वरिष्ठ कवि विजेंद्र की कविता-विषयक चिंताएं बड़ी हैं, अपने अन्य समकालीनों की तुलना में कहीं ज़्यादा बड़ी. उनके नोट पर मेरी तीन संक्षिप्त टीपें :
भारतीयता की पहचान भूगोल में नहीं बल्कि इसकी बहुलता में निहित है. बहुलता, चिंतन-दर्शन-जीवन पद्धतियों, आदि विविध स्तरों पर. भारतीय चित्त इन सभी से निर्मित होता है. लोक-संपृक्ति एवं लोक-मंगल भी इस पहचान का एक महत्वपूर्ण घटक है. ये सब मिलकर ही रचना के मूल्यांकन की कसौटी भी निर्मित करते हैं. आधुनिकता के दबाव/प्रभाव में आए कुंठा, संत्रास, आत्म-परायापन, अजनबीयत आदि की भारतीय चित्त से (तत्कालीन जीवन-स्थितियों से भी) कोई संगति नहीं बैठती थी. इसी प्रकार स्वर्णिम अतीत से मोहाविष्ट होकर रूढ हो गई जीवन-दृष्टि की भी भारतीयता की अवधारणा से कोई संगति नहीं बैठती.
भारतीयता और वैश्विकता में कोई विरोधाभास नहीं है. अन्य भाषाओँ के जो कवि हमें बेहद प्रिय (व अपने) लगते हैं, उसके पीछे भी चित्त-साम्य अपनी भूमिका अदा करता है. नेरुदा हों या लोर्का, मायकोवस्की हों या ब्रेख्त, ऑडेन हों या लुइस मैक्नीस, नाज़िम हिकमत हों या फ्रॉस्ट या तीसरी दुनिया के अन्य कई कवि, ये यदि हमें अपने-से लगते हैं तो इस सबके पीछे हमारे सरोकारों का साम्य ही तो प्रमुख कारण होना चाहिए. इसके विपरीत टीएस इलियट (द वेस्ट लैंड में तीन भारतीय सन्दर्भों के बावजूद) अपने नहीं लगते क्योंकि "ओम शांति शांति शांति" के उद्घोष पर समाप्त होने के बावजूद उक्त रचना (और रचनाकार भी) वैश्विक शांति प्रयत्नों का हिस्सा नहीं बन पाई थी. बड़ी संख्या में इंग्लैंड के ही अनेक लेखकों कवियों के संदर्भ में जैसे विचार-कर्म की इस एकता को देखा जा सकता है.
उपरोक्त के क्रम में अपनी श्रेष्ठ कविता को चिह्नित कर पाना भी आसान हो जाता है. जब हम मुक्तिबोध-त्रिलोचन-शमशेर-नागार्जुन-केदारनाथ अग्रवाल के महत्व को रेखांकित करते हैं तो बात आसानी से समझ में आ जाने योग्य बन जाती है. कृष्ण कल्पित जिस खतरे की ओर ध्यान खींच रहे हैं, उसे चिह्नित करने का बीज संदर्भ मेरी पहली टिप्पणी में मिल जाना तो चाहिए था.
भारतीयता की पहचान भूगोल में नहीं बल्कि इसकी बहुलता में निहित है. बहुलता, चिंतन-दर्शन-जीवन पद्धतियों, आदि विविध स्तरों पर. भारतीय चित्त इन सभी से निर्मित होता है. लोक-संपृक्ति एवं लोक-मंगल भी इस पहचान का एक महत्वपूर्ण घटक है. ये सब मिलकर ही रचना के मूल्यांकन की कसौटी भी निर्मित करते हैं. आधुनिकता के दबाव/प्रभाव में आए कुंठा, संत्रास, आत्म-परायापन, अजनबीयत आदि की भारतीय चित्त से (तत्कालीन जीवन-स्थितियों से भी) कोई संगति नहीं बैठती थी. इसी प्रकार स्वर्णिम अतीत से मोहाविष्ट होकर रूढ हो गई जीवन-दृष्टि की भी भारतीयता की अवधारणा से कोई संगति नहीं बैठती.
भारतीयता और वैश्विकता में कोई विरोधाभास नहीं है. अन्य भाषाओँ के जो कवि हमें बेहद प्रिय (व अपने) लगते हैं, उसके पीछे भी चित्त-साम्य अपनी भूमिका अदा करता है. नेरुदा हों या लोर्का, मायकोवस्की हों या ब्रेख्त, ऑडेन हों या लुइस मैक्नीस, नाज़िम हिकमत हों या फ्रॉस्ट या तीसरी दुनिया के अन्य कई कवि, ये यदि हमें अपने-से लगते हैं तो इस सबके पीछे हमारे सरोकारों का साम्य ही तो प्रमुख कारण होना चाहिए. इसके विपरीत टीएस इलियट (द वेस्ट लैंड में तीन भारतीय सन्दर्भों के बावजूद) अपने नहीं लगते क्योंकि "ओम शांति शांति शांति" के उद्घोष पर समाप्त होने के बावजूद उक्त रचना (और रचनाकार भी) वैश्विक शांति प्रयत्नों का हिस्सा नहीं बन पाई थी. बड़ी संख्या में इंग्लैंड के ही अनेक लेखकों कवियों के संदर्भ में जैसे विचार-कर्म की इस एकता को देखा जा सकता है.
उपरोक्त के क्रम में अपनी श्रेष्ठ कविता को चिह्नित कर पाना भी आसान हो जाता है. जब हम मुक्तिबोध-त्रिलोचन-शमशेर-नागार्जुन-केदारनाथ अग्रवाल के महत्व को रेखांकित करते हैं तो बात आसानी से समझ में आ जाने योग्य बन जाती है. कृष्ण कल्पित जिस खतरे की ओर ध्यान खींच रहे हैं, उसे चिह्नित करने का बीज संदर्भ मेरी पहली टिप्पणी में मिल जाना तो चाहिए था.
-मोहन श्रोत्रिय
"अयम् निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।"
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