Monday, 2 December 2013

बात मेट्रो के डिब्बों के निर्माण की ही नहीं है !



इतिहास ग़लत ढंग से
पढाया जाता रहा है अब तक
मसलन लाल किला
दिल्ली का हो या आगरा का
गुजरातियों ने ही बनवाया था.
गोलकुंडा का किला भी
और चार मीनार भी.

टीपू सुल्तान भी पैदा हुआ था
गुजरात के एक छोटे से गांव में
महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज
और शेरशाह सूरी की तरह ही.

संसद भवन के बनाने में
जो भी श्रम-बल लगा था
यानी सभी राज-मज़दूर और मिस्त्री तक
आए थे गुजरात से ही.

चित्रकला, संगीत और स्थापत्य का
उद्गम हुआ था द्वारिका में.
सबसे पहले व्यापारी इस देश के
और कहां के हो सकते थे
गुजरात के सिवा?

गांधी गुजरात के थे
सरदार पटेल भी.
जैसे आज के अंबानी, अडानी, टाटा
और जो भी नाम लें
सभी हैं गुजरात के.

क़ायदे से इस देश का नाम
होना चाहिए महा गुजरात
चौंकिए मत
यह करके रहेंगे हम
चूं-चपड करने की ज़रूरत है नहीं
किसी को भी... क्योंकि
आ गया है दुरुस्त करने का समय
इतिहास को...पूरी तरह से
और हमें पूरा कर लेना है यह काम
नया साल शुरू होने तक हर हाल में !

जो नहीं मानेगा इस इतिहास को
कहने की ज़रूरत नहीं कि वह
अपनी जोखिम पर ही ऐसा करेगा !

Thursday, 14 November 2013

लुट गई विरासत

विरासत को
अपनी शानदार विरासत को
आज़ादी की लड़ाई की विरासत को
नहीं सहेजा उन्होंने
बटमारों को मौक़ा मिल गया !

-मोश्रो

विरासत के नासमझ ध्वज-वाहकों ने कचरे के ढेर में फैंक दिया विरासत को !


आज नेहरू के स्मरण की रस्म-अदायगी होगी.
जैसे पंद्रह दिन पहले इंदिरा गांधी और सरदार पटेल के साथ हुआ था.
और तेतालीस दिन पहले महात्मा गांधी को याद किया गया था.
पांच दिन बाद इंदिरा गांधी को फिर याद किया जाएगा.
अगले महीने, और फिर अप्रेल में आंबेडकर को याद किया जाएगा,
जनवरी के अंत में गांधी को, और फिर मई के आखिरी सप्ताह में नेहरु को फिर से याद किया जाएगा.

जैसे न जाने कितने बरस बाद, संयोग से, ऐसे ही, तीन दिन पहले अबुल कलाम आजाद को याद कर लिया गया था.

ये सब प्राणहीन स्मरण हैं, जिनके पहले एक विशेषण जोड़ दिया जाता है - "श्रद्धा".

कांग्रेस पार्टी, सरकारें और सामाजिक संगठन ज़िम्मेदार हैं, इन तमाम महान नेताओं के स्मरण को रस्म-अदायगी में बदल देने के लिए ! इनके अवदान के ऐतिहासिक महत्त्व की चर्चा न करके, और इस तरह आज़ादी के बाद पैदा हुई पीढ़ियों को उनके महत्व से अपरिचित बनाए रख कर, इतिहास-चर्चा का काम बटमारों को सौंप देने के लिए ! बटमार जब यह काम करते हैं तो तथ्य गौण (या महत्वहीन भी) हो जाते हैं, और अफ़वाहों को ऐतिहासिक तथ्यों के रूप में पेश करने का रास्ता खुल जाता है.

नेहरू की भी बहुत सारी कमियां-कमजोरियां रही होंगी, किसी भी अन्य विश्वनेता की तरह. पर उससे कहीं ज़्यादा उनकी खूबियां थीं. आज के हिंदुस्तान और पाकिस्तान के फ़र्क़ को नेहरू को समझे बिना नहीं समझा जा सकता. नेहरू ने संस्थाओं की नींव रखी. लोकतांत्रिक संस्थाओं की ही नहीं, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, इतिहास, समाज विज्ञान एवं कला-संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन को प्रतिश्रुत संस्थाओं-संगठनों की. वैज्ञानिक चेतना विकसित करने के काम को प्राथमिकता दी.

नेहरू के साहित्यिक अवदान, उनकी इतिहास-दृष्टि एवं विश्व-पटल पर उनकी ठोस वैचारिक अवस्थिति के लिए विश्व के महानतम दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों व शांतिकर्मियों ने सराहना की है. उनके समकालीनों ने तो सर्वाधिक. अफ़सोस की बात है कि उनकी स्वयं की पार्टी ने उनकी वैचारिकता-बौद्धिकता को तज दिया.

किसी का भी स्मरण तभी सार्थक बन पाता है, जब उसके अवदान को नए समय के साथ जोड़ा जाए. आज बाल दिवस मना लेने या अख़बारों में चौथाए पेज के विज्ञापन दे देने से बात नहीं बनती. जिन गैर-दक्षिणपंथी लोगों की नेहरू से असहमतियां थीं/हैं, वे कांग्रेस की तुलना में उन्हें बेहतर ढंग से याद करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि "नेहरू" होने के राजनीतिक-सांस्कृतिक मायने क्या हैं !

-मोश्रो

Monday, 28 October 2013

रिश्ते, नेहरू और पटेल के



मोदी जो मन में आ रहा है वो बोले जा रहा है और उसके हर झूठ को बीजेपी के चेले चपाटे,आरएसएस के नेता और शहरी युवा सच मान रहे हैं.है यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है देश के लिए की लोगों ने ''विकास'' नामा की अफ़ीम चढ़ा रखी है और वो कुछ सुनना नहीं चाहते बस जो मोदी बकवास करे वो ही सच मान लेने चाहते हैं

कल उसने जो बात कही थी की सरदार वल्लभभाई पटेल की अंत्येष्टि में पंडित जवाहर लाल नेहरू नहीं शामिल हुए थे यह सरासर सत्य का मुखौल उडाना है और सफ़ेद झूठ है अब पता नहीं मोदी पूरे देश की जनता को आरएसएस से जुड़ा हुआ समझते हैं क्या ?? या अपने आप को बहुत होशियार,अक्लमंद ?? या दूसरों को बेवक़ूफ़ ???? यह जाग जाहिर है की कुछ राजनैतिक मसलों पर सरदार वल्लभभाई पटेल के पंडित जवाहर लाल नेहरू से मतभेद थे लेकिन दोनों की नज़रों में एक दूसरे के लिए बहुत सम्मान और आदर था


दो किस्से मैं आप लोगों से शेयर कर रहा हूं जिन्हें बताना बहुत ज़रूरी हैं ताकि मोदी के सच्चाई लोगों के सामने लाये जा सके और उसके झूठ से लोगों को अवगत कराया जा सके------------------------------------------

अपने जीवन के अंतिम दिनों में सरदार वल्लभभाई पटेल बीमार पडे तो पंडित जवाहर लाल नेहरू सरदार वल्लभभाई पटेल को देखने गए तब सरदार वल्लभभाई पटेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरु से कहा था " जवाहर तुम मुझ पर विश्वास नहीं करते" पंडित जवाहर लाल नेहरू का भी आत्मविश्वास हिला हुआ था। वह व्यथित मन से बोले, 'मेरा खुद पर भी यकीन नहीं रहा।'

गांधीजी की हत्या के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल ने सार्वजनिक मंच से पंडित जवाहर लाल नेहरू को बार बार अपना 'नेता' बताया था और पंडित जवाहर लाल नेहरू को अपने पूरे सहयोग का आश्वासन भी दिया था

१४ नवंबर १९४८ को पंडित जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन के अवसर पर सरदार वल्लभभाई पटेल ने कहा थ --"गांधीजी ने जवाहर को अपना उत्तराधिकारी बनाया था जब सेगांधीजी की हत्या हुई तभी से हमें यह अहसास हुआ कि गांधीजी का फ़ैसला सही था" सरदार वल्लभभाई पटेल की यह बात सुनकर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए कहा ---"सरदार हमेशा से मेरे लिए एक मज़बूती का स्तंभ रहे हैं मैं उनके प्रेम और सहयोग के बिना मैं यह देश नहीं चला पाऊंगा"
इसे यह साबित होता है की तमाम दूरियों, मतभेदों के बाद भी दोनों के बीच एक रागात्मक रिश्ता था और दोनों ही कांग्रेस की संस्कृति में रचे बसे थे,दोनों को जो चीज़ जोडती थी वह बहुत अधिक मज़बूत थी जो दोनों को अलग करती थी पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल के बीच मतभेद किन मसलों पर थे और क्या थी उन मुद्दों की यह पृष्ठभूमि यह भी जानना बहुत ज़रूरी है इस पर फिर कभी पोस्ट करूंगा

मोदी को पूरा अधिकार है की वोह जो मन में आये वो बोले क्योंकि अपने देश में ''लोकतंत्र'' है लेकिन शायद आरएसएस का पुराना प्रचारक और बयान बहादुर यह क्यों बार बार भूल जाता है की कुछ सच ऐसे होते हैं जो हमेशा सच ही रहेंगे कोई कितना भी झूठ बोले !


-अज़हर खान

Saturday, 14 September 2013

कविता में भारतीयता की पहचान

वरिष्ठ कवि विजेंद्र की कविता-विषयक चिंताएं बड़ी हैं, अपने अन्य समकालीनों की तुलना में कहीं ज़्यादा बड़ी. उनके नोट पर मेरी तीन संक्षिप्त टीपें :

भारतीयता की पहचान भूगोल में नहीं बल्कि इसकी बहुलता में निहित है. बहुलता, चिंतन-दर्शन-जीवन पद्धतियों, आदि विविध स्तरों पर. भारतीय चित्त इन सभी से निर्मित होता है. लोक-संपृक्ति एवं लोक-मंगल भी इस पहचान का एक महत्वपूर्ण घटक है. ये सब मिलकर ही रचना के मूल्यांकन की कसौटी भी निर्मित करते हैं. आधुनिकता के दबाव/प्रभाव में आए कुंठा, संत्रास, आत्म-परायापन, अजनबीयत आदि की भारतीय चित्त से (तत्कालीन जीवन-स्थितियों से भी) कोई संगति नहीं बैठती थी. इसी प्रकार स्वर्णिम अतीत से मोहाविष्ट होकर रूढ हो गई जीवन-दृष्टि की भी भारतीयता की अवधारणा से कोई संगति नहीं बैठती.


भारतीयता और वैश्विकता में कोई विरोधाभास नहीं है. अन्य भाषाओँ के जो कवि हमें बेहद प्रिय (व अपने) लगते हैं, उसके पीछे भी चित्त-साम्य अपनी भूमिका अदा करता है. नेरुदा हों या लोर्का, मायकोवस्की हों या ब्रेख्त, ऑडेन हों या लुइस मैक्नीस, नाज़िम हिकमत हों या फ्रॉस्ट या तीसरी दुनिया के अन्य कई कवि, ये यदि हमें अपने-से लगते हैं तो इस सबके पीछे हमारे सरोकारों का साम्य ही तो प्रमुख कारण होना चाहिए. इसके विपरीत टीएस इलियट (द वेस्ट लैंड में तीन भारतीय सन्दर्भों के बावजूद) अपने नहीं लगते क्योंकि "ओम शांति शांति शांति" के उद्घोष पर समाप्त होने के बावजूद उक्त रचना (और रचनाकार भी) वैश्विक शांति प्रयत्नों का हिस्सा नहीं बन पाई थी. बड़ी संख्या में इंग्लैंड के ही अनेक लेखकों कवियों के संदर्भ में जैसे विचार-कर्म की इस एकता को देखा जा सकता है.


उपरोक्त के क्रम में अपनी श्रेष्ठ कविता को चिह्नित कर पाना भी आसान हो जाता है. जब हम मुक्तिबोध-त्रिलोचन-शमशेर-नागार्जुन-केदारनाथ अग्रवाल के महत्व को रेखांकित करते हैं तो बात आसानी से समझ में आ जाने योग्य बन जाती है. कृष्ण कल्पित जिस खतरे की ओर ध्यान खींच रहे हैं, उसे चिह्नित करने का बीज संदर्भ मेरी पहली टिप्पणी में मिल जाना तो चाहिए था.

-मोहन श्रोत्रिय

Sunday, 8 September 2013

मृतक तो महज़ आंकड़े होते हैं...



हथियार किसी के, हाथ किसी के...
मरने-मारने वाले कब समझेंगे
इस बहकी-वहशी सियासत के खेल को !
लड़ानेवालों और लड़नेवालों के हित एक नहीं हैं
कितना खून बह जाने के बाद
समझ में आएगी यह छोटी-सी बात !

लड़ानेवाले बचे रह जाते हैं
और मोहरा बने
लड़नेवाले धो बैठते हैं जान से हाथ
पीछे छूटे लोग विलाप करते रह जाते हैं
और इनमें से कुछ
उतारू हो जाते हैं नए सिरे से मरने-मारने को.

गद्दी पर बैठे लोग अपराधी हैं
भड़कती आग को देख
मुंह फेरे रहना भी तो अपराध ही है
और अपराधी हैं वे भी
जो जल्द-से-जल्द बैठ जाना चाहते हैं
गद्दी पर...हर गद्दी पर
गद्दी लखनऊ की हो या दिल्ली की.

गद्दी पा जाने तक
कितनी और जानें जाएंगी ऐसे ही
पूरे देश में
कोई अनुमान लगा सकते हैं इसका?

ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कुछ भी.
लड़नेवालों को नहीं पता
लड़ानेवालों को कोई परवाह नहीं
मृतक तो महज़ आंकड़े होते हैं

लड़ानेवालों के दिल को आदत है पुरानी
कैसी भी हालत में न पसीजने की.

-मोहन श्रोत्रिय

यूपी गाथा


एक -

उत्तरप्रदेश में यह हो क्या रहा है?

अभी से रुला रहे हो, दो हज़ार चौदह !
तुम कब आओगे, दो हज़ार चौदह?
तुम आओगे नहीं तब तक रोटियां सेंकते रहेंगे सब, इस आग पर, जिसे जल्द-से-जल्द बुझा दिया जाना चाहिए.

ध्रुवीकरण की यह जो क़वायद चल रही है, कितनों की बलि लेगी?

चेत सपा, चेत ! खतरनाक खेल है यह ! आत्मघाती साबित होगा ! देश-घाती भी !

ज़रा सा स्वार्थ, ज़रा सी शह, ज़रा सी ढील...थोड़ा सा भी ढुलमुलपन...ले डूबेंगे.



दो -

भाजपा की #बी-टीम बनने में ही अपना भला और भविष्य देखना बंद नहीं किया अखिलेश यादव ने तो इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा :

सांप्रदायिक तनाव बढ़ता देखते ही स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त न करना उतना ही महंगा पड़ेगा जितना सपा द्वारा प्रतियोगी-सांप्रदायिकता फैलाने को अपनी नीति बनाना.

अमित शाह के मंसूबों को ऐसे तो परास्त नहीं किया जा सकता, अखिलेश बाबू ! यह तो खुद चलाकर जाल में फंसने जैसा हुआ ! न कम, न ज़्यादा !

यूपी में जो होगा, वह पूरे देश को प्रभावित करेगा. ध्यान रहे, एक छोटी-सी चिंगारी काफ़ी होती है, सबका आशियां जलाने को. आग तो जब भड़कती है तो दाएं-बाएं, आगे-पीछे सब तरफ़ फैलती है, और प्रचंड से प्रचंडतर होती चली जाती है. राज्य-प्रशासन के निकम्मेपन को मुआवज़े बांटकर नहीं छुपाया जा सकता. मुआवज़े जख्मों को नहीं भर पाते, यह भी ध्यान में रखा ही जाना चाहिए.


तीन -

किसी #वहम के शिकार मत होओ, #कांग्रेसियो !

भाजपा-सपा को कोस कर, और दंगों की आग पर हाथ सेंक कर तुम राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाओगे !

#मुज़फ्फ़रनगर दिल्ली से ज़्यादा दूर नहीं है ! ध्यान है न?

केंद्र में, और दिल्ली में भी, अभी सरकार तुम्हारी ही है. भूल तो नहीं गए?

तुम मज़े लेते रहोगे, तो यूपी को गुजरात बनने से तो नहीं ही रोक पाओगे, दिल्ली में भी इस संकट को न्यौत लोगे. इतनी कम-निगाही ठीक नहीं है, देश के लिए !

बनना-बिगडना, सिर्फ़ तुम्हारा होता, तो कुछ न कहता. न ताली बजाओ, न कोसो उन दोनों को, अपनी सकारात्मक भूमिका अदा करो. हस्तक्षेप करो, सक्रिय-सकारात्मक हस्तक्षेप !

-मोहन श्रोत्रिय

Friday, 30 August 2013

असंत के भक्त बौखलाए हुए हैं. बहुत बुरी तरह से


उमा भारती, स्मृति ईरानी और फिर हेमा मालिनी असंत के बचाव में उतरीं. विहिप के प्रवीण तोगडिया कैसे पीछे रहते? वह भी कूद पड़े. भाजपा के अन्य कई जाने-पहचाने चेहरे भी. सुषमा स्वराज जो मुंबई-बलात्कारियों के लिए फांसी की सज़ा की मांग कर रही थीं, संसद में, बार-बार ध्यान आकृष्ट किए जाने पर भी असंत पर चुप रहीं. मध्यप्रदेश के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने तो खुलकर दिखा दिया, अर्नब गोस्वामी के शो में, कि भाजपा के चाल-चरित्र-चेहरे को लेकर किसी को भी किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए. जिस नंगई का निर्लज्ज प्रदर्शन उन्होंने किया, वह "संस्कृति" की हवा निकालने के लिए काफ़ी था.

असंत की शिष्या एवं प्रवक्ता नीलम सार्वजनिक रूप से तो हेकड़ी का प्रदर्शन करती रही, पर लड़की को बहलाने-फुसलाने, और उसके परिवार पर दबाव बनाती यहां से वहां दौड-भाग रही है, ऐसी पुष्ट जानकारियां मीडिया पर आ रही हैं. असंत के साठ भक्तों का एक (अ)शिष्ट मंडल शरद यादव के घर तक पहुंच गया यह दबाव बनाने के लिए कि वह अपने शब्द वापस लें.

नमो की भाजपा नेताओं को इस हिदायत (कि वे आसाराम का बचाव न करें) का निहितार्थ भी यही लगता है कि वे खुलकर बचाव करते न दिखें, भीतरखाने जो भी करें. असंत जो शुरू में जेल को वैकुंठ कह कर हास्य पैदा करने की कोशिश कर रहे थे, अब इतने घबरा गए हैं कि सूरत से प्रवचन अधूरा छोड़कर ही भाग निकले. किसी अज्ञात स्थान की ओर.

अब सब का ध्यान राजस्थान की ओर मुड़ गया है. कल तीस अगस्त को क्या होगा, यह देखने के लिए ! यहां हवा में जो तैर रहा है, उससे लगता तो यही है कि असंत की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं. सब जानते हैं कि भक्त लोग कुछ गुल-गपाड़ा तो करेंगे, और भाजपाई भी साथ देंगे ही, पर पूरे देश में सही संदेश भेजने का भी यही वक़्त है, अशोक गहलोत सरकार के लिए. ज़रा चूके नहीं कि "रीढ़-विहीन" कहलाने को तैयार रहना होगा.

तो देखते हैं - कल असंत जोधपुर पहुंचते हैं या नहीं ! और यदि नहीं पहुंचते हैं, तो राजस्थान का पुलिस प्रशासन उससे जो अपेक्षाएं हैं, उन पर खरा उतरता है या नहीं !

-मोहन श्रोत्रिय

Wednesday, 21 August 2013

तो पाखंड के खिलाफ़ क़ानून बनाने के लिए डॉ, दाभोलकर की शहादत ज़रूरी थी?


2005 में महाराष्ट्र विधान सभा ने जिस अंधविश्वास-पाखंड-प्रसार विधेयक को पारित कर दिया था, वह तब से अब तक लटका क्यों रह गया? वह लटका इसलिए रह गया क्योंकि भाजपा-शिवसेना ने विधान परिषद में उसमें अडंगा लगा दिया था. और सरकार उसके बाद इस विधेयक को भूल गई.
भाजपा-शिवसेना को क्या डर था इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद क़ानून की शक्ल अख्तियार कर लेने से? यही कि इन दोनों का वोट बैंक इसके खिलाफ़ था. हिंदू संस्कृति की दुहाई देने वाली शक्तियां वैसी स्थिति में अपना धंधा चौपट हो जाने के खतरे को अपने सिर के ऊपर मंडराती देख रही थीं. ये शक्तियां एक तरफ़ क़ानून बनाने की प्रक्रिया में अड़चनें खड़ी कर रही थीं, तो दूसरी तरफ़, डॉ दाभोलकर को अपनी गतिविधियों पर विराम लगाने की धमकियां दे रही थीं. यह भी कह रही थीं कि ऐसा नहीं हुआ तो उनका अंत वैसा ही होगा जैसा गांधी का हुआ था. और जब अब डॉ दाभोलकर की हत्या हो ही गई है तो यह कोई बहुत क़यास लगाने का मामला रह नहीं जाता कि ऐसा किसने किया होगा.

यह सिर्फ़ महाराष्ट्र के लिए दुख और चिंता का विषय नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए है. डॉ दाभोलकर जो अभियान चलाए हुए थे, उसके निहितार्थों को ढंग से समझा जाए, तो यह साफ़ हो जाएगा कि वह वैज्ञानिक सोच विकसित करने और पाखंड पर चोट करने संबंधी संवैधानिक दायित्वों का ही निर्वाह कर रहे थे. यानि वह जो कुछ भी कर रहे थे, वह तो राज्य को अपने आप करना चाहिए था. अपने आपको एक आधुनिक राज्य के रूप में प्रस्तुत करने के लिए !

महाराष्ट्र सरकार अब अध्यादेश लाने की बात कर रही है. यह काम तो पिछले आठ सालों में कभी भी हो जाना चाहिए था. इस कायराना हत्या के बाद तो सरकार को ऐसे तमाम लोगों को सुरक्षा प्रदान करने को भी सुनिश्चित करना होगा. और धमकियों देने वालों, तथा धमकियों को क्रियान्वित करने वालों के खिलाफ़ कड़े क़दम भी उठाने होंगे. यह भी बताना होगा कि समाज को आगे ले जाने वालों (उदाहरण के लिए कबीर कलामंच) के काम से जुड़े लोगों को जेल में डालने में तो सरकार कोई वक़्त खोती ही नहीं, तो फिर तथाकथित संस्कृति मंचों की धमकियों का संज्ञान लेने में कोताही कैसे बरत जाती है?

कहने की ज़रूरत नहीं कि गांधी के बाद, डॉ दाभोलकर पहले व्यक्ति हैं, जो पुनरुत्थानवादी-सांप्रदायिक तत्वों के हाथों शहीद हुए हैं. यह खतरे का संकेत है, भारत सरकार के लिए भी. यह वह नया भारत तो कहीं से नहीं है, जिसका संकल्प संविधान-निर्माताओं ने लिया था. चेत सको तो चेत जाओ !

-मोहन श्रोत्रिय

Monday, 19 August 2013

चैनल जिता रहे हैं, और जीतने वाली पार्टी के लोग आश्वस्त नहीं हैं...

आज का एक दिलचस्प वाकया साझा करूं?

मैं अपना आधार कार्ड बनवाने गया था, मानसरोवर-स्थित पोस्ट ऑफ़िस तक. कार बैक कर के, मुख्य द्वार से निकलने को ही था कि एक बड़ी-सी गाड़ी आकर रुकी. आगे जो दोनों बैठे थे, दोनों ने लगभग एक साथ नमस्ते करते हुए, रुकने का इशारा किया. दोनों ही कोई चालीस बरस पहले मेरे विद्यार्थी रहे थे. भाजपा में उनकी ठीक-ठाक पहचान बन चुकी है. दोनों में से एक तो एकाधिक बार चुनाव भी जीत चुके हैं, विधानसभा का. दूसरे, सिर्फ़ एक बार. उनकी खूबी यह है कि जग-ज़ाहिर विचार-भेद के बावजूद वे दोनों ही सार्वजनिक तौर पर मेरा परिचय अपने प्रिय शिक्षक के तौर पर कराने में संकोच नहीं करते हैं. बातचीत का सिलसिला चलने पर मैंने उन्हें बधाई दी कि अब तो उनकी पार्टी का राज आने वाला ही है. टीवी चैनलों ने तो जीत की घोषणा कर भी दी है. वे यह सब सुनकर खुश हुए हों, ऐसा मुझे नहीं लगा. इसके ठीक उलट, उनका कहना था : "ऐसा हो जाए, तब तो कहने ही क्या ! पर सच्ची बात तो यह है गुरूजी कि हमें तो खुद को पता नहीं कि जयपुर की सीटों को छोड़कर हमारी एकदम पक्की जीत वाली सीट कौनसी हैं. लगे हुए तो हैं हम भी, तन-मन से, पर आपसे झूठ नहीं बोलेंगे, अपने बारे में ही पता नहीं कि टिकट मिलेगा या नहीं, और मिला तो कहां से मिलेगा ! यह भी संभव है कि जहां हमारा काम लोगों को दिखता भी है, वहां किसी और को टिकट मिल जाए. खींच-तान तो चल ही रही है." साथ ही उन्होंने यह भी आशंका व्यक्त की कि "जादूगर"(मुख्यमंत्री) ने कहीं समय से पहले चुनाव करा लिए, तब तो कबाड़ा ही हो जाएगा.


ऐसे में, मैं उन्हें शुभकामनाएं ही दे सकता था, सो दे दीं. घर आने को भी कहा. उन्होंने सिर हिला कर हां का संकेत भी दे दिया.

रास्ते में मैं यही सोचता रहा कि आखिर ये चैनल वाले "सर्वे" करते कहां हैं ! इनकी विश्वसनीयता इतनी कम क्यों हो गई है कि जिन्हें ये जीता हुआ बताते हैं, वे भी इनकी बातों पर भरोसा करके प्रसन्न क्यों नहीं हो पाते ! और यह भी कि "जादूगर" को वह गणित पता है क्या, जो समय-पूर्व चुनाव में उसकी जीत पक्की कर सके ! तो फिर क्या उसके मन में भी कुछ चल रहा है क्या, जल्दी चुनाव कराने के बारे में?

-मोहन श्रोत्रिय

क्यों? आखिर क्यों?



खून क्या सच में बोलता है
सिर पर चढ़कर?
क्या मृतकों की कराहें
और परिवारी जन की आहें भी
कोई असर दिखाती हैं अपना?

तो फिर यह बात क्यों नहीं करती परेशान
उन्हें जिनके हाथ रंगे हैं खून से अभी तक
मामला चाहे ग्यारह बरस पहले का हो
या उनतीस बरस पहले का?

लगता तो नहीं कि खून
सिर पर चढ़कर बोलता है...

अब तक तो नहीं बोला
एक भी मामले में.
सच तो यह है कि उल्टा ही हुआ
दोनों बार !

राष्ट्र की सामूहिक अंतश्चेतना
मौन क्यों रह गई थी?

दोनों बार दरिंदगी को वैधता ही मिली थी.
क्यों? आखिर क्यों?

-मोहन श्रोत्रिय

Saturday, 17 August 2013

देखो, उधर !



चट्टानी संकुल के पीछे
दिखा था जैसे सपने में
हरा-भरा विस्तीर्ण वन
जिसमें बहुतायत है
सघन फलदार वृक्षों की.

खोजना-बनाना है
वहां तक पहुंचने का रास्ता !

किसी को तो करनी ही
होती है पहल !

-मोहन श्रोत्रिय

राजनीतिबाज़ प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं लेखकों से



पहले एक ने कहा, मेंढक !
जवाब में सुना, कॉकरोच !
मनभावन राजनीतिक विमर्श है न यह?

कौन कहता है कि लेखक प्रभाव नहीं डालते राजनीति पर !
अभी कुछ दिन पहले ही तो
दो लेखकों ने कुछेक अन्य लेखकों को संज्ञा दी थी
मक्खी, मच्छर, भुनगे और गधे की !

नाम तो और भी धरे थे
लेखकों ने
वे ज़्यादा प्रतिभाशाली और मौलिक जो होते हैं.

अच्छा है राजनीतिबाज़
पढ़ रहे हैं लेखकों को
और सीख भी रहे हैं उनसे !


-मोहन श्रोत्रिय

दिल्ली का सिहासन पा लो, पर बिना झूठ और अफ़वाहों का सहारा लिए


झूठ और अफ़वाह इनके हथियार रहे हैं, वर्षों से ! इन दोनों का निर्लज्ज प्रसार इनका शौक रहा है, हित-साधन की सीढ़ी भी. इंटरनेट के ज़माने में ये "कहीं-की तस्वीरों को कहीं-और-की" बताकर अपना कारज साधने में लगे हैं. फ़ेसबुक रंगी पड़ी रहती है, हर रोज़, इन तस्वीरों से. इन फ़र्ज़ी तस्वीरों के ज़रिये एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ़ भड़काने-उकसाने का काम इनके राजनीतिक हितों की पूर्ति में सहायक होता बेशक दिखे, यह विभिन्न तरह के संकटों से गुज़रते हुए अपने समाज के साथ धोखा है. सुनियोजित है, इसलिए और ज़्यादा घृणित भी.

मज़ा यह है कि कंवल भारती को एक टिप्पणी की वजह से गिरफ़्तार किया जा सकता है, पर सही मायनों में देश में अमन-चैन को खतरा-बन-रही इस तरह की पोस्ट्स डालने वालों के खिलाफ़ किसी तरह की कार्रवाई करने की ज़रूरत न तो सरकार को महसूस हो रही है, और न अन्य किसी राजनीतिक पार्टी को ही.

किश्तवाड में हुई तीन मौतों के मामले में ये "तीन" के बाद कई "शून्य" लगाने में भी कोई संकोच नहीं कर रहे. इनमें हिम्मत नहीं कि इस सच का भी बयान करें कि एक हिंदू बारात को प्रशासनिक अधिकारीयों द्वारा सुक्षा देने में असमर्थता जताने की जानकारी मिलते ही मुस्लिम नौजवानों ने यह बीड़ा उठाया कि बारात निकलेगी, शादी होगी, और सुरक्षित घर लौटेगी, दुल्हन को लेकर. और ऐसा हुआ. इसे सांप्रदायिक तनाव के उस घटाटोप में एक चमकदार किरण के रूप में न केवल देखा जाना चाहिए, बल्कि प्रचारित-प्रसारित भी किया जाना चाहिए. ऐसी घटनाओं को रेखांकित किए जाने से आपसी सद्भाव को बढ़ावा मिलेगा.


-मोहन श्रोत्रिय

चक्र पूरा घूम गया है



अर्थव्यवस्था उस मुक़ाम पर पहुंच गई है वापस, जहां वह थी 1991में. कैसी विडंबना है कि उस लाइसेंस-परमिट-राज की जगह जिस नव-उदारवादी (भूमंडलीय -निजीकृत) अर्थव्यवस्था का इतना गुणगान किया गया था, उसने वापस वहीं पहुंचा दिया. हां, एक फ़र्क़ ज़रूर पड़ा, और वह यह कि भ्रष्टाचार तब की तुलना में कई गुना बढ़ गया, और निजी कम्पनियों की पूंजी में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई. निजी लोभ-लालच का जो निर्लज्ज खेल चला है इस दौर में, वह भी बेजोड़ है. न राजनेता बचे और न नौकरशाह ही, इस खेल के मज़े लेने से. रुपया गिर रहा है, तो गिरते ही चला जा रहा है, और लगता ही नहीं कि जल्दी ही थमेगा. मध्य वर्ग हाय-हाय कर रहा है, तो उनका तो कहना ही क्या जिनके पास नियमित आय का कोई स्रोत है ही नहीं. जमाखोरों के मज़े हैं, वे प्याज़ जैसी चीज़ को भी "सैकड़ा" दिखा सकते हैं, जल्दी ही.

चिंता की बात यह है कि सत्ताधारी तथा प्रमुख विपक्षी दल (जिसे लग रहा है कि उसे सत्ता मिली हुई ही समझी जाए) आर्थिक नीतियों के मामले में एक ही जगह खड़े हैं. मामला उन्नीस-बीस का भी नहीं है. और तीसरा मोर्चा? वह तो कहीं है ही नहीं, इस पल तक ! और मजबूरी में बन भी जाता है तो कोई फ़र्क़ आ जाने की उम्मीद करना वैसा ही है जैसे भैंसे से दूध पा लेने की आकांक्षा पाल लेना. क्योंकि उस संभावित तीसरे मोर्चे के अधिकांश घटक तो अपना दांव लगने पर, इन नीतियों की मलाई काट ही चुके हैं/ रहे हैं.

फिर भी कहना ज़रूरी रह जाता है क्या कि असली आज़ादी किसे मिली है !


-मोहन श्रोत्रिय

Wednesday, 17 July 2013

समझदारों को इशारा ही काफ़ी होता है



फूल पाने की इच्छा रखने वालों को कांटे बोने से बचना चाहिए. जैसा आप करेंगे, वैसा ही यदि दूसरे भी करने लगेंगे तो आपको भी कांटे ही तो मिलेंगे. गीतकार मोहन अंबर ने दूसरों की राह में कांटे बिछाने वालों से जो कहा था, वह तो और भी कष्टकर हो सकता है. उन्होंने अपने एक बेहद प्रसिद्ध गीत में ऐसे लोगों को आगाह ही तो किया था :

"देखो शूल बिछाने वालो, मैं बदला ऐसे लेता हूं
जितनी डगर न मैं चल पाऊं उतनी डगर तुम्हें मिल जाए.
...
देखो धूल उड़ने वालो यह मेरा आभार-प्रदर्शन
धुंध-अंजे मेरे नयनों की सारी नज़र तुम्हें मिल जाए."

समझदारों को इशारा ही काफ़ी होता है.
-मोहन श्रोत्रिय

Tuesday, 16 July 2013

यह चौकस रहने का वक़्त है...विरासत को याद रखने का भी


इस देश की विशिष्ट पहचान इसकी बहुलतावादी संस्कृति के आधार पर निर्मित हुई थी. भाषा, साहित्य, संगीत, चित्रकला, स्थापत्य, रंगमंच एवं पाकशास्त्र - सभी इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं. जिसे "गंगा-जमुनी तहज़ीब" के नाम से जाना जाता है, उस संस्कृति में सहिष्णुता और भाईचारा उल्लेखनीय तत्व हैं, जिनकी अनदेखी अथवा अवहेलना आत्मघाती बन सकती है. अल्पकालिक लाभों के लिए इस छवि को खंडित करने का कुचक्र देश की अस्मिता के लिए भारी पड़ सकता है. भगवत शरण अग्रवाल की क्लासिक कृति "भारतीय संस्कृति के मूल स्रोत" पर एक बार फिर से नज़र डाल लेना उपयोगी रहेगा. जिन्हें नेहरु की "भारत : एक खोज" पढ़ने से परहेज़ हो, वे दिनकर की पुस्तक "संस्कृति के चार अध्याय" भी पढ़ लेंगे, तो भी अपने देश को बेहतर ढंग से समझने में सक्षम हो पाएंगे. "वैष्णव जन तो तेने कहिए..." सुना सबने होगा, पर मैं विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता कि सबने इसे भारतीय मनीषा के सारतत्व के रूप में भी देखा-समझा होगा . बार-बार लौटने की ज़रूरत है, इन सबकी तरफ़.

राष्ट्र की अवधारणा के साथ किसी भी किस्म की छेड़खानी के परिणाम दूरगामी होंगे. उग्र राष्ट्रवाद फ़ासिज़्म का लक्षण होता है, जो अंततः राष्ट्र के लिए ही घातक सिद्ध होता है. हिटलर का उदय नहीं हुआ होता तो जर्मनी आज विश्व की सबसे बड़ी शक्ति होता. दुनिया अमरीका की फ़ालतू की दादागिरी से भी बच गया होती. जर्मनी के कमज़ोर हो जाने का, और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की बंदर-बांट का ही यह परिणाम था कि अमरीका महाशक्ति बन बैठा, दुनिया भर का दरोगा ! यह याद रखना भी उपयोगी होगा कि नस्लीय श्रेष्ठता पर आधारित उग्र राष्ट्रवाद ही भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रमुख प्रेरणा-स्रोत रहा है. गोलवालकर की किताबें (संघ-वांग्मय) इसके अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत भी करती है. जनोत्तेजक वक्तृत्व कला इन दिनों खूब सुनने-देखने को मिल रही है, उसके उत्स भी हिटलर से जाकर मिलते हैं. निस्संग भाव से, और आंखें खुली रखकर हम इतिहास पर नज़र डालेंगे तो इस निष्कर्ष को झुठला नहीं पाएंगे.

-मोहन श्रोत्रिय

Saturday, 13 July 2013

‎आ‬ जाओ, 2014! जल्दी आ जाओ, कि यह जुनूनी शोर तो थमे !

यह शोर देश को अराजकता की ओर ले जा रहा है. किसी भी तरह के "भ्रष्ट आचरण" को मुद्दे के रूप में सामाजिक विमर्श से बहिष्कृत कर रहा है. जिस मंदिर के पक्ष में अयोध्या-फ़ैज़ाबाद के मतदाता ने एक बार को छोड़कर कभी उत्साह नहीं दिखाया, उसे फिर से जीवित कर रहा है. अयोध्या का छोटा दुकानदार, दिहाड़ी पर काम करने वाला मज़दूर, फूलों और पूजा की वस्तुओं की गुमटी चलाने वाला ग़रीब - सभी बेहद आशंकित हैं, आतंकित हैं. कहते हैं, हर बार बाहर के लोगों ने यहां आकर हमारा जीना मुहाल किया है,
रोज़ की घर चलाने वाली कमाई को चौपट किया है.

दुर्भाग्य है कि अन्य राजनीतिक पार्टियां अपना एजेंडा सामने लाने की बजाय हिंदू-राष्ट्रवादी एजेंडे के इर्द-गिर्द घूम रही हैं. सिर्फ़ प्रतिक्रिया करने से हालात नहीं बदल सकते, यह तय लगता है !

पहले मन बंटते हैं, और फिर सामाजिक समरसता पर गहरी चोट करते हैं. युद्ध की-सी मानसिकता निर्मित की जा रही है, जिसका परिणाम सुखद नहीं हो सकता, कभी भी. वैकल्पिक राजनीति की दुहाई देने वालो, जागो ! जागो, कि बहुत सो लिए ! जागो, कि यह देश कठिन समय में सोने वालों को माफ़ नहीं करेगा ! जागो, कि पानी सिर के ऊपर से गुजरने ही वाला है !

-मोहनश्रोत्रिय

हत्यारों का कोई मज़हब नहीं होता, कोई ईमान नहीं होता !


हर हिंदू हिंदुत्ववादी नहीं होता, इसलिए उसे वैसा नहीं माना जा सकता. कोई हिंदू कितना भी बड़ा अहंकारी क्यों न हो, उसे यह ह्क़ नहीं बनता कि वह देश के तमाम हिंदुओं की ओर से बोल सके. बडबोले कठमुल्ले (हिंदू हों या मुसलमान) एक तरह की संकीर्णता से ग्रस्त होने के कारण एक-दूसरे को प्रासंगिक बनाए रखते हैं. पर ध्यान देने की बात यह है कि दोनों ही तरफ़ ऐसे लोगों की संख्या कहीं अधिक है जो मनुष्य-विरोधी कट्टरता के खिलाफ़ हैं, पूरी तरह से.

हिंदू-उदारता की दुहाई देने वालों को इस पर गौर करना चाहिए. छह महीने तक चला लो अपनी बदज़ुबानी, दिखा लो अपनी बदगुमानी, पर उसके बाद? यह समाज तो फिर भी चलता रहेगा, पर तुम्हारा क्या होगा, कालिया?

यह देश खल शक्तियों को नायक नहीं बना सकता. कभी नहीं. यह लिखा हुआ है, दीवार पर ! जो नहीं पढ़ना चाहते हैं इसे, नुक़सान उनका ही है. हर हाल में होगा भी.


मैं किसी भी तरह के, किसी भी तरफ़ के हत्यारे के न सिर्फ़ साथ नहीं हूं, बल्कि उसका खुला विरोधी हूं, चाहे जन्मना हिंदू हूं बेशक !

हत्यारों का कोई मज़हब नहीं होता, कोई ईमान नहीं होता ! वे संग-दिल होते हैं, इसलिए माफ़ी मांगने तक की तमीज़ नहीं होती उनमें. वे मुंह खोलते हैं, तो सड़ांध फैलने लगती है. प्रकृति ने कुछ जीव ऐसे भी बनाए हैं जो सड़ांध तक से आकृष्ट होते हैं. पर वे इंसान नहीं होते !

-मोहन श्रोत्रिय

विडंबना !



एक खलनायक जो कल चला गया, वास्तविक जीवन में नायकों से भी बड़ा नायक था. एक राजनीतिक नायक के रूप में पेश किया जा रहा व्यक्ति कोई क़सर नहीं छोड़ रहा यह साबित करने में कि वह मूलतः खलनायक है.

जो फ़िल्मों में खलनायक था, उसे हर आमोखास भावभीनी श्रद्धांजलि दे रहा है. जो राजनीति में नायक के रूप में पेश किया जा रहा है, उसे अधिकांश लोगों की नफ़रत ही मिल रही है. वह भय का संचार करने में दक्ष माना जाता है.

-मोहन श्रोत्रिय

Thursday, 11 July 2013

ऐसे आसानी से नहीं छोड़ देंगी पार्टियां जातिवादी खेल खेलना...



हमारी प्रमुख पार्टियां राजनीतिक लाभ के लिए जातिवाद का खेल खेलना आसानी से बंद कर देंगी, यह उम्मीद करने का कोई ठोस सामाजिक आधार नज़र नहीं आता. जिस तरह से बसपा, भाजपा, सपा और कांग्रेस ने कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया है, तुरत-फ़ुरत, उससे ही संदेह पैदा होता है. जो कल तक विभिन्न जातियों के महा सम्मेलन आयोजित कर रहे थे, वे अचानक इस परिघटना को दुर्भाग्यपूर्ण मानने-घोषित करने लग जाएं, तो यह तो ज़ाहिर हो ही जाता है कि ये अपना तरीक़ा बदलने भर का मन बना रहे हैं. आयोजनों की अंतर्वस्तु के बदल जाने के संकेत ग्रहण करना जल्दबाज़ी होगी. राजनीतिक पार्टियों के चुनाव-अभियान-कौशल को कम करके आंकने की ग़लती भी.

कल प्रकाश जावडेकर ने तो ग़ज़ब ही कर दिया ! एक चर्चा में बार-बार कठघरे में खड़ा किए जाने की स्थिति में उन्होंने जनता के अधिसंख्य हिस्से के मतदान-मनोविज्ञान को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया. जैसे कि जातियां अपने मन से, अपने बूते पर इन सम्मेलनों का आयोजन करती हों. यानि जनता खुद चाहती है संगठित जाति के रूप में वोट डालना, और ये "बेचारी-निर्दोष-निस्स्वार्थ-निष्कपट-पार्टियां" तो जनता का मन रखने के लिए इन आयोजनों में शरीक होती हैं. यह तर्क वैसा ही है जैसा हमारे घटिया फ़िल्मकार देते हैं घटिया फ़िल्में बनाने के पक्ष में. कि वे वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं. जातिवाद की जड़ों को सींचने का काम राजनीतिक पार्टियों ने सर्वाधिक किया है, यह किसी से छुपा नहीं है. आगे आने वाला समय यह प्रमाणित कर देने वाला है कि सिर्फ़ कानूनी प्रावधानों/अंकुशों के चलते समाज नहीं बदल सकता.

बदल जाए तो बहुत खुशी होगी.




-मोहन श्रोत्रिय

Monday, 8 July 2013

दोनों की नियति थी एक ही

तीर को आता देख अपनी ओर
फुदकी चिड़िया और
जा छुपी झुरमुट में

चक्राकार घूमती मछली को
नहीं थी उपलब्ध
यह सुविधा. वरना संपन्न नहीं हो पाता
स्वयंवर द्रौपदी का. मछली कर पाती
अनुसरण चिड़िया का
तो तय मानें बच गई होती द्रौपदी
पांच पतियों द्वारा दिए गए
जख्मों की आजीवन-टीस से.

मछली की नियति बन गई
नियति पांचाली की.

-मोहन श्रोत्रिय

पवित्रता का दौरा : हरिशंकर परसाई


निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं. निंदा खून साफ़ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है. निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं. निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है. संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं. 'मो सम कौन कुटिल खल कामी'- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है. संत बड़ा काइयां होता है. हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है.स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी. अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है. मेरा अंदाज़ है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं. मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे- आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है?

मैंने ध्यान नहीं दिया. उन्होंने फिर कहा- वह शराब पीता है. निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है. वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए. अब मुझे दया आ गई. उनका चेहरा उतर गया था. मैंने कहा- पीने दो. वे चकित हुए. बोले- पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?

मैंने कहा- हां, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक. उसके पीने से अपना कोई नुक़सान भी नहीं है. उन्हें संतोष नहीं हुआ. वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे. तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले- आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पांव डालते हैं या बायां? स्त्री के साथ रोज़ संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?

अब वे 'ही...ही' पर उतर आए. कहने लगे- ये तो प्राइवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब. मैंने कहा- वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राइवेट बात है. मगर इससे आपको ज़रूर मतलब है. किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएंगे- वह बड़ा दुराचारी है. वह उड़द की दाल खाता है. तनाव आ गया. मैं पोलाइट हो गया- छोड़ो यार, इस बात को. वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं. सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है. कहते हैं- तुमने मुझे अमर बना दिया. यहां तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूं.(ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी.) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे.

चेतना का विस्तार. हां, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूं. एक संपन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं. पीने के बाद वे 'प्रोलेतारियत' हो जाते हैं. कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं. वे यों भी भले आदमी हैं. पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते. मानवीयता उन पर रम के 'किक' की तरह चढ़ती-उतरती है. इन्हें मानवीयता के 'फ़िट' आते हैं- मिरगी की तरह. सुना है मिरगी जूता सुंघाने से उतर जाती है. इसका उल्टा भी होता है. किसी-किसी को जूता सुंघाने से मानवीयता का 'फ़िट' भी आ जाता है. यह नुस्खा भी आज़माया हुआ है. एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था. एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे(आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं. वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रात: समय की वायु को 'सेवन करत सुजान' होते हैं). यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं. उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेज़ी बोलने लगे. कबीर ने कहा है- ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’. यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेज़ी बोले. नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था. हमने कहा- अब इन्हें मत भेजो. ये अंग्रेज़ी बोलने लगे. पर उनकी चेतना का विस्तार ज़रा ज़्यादा ही हो गया था. कहने कहने लगे- नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा. 'अंग्रेज़ी' भाषा का कमाल देखिए. थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज़ को खूबसूरत कह रहे हैं. जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए. यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है. रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है. ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है. कहा-इंडिया इज़ ए ब्यूटीफुल कंट्री. और छुरी-कांटे से इंडिया को खाने लगे. जब आधा खा चुके, तब देशी खाने वालों ने कहा, अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो. तुमने ‘इंडिया’ खा लिया. बाकी बचा 'भारत' हमें खाने दो. अंग्रेज ने कहा- अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं. हम तो जाते हैं. तुम खाते रहना. यह बातचीत 1947 में हुई थी. हम लोगों ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई. बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफ़र ऑफ़ पॉवर है- सत्ता का हस्तांतरण. मगर सच पूछो तो यह 'ट्रांसफ़र ऑफ़ डिश' हुआ- थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई. वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे. ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं.

फिर राजनीति आ गई. छोडि़ए. बात शराब की हो रही थी. इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी 'रिस्क' पर. नुक़सान की ज़िम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी. मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था. मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज़ और दुखी था. मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं. वह शराब से स्त्री पर आ गया- और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं.

मैंने कहा- हां, यह बड़ी खराब बात है.

उसका चेहरा अब खिल गया. बोला- है न?

मैंने कहा- हां खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है.

वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया. सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊंचे दर्जे के 'स्कैंडल' में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा. वह उठ गया. और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झांकने के लिए होती है. कितने लोग हैं जो 'चरित्रहीन' होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे 'चरित्रवान' होकर मर जाते हैं. आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झांककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है. किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए. ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं. हर आते-जाते ठेले को रोककर झांककर पूछते हैं- तेरे भीतर क्या छिपा है?

एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं- उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए. वह चरित्रहीन है. वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें 'चरित्रहीन' होने का चांस नहीं दे रही है. उसे डांटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे. जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है- ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी. वह धोखा नहीं करता, कालाबाज़ारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता. एक स्त्री से उसकी मित्रता है. इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया. बड़ा सरल हिसाब है अपने यहां आदमी के बारे में निर्णय लेने का. कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए. वे परेशान होंगे. बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है. तब उन्होंने कहा होगा- जयदा झंझट में मत पड़ो. मामला सरल कर लो. सारी नैतिकता को समेटकर टांगों के बीच में रख लो.

कभी नदी...कभी चट्टान...और कभी रेत !


यह अकारण नहीं था 
कि बहुत पसंद था उसे रूपक नदी का
रेत का
चट्टान का.


जब चाहे वह बहने लगती थी
नदी की मानिंद हर उसको सींचती-हर्षाती 
जो भी आ जाता था उसके संपर्क में.


ज़रूरत पड़ने पर वह नदी होते हुए भी
तब्दील कर सकती थी खुद को खुरदरी-नुकीली चट्टान में
बददिमाग़ लोगों के 
बदन को ज़ख्मी कर देने 
और इस तरह 
उनका मान-मर्दन कर देने में सक्षम.


ऐसे ही जब चाहे वह धर सकती थी रूप
रेत का चिलचिलाती धूप में जलती-पजराती रेत का 
दंडित करने के लिए 
नियम-भंग करने का दुस्साहस 
दिखाने वालों को.


मैं नदी का मुरीद था
और नदी होना मूल स्वाभाव था उसका.


-मोहन श्रोत्रिय

Tuesday, 2 July 2013

अमरीकी खुफिया तंत्र का क्षय हो


अमरीकी कारगुज़ारियों के पक्ष में भारत सरकार का इस तरह कूद पड़ना शर्मनाक है. यह अमरीकी दादागिरी और धौंसपट्टी को "वैधता" प्रदान करने से किसी तरह कम नहीं है. सरकार के जमीर को और देश के आत्मसम्मान को गिरवी रख देने जैसा कृत्य है यह. इसकी घनघोर निंदा होनी चाहिए.


अमरीका अपने हितों को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से दुनिया भर में कुछ भी करते फिरने का जो लाइसेंस दिखाता फिरता है, अपने हितों पर आंच आने की स्थिति में भी न केवल उसका विरोध न करना, बल्कि उसे जायज़ भी ठहराना इसके आलावा क्या दर्शा सकता है कि भारत सरकार "रीढ़-विहीन" है.

यह विशेष रूप से चिंताजनक इसलिए भी है कि अमरीका दुनियाभर में पिछली सदी के शीतकालीन तनाव के मुहावरों के प्रचलन को बढ़ावा देने की हर संभव कोशिश में लगा हुआ है, और विकासशील देशों के दक्षिणपंथी / वाम-विरोधी बौद्धिक तत्वों को अपनी गिरफ़्त में लेने के नए-नए तरीक़े भी काम में ले रहा है. इन तत्वों का यकायक आक्रामक और उग्र हो उठना इसलिए तनिक भी विस्मयकारी नहीं है.

-मोहन श्रोत्रिय

कात रे मन...कात : मायामृग की रचनाधर्मिता



मायामृग स्नेही मित्र हैं. अभी थोड़ी देर पहले उनकी तीन किताबों की सौगात मिली है. ज़ाहिर है, उनसे ही. “जमा हुआ हरापन” कविता संग्रह है. एक “चुप्पा शख्स की डायरी” नए किस्म का डायरी-प्रयोग है. और “कात रे मन... कात” बीज वाक्यों का संग्रह है, "अप्रकट" से संवाद की शैली में . डायरी उन्होंने फ़ेसबुक पर साझा की थी, धारावाहिक रूप से. बहुत पसंद भी की गई थी. मैंने भी की थी.

“कातरे मन...कात...कातेगा तो बुनेगा... बुनेगा तो ओढ़ेगा...सब ओढ़कर जीते हैं, तू भी ओढ़कर जी” बेहद दिलचस्प औरअर्थवान पंक्तियों का यह संग्रह एक सांस में पढ़ लेने वाली किताब है. इसकी खूबी है वह विशिष्ट अंदाज़े-बयां जो मायामृग ने शब्दों से खेलते-खेलते विकसित कर लिया है.या मुझे ही ऐसा लगता है? अब यह उनकी पहचान भी बन गया है. दो-चार नमूने देखिए :

हंसते हैं दांत वाले
रोएंगे आंख वाले.

हर बात पर हैरान होती है...
स्त्री है कि अचरज...

इक जंग है भीतर...जिसमें हार तय
है...इक जंग है बाहर...जिसमें जीत
की चाह नहीं...तुम कहो तो युद्धविराम
जारी रखाजाए...
कहते-कहते उघड़ सकता था
सच...तुम अगर तुरपाई ना
जानते... या तुम्हारे हाथ में
सुई-धागा न होता.
सुबह मंदिर के सामने से निकला तो
अज़ान सुनाई दी...अब मस्जिद के
सामने से निकल रहा हूं तो आरती
गूंज रही है...मार डालेंगे मुझे दोनों
तरफ़ वाले.

ऐसे ही लिखते रहें, मायामृग, अपने खिलंदड़ अंदाज़ में !

-मोहन श्रोत्रिय

"मैं लेखक छोटा हूं, पर संकट बड़ा हूं."


"हमारी हज़ारों साल की महान संस्कृति है और यह समन्वित संस्कृति, यानी यह संस्कृति द्रविड़, आर्य, ग्रीक, मुस्लिम आदि संस्कृतियों के समन्वय से बनी है. इसलिए स्वाभाविक है कि महान समन्वित संस्कृति वाले भारतीय व्यापारी इलायची में कचरे का समन्वय करेंगे, गेहूं में मिटटी का, शक्कर में सफ़ेद पत्थर का, मक्खन में स्याही सोख काग़ज़ का. जो विदेशी हमारे माल में "मिलावट" की शिकायत करते हैं, वे नहीं जानते कि यह "मिलावट" नहीं "समन्वय" है जो हमारी संस्कृति की आत्मा है. कोई विदेशी शुद्ध माल मांगकर भारतीय व्यापारी का अपमान न करे."

"अगर दो साइकिल सवार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़ें तो उनके लिए यह लाज़िमी हो जाता है के वे उठकर सबसे पहले लडें, और फिर धूल झाडें. यह पद्धति इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि गिरकर न लड़ने वाला साइकिल सवार "बुज़दिल" माना जाता है, "क्षमाशील संत" नहीं."

"जब विद्यार्थी कहता है कि उसे "पंद्रह दिए", उसका अर्थ होता है कि उसे"पंद्रह नंबर "मिले" नहीं हैं, परीक्षक द्वारा "दिए गए" हैं. मिलने के लिए तो उसे पूरे नंबर मिलने थे. पर "पंद्रह नंबर" जो उसके नाम पर चढ़े हैं, सो सब परीक्षक का अपराध है. उसने उत्तर तो ऐसे लिखे थे कि उसे शत-प्रतिशत नंबर मिलने थे, पर परीक्षक बेईमान हैं जो इतने कम नंबर देते हैं. इसीलिए, कम नंबर पाने वाला विद्यार्थी "मिले" की जगह "दिए" का प्रयोग करता है.''

"बेचारा आदमी वह होता है जो समझता है कि मेरे कारण कोई छिपकली भी कीड़ा नहीं पकड़ रही है. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है सब मेरे दुश्मन हैं, पर सही यह है कि कोई उस पर ध्यान ही नहीं देता. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है कि मैं वैचारिक क्रांति कर रहा हूं, और लोग उससे सिर्फ़ मनोरंजन करते हैं. वह आदमी सचमुच बड़ा दयनीय होता है जो अपने को केंद्र बना कर सोचता है."


-हरिशंकर परसाई

Monday, 1 July 2013

आत्मीयता में पगी कविताएं

छूटे गांव की चिरैया- यह शीर्षक है डॉ. मोहन कुमार नागर के कविता संग्रह का. अभी थोड़ी देर पहले ही मिला है.

एकदम सहज-सरल भाषा में लिखी आत्मीयता से भरी हुई कविताएं हैं इसमें. इनकी विषयवस्तु इन्हें अलग करती है, इन दिनों आ रही अन्य कविताओं से. इनकी टोन भी.
घर-परिवार (और उसकी खिड़की से झांकते समाज) के इर्द-गिर्द घूमती ये कविताएं रिश्तों के महीन धागे से बुनी हुई हैं. "नानी" सर्वाधिक कविताओं में आती है, और कहना होगा कि ढंग से आती है, अपनी पूरी गरिमा और ऊष्मा के साथ. नानी के बाद मां का स्थान बनता है. कवि का संघर्षमय बचपन और यौवन भी, नानी की बदौलत ही एक अत्यंत उज्ज्वल वर्तमान हो पाया है, ऐसा लगता है. इसलिए नानी कवि के लिए "बच्ची" भी बन जाती है.

जल्दी ही इनकी कुछ और कविताएं, अपनी एक टीप के साथ, यहां पर साझा करूंगा. अभी तो सिर्फ़ बानगी के तौर पर ये दो छोटी-सी कविताएं देखिए.

बच गई नानी
इस बार भी
नानी की झिकिर-झिकिर से तंग आकर
लौट गया कबाड़ी
फिर न आने की हज़ार क़समें खाता...

इस बार भी
खूदिया साड़ी से लेकर
ज़ंग लगी सुई तक-
बच गई नानी.


लोरी- 3
सम पर सम मिलते ही
लोरी युगलगीत हो गई

मां
सोती-सोती गाती रही
मुनिया
गाते-गाते सो गई.

कवि को बधाई. ज़ाहिर है, कविता संग्रह के लिए आभार भी.


-मोहन श्रोत्रिय

Sunday, 30 June 2013

गद्य-पद्य

-महावीरप्रसाद द्विवेदी 


कविता-प्रणाली के बिगड़ जाने पर यदि कोई नए तरह की स्वाभाविक कविता करने लगता है तो लोग उसकी निंदा करते हैं. कुछ नासमझ और नादान आदमी कहते हैं, यह बड़ी भद्दी कविता है. कुछ कहते हैं यह कविता ही नहीं. कुछ कहते हैं कि यह कविता तो ‘छंदोदिवाकर’ में दिए गए लक्षणों से च्युत है; अतएव यह निर्दोष नहीं..बात यह है कि जिसे अब तक कविता कहते आए हैं, वही उनकी समझ में कविता है और सब कोरी कांव-कांव ! 


इसी तरह की नुक़ताचीनी से तंग आकर अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ ने अपनी कविता को संबोधन करके उसकी सांत्वना की है. वह कहता है, “कविते !यह बेक़दरी का ज़माना है. लोगों के चित्त को तेरी तरफ़ खींचना तो दूर रहा, उलटी सब कहीं तेरी निंदा होती है. तेरी बदौलत सभा-समाजों और जलसों में मुझे लज्जित होना पड़ता है. पर जब मैं अकेला रहता हूं, तब तुझ पर मैं घमंड करता हूं. याद रख तेरी उत्पत्ति स्वाभाविक है. जो लोग अपने प्राकृतिक बल पर भरोसा रखते हैं, वे निर्धन होकर भी आनंद से रह सकते हैं. पर अप्राकृतिक बल पर किया गया गर्व कुछ दिन बाद ज़रूर चूर्ण हो जाता है.”

                                                     ***

आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज़ समझ रखा है. यह भ्रम है. कविता और पद्य में वही भेद है जो अंग्रेज़ी की पोएट्री (Poetry) और वर्स (Verse) में है. किसी प्रभावोत्पादक लेख, बात या वक्तृता का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुई सतरों का नाम पद्य है. जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता, वह कविता नहीं है. गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है. तुकबंदी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं. संस्कृत का प्रायः सारा पद्य समूह बिना तुकबंदी का है और संस्कृत से बढ़कर कविता शायद ही किसी और भाषा में हो. अरब में भी सैकड़ों अच्छे-अच्छे कवि हो गए हैं. वहां भी शुरू-शुरू में तुकबंदी का बिलकुल खयाल नहीं था.अंग्रेज़ी में भी बेतुकी कविता होती है. हां, एक ज़रूरी बात है कि वज़न और काफ़िये से कविता चित्ताकर्षक हो जाती है. पर कविता के लिए ये बातें ऐसी ही हैं जैसे शरीर के लिए वस्त्राभरण. यदि कविता का प्रधान धर्म, मनोरंजकता और प्रभावोत्पादकता उनमें न हो तो इनका होना निष्फल समझना चाहिए. पद्य के लिए काफ़िये वगैरह की ज़रूरत है, कविता के लिए नहीं. कविता के लिए तो ये बातें उलटी हानिकारक हैं. तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूंढने से कवियों के विचार-स्वातंत्र्य में बड़ी बाधा आती है. पद्य के नियम कवि के लिए एक तरह की बेड़ियां हैं. उनसे जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करे. पर काफ़िया और वज़न उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं. काफ़िये और वज़न को पहले ढूंढकर कवि को अपने मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है. इससे कवि अपने भाव स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट कर सकता. फल यह होता है कि कवि की कविता का असर कम हो जाता है. कभी-कभी तो वह बिलकुल ही जाता रहता है. अब आप ही कहिए कि जो वज़न और काफ़िया कविता के लक्षण का को अंश नहीं उन्हें ही प्रधानता ऐना भारी भूल है या नहीं?

('महावीरप्रसाद द्विवेदी रचना संचयन' से साभार. संपादन : भारत यायावर)



Wednesday, 26 June 2013

ऐसा दो बार हुआ है, मेरे साथ


मैं अपना लिखा कहीं भी नहीं भेजता, छपने के लिए. आप कह सकते हैं कि मुझे भरोसा ही नहीं होता होगा कि मेरा लिखा-भेजा कहीं छप भी सकता है. कोई मित्र मंगा या लिखवा लेते हैं, तो भेज देता हूं. उन मित्रों की कृपा ही कहूंगा कि वे बिना किसी कतर-ब्योंत के उसे छाप भी देते ही हैं. यह कहना इसलिए ज़रूरी लगा कि अपने आपको महावीर प्रसाद द्विवेदी समझने वाले एक-दो संपादकों के बारे में तो यही सुनने को मिलता रहता है कि वे (उनके पास छपने के लिए भेजे गए) दूसरों के लिखे हुए को पढ़ने से पहले ही काट-छांट करने के अपने इरादे को अधिकार के रूप में रेखांकित कर देते हैं. यह अलग बात है कि ऐसे संपादकों के अख़बारों ने मेरे ब्लॉग "सोची-समझी" से मुझे बताये बगैर मेरी ब्लॉग प्रविष्टियों को अविकल रूप से छापा है, कम-से-कम आधा दर्ज़न बार. ये दोनों अखबार मेरे पास आते नहीं. भला हो मित्रों का जो पढ़कर सूचना तो दे देते थे.
हां, यह “दो बार” की बात तो रही ही जा रही है. नॉएडा में रहते हैं एक फ़ेसबुक मित्र, राजेंद्र शर्मा. 2013 के पुस्तक मेले से पहले, उनका संदेश आया कि वह विश्वविख्यात चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसेन पर लिखी कविताओं का एक संकलन संपादित कर रहे हैं. मेरे पास कोई कविता हो, तो भेज दूं. मैंने एक कविता उन्हें भेज दी. उनका तुरंत मेल आया कि कविता उन्हें खूब पसंद आई है, और वह इसे संकलन में शामिल कर रहे हैं.
कुछ समय बाद, यानि मेला संपन्न हो जाने के बाद, मेरी कई मेल्स के उत्तर में, उन्होंने इतना भर बताया कि संकलन शीघ्र ही छप जाएगा. तब से अब तक क़रीब सोलह महीने बीत गए. अब वह मेल का भी जवाब देना मुनासिब नहीं समझते. मैंने इस कविता को फ़ेसबुक के ड्राफ़्ट-बॉक्स में सुरक्षित कर रखा था. पिछले साल मेरा अकाउंट हैक हो जाने के साथ ही वहां सुरक्षित सारी सामग्री लुप्त हो गई. आज सुबह, मुझे अचानक खयाल आया कि मैंने कविता उन्हें मेल की थी, तो इसे “सेंट मेल” में तो होना ही चाहिए. मेल बॉक्स खंगाला, तो कविता मुझे मिल गई. खुशी हुई कि अब बार-बार उनको संदेश भेजकर निराश होने, और होते चले जाने से बच गया!
दूसरा वाकया फ़ेसबुक मित्र "रहे" राकेश श्रीमाल से जुड़ा है. उन्हीं दिनों उनका भी एक मेल आया कि वह साहित्यिकों द्वारा साहित्येतर विषयों पर लिखे डायरी-अंशों का संकलन निकाल रहे हैं. पुस्तक मेला शुरू होने से पहले ही आ जाएगा. मैंने उन्हें अलग-अलग मुद्दों से जुड़ी डायरी-प्रविष्टियां भेज दीं. कहना होगा कि उन्हें भी मेरा लिखा पसंद आया, और प्रस्तावित संकलन के स्तर के अनुरूप लगा. मुझे आज तक पता नहीं कि वह संकलन अभी तक भी छपा है या नहीं. मेरे किसी भी संदेश का जवाब देना उन्हें भी मुनासिब नहीं लगा. संकलन छप गया हो, और फिर भी मुझे न बताया गया हो, तब तो और भी बुरा !
समझ नहीं आता कि एक लाइन का जवाब देने में इतना ज़ोर क्यों आता है मित्रों को !
-मोहन श्रोत्रिय

कुछ इधर की, कुछ उधर की


आपदा-दोहन


 साधु-वेश में कैसे-कैसे लोग घूम रहे हैं, यह केदारनाथ-आपदा ने और अधिक उजागर कर दिया है ! ठग, लुटेरे, और (कदाचित) हत्यारे भी !
कल्पना कीजिए, सवा करोड़ से अधिक की नक़दी और गहने मिले हैं, उनके पास. यह सब देवभूमि केदारनाथ के आसपास !
हिंदुत्व के ये नगाड़ची और कीर्तनिये कैसी धर्म-ध्वजा फहरा रहे हैं, यह देख-सुन-पढ़कर हम सभी भारतीयों के सिर शर्म से झुके जा रहे हैं, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए. इसे पढ़कर तो किसी तरफ़ से यह आवाज़ नहीं आएगी, ऐसी उम्मीद है, कि सभी भारतीयों की ओर से बोलने की अनाधिकार चेष्टा है यह ! कि किसने अधिकृत किया मुझे सभी के "सिरों" के बारे में ऐसा बयान देने के लिए ! अब देखिए, सिर तो सिर हैं, शर्मिंदगी की बात पर तो झुकेंगे ही !
यह कोई छोटी बात नहीं है कि कम-से-कम एक मुद्दे पर तो हम सब एक हैं, और समवेत स्वर में इन साधुओं की भर्त्सना करते हैं.
कल देहरादून-स्थित प्रखर युवा पत्रकार सुनीता भास्कर ने एक महिला यात्री के साथ हुई बातचीत के आधार पर जो पोस्ट डाली थी, वह भी रोंगटे खड़े कर देने वाली थी. जीवित बच निकले यात्रियों और सैलानियों के तमाम तरह के कुकर्मों का आंखों-देखा हाल था वह, उस महिला यात्री के हवाले से. सुनीता ने न केवल उस महिला का नाम दिया था, फ़ोन नंबर भी दिया था.

                                            ***
 

ज्योतिषीय सन्नाटा

देश में ज्योतिषियों की भरमार है. दो-चार की ख्याति तो, जैसा ज्योतिष-प्रेमी बतलाते हैं, दुनियाभर में फैली है. इतने सारे ज्योतिषियों में से एक ने भी भविष्यवाणी क्यों नहीं की इस तबाही की? जबकि यात्रा (आस्था-प्रेरित अतवा पर्यटन-प्रेम-प्रेरित) पर जाने वालों में से बहुत से तो ज्योतिषियों से सलाह भी करके गए ही होंगे.
फ़ेसबुक पर भी न जाने कितने ज्योतिषी सक्रिय हैं ! कोई तो बोलता !
                                               ***

क्रिकेट खिलाड़ियों को एक-एक करोड़ रुपया, पुरस्कार-स्वरूप


यह सब इसी देश में संभव है. दुनिया भर में कहीं भी क्रिकेट खिलाड़ियों पर ऐसी धन-वर्षा नहीं होती. सेना के जो जवान अपनी जान जोखिम में डाल कर निस्स्वार्थ सेवा कर रहे हैं, उन्हें ढंग से यश भी नहीं मिल रहा, धन की तो बात ही बहुत दूर की है. एक 'फ़िक्सर' (मनोज प्रभाकर) एक्सपर्ट राय दे रहा है, एक चैनल पर, और एक दूसरा 'फ़िक्सर' (श्रीशांत) बयान दे रहा है, "मैं अवश्य वापसी करूंगा" ! यह भी इसी देश में संभव है !
आज मीडिया "सबसे बड़े सेनापति" के रूप में धोनी को दिखा रहा है.
असल सैनिक उत्तराखंड में फंसे हुए लोगों की जान बचाने की जुगत में भिड़े हैं, सात-आठ दिन से ! लगातार ! उनका जज़्बा है जो बड़े सलाम का असल हक़दार है !
                                             
***

यह नरेंद्र मोदी को "फ़ैंटम" के रूप में पेश करने की क़वायद है... 

 
"नरेंद्र मोदी आया, और पंद्रह हज़ार गुजरातियों को बचाकर ले गया."
यह नरेंद्र मोदी को "फ़ैंटम" के रूप में पेश करने की क़वायद है. अब कॉमिक्स तैयार होंगे! नई किस्म के स्टिकर्स बनेंगे ! नई किस्म के मास्क बनेंगे !
ग़ज़ब करता है अपना मीडिया भी ! यह पूछने-सत्यापित करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई ( जैसे नवभारत टाइम्स को भी नहीं हुई) कि आखिर कैसे? कहां से? क्या सब गुजराती एक स्थान पर आ मिले थे, केदारनाथ के चमत्कार-स्वरूप? यह भी कि वह मरने से बचायेगा भी गुजरातियों को ही? क्योंकि यहां आने वाले तो सभी हिंदू ही होंगे ! हमारी जां-बाज़ सेना के इतने दिन के अथक प्रयत्नों से जो उपलब्धि हुई, उससे ज़्यादा वह एक दिन में ही कर गया? इनोवा गाड़ियों से? कितने हेलिकॉप्टर थे? हो तो कितने ही सकते थे क्योंकि टाटाओं, अंबानियों, और न जाने किन-किन को तो एक इशारा ही काफ़ी था ! कोई यह भी नहीं पूछ रहा कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार को "केदारनाथ-मंदिर को संवारना" ही सबसे "पहली और बड़ी प्राथमिकता" लगी? और क्या यह शुभ लक्षण है?
तो अब उम्मीद अयोध्या पर नहीं, केदारनाथ पर आकर टिक गई है? आपदाओं का दोहन, और धार्मिक उन्माद पैदा करने से लोकतंत्र क़तई मज़बूत नहीं होता, फ़ासिज़्म आता है !
मीडिया ज़र-खरीद गुलाम की तरह आचरण कर रहा है.
                                              
***

नेक इरादे, मासूम सवाल
 

नेक इरादों वाले मित्र भी कितने मासूम होते हैं ! अब देखिए न, कई मित्र यह सवाल पूछ रहे हैं कि ( इस देश के कॉरपोरेट्स तो नंबर एक के स्वार्थी है, उनकी तो बात ही न करें !) देश के पांच सात बड़े मंदिरों के पास लाखों करोड़ रुपये जमा हैं, जो इन्हें बतौर चढावा मिले हैं, उसमें से ये केदारनाथ आपदा-ग्रस्त लोगों के लिए कुछ भी निकालकर क्यों नहीं दे रहे? मेरा कहना है कि यह उम्मीद सिरे ही से ग़लत है क्योंकि ये सिर्फ़ "लेते" हैं. "देना" इनके शब्दकोश में है ही नहीं. चढावे किसी भगवान के निमित्त हों, "कब्ज़ा" सच्चा होता है. "चढावा किसका? कब्ज़ा जिसका !"
                                              
***

पानी खोज लेता है नए रास्ते, मुख्यधारा में जा मिलने के लिए !


एक मित्र ने लिखा "पानी अपना रास्ता नहीं बदलता." सही ही लगता है. पर आंशिक संशोधन के साथ मेरा कहना है कि पानी का रास्ता रोकोगे, तो पानी अपने पुराने रास्ते पर चल पड़ने के लिए खोज लेगा नए-नए रास्ते. और इस प्रक्रिया में गर्वोन्मत्त खड़े विशाल भवन नींव से कटकर खड़े-खड़े बह जाएंगे पानी की तेज़ धार में.
आप अपने उद्देश्य की पूर्ति में विफल होंगे, और पानी पूरी तरह सफल. एक सीमा तक ही बर्दाश्त करती है प्रकृति, अपने साथ छेड़छाड़, और फिर जब बिफरती है तो तबाही मचा देती है. इस तबाही का दोष प्रकृति के मत्थे मंढने की कोशिशें अपने पापों और अपराधों पर पर्दा डालने का ही दूसरा रूप है.
                                                 
***                                                

इतिहास ऐसे भी बदला लेता है

किसी को "भारतीयकरण" का नारा देने वाले बलराज मधोक की याद है?
इतिहास कितना निर्मम हो जाता है, कितनी ही बार !
जो अपना नगाड़ा ढम-ढम करके पूरे देश में उत्तेजनापूर्ण बहस चला दे, उसके "होने-न होने" का किसी को ध्यान भी न रहे, इसे इतिहास के सबक़ के रूप में भी देखा जाना चाहिए.
पर हां, यह तो चालीस से तीन-चार अधिक साल पहले की बात है.
                                                  
***

''फ़ासिस्ट संगठन की विशेषता होती है कि दिमाग़ सिर्फ़ नेता के पास होता है , बाक़ी सब कार्यकर्ताओं के पास सिर्फ़ शरीर होता है.''  (हरिशंकर परसाई)

अब देखिए न, नेता के आदेश से "धर्म-जय" का उद्घोष हो गया कि दैवीय चमत्कार के रूप में मंदिर बच गया ! वास्तव में बच भी गया क्या? "नंदी" का चबूतरा भी मंदिर का ही हिस्सा था न? और जो दूसरा मंदिर बहता चला गया? और ऋषिकेश में गंगा की धार पर खड़ी शिव की वह विराट मूर्ति जो अब कहीं नहीं दिखती? हजारों घरों के ध्वस्त हो जाने को क्या कहेंगे? लाखों लोगों के बेघर हो जाने को क्या कहेंगे? पचहत्तर हज़ार से ज़्यादा फंसे हुए यात्रियों को? जिन्हें लापता बताया जा रहा है, उनकी गिनती "मरे हुओं" में न हो, यह सूचना तंत्र की सीमा है. अंततः लापता मृतकों में नहीं गिने जाएंगे क्या? मनुष्य-जीवन और उसकी संपदा के पक्ष में चमत्कार क्यों नहीं हुआ. ऐसा चमत्कार क्यों नहीं हुआ कि सभी दर्शनार्थी और सैलानी बचे रह जाते? और यह भी कि सरकार को यह नहीं कहना पड़ता कि "धाम" के कपाट दो साल तो क्या, एक दिन के लिए भी बंद नहीं होंगे? क्या "चमत्कार-कर्ता" को यह पता था कि यह सब सिर्फ़ बादल के फटने से नहीं हुआ बल्कि भू-खनन-माफ़िया और राजनीतिक नेताओं की मिलीभगत से हुए अंधाधुंध निर्माण-कार्य और वृक्षों की ह्रदय-हीन कटाई के परिणामस्वरूप हुआ है? पर मंदिर की मान्यता के लिए भी तो ये होटल-धर्मशालाएं और गैस्ट हाउस ज़रूरी थे न? और ये सब प्रकृति के नियमों को अंगूठा दिखाते हुए नदी-किनारे ही बने थे. विज्ञापन में अच्छा लगता है न - एकदम नदी किनारे ! चमत्कार करने वाले को भी क्या नैसर्गिक सौंदर्य पसंद नहीं रह गया था?
इस प्रलय-जैसी तबाही में (मनुष्य को ग़ायब करके) किसी "दैवीय चमत्कार" के रूप में महिमा-मंडित करने वाले तत्व कैसा समाज बनाना चाहते हैं, यह एकदम साफ़ है. जो मंदिरों को मनुष्य की श्रेष्ठतम धरोहर के रूप में पेश करने का धंधा करते हैं, वे किस दर्ज़े के मनुष्य-विरोधी हैं, यह और खुलासा करने का मतलब है पाठकों की बुद्धि और सोचने-समझने के सामर्थ्य को प्रश्नांकित करना. यह अपराध मैं नहीं करूंगा. 

-मोहन श्रोत्रिय 

देखो यह आभार-प्रदर्शन !


उन्नीस सौ साठ के दशक के मध्य में एक गीत सुना था, कवि सम्मेलन में. यदि सही याद है, तो गीतकार मोहन अंबर का था. लगभग पूरा याद भी था. अब कुछ टुकड़े ही याद रह गए हैं. कल से गीत के दो अंतरों की आखिरी पंक्तियां बेसाख्ता याद आ रही हैं. मैंने पहले भी कभी कहा था कि कौन चीज़ कब और क्यों याद आजाए, इसकी तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती. मानव-मन के खेल निराले होते हैं !
बहरहाल, गीत की वे चार पंक्तियां यों हैं :


देखो शूल बिछाने वालो, यह मेरा आभार-प्रदर्शन
जितनी डगर न मैं चल पाऊं, उतनी डगर तुम्हें मिल जाए.
...

...
...
देखो धूल उड़ाने वालो, मैं बदला ऐसे लेता हूं
धुंध-अंजे मेरे नयनों की सारी नज़र तुम्हें मिल जाए.

उस समय के ढेर सारे गीत याद हैं, टुकड़ा-टुकड़ा, जिनमें जीवन के अनुभव बोलते थे, और सहृदय श्रोता के मन को छू लेते थे, अपनी सहज रूप से संप्रेषित अर्थवत्ता के कारण.

-मोहन श्रोत्रिय 

''ज़िंदगी वेद थी, पर जिल्द बंधाने में कटी''


नीरज के एक मुक्तक की यह पंक्ति यों ही याद नहीं आ गई. हुआ यह कि अभी थोड़ी देर पहले बाज़ार गया. मिक्सर का जार ठीक करने के लिए छोड़ आया था परसों, उसे लेने गया था. उसे लेकर, और पैसे देकर जैसे ही पलटा तो एक बेहद पहचाने हुए से शख्स को अपनी ओर देखते पाया. चेहरा पहचाना हुआ हो, और नाम याद न आए तो बड़ी कोफ़्त होती है. अपनी बढती उम्र का अहसास कचोटने भी लगता है. परेशानी से बचने के लिए मैंने तुरत यह स्वीकार कर लिया कि मुझे उनका नाम याद नहीं आ रहा है. वह हंसे, और बोले : "ग़नीमत है, आपको मेरा चेहरा याद है, जबकि यह बहुत बदल गया है. कम ही लोग पहचानते हैं. नाम तो बदला भी नहीं है, पर अक्सर लोग चेहरे और नाम को जोड़ नहीं पाते हैं." इतना सुनना था कि मुझे उनका नाम भी याद आ गया. चेहरे पर न जाने कितने युद्धों की इबारत लिखी हुई थी, पर बोलने का उनका अंदाज़ अभी भी वही था, जो क़रीब तीस साल पहले कई दिन तक साथ रहने के कारण स्मृति में रच-बस गया था. या कहिए स्मृति में पंजे गड़ा कर बैठ गया था.
मैंने उनसे पूछा कि वह अभी भी गीत लिखते हैं क्या ! उत्तर में संक्षेप में उन्होंने अपनी राम-कहानी सुनाई कि कैसे उनके मकान पर दबंग और रसूख वाले किरायेदार ने कब्ज़ा कर लिया था, और उन्हें दर-बदर कर दिया था ! कैसे एक खास दोस्त और वर्षों के सहकर्मी ने "अपना किया" उनके सिर पर "मंढ कर" उन्हें नौकरी से निकलवा दिया था ! जितनी यंत्रणा उन्होंने झेली उसकी वजह से लिखना-पढ़ना तो बंद होना ही था. हल्की-सी हंसी की झलक दिखाकर वह बोले, " मेरी ज़िंदगी तो महाभारत में बदल गई, किन-किन कौरवों से जूझूं, अकेला ही." अपना कोई स्थाई ठीया- ठिकाना न होने, और ज़्यादा देर तक साथ न रह सकने की मजबूरी की बात कहकर वह यह वादा तो कर गए कि एक बार मिलने तो आएंगे ही. लगता है, वह वादा निभाएंगे. निभाते हैं, तो उनकी कहानी के बाक़ी हिस्से, बाद में!

कहने की ज़रूरत नहीं है, कि उनसे मिलना सुखद और प्रीतिकर लगा, पर उनकी अधूरी कहानी ने ही बेहद कष्ट पहुंचाया. एक भला आदमी कितना निरीह बन जा सकता है, कितना लाचार और निस्सहाय ! प्रतिभा और सृजन-क्षमता तो ऐसे में चली जाती है, तेल लेने ! एक बहुमूल्य जीवन की सारी रचनात्मकता जैस जिल्दसाज़ के यहां पड़ी हुई हो, और उनके पास जिल्दसाज़ी की क़ीमत अदा करने जितनी भी क्षमता न बची हो.

क्या-क्या बन जाना चाहते हैं बच्चे !


छोटे-छोटे बच्चे थे सब जो
खेल रहे थे पार्क में
उनके साथ थी एक युवती
गुरु-गंभीर
चश्मे में से अलग तरह से झांकती थीं
उसकी आंखें सम्मोहित-सी करती बच्चों को.
खेल-खेल में वह पूछ रही थी उनसे
क्या बनकर बहुत खुश होंगे वे !

बच्चों ने प्रश्न को अपनी तरह से समझा
और एक-एक करके बताने लगे अपनी इच्छा
टोका नहीं युवती ने
यह भी पता चलने नहीं दिया कि उसे
अलग तरह के उत्तरों की थी अपेक्षा
वह खुश थी कि बच्चे बोल रहे हैं
कि बच्चे सपने देखते हैं
कि बच्चे बेझिझक अपने सपनों को बांट रहे हैं औरों के साथ.

बच्चे भी ग़जब थे
कुछ-कुछ अजब भी थे
एक बन जाना चाहता था पंखा अपनी मां के लिए
कि वह हाथ से हवा झल सके भीषण गर्मी मे
जब बिजली चली गई हो
दूसरे का मन था ठंडे पानी का सरोवर बन जाने का
कि उसके सपनों की सफ़ेद बतखें तैरती रह सकें निर्बाध
तीसरा तितली बन जाना चाहता था कि रह सके निरंतर
फूलों के संग-साथ
चौथी, जो प्यारी-सी छुटकी थी बन जाना चाहती थी तारा
स्थित हो जाना चाहती थी एकदम उस तारे के पास
जिसके बारे में बताया गया था उसे कि वह तारा तो
उसकी मां का ही रूप है, बदला हुआ
और इसीलिए जब भी वह देखती थी उस तारे को तो उसमें
नज़र आती थी उसे उसकी मां
बिलकुल वैसी ही जैसी थी वह जब तक वह यहां थी
(छुटकी का नहीं हुआ था परिचय "मरना" नामक क्रिया से).

आगे भी चलता निश्चय ही यह सिलसिला
रोचक-मनमोहक-ज्ञानवर्धक
पर इतने में ही बज उठा अलार्म
गुस्से में उठा मैं इस दुर्लभ सपने के टूट जाने से
पर निकलना तो था ही मुझे प्रातःकालीन सैर पर.

टहलते-टहलते गुस्से की जगह ले ली
विरल अनुभव से गुज़रने के तोष ने.  

-मोहन श्रोत्रिय

नया भाषा-संस्कार


भाषा-चेतस शरीफ़ लोग जिनसे सहमत नहीं होते, या जिन्हें अपने विरोधियों के रूप मे देखते हैं, उन्हें शोहदे का ख़िताब देकर सम्मानित करते हैं. अगले ही दिन उन्हें फ़ेसबुक के पंडे कहकर सम्मानित करते हैं. तीस दिन में तीस नए शब्द ख़िताब  का दर्ज़ा पा लेंगे, यह तय दिखता है क्योंकि हर दिन कुछ-न-कुछ ऐसा होता ही रहेगा कि पुराना ख़िताब नाकाफ़ी लगने लगेगा.
हर शब्द, उसे बरतने वाले व्यक्ति के मनोभावों-मनोदशाओं को प्रतिबिंबित करता है, ऐसा सुनते आए हैं, बचपन से. बचपन चाहे साठ बरस पीछे छूट गया हो, पर तब की बातें अभी तक चेतना में गुंथी हुई हैं. आप इन्हें संस्कार कह सकते हैं, यदि इसमें रूढिवादिता और पुराणपंथीपन की गंध न आए तो !
उस समय के शिक्षक हर बताई गई बात की गांठ बांध लेने का निर्देश दिया करते थे. अब वे गांठें खुल ही नहीं पाती तो क्या करूं? आप मुझे अतीत-जीवी कहने-मानने को स्वतंत्र तो हैं ही, मेरे बिना कहे भी.
निस्संग भाव से सोचकर देखें कि यह रुके, तो अच्छा नहीं रहेगा/लगेगा क्या? मन में पीड़ा-भाव न होता तो यह लिखने को विवश न होता.

यह भी कोई बात हुई !


वह आया और बिना रुके बोलता रहा / चलिए, अभी इसी दम / बस चल पडिए / उठेंगे और चलेंगे नहीं / तो फिर पहुंचेंगे कैसे / कहीं भी.

मैंने पूछा/ कहां?/ उसने फिर कहा / कहीं भी.


कहीं भी में / कोई दिलचस्पी नहीं है अपनी / इतना कहकर मैंने उसका हाथ झटक दिया.


कही भी पहुंचने को तैयार/ होने के लिए/ ज़रूरी है भरपूर मात्रा में/ अवसरवादिता/ मौक़े का फ़ायदा उठाने का कौशल.


अपन को / नहीं पहुंचना कहीं भी / कोशिश करते रहेंगे/ पहुंचने की / जहां पहुंचना चाहिए/ सफल होना / न होना / नहीं है सिर दर्द अपना / तनिक भी.


चल पड़ने की आवाज़ भीतर से आती है / दिशा-संकेत भी मिलते हैं / वहीं से.

-मोहन श्रोत्रिय 

यादों का क्या !


कौन याद कब उभर आए, कहा नहीं जा सकता. आज मैं अपने मित्र-बड़े भाई की किताब के आखि़री प्रूफ़ देख रहा था. करौली से हमारा साथ शुरू हुआ था, सैंतालीस साल पहले. सो अचानक प्राध्यापक के रूप में कॉलेज का अपना पहला दिन याद आ गया. साथ ही और भी बहुत कुछ ऐसा याद आ गया जो करौली जैसे छोटे क़स्बे को खास बना देता है.
इक्कीस बरस की उमर. एमए का परिणाम आने के डेढ़ महीने के भीतर ही मुझे नियुक्ति का तार मिल गया (डाक से पुष्टि बाद में आया करती थी). विश्वविद्यालय से निकला ही था, तो वेश-भूषा भी विद्यार्थियों जैसी ही : आधी बांह की कमीज़, ड्रेन पाइप पैंट, नोकदार चमचमाते काले जूते. प्राचार्य के दफ़्तर की ओर जा रहा था, कि पीछे से एक विद्यार्थी की आवाज़ कानों में पड़ी, "यह भी कोई एडमिशन लेने आ गया दिखता है!" पलटकर देखा तो बोलने वाला एक लंबा-सा स्मार्ट लड़का था. दफ़्तर में औपचारिकताएं पूरी होते ही, प्राचार्य (जो स्वयं भी अंगरेज़ी साहित्य के ही थे) ने पूछा "आज क्लास लेंगे?" मैंने कहा, "क्यों नहीं?" उन्होंने बताया कि आधा घंटा बाद हॉल में विज्ञान के प्रथम वर्ष की अनिवार्य अंगरेज़ी की क्लास होगी. वह मुझे पुस्तकालय ले जा रहे थे, तभी लड़कों का वही झुंड दिख गया, और वह लड़का भी. शायद वह समझ गया कि मैं एडमिशन लेने तो नहीं आया था. पुस्तकालय में, मैंने नोट किया, कि प्राचार्य मेरी रुचियों का अंदाज़ लगाने की कोशिश कर रहे हैं. जिस शेल्फ़ के सामने मैं रुकता वह भी रुक जाते. थोड़ी देर बाद ही घंटी बज गई, और वह मुझे हॉल के दरवाज़े पर आगे बढ़ लिए (बाद में पता चला कि वह आस-पास ही मंडरा रहे थे, आश्वस्त हो जाने के लिए कि मुझे कोई परेशानी का सामना तो नहीं करना पड़ रहा है. ग़नीमत थी कि नहीं पड़ा. और वह बाद में चाय पीते-पीते अपनी खुशी व्यक्त कर भी गए कि मेरा पहला दिन उनकी उम्मीद से कहीं ज़्यादा शानदार रहा.
हॉल में घुसा, और सभी छात्र खड़े हो गए. वह लड़का भी जिसे मैं यहां "पढ़ने आया अपने जैसा लड़का" लगा था. मेरी नज़र उसी पर थी. मैं मुस्कराया, और उसने नज़रें नीचे कर लीं. कहा कि सबके नाम कल लिखेंगे, और एक-एक से परिचय भी कल ही करेंगे. आज तो अपना परिचय दे देते हैं. और चूंकि शिक्षक का परिचय पढ़ाने से मिलता है, तो पढ़ाकर देना ही ठीक रहेगा. किताब मिली नहीं थी. व्याकरण से ही एक टॉपिक चुना, और शुरू हो गए. इतनी देर में यह समझ में तो आ गया था कि बोर्ड पर लिखने के लिए जब विद्यार्थियों की तरफ़ पीठ करूंगा तो कोई शोर तो शुरू नहीं ही होगा. एक वाक्य लिखता और तुरत उसका खुलासा करने के लिए मुड़ जाता. उस स्मार्ट लड़के की ओर ज़रूर देख लेता.
पहले बीस मिनट निर्विघ्न निकल जाएं तो फिर क्या डर? तो सच में कोई डर नहीं था.
वह स्मार्ट लड़का हिंडौन में नामी-गिरामी वकीलों में गिना जाता है. जब भी यहां मुझसे मिलने आता है तो पहले दिन के अपने जुमले का ज़िक्र किए बिना नहीं रहता. साथ ही यह भी जोड़ना नहीं भूलता "मेरी समझ में यह क्यों नहीं आया कि आप पढ़ने नहीं, पढ़ाने आए थे?"

-मोहन श्रोत्रिय 

संस्‍मरण

1970 में, करौली में एक नौजवान ग़ज़ल गायक फ़ारूक़ ने एक बेहद शानदार ग़ज़ल सुनाई थी. फ़ारूक़ उस कच्ची उमर में ही बहुत लोकप्रिय हो गए थे, और देश भर में उनकी मांग रहती थी, ग़ज़ल- संध्याओं में. बाद में अंगरेज़ी विभाग के ही मेरे एक सहकर्मी भी इसे उसी बलंदी के साथ सुनाते थे. वह अब नहीं रहे. आज अचानक उनकी याद आ गई, बेवजह-सी. इस ग़ज़ल के सिर्फ़ दो अशआर याद रह गए हैं.
न इतना तेज़ चले सिरफिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है.
ये किस मुक़ाम पे ले आया है जुनूं मुझको
जहां से अर्श भी नीचा दिखाई देता है.
 

ठोस ज़मीन पर खड़ा शायर ही यह बात कह सकता है.
आज के हालात के हिसाब से भी ये अशआर एकदम मौजूं लगते हैं. आइपीएल या फ़ेसबुक के संदर्भ में इनकी प्रासंगिकता तलाशने की ज़हमत न उठाएं.
 

-मोहन श्रोत्रिय

बुद्ध ने कहा, आनंद से

बुद्ध से आनंद ने पूछा था कि आप इस निरंतर गाली दे रहे व्यक्ति की बातों पर मुस्करा क्यों रहे हैं, और जवाब क्यों नहीं दे रहे हैं? इस पर भी बुद्ध ने फिर मुस्कराकर कहा, जिसके पास जो होगा वही तो देगा. अब यह तुम पर है कि उसे स्वीकार करो/न करो. कोई तुम्हें धन देना चाहता है, और तुम लेने से इन्कार कर दो, तो वह धन कहां रहेगा? देने की कोशिश करने वाले के पास ही न? तो इसी तरह मैं इसकी गालियों को नहीं ले रहा हूं, तो ये भी इसी के पास लौटकर चली जाएंगी न? मैं इसीलिए मुस्करा रहा हूं, और मेरी मुस्कान के साथ इसका क्रोध बढता जा रहा है. खीझ भी. क्रोध और खीझ आत्मघाती होते हैं क्योंकि ये इसके तनाव और अवसाद को बढाएंगे.
तो मित्रो, पिछले पांच-सात दिनों में मुझे जो गालीनुमा ख़िताब ("शोहदों" और "पंडों" का "गॉड फ़ादर", "फ़ेसबुक-बाबा", "बाबा फेलूनाथ") एक विद्वान सदाशयी संपादक और पिछले दिनों बहु-सम्मानित साहित्यकार ने दिए हैं, उन्हें मैं आनंद की मार्फ़त मिली सीख के अनुरूप, मुस्कराकर लौटा रहा हूं. कहने की ज़रूरत है क्या कि अब ये ख़िताब किसके खज़ाने की शोभा बढ़ाएंगे !
वैसे भी जो मुझे जानते हैं (उनकी संख्या कितनी ही कम क्यों न हो?), उनकी मेरे बारे में राय इन खिताबों से बदलेगी नहीं, और जो नहीं जानते या नहीं जानना चाहते हैं उनकी राय की फ़िक्र में मुझे दुबला क्यों होना चाहिए? एक सज्जन तो मेरी अंत्येष्टि की कामना करते हुए भी देखे गए. हमारे ब्रज में एक कहावत प्रचलित है कि "कव्वों के कोसने से ढोर मरने लगते तो एक भी ढोर नहीं बचता!" अब वह (अंत्येष्टि की कामना करने वाले भद्र समीक्षक) इस कहावत को अभिधा में लेकर मुझे "ढोर" कहने लगें तो यह उनकी समझ! पर इसमें एक जोखिम भी निहित है, क्योंकि वैसा करने का मतलब होगा कि वह अपने आपको "कव्वों" से जोड़ रहे हैं.


-मोहन श्रोत्रिय 

और दो संस्‍मरण

चमत्कार

1970 के साल की बात है. बेटी (दीप्ति, जिसे हम घर पर रिज्जी कहते हैं) के जन्म के बाद की पहली दिवाली की. जिस दिवाली को हम ठाठ से मनाना चाहते थे, पर मना नहीं पाए. दिवाली की पूर्व-संध्या यकायक चिंता और व्यग्रता का सबब बन गई. हम (मैं, और भाईसाब यानि भारद्वाज जी, जिनकी जल्दी ही छपने वाली किताब का ज़िक्र किया था मैंने, अभी तीन दिन पहले) घर लौटे, तो देखा कि रिज्जी बेहाल है. खांसी ऐसी कि रुक कर ही न दे, सांस लेने में मुश्किल, और चेहरा इतना लाल कि जैसे खून ही टपकने वाला हो. न तो ऐसी खांसी देखी थी पहले, और न उसकी वजह से सांस लेने में ऐसी परेशानी ! भाईसाब ने उसे गोद में लिया, और बोले : “चलो, अस्पताल चलो.” अस्पताल घर से ज़्यादा दूर नहीं था. जैसे ही अस्पताल के दरवाज़े पर पहुंचे, तो देखा कि सामने खड़ी एक ठसाठस भरी बस में डॉ. शत्रुघ्न अग्रवाल चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने उन्हें ज़ोर से, लगभग चीखते हुए आवाज़ दी, और वह बस से उतर गए. वह क़स्बे के इस ज़िला अस्पताल में सबसे कुशल चिकित्सक थे. उन्हें समस्या बताई तो वह रिज्जी का चेहरा देखते ही, कुछ घबराए से लगे. हमें लगभग खींचते हुए अस्पताल में ले गए. एक बड़ी टॉर्च मंगवाई, और रिज्जी के गले के भीतर तक का नज़ारा देखा. तुरत स्टोर-कीपर को बुलाया (जो संयोग से अभी तक वहां था) और उसे एंटी-डिफ्थीरिया-सीरम लाने को कहा. जब तक इंजेक्शन आए और लगे, उन्होंने कहा कि पांच मिनट की भी देर हो जाती तो बात बिगड़ जाती, आने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, और यदि हम आ भी गए होते तो भी कोई मदद नहीं मिल पाती, क्योंकि दिवाली की छुट्टियों में सिर्फ़ डॉ. गौड़ (हड्डी के डॉक्टर) ही यहां उपलब्ध होते, जो हाथ खड़े कर देते. इंजेक्शन लगाने के बाद उन्होंने रिज्जी को क्वेरंटाइन वार्ड में भर्ती कर लिया. यह कोई व्यवस्थित वार्ड नहीं था. एक अलग-थलग बरामदे में एक पलंग डाला हुआ था. उजाले और हवा से महरूम. स्टोर-कीपर ने आकर बताया कि उसके पास दो इंजेक्शन और रखे हैं, आपातकालीन उपयोग के लिए. अगले दिन तक हमें इनकी एवज़ में तीन इंजेक्शन जमा कराने होंगे. आज लोगों को यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि क़स्बे के सबसे बड़े कैमिस्ट के पास भी ये इसलिए उपलब्ध नहीं होते थे कि उसके पास फ़्रिज नहीं था. हमने ‘हां’ कह दिया, क्योंकि हमें भरोसा था कि भरतपुर में मेरा बचपन का मित्र रमेश सूचना मिलते ही वह इंजेक्शन लेकर (बर्फ़-भरे डिब्बे में रखकर) अगली रात, यानि दिवाली की रात तक आ जाएगा. ऐसा ही हुआ भी, और उसकी दिवाली भी हमारी तरह अस्पताल में ही बीती (मनी तो क्या कहूं?). डॉ. अग्रवाल ने छुट्टियों में प्रभारी रहने वाले डॉ. गौड़ को बुलाकर सारा केस समझा दिया. ये डॉ. गौड़ भी हमारे अच्छे मित्र थे, और अक्सर सायंकालीन भ्रमण में साथ रहा करते थे. इसके बाद डॉ. अग्रवाल किसी ट्रक में बैठकर गंगापुर के लिए रवाना हुए, हमें पूरी तरह आश्वस्त करते हुए कि वह रात ठीक से गुज़र जाने का मतलब होगा कि बेटी ने घाटी पार कर ली है. रात का गुज़रना बाक़ी था, पूरी आश्वस्ति केलिए. रात गुज़र गई, पर हमारा मन अभी भी पूरी तरह चिंता-मुक्त नहीं था.
अगले दिन दो और इंजेक्शन लग गए, और मेरा मित्र चूंकि इंजेक्शन ले आया था, तीन अतिरिक्त भी ताकि हमारे काम न आएं तो अस्पताल में औरों के काम आएं. इन अतिरिक्त इंजेक्शनों की ज़रूरत नहीं पड़ी, या शायद एक की पड़ी हो तो पड़ी हो. तीसरे दिन सुबह जब डॉक्टर ने रिज्जी के गले में झांका, तो उनका चेहरा खिल गया. उन्होंने बताया कि जीभ से लेकर गले के भीतर तक पसरी-फैली वह सफ़ेद झिल्ली पूरी तरह गायब हो चुकी थी, जिसे देखकर ही डॉ. अग्रवाल के चेहरे पर बनी चिंता की लकीरें हमने देखी थीं,
तबसे लेकर अब तक न जाने कितनी बार यह खयाल मन में आया है, आता रहा है, कि बच जाने और न बच पाने के बीच कोई बेहद महीन धागा ही होता है, लगभग अदृश्य सा. दो मिनट की भी देर हो जाती, और डॉ. अग्रवाल की बस रवाना हो जाती तो क्या होता? बहुत कल्पनाशील होने की ज़रूरत नहीं है इसका उत्तर देने में सक्षम होने के लिए. एक ऐसा उत्तर जिसे देने में डर लगता है, और मन नहीं मानता है कि वह उत्तर दिया जाए. भीतर से एक ही आवाज़ आती है कि चमत्कारों ने घटित होना बंद नहीं कर दिया है.
और जैसा संत ऑगस्टीन ने कहा था : “चमत्कार प्रकृति के प्रत्याख्यान के रूप में घटित नहीं होते, अपितु प्रकृति संबंधी हमारे ज्ञान के प्रत्याख्यान के रूप में घटित होते हैं.”
                                                  ***

दुनिया की नज़र में वे छोटे लोग थे, पर दिल के बहुत बड़े थे. और हमारे लिए सगों से भी ज़्यादा सगे

आज एक बार फिर करौली !
हम जिस मकान में रहते थे, वह उस ज़माने के हिसाब से अच्छे बने मकानों में था. साफ़-सुथरा, हवादार ! तीन परिवार रहते थे. मकान-मालिक बंबई में रहते थे.
उन्होंने एक कमरा एक दंपति को दे रखा था, घर की निगरानी के लिए. वहां रहने वाले हम सभी के छोटे-मोटे काम वे दोनों बड़े उत्साह से करते रहते थे. वह दंपति निस्संतान था, पर पति-पत्नी दोनों के सीने में बच्चों के प्रति प्यार के पाताल-तोड़ कुएं थे, या कहिए प्यार के झरने बहते रहते थे. हम से उम्र में दोनों बड़े थे, पर हम उन दोनों को ही नाम से ही बुलाते थे - गोपीजी और अतरबाई. गोपीजी की दुकान थी, उसे हेयर कटिंग सेलून तो कहा नहीं जा सकता. पर हां, वह बाल काटने का काम करते थे.
जब मेरी बेटी(मेरी एक मात्र संतान) पैदा हुई, तो उन्हें तो जैसे एक खिलौना ही मिल गया. अधिकांश समय दीप्ति या तो अतर बाई की गोद में होती थी, या फिर सुबह-शाम गोपीजी उसे कंधे पर लिए फिरते थे. बाज़ार तक का चक्कर लगवा लाते थे. दो बरस तक यह सिलसिला यों ही चलता रहा. हम कुल मिलाकर वहां छह साल रहे, पर दीप्ति जब दो साल की होगई थी, तो हमारा वहां से तबादला हो गया. कहने की ज़रूरत नहीं कि जब हम वहां से चलने वाले थे तो कई दिन पहले से गोपीजी और अतर बाई दीप्ति को एक मिनट के लिए भी अपने से अलग करने से बेहद दुखी हो जाते थे. उनकी रात कैसी बीतती होगी यह बात हमें परेशान करती थी.
वहां से चले आने के बाद भी कई बार करौली जाना हुआ था. ठहरते कहीं भी हों, पर सबसे पहले अपने उस पुराने "घर" जाकर गोपीजी-अतर बाई से मिलना हमारा पहला काम होता था. 1980 में आखिरी बार उनसे मिलना हुआ. पर जब 1995 में दीप्ति की शादी होने वाली थी तो मुझे लगा कि मुझे करौली जाकर ही उन्हें न्योता देना चाहिए. आप अंदाज़ नहीं लगा सकते कि उन्हें कितनी खुशी हुई होगी. अपनी तमाम शारीरिक परेशानियों और आर्थिक कष्टों के बावजूद वे दोनों जयपुर आए. पहली दफ़ा शहर में आए थे, और मान सरोवर पहुंचकर ऐसे भटके कि बीच सड़क पर बैठकर मदद के लिए गुहार लगाने लगे. ग़नीमत रही कि एक ऐसे नौजवान की नज़र उन पर पड़ गई, जो उस दृश्य को अनदेखा नहीं कर पाया, खुद बड़ा भावुक होने के कारण. उसने निमंत्रण पत्र पर पता देखकर उन्हें आश्वस्त किया कि वे मेरे घर के बहुत पास हैं. उन्हें वहीं बैठा छोड़कर, वह मेरे घर आया. मैं उसके साथ जाकर उन्हें अपने घर लेकर आया. मुझे देखते ही वे जैसे बिलखे, और दोनों एक साथ मेरे गले लगे, मेरी आंखों में भी आंसू आ गए. चार दिन तक वे अपने तमाम कष्टों को भूले रहे, और फुदके-फुदके फिरते रहे. हमारी नज़र में ही नहीं, अन्य घनिष्ठ मित्रों की नज़र में भी वे शादी में हमारे सबसे खास मेहमान बने रहे. दोनों का कहना यह था कि उनके जीवन की "साध" पूरी हो गई कि वे दीप्ति की शादी में शामिल होने के लिए ज़िंदा रहे.


आज वे नहीं हैं, दोनों ही. पर हमारे जीते-जी वे हमारे साथ रहेंगे. जाति-बिरादरी और खून के रिश्तों से कहीं बड़ा था उनका रिश्ता, हमारे साथ.


-मोहन श्रोत्रिय 

दो संस्‍मरण


धरा क्या है, नाम में?

कॉलेज में पढ़ाते सात-आठ दिन बीते होंगे कि एक दिन सुबह-सुबह ही धुआंधार बरसात शुरू हो गई. सिर्फ़ एक क्लास हो पाई थी. आगे की कोई संभावना नहीं थी क्योंकि वहां एक अलिखित परिपाटी चली आ रही थी कि आठ बजे तक तेज़ बरसात शुरू हो जाए तो कालेज आने की ज़रूरत नहीं. इसका असल कारण यह था कि वज़ीरपुर दरवाज़े से निकलते ही एक ढलान शुरू हो जाता था, जो चारसौ - पांच सौ गज के बाद चढाई में तब्दील हो जाता था. वहां से क़रीब दो सौ गज चलने के बाद कॉलेज का मुख्य द्वार आता था. तो एक तरफ़ से, शहर का, और दूसरी तरफ़ से कॉलेज वाली सड़क का पानी उस ढलान वाले इलाक़े को सराबोर कर देता था, सरोवर में तब्दील कर देता था. कई दफ़ा तो आदमी-डुबान पानी हिलोरें मारता रहता था वहां.
तो इसके बाद क्लास ही नहीं होनी थीं, इसका मतलब छुट्टी थोड़े ही था, हमारे लिए. छुट्टी कर भी दी जाती, तो घर कैसे पहुंचते ! स्टाफ़रूम का सहायक भी नहीं आया था, इसलिए चाय भी नहीं मिल सकती थी. दूध भी तो वह ही लेकर आता था.
दो मित्रों ने कहा चलो, बाहर चाय पी आते हैं. छाते तो वहां सबके पास होते ही थे (मैंने भी खरीद लिया था, वहां पहुंचने के अगले ही दिन), कॉलेज के सामने से, बाईं ओर से जो सड़क निकलती थी (गंगापुर-कैलादेवी की तरफ़), उस पर एक थडी थी, (जो क़ायदे से थी तो कॉलेज परिसर में ही), वहां चाय के साथ पकोड़े सुबह से शाम तक कभी भी मिल सकते थे.
थडी के मालिक के बारे में इतना तो पता चल ही चुका था कि वह लोक-गायक हैं, और आशु कवि भी हैं. ज़ाहिर है, उनसे मिलने की मेरी इच्छा भी अब तक बलवती हो चुकी थी. मैंने हां ही नहीं कर दी, बल्कि मैं तो आगे बढ़ भी लिया. वहां पहुंचने के लिए हमें कॉलेज परिसर से बाहर निकलने की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि केमिस्ट्री-लैब में होकर भी वहां तक जा सकते थे.
वहां पहुंचकर देखा कि कि एक पांच-फ़ुट से कम लंबाई वाला व्यक्ति सफ़ेद बुर्राक कुरता-धोती पहने बैठा हुआ है, और एक सहायक चाय बना रहा है. दूसरी सिगड़ी पर कड़ाही में तेल औंट रहा था. मेरे वरिष्ठ मित्र ने मेरा परिचय कराया उनसे. वह खुश हुए. उनकी लंबाई ही कम थी, चौड़ाई तो ठीक से अधिक ही थी. यानि उनका "मध्य प्रदेश" काफ़ी फैलाव लिए हुए था. उनका नाम बताया गया, "टुच्चे गुरु". मैं चौंका, पर शायद वह खुद मेरे आश्चर्य के भाव को भांप गए थे, तो हंसकर बोले मेरा यही नाम है. दो-चार मिनट तक औपचारिक बात-चीत चलती रही. इसके बाद, मेरे वरिष्ठ मित्र की फ़रमाइश पर उन्होंने अपना खुद का लिखा हुआ एक बेहद लोकप्रिय पद सुनाया :
"मेरे श्याम के नैन बने हैं फूल कमल के
लहर-लहर लहराएं हिलोरे जमुना-जल के".
मैं आज भी उनकी गायन-मुद्रा को देख सकता हूं, आंख बंद करके, और मुझे कोई संकोच नहीं यह कहने में कि मैंने ऐसी शानदार प्रस्तुति जीवन में अन्यत्र कहीं नहीं देखी. अंग-अंग थिरक रहा था, और गाने के सौंदर्य में न जाने कितने चांद-सूरज जड़ रहा था.
वहां एक लोक विधा प्रचलित है - आशु कविताई और गायन की. यह स्पर्धा के रूप में आयोजित होती है. कई टीमें भाग लेती हैं. इसे किलगी-तुर्रा कहा जाता है. और जब यह प्रतियोगिता होती है, तो सुनने के लिए जैसे पूरा क़स्बा उमड़ आता है. रात भर चलता है यह कार्यक्रम. और अपने, चाय-पकोड़े वाले ये "टुच्चे गुरु" इस कार्यक्रम की जान होते थे, साल-दर-साल. असल नायक ! और उस दिन जैसे उनका क़द काफ़ी बढ़ जाता था. क़स्बे में उन्हें जो सम्मान हासिल था, वह बड़े-बड़ों की ईर्ष्या का सबब था.
मेरे पिताजी जब करौली आते (ठहरते चूंकि एक ही रात थे), तो हमारे घर एक संगीत का कार्यक्रम होता था, हर बार, बिना किसी अपवाद के. मेरे पिता तबला शानदार बजाते थे, और ग़ज़लें भी उतने ही जानदार ढंग से सुनाते थे. क़स्बे के लगभग सभी कलाकार इसमें शामिल होते थे, तथा मेरे मित्र भी, जो बेसब्री से इस आयोजन का इंतज़ार करते थे. टुच्चे गुरु इस कार्यक्रम की भी "जान" हुआ करते थे. वह मेरे पिता के समवयस्क होने के बावजूद उनके घुटनों तक झुककर अपना सम्मान प्रकट करते थे (इससे ज़्यादा तो वह झुक भी नहीं सकते थे, चाहकर भी), पर उनकी प्रस्तुति के बाद मेरे पिता उन्हें गले लगा लिया करते थे.
कार्यक्रम के दो-तीन महीने बाद ही, जब भी टुच्चे गुरु से बात होती, वह छूटते ही कहते, "बुलवा लो न साब, अपने पिताजी को. बहुत दिन हो गए अब तो !"
वह व्यक्ति, वह कला-साधक-महानायक अब नहीं है, पर मेरी याददाश्त के एक कोने में तो अभी भी हैं, वह अपनी पूरी धज के साथ. और जब तक मैं हूं, उनकी जगह बनी रहेगी.

                                            ***

कल पिता की बरसी थी. सोलहवीं.

कल दिन भर उनका गायक का रूप दिल-ओ-दिमाग़ पर हावी रहा. सतत्तर बरस की उम्र तक तबले पर थिरकती उनकी उंगलियां दिखती रहीं, मन की आंखों से. ब्रज के लोकगीत और रसिया गूंजते रहे. पचास के दशक में आकाशवाणी पर वह यह सब सुनाते थे. फिर स्वाद बदलने को, 'जाग दर्दे इश्क़ जाग, दिल को बेक़रार कर...' और ' मैं कोई पत्थर नहीं इंसान हूं. कैसे कह दूं, ग़म से घबराता नहीं...कोई साग़र दिल को बहलाता नहीं' सुनते थे, यह सब कानों में गूंजता रहा.
उनके बहाने नौटंकी सम्राट गिर्राज जी की भी याद ताज़ा हो आई. वह पिता के घनिष्ठतम मित्रों में से थे. अब तो वह भी नहीं रहे. उनके निधन तक जब भी मैं कामां जाता था, तो उनके साथ तीन-चार घंटे की बैठक होती ही थी, निरपवाद रूप से. कम लोगों को पता है कि पचास के दशक में नौटंकी मंडली "मनोहर-गिर्राज" की मंडली के रूप में जानी जाती थी. मनोहर जी बहुत जल्दी चले गए. उन्हें गिर्राज जी से भी अधिक प्रतिभाशाली माना जाता था. खुशी की बात आखिरकार यही रही कि गिर्राज जी को उनकी कला के लिए तमाम सम्मानों से नवाज़ा गया. उनसे जब भी बात होती थी तो वह मनोहर जी और मेरे पिता का स्मरण श्रद्धापूर्वक करते थे, और मिलने पर मुझे बांहों में भरकर 'कुंवर साब' कहते, और इस तरह अपना ममत्व लुटाते.
वृन्दावन में, जहां पिता ने तीस बरस बिताए, आज भी वहां के लोग उनके 'समाज-गायन' की न केवल प्रशंसा करते हैं, इस बात पर दुख भी जताते हैं कि जब से वह गए हैं, वृन्दावन का 'समाज-गायन' वैसा नहीं रहा. न तो कला की दृष्टि से, और न निष्ठा की दृष्टि से !

-मोहन श्रोत्रिय 

Monday, 24 June 2013

मक़बूल फ़िदा हुसेन : मैं गु़स्सा था तुमसे


तुम्हारे बाहर जा बसने से 
मैं गु़स्सा था हुसेन 
बेहद  बेइंतिहा. यूं गु़स्सा तो 
था मैं सियासतदानों से भी 
और इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के
वज़ीरों और हुक्‍़मरानों और 
मुल्क़ की सबसे बड़ी कचहरी से भी.

मज़हबी जुनूनियों और लम्पट तबकों को
तो "हर दिन होली और रात दिवाली" का 
तोहफ़ा दे दिया तुमने अनजाने ही 
अपने बाहर जा बसने के फै़सले से
और बसने के लिए चुना भी
तो एक इस्लामी देश.
करेला और नीम चढ़ा. 
तुम्हें क्यों ख़याल तक 
नहीं आया अपने 
करोड़ों मुरीदों का ?
कि तुम निराश करोगे उन्हें 
अपने इस क़दम से 
इस फै़सले से...

मैंने पहली बार जब नाम
पढ़ा था तुम्हारा  और जाना था 
तुम्हे एक बेहद मशहूर
चित्रकार के रूप में 
तो शब्दकोश में खोजे थे 
मायने "मक़बूल" के.
जितने भी अर्थ मिले मक़बूल के
वे सब के सब आयद होते थे तुम पर
"हर दिल अज़ीज़"
"स्वीकृत-सम्मानित" और 
"वाक् सिद्ध".

क्यों नहीं था तुम्हें खु़द को 
यक़ीन   कि बेमानी नहीं थे
ये मायने तुम्हारे
नाम के?
तुम्हारे प्रशंसकों की तादाद इतनी भी 
कम न थी कि  डिग जाना सही हो 
तुम्हारे आत्मविश्वास का.
टिकना था  टिके रहना था 
तुम्हें रहना था अडिग अविचल 
जो तुम नहीं रहे   यही नहीं 
तुम अपने फै़सले को सही ठहराने 
में जुट गए
और तुम्हें यहां से धकियाने वालों को 
मिल गया एक हथियार 
तुम्हारे खिलाफ़  जिसने 
बना दिया और अधिक लाचार 
तुम्हारे अपने ही 
समर्थकों को जो हर सूरत में 
चाहते थे तुम्हारी वापसी 
ससम्मान वापसी 
उस धरती पर 
जहां तुम चलते थे नंगे पैर 
मुक्तिबोध की शवयात्रा में शामिल
होने के दिन से ही.
यह पैंतालीस 
साल का वक्‍़फा इतना कम भी 
तो न था कैसे चले होगे तुम
अजनबी मुल्क़ की धरती पर?

कैसे समझ सकते थे तुम्हारे काम की 
क़ीमत और अहमियत 
वे लोग जिन्हें कोई सलीका 
न था कला के मूल्यांकन का,
जो प्रशिक्षित हैं बचपन से और 
अभ्यस्त भी देखने के 
हर चीज़ को मज़हब के दकियानूसी 
चश्मे से?
तुम्हें क्यों नहीं लगा कि 
तुम कर रहे थे कमज़ोर 
अपने ही लोगों को जो
लगातार बेनक़ाब करने में लगे थे
खजुराहो और कोणार्क की विरासत 
पर फ़ख्र करने वालों के दोग़लेपन को.

मक़बूल तुम कैसे 
ज़िंदा रह सकते थे परायी धरती पर
ज़फ़र के दर्द से तुम इतने नावाकिफ़
थे क्या?
परायी धरती में दफ़नाए गए तुम
ज़फ़र ही की तरह
बेहद तकलीफ़ है मुझे इससे.
बहुतेरे औरों को भी यह नाग़वार गुज़रा है. 

सियासतदानों को कोई  ख़ास फ़र्क़ 
नहीं पड़ता इससे 
पर जो यकीन करते हैं इस मुल्क़ की 
गंगा-जमुनी तहज़ीब की 
तहरीक में जी-जान से,
वे सब तो शर्मसार हैं. पर यह तो 
मानोगे तुम भी 
मक़बूल फ़िदा हुसेन कि
तुम भी विचलित हो गए 
और चूक गए इस तहरीक में अपना 
यक़ीन ज़ाहिर करने से.

मक़बूल तुम और मक़बूल 
होते-होते रह गए. चित्रकार तो 
बड़े थे ही तुम 
रह गए  कुछ और बड़ा इंसान 
बनते-बनते.  एक हद से ऊपर उठ पाना 
संभव भी नहीं होता शायद. खै़र...... 


- मोहन श्रोत्रिय