Friday 30 December 2011

जाना एक साल का : फ़ेसबुक पर मेरे पहले साल को जैसा मैंने देखा-समझा.

कैसी अजीब बात है कि साल जब शुरू होता है तो बड़े-बड़े मंसूबे होते हैं, सपने होते हैं, संकल्प होते हैं जो इस 'नए' को महत्वपूर्ण बनाते हैं, हमारे लिए. साल जैसे-जैसे बीतता जाता है, हम सपनों, मंसूबों , संकल्पों से लगभग बेखबर-से, लगे रहते हैं कुछ अर्थ और सार्थकता देने में, अपने जीवित होने की क्रिया और तथ्य को. होता चलता है, कुछ चाहा हुआ, और बहुत कुछ ऐसा भी जो अप्रत्याशित होता है.धूप-छांह, सुख-दुःख, आंसू-मुस्कान, जय-पराजय, उतार-चढ़ाव, यानि इस तरह के विपरीत-बोधी जोड़ों में ही, हमारे दैनंदिन जीवनानुभवों से साक्षात्कार होता चलता है. ज़रूरी नहीं कि दोनों विपरीतार्थी अनुभव साथ-साथ होते हों. ख़ास बात यह है कि एक के होने के अनुभव में ही, जो अनुपस्थित है उसकी छाया, आशंका, प्रत्याशा का भी निरंतर अहसास बना रहता है. और हम अक्सर पाते हैं कि मुस्कानों के पीछे दर्द छिपा होता है या कहिए कि कोई ग़म होता है जिसे छिपाने के लिए मुस्कान का कवच धारण कर लेते हैं. कुछ पा जाते हैं तो उसे खो देने की आशंका 'पाने' के सुख को पनियल बना देती है.

कल एक और साल अतीत से जुड़ जाएगा. कई अर्थों में अच्छा व अन्य कई अर्थों में बहुत बुरा साल रहा है यह. निजी तौर पर यह मिला-जुला-सा रहा है.

मुझे फेसबुक से जुड़े भी कल एक साल पूरा हो जाएगा. कैसा रहा? काफ़ी दूर तक सार्थक. बहुत अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलीं. बहसें भी खूब हुईं. मित्र मिले. 2200+ की संख्या पर न भी जाऊं, तो भी भरे-पूरे संतोष और प्रसन्नता के भाव से कह सकता हूं कि वैचारिक और भावनात्मक स्तरों पर जुड़ने वाले मित्रों की संख्या भी "और-क्या-माँगा-जा-सकता-है?"वाली श्रेणी में ही आ जाता है, कुल मिलाकर लगता है कि सामूहिक प्रयत्न से इसे कहीं बेहतर माध्यम में तब्दील किया जा सकता है जहां साहित्य, समाज, विचार आदि के अंतर्संबंधों को रेखांकित करते जाते हुए, एक नई "शब्द और विचार संस्कृति"  विकसित की जा सकती है. संगठित और चौकस प्रयत्न किए जाने की ज़रूरत की अनदेखी न की जाए तो, निजी तौर पर मुझे इस माध्यम से बहुत उम्मीदें हैं.  एकदम नई पीढ़ी के रचनाकारों ने जैसी "धमाकेदार एंट्री" मारी है साहित्य जगत में, वह आशा और उम्मीद की लौ को तेज़ करती है. बेशक, इनमें तमाम रचनाकार परिपक्वता और रचनाकौशल की दृष्टि से बराबर न खड़े हों, पर ऐसा तो हमेशा होता है. यह न तो चिंता की बात है, और न निराशा पैदा करने वाली. गौर से देखें तो इनमें भी दो श्रेणियाँ हैं : पहली में वे मित्र हैं जो अपनी रचनाशीलता की सम्मानजनक पहचान बना चुके हैं, और दूसरी में वे जो उन तमाम संभावनाओं को व्यक्त करते हुए आए हैं कि अगले साल-दो साल में वे भी पहली श्रेणी में शामिल तो हो ही जाएंगे, इसके शीर्ष पर भी पहुंच सकते हैं. सुख देने वाली बात यह है कि पहली और दूसरी श्रेणियों के रचनाकारों में आम तौर पर कोई प्रकट अमैत्री दिखाई नहीं पड़ती. परस्पर-सहयोग और प्रोत्साहन का भाव दिखता है, साफ़-साफ़. ब्लॉगों के माध्यम से तथा एक-दूसरे की रचनाएं फेसबुक पर साझा करके भी इस काम को बखूबी अंजाम दिया जा रहा है.

