, अपितु प्रकृति संबंधी हमारे ज्ञान के प्रत्याख्यान के रूप में घटित होते हैं.”
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दुनिया की नज़र में वे छोटे लोग थे, पर दिल के बहुत बड़े थे. और हमारे लिए सगों से भी ज़्यादा सगे
आज एक बार फिर करौली !
हम जिस मकान में रहते थे, वह उस ज़माने के हिसाब से अच्छे बने मकानों में था. साफ़-सुथरा, हवादार ! तीन परिवार रहते थे. मकान-मालिक बंबई में रहते थे.
उन्होंने एक कमरा एक दंपति को दे रखा था, घर की निगरानी के लिए. वहां रहने वाले हम सभी के छोटे-मोटे काम वे दोनों बड़े उत्साह से करते रहते थे. वह दंपति निस्संतान था, पर पति-पत्नी दोनों के सीने में बच्चों के प्रति प्यार के पाताल-तोड़ कुएं थे, या कहिए प्यार के झरने बहते रहते थे. हम से उम्र में दोनों बड़े थे, पर हम उन दोनों को ही नाम से ही बुलाते थे - गोपीजी और अतरबाई. गोपीजी की दुकान थी, उसे हेयर कटिंग सेलून तो कहा नहीं जा सकता. पर हां, वह बाल काटने का काम करते थे.
जब मेरी बेटी(मेरी एक मात्र संतान) पैदा हुई, तो उन्हें तो जैसे एक खिलौना ही मिल गया. अधिकांश समय दीप्ति या तो अतर बाई की गोद में होती थी, या फिर सुबह-शाम गोपीजी उसे कंधे पर लिए फिरते थे. बाज़ार तक का चक्कर लगवा लाते थे. दो बरस तक यह सिलसिला यों ही चलता रहा. हम कुल मिलाकर वहां छह साल रहे, पर दीप्ति जब दो साल की होगई थी, तो हमारा वहां से तबादला हो गया. कहने की ज़रूरत नहीं कि जब हम वहां से चलने वाले थे तो कई दिन पहले से गोपीजी और अतर बाई दीप्ति को एक मिनट के लिए भी अपने से अलग करने से बेहद दुखी हो जाते थे. उनकी रात कैसी बीतती होगी यह बात हमें परेशान करती थी.
वहां से चले आने के बाद भी कई बार करौली जाना हुआ था. ठहरते कहीं भी हों, पर सबसे पहले अपने उस पुराने "घर" जाकर गोपीजी-अतर बाई से मिलना हमारा पहला काम होता था. 1980 में आखिरी बार उनसे मिलना हुआ. पर जब 1995 में दीप्ति की शादी होने वाली थी तो मुझे लगा कि मुझे करौली जाकर ही उन्हें न्योता देना चाहिए. आप अंदाज़ नहीं लगा सकते कि उन्हें कितनी खुशी हुई होगी. अपनी तमाम शारीरिक परेशानियों और आर्थिक कष्टों के बावजूद वे दोनों जयपुर आए. पहली दफ़ा शहर में आए थे, और मान सरोवर पहुंचकर ऐसे भटके कि बीच सड़क पर बैठकर मदद के लिए गुहार लगाने लगे. ग़नीमत रही कि एक ऐसे नौजवान की नज़र उन पर पड़ गई, जो उस दृश्य को अनदेखा नहीं कर पाया, खुद बड़ा भावुक होने के कारण. उसने निमंत्रण पत्र पर पता देखकर उन्हें आश्वस्त किया कि वे मेरे घर के बहुत पास हैं. उन्हें वहीं बैठा छोड़कर, वह मेरे घर आया. मैं उसके साथ जाकर उन्हें अपने घर लेकर आया. मुझे देखते ही वे जैसे बिलखे, और दोनों एक साथ मेरे गले लगे, मेरी आंखों में भी आंसू आ गए. चार दिन तक वे अपने तमाम कष्टों को भूले रहे, और फुदके-फुदके फिरते रहे. हमारी नज़र में ही नहीं, अन्य घनिष्ठ मित्रों की नज़र में भी वे शादी में हमारे सबसे खास मेहमान बने रहे. दोनों का कहना यह था कि उनके जीवन की "साध" पूरी हो गई कि वे दीप्ति की शादी में शामिल होने के लिए ज़िंदा रहे.
आज वे नहीं हैं, दोनों ही. पर हमारे जीते-जी वे हमारे साथ रहेंगे. जाति-बिरादरी और खून के रिश्तों से कहीं बड़ा था उनका रिश्ता, हमारे साथ.
-मोहन श्रोत्रिय