प्रसंग ब्लॉगों का आ निकला है, तो लगे हाथ यह कहता चलूं कि मनोज पटेल "पढते-पढते" के ज़रिए अद्भुत और अभूतपूर्व काम कर रहे हैं, श्रेष्ठतम विश्व कविता के शानदार अनुवादों के माध्यम से हिंदी-पाठकों को समृद्ध कर रहे हैं. मिशनरी उत्साह एवं प्रतिबद्धता के साथ. लगभग हर सुबह उनके किसी अनुवाद के साथ होना हमारे लिए भी आदत-सी बन गई है. अरुण देव का "समालोचन", प्रभात रंजन का "जानकीपुल" और अशोक कुमार पांडेय के "असुविधा", "जनपक्ष", अपर्णा मनोज का "आपका साथ साथ फूलों का" ऐसे ब्लॉग हैं जिन पर हर तीसरे दिन कोई न कोई बेहद महत्वपूर्ण पोस्ट देखने-पढ़ने को मिल जाती है. अशोक जहां रचना और विचार दोनों पर सामग्री साझा करते हैं, वहीं बाक़ी तीन ब्लॉगों पर रचना- समीक्षा पर ध्यान अधिक दिखता है. ये तीनों ब्लॉग इस मायने में एक-दूसरे से जुड़े हुए भी लगते हैं कि एक पर आई रचना अक्सर दूसरे पर साझा करली जाती है, ब्लॉग के स्तर पर चाहे नहीं, पर फ़ेसबुक पर तो अधिकांशतः.फ़ेसबुक पर सक्रिय हर कवि का अपना ब्लॉग है, पर उनकी कविताएं क्योंकि बिना लिंक के फ़ेसबुक पर आ जाती हैं, वहीं देख ली जाती हैं. मेरा ब्लॉग "सोची-समझी" तो इतना नया है कि शायद किसी के पास इसके बारे में कहने को ज़्यादा कुछ न हो, फिर भी मुझे इतना संतोष अवश्य है कि पांच महीने के भीतर ही क़रीब सौ समर्थकों को इसने अपने साथ जोड़ लिया है. विजय गौड़, महेश पुनेठा, विमलेश त्रिपाठी, लीना मल्होत्रा, हेमा दीक्षित, अजेय कुमार, नील कमल, संतोष चतुर्वेदी, रामजी तिवारी, अंजू शर्मा, कल्पना पंत, और बाबुषा अपने ब्लॉगों के ज़रिए अच्छा काम कर रहे हैं. फ़र्क़ कम-ज़्यादा का हो सकता है, या कहें 'डिग्रीज़' का.

कविता की मृत्यु की न जाने कितनी बार घोषणाएं हो चुकी हैं, पर यह खुश करने वाली स्थिति है कि कविता न केवल जीवित है, बल्कि उसकी सेहत भी बहुत अच्छी है. मृत्यु-प्रतिरोध-क्षमता भी. मृत्यु की घोषणाओं से वह अवसाद में नहीं आ जाती बल्कि अपनी पूरी ताक़त का अहसास करा देती है. पिछले दिनों जिन्होंने भी अरुण देव, अशोक कुमार पांडेय, अपर्णा मनोज, आवेश तिवारी, लीना मल्होत्रा, वंदना शर्मा, महेश पुनेठा, बाबुषा, ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस, प्रदीप सैनी, विमलेन्दु द्विवेदी की एकाधिक कविताएं पढ़ी हैं, वे मेरी बात से सहमत होंगे. जब भी नाम गिनाने की बात आती है तो कुछ मित्र इस पर छींटाकशी भी करते ही हैं - कि सूचियां बन रही हैं, कि गिरोह्बंदियां हो रही हैं आदि आदि. यह सब तो चलेगा ही. यह तब भी चलता है जब जल्दी ही अपना मुक़ाम बना लेने वाले कवियों की ( अभी जो ठीक-ठाक ढंग से दस्तक दे रहे हैं जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता) बात चलती है, तब भी इस तरह की मरमराहट सुनाई पड़ती है. मैं इसे दोनों तरफ़ से अस्वाभाविक नहीं मानता. मैं कविता के एक पाठक (आलोचक चाहे नहीं) की हैसियत से कविताओं से गुज़रता हूं तो अनायास ही एक मूल्यांकन की प्रक्रिया से भी गुज़र रहा ही होता हूं, और यदि मैं अपने कर्म के प्रति संजीदा और निष्ठावान हूं तो मुझे अपने महसूस हुए को कहना भी चाहिए, बिना इस बात की परवाह किए कि यह कुछ लोगों को नाग़वार गुज़र सकता है. ऐसे में सिर्फ़ फैज़ को याद कर लेता हूं जो पहले ही इशारा कर गए कि "सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र" तक न हो वह बात भी कुछ लोगों को "नाग़वार गुज़र" सकती है. अगले साल जिन संभावनाशील कवियों पर सब से ज़्यादा नज़र रहेगी उनमें रामजी तिवारी, हेमा दीक्षित, अंजू शर्मा के नाम बिना किसी झिझक के लिए जा सकते हैं. क़तार में खड़े लोगों में महिलाओं की संख्या अधिक है, यह कहना भी पक्षपातपूर्ण माना जा सकता है. वास्तव में है नहीं. यह आश्वस्तिकारक परिघटना है, इस अर्थ में और भी अधिक कि वे चौका-चूल्हे को साधते हुए कविता भी लिख रही हैं, और यह मांग भी नहीं करतीं कि उनके लिए कोई अलग कसौटी हो मूल्यांकन की. एक और मित्र शहबाज़ ने अकेली कविता "औरंगज़ेब" के आधार पर उम्मीद जगाई है.  इस सूची में मैंने जान-बूझ कर विमलेश त्रिपाठी का नाम नहीं लिया है, सिर्फ़ इसलिए कि वह एक बहु-पुरस्कृत, बहु- सम्मानित कवि हैं, जिनकी पहचान को सभी तरह के कविता-केन्द्रों/ प्रतिष्ठानों से स्वीकार्यता प्राप्त है. वह घोषित रूप से मनुष्यता को बचाने के लिए कविता को प्रतिश्रुत हैं. वैसे मैं समझता हूं हर भरोसेमंद (खरा) कवि अपनी तरह से, अपने ढंग से इसी काम में संलग्न होता है. कविता का काम ही मनुष्यता को बचाना तथा किसी भी तरह के संकट की स्थिति में उसे संबल प्रदान करना होता है. यह अलग बात है कि कुछ कवि मनुष्यता को नष्ट करनेवाली शक्तियों की सिलसिलेवार पड़ताल भी करते हैं, और इस उपक्रम में राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा समाज में सक्रिय विभिन्न विघटनकारी शक्तियों की कारगुज़ारियों पर भी न केवल नज़र रखते हैं, बल्कि इन्हें व इनसे जुड़े प्रश्नों को कविता का विषय भी बनाते हैं. कुछ दूसरे कवि प्रेम को बचाए-बनाए रखकर मनुष्यता को बचाने के उद्यम में लगे हैं. ज़ाहिर है, प्रेम सामाजिकता का, सामूहिकता का केन्द्रक होने के नाते महत्वपूर्ण तो है ही. शोषण और दमन पर आधारित वर्ग-भेदी व्यवस्था को बदलने का सपना देखने वाले भी तो "प्रेम" और करुणा के वशीभूत ही ऐसा जतन करते हैं. यहां प्रेम और सपने के एक-दूसरे से जुड़े होने को भी रेखांकित किया ही जाना चाहिए. प्रेम और सपने की स्वभावगत-स्वरूपगत भिन्नता हो सकती है : कि कहीं यह 'निजी' है और कहीं 'सार्विक'. यह दूसरी बात है कि उत्तर-आधुनिक व्याख्याकार स्वप्न, स्मृति और यथार्थ सबका अंत घोषित कर चुके हैं.

फ़ेसबुक पर पिछले पांच महीने कमोबेश भ्रष्टाचार-उन्मूलन और अन्ना आंदोलन पर तीखी वैचारिक बहसों के भी रहे हैं. इस बहस के भी दो स्तर रहे. एक समूह उन लोगों का था जो अतिसरलीकृत तरीके से आंदोलन पर आने वाले विचारों को देख रहे थे, इसलिए बिना कोई देर किए ऐसे तमाम लोगों को भ्रष्टाचार समर्थक घोषित कर रहे थे जो आंदोलन के सूत्रधारों और प्रायोजकों के वर्गीय चरित्र के चलते उससे जुड़ नहीं पा रहे थे या उसकी कार्यपद्धति व भाव-भंगिमा का विरोध कर रहे थे. कुछ लोग तो बहसों के दौरान इतनी जल्दबाज़ी में थे कि वे ऐसे लोगों की राष्ट्रभक्ति को भी प्रश्नांकित कर रहे थे. बहस में शरीक लोगों का दूसरा स्तर उन मित्रों से निर्मित होता था जो इस आंदोलन के अंतर्विरोधों से बाखबर होते हुए भी इसे मिल रहे जन-समर्थन के कारण इससे जुड़ने की ज़रूरत को रेखांकित कर रहे थे. बहरहाल, मुझे तकलीफ़ उन लोगों से नहीं थी जो "बुशवादी" रवैया अख्तियार कर रहे थे, या लगभग तिनका-तोड़ स्थिति में पहुंच गए थे. इनमें से अधिकांश के साथ सिर्फ़ फेसबुकी संबंध थे (यद्यपि इनमें से कुछ के साथ संबंधों में गर्मास भी थी, आत्मीयता का ताप भी था), इसलिए तिनका-तोड़कता कोई ख़ास अखरी भी नहीं. अपने वैचारिक समानधर्माओं में से दो के साथ जो असहमतियां बनीं, चलीं - इस बात ने कष्ट ज़रूर दिया, पर ताज्जुब की बात है कि यहां फेसबुक पर बनी वैचारिक मित्रता जीत गई और पुराने निजी वैचारिक संबंध हार गए, और उस तरफ़ से तो ठंडापन शून्य से न जाने कितनी डिग्रीज़ नीचे चला गया है. शायद वक़्त ही समझ को साफ़ करे.

मेरा यह मानना है कि इस वैकल्पिक संवाद माध्यम का इस्तेमाल विवेकपूर्ण तरीक़े से किया जाए तो यहां परस्पर समृद्धिकारी संबंधों की गुंजाइश अकूत है. अपना सोच, अपना कृतित्व न केवल साझा करने की बल्कि तुरत प्रतिक्रिया प्राप्त करने की स्थिति अन्य किसी माध्यम पर नहीं बनती. एक रचना दस पाठकों को भी आकृष्ट करले और सात में से दो टिप्पणियां भी काम की लगें तो रचनाकार के भविष्य की दृष्टि से भी अर्थवान साबित होंगी ही.

 मैं इस अर्थ में बहुत सौभाग्यशाली मानता हूं अपने आपको कि यहां में इतने सारे लोगों को खुद से जोड़ पाने में सफल रहा. और परिवार के एक बुज़ुर्ग कि सी हैसियत बना दी मित्रों ने मेरी. निजी तौर पर मैं अपने लिए हितकारी मानता हूं पिछले साल में जो सद्भावना मैंने अर्जित की है, उसकी ताक़त पर मैं अपने आपको समुचित ऊर्जा से भरा हुआ पाता हूं, मुझे खुशी है कि इस उम्र में भी मेरी सक्रियता को मित्र सकारात्मक रूप में ग्रहण कर रहे हैं. यह कहने का मतलब यह क़तई नहीं लिया जाए कि मुझसे असहमत, नाराज़ लोग मेरी फेसबुकी मित्र-सूची में नहीं हैं. हैं, इसका न केवल मुझे अहसास है, बल्कि मैं ज़ुबानी उनकी सूची भी पेश कर सकता हूं. ऐसे मित्रों से यही कहना काफ़ी होगा कि हर आलोचना के पीछे कोई ''वैयक्तिक मोटिव" तलाशना बंद कर दें, तो शायद मेरी टिप्पणियों को सही अर्थों में ग्रहण कर पाएंगे, और तब मैत्री भाव के अतिरिक्त उन्हें कुछ नहीं दिखेगा. क्योंकि होता भी नहीं. हां, अपनी एक कमजोरी ज़रूर साझा कर लूं : मुझे ठकुर-सुहाती नहीं आती. मैं किसी भी सूरत में मुंह देखकर टीका नहीं कर सकता.

निजी/ पारिवारिक स्तर पर यह साल कष्टकारी/व्ययकारी ही रहा. अस्पतालों से जुड़ाव खूब रहा. पत्नी के दो बड़े ऑपरेशन हुए, सात महीनों के अंतराल से. दो घनिष्ठ मित्रों को खोया. एक से तो पैंतालीस साल पुराने आत्मीयताभरे, भाई-जैसे, संबंध थे. रसायन विज्ञान के लोकप्रिय प्राध्यापक थे. दूसरे के साथ संबंध पुराने नहीं थे, पर आत्मीयता सघन थी. इनके साथ तो अभी तीन महीने पहले अस्पताल घर-जैसा हो गया था.
काल की मार साहित्य-कला के क्षेत्रों पर भरी ही रही इस साल. श्रीलाल शुक्ल गए, कुबेर दत्त गए और अभी हाल ही में प्रसिद्ध जन-पक्षधर कवि अदम गोंडवी चले गए. संगीत के क्षेत्र में भी ऐसी ही बेहद दुखी करने वाली क्षतियां हुईं. जगजीत सिंह गए, भूपेन हज़ारिका गए, और सुल्तान खान गए. फिल्म जगत पर भी करारी मार पड़ी काल की. पहले शम्मी कपूर गए, और अभी हाल ही में, चार पीढ़ियों के चहेते देव आनंद चले गए. देव साब न केवल कभी  न थकने-थमने वाले अभिनेता, निर्माता-निर्देशक ही थे, बल्कि प्रखर बौद्धिक भी थे. आपात काल के खिलाफ खुल कर बोलने वाली अकेली फ़िल्मी हस्ती ! 

तो कल समाप्त हो जाने वाला यह साल जैसा भी रहा, उम्मीद करें, कामना करें कि आनेवाला साल बेहतर दुनिया बनाने के लिहाज़ से बेहतर साल होगा.

Wednesday 28 December 2011

ताकि सनद रहे और बखत-ज़रूरत काम आए

(इसमें कविताई न दिखे, कोई बात नहीं. कभी-कभी पोलेमिक्स भी कवितानुमा होनी चाहिए)

बुद्धिजीवियों के नाम 
एक-एक पंक्ति के संदेशनुमा
स्टेटसों की 
आज के मुहावरे में कहूं तो 
वन-लाइनर्ज़ की बन आई है 
इन दिनों, फेसबुक पर.

समझ नहीं आता
कौन हैं ये बुद्धिजीवी 
जो अवरोध बन गए हैं 
जनाकांक्षाओं की पूर्ति के 
मार्ग में  और जो यह कह रहे हैं 
वे क्या हैं ?
बुद्धिजीवी ही तो 
लगभग वैसे ही 
जैसे वे जिनसे मतभेद हैं
उनके.

विचार से लैस 
व्यवस्था को बदलने का जज़्बा लिए 
संघर्ष में कूदे जनबल
की ओर से आए यह आक्षेप 
तो समझ में आ सकता है
यह 
और इसके पीछे का गुस्सा भी
या कहें व्यंग्य भी.

मध्य वर्ग की तमाम दुविधाओं
अनिश्चयात्मकताओं
और ढुलमुलपन पर 
प्रहार भी तो कर सकता है वही
जो ऊपर उठ चुका है 
इनसे और
नीयत पर संशय किए जा सकने की
तमाम संभावनाओं के दायरे से

कमज़ोरियों और वर्गीय चालाकी 
के शक-ओ-शुबहा 
से जा चुका हो कोसों दूर.

क्या  कभी भी संभव है 
कोई ऐसा व्यवस्था-परिवर्तन 
जिसमें तमाम भूमिका  
की जा सकती हो ख़ारिज
इस मध्य वर्ग के किसी भी नुमाइंदे की?
खंगालें अतीत को 
प्रक्षेपित करें अपनी समझ को 
भविष्य में 
परखें समझ को और 
भविष्य में उसके प्रक्षेपण को 

लगे हाथ खोजने में जुट जाएं 
एक भी स्थापना 
जो समर्थन में खड़ी की जा सके 
जिसके स्रोत हों विचार की ऊर्जस्वी 
सरणियों में.

मध्य वर्ग का यह तबक़ा
छोटा-सा 
'जैविक बुद्धिजीवी' न हो बेशक
पिछडों-दलितों-शोषितों-वंचितों के 
वर्ग का 
पर अपने बदले स्वभाव
और वैचारिक तैयारी के बल पर 
उन्हीं पांतों में खड़ा होने का 
अर्जित कर लेता है ह्क़
ऐसा जिस पर संदेह नहीं करता
कर सकता उस वर्ग का 
'जन्मना-कर्मणा' प्रतिनिधि भी.

इतिहास क्रांतियों का पटा पड़ा है
वर्ग-च्युत ऐसे बुद्धिजीवियों के नामों से
लंबी फ़हरिस्त
हरेक की पहुंच के भीतर 
कहां से शुरू करूं गिनती?

बड़बोलापन न समझा जाए उनके साथ 
अपना नाम गिनवाने 
की कोशिश को 

दरअसल कोशिश नहीं है यह
उनके साथ खड़ा होने की
जितनी यह बताने की 
कि ये तमाम लोग आए थे 
उन जड़ों से जिन्हें लड़ाके 
दुश्मन से जोड़ सकते थे
और सही ही 
क्योंकि इन्होने 
ग़रीबी भुखमरी शोषण और दमन को
वैसे नहीं भोगा था
न जाना था      जैसे
जाना था क्रांति के हरावल बने दस्तों ने
पर बखूबी जानते थे वे दस्ते 
लड़ाकों के
कि इनके बिना वे अग्रिम पांतों में 
खड़ा होने की सोच भी नहीं 
सकते थे 
अंड-बंड सपनों तक में.

यह सच है   पहले भी था 
कि दोगला होता है चरित्र 
इस बीच के वर्ग का 
आतुर ऊपर जा-मिलने को 
घृणा करता अपने से नीचे की ओर 
देख कर, 
पर कितनी ही बार दबाव में
हालात के 
या दीवार की लिखावट को पढ़ कर 
जोड़ देता इनके साथ अपनी नियति को 

हिम्मत बढ़ती है
देख कर उन लोगों को इनके साथ
जिन्हें 'विश्वासघाती' कहा जाता था
'अपने ही वर्ग' का.   विश्वासघाती 
बुरा हो सकता है    यह शब्द
अपमानजनक भी
पर सामाजिक बदलाव की पांतों में 
गर्व किया जाता है ऐसे लोगों पर
जो निष्ठा और विश्वास के चलते 
अपने ही वर्ग की चालाकियों-मक्कारियों 
और धूर्तताओं को  समझ कर 
तय कर लेते हैं    मन बना लेते हैं
पक्का
अपने ही वर्ग के खिलाफ़ खड़ा हो जाने का.

यही तो कसौटी है 
वर्गांतरण की 
परख की जो कभी ग़लत नहीं होती.
कोशिश कर देखिए 

आगे भी समाज को जड़ से बदलने का
कोई भी अभिक्रम 
नहीं पहुंचेगा अंजाम तक
इनके बिना. 
अपने वर्ग की 
आस्थाओं और विश्वासों को 
त्याग कर आए इन लोगों के बिना
जिन्हें आज कुछ लोग 
देखते हैं हिक़ारत की नज़र से

गाली नहीं होता 
नाम ऐसे बुद्धिजीवियों का 
चाहे कितना भी लिया जाए
गाली की तरह.

समय है कि समझ लिया जाए फ़र्क़
बुद्धि-व्यवसाइयों और
बुद्धिजीवियों का.

सरोकार जिसके बड़े हों 
अपने से 'इतर' 
ह्क़ वही अर्जित करता है
कहलाने का बुद्धिजीवी 

चालाकी होती है पहचान
अपने हितों का ही दूर तक ध्यान 
बुद्धि-व्यवसायी की 
अचूक और खरी
निर्विवाद पहचान

जब भी होगी शुरुआत चीज़ों को 
सिर्फ़ दुरुस्त न करने की 
विषमता और अपराध पनपाने वाली
व्यवस्था की जड़ों में मट्ठा डालने की

विचार-विहीन 
'राजनीति' शब्द से करते हुए परहेज़
राजनीति करने वाले 
कहीं नहीं होंगे आस-पास भी.

सनद रहे ताकि बखत ज़रूरत काम आए
खुलकर स्याह को स्याह कहने वाले
और सफ़ेद की सफेदी बनाए रखने का
सपना पाले हुए 
ये लोग ही खड़े होंगे 
एक साथ  एक-जुट. व्यवस्था को 
चमकाने वालों के खिलाफ़.

चमकाने वाले ऐसे 
कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने के
उपक्रम को पुरस्कृत होने के 
अनुष्ठान में बदल देने का जादू जानते हैं
और चमत्कार फिर भी
पाक-साफ़ दिखने का.
बहुत दिन नहीं चल सकता यह खेल
प्रवंचना का दौर खत्म होगा जल्दी ही
और इतिहास की सर्वाधिक गतिशील
शक्तियां चूक नहीं करेंगी 
सही बदलाव की आंच पर 
धूल डालने वालों की रहनुमाई 
को तार-तार कर देंगी.

नजूमी नहीं सही मैं
पर भविष्य में कुछ दूर तक तो
देख ही सकता हूं. आप 
स्वतंत्र हैं इसे मेरा 'वहम' कहने को
पर किसने सोचा था 
आज से दो महीने पहले भी 
कि वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा जमा लेंगे लोग
कि मार्क्स के पोस्टरों की 
इबारत यह होगी
"देख लो, मैं सही था"
वह भी उस देश में जिसे
स्वर्ग कहा जाता है
पूंजीवाद का 
उस देश में जो पर्याय बन गया था 
सपने का  समृद्धि के सपने का.

एक सपने का ध्वस्त होना
जगा देता है उम्मीदें एक दूसरे सपने
की ताबीर का.
यह सपना जो निन्यानबे फ़ीसद
बनाम एक फ़ीसद का 
सपना है चिरकालिक.
सपना जो सदा सपना ही बने 
रहने को अभिशप्त नहीं है.
आप चाहें तो कह दें  "आमीन" !
न कह सकें तो भी आमीन !

Thursday 22 December 2011

समय, समाज, कविता और हम: वर्ष-समापन के मौक़े पर कुछ फुटकर नोट्स

अजब हाल हैं. शब्द-चित्र जैसा कुछ उकेर देने की बात हो तो बात अलग है, पर ऐसा तो नहीं ही हो सकता कि कोई रोज़ कविता टांक दे, और कभी भी, किसी भी कविता का मौजूदा सामाजिक-राजनैतिक हालात से कोई वास्ता न हो. जो यथार्थ से पूरी तरह असंबद्ध हो. ऐसा नहीं होना चाहिए न? और शब्द-चित्र भी कोई रोज़-रोज़ थोड़े ही उकेरे जाते/ जा सकते हैं?
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कविता की रचना-प्रक्रिया कितनी ही निजी, व्यक्ति-सापेक्ष और एकांतिक क्यों न हो, उस प्रक्रिया का प्रतिफल तो निजी नहीं रह जाता. कविता  या कोई अन्य साहित्यिक रचना जैसे ही सार्वजनिक हो जाती है, उससे सवाल पूछे जा सकते हैं /पूछे जाने चाहिए. निजता 'प्रक्रिया' की होती है. निजता रचना पर रचनाकार के नैतिक अधिकार की भी होती है, रचना का जनक होने के नाते, पर सार्वजनिक होते ही रचना समाज के आधिपत्य क्षेत्र में आ जाती है. वैसे भी , कवि जिस माध्यम (भाषा) का इस्तेमाल करता है, वह मूलतः एक सामाजिक उपादान है. भाषा कवि को समाज से ही मिलती है. वह कविता के लिए किसी 'कूट भाषा' को घड़ता नहीं है, बल्कि समाज से प्राप्त भाषा का ही इस्तेमाल करता है. कवि की चेतना भी बहुत दूर तक उसके सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से निर्मित-नियमित-निर्धारित होती है. वंशानुक्रम से भी कोई इसे जोड़ने की चेष्टा करे, तो उस अनुक्रम पर भी तो यह बात उतनी ही लागू होती पाएंगे. प्रतिभा को नैसर्गिक मान भी लें तो भाषा-कौशल फिर एक ऐसी चीज़ है जो सामाजिक अन्तर्क्रियाओं में ही पुष्पित-पल्लवित होती है.
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'प्रेम' पर इन दिनों कविताओं की भरमार है. इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? जो लोग समाज के बुनियादी रूपांतरण की बात करते हैं, उनके मन में भी तो प्रेम होता है, मनुष्य मात्र के प्रति. उस प्रेम का 'स्वभाव' इन दिनों कविता में आ रहे 'प्रेम' से थोडा भिन्न ज़रूर कहा जा सकता है, इस अर्थ में कि उसका संबंध 'देह' के साथ उतना नहीं होता. ख़ास बात यह देखने में आ रही है कि महिला कवि 'प्रेम' के शब्द-छल को बेहतर समझ रही हैं, और 'पुरुष-भाव' की निहायत बेबाक़ तरीक़े से खबर भी ले-दे रही हैं, बिना 'कविताई'  की बलि चढ़ाए. इसके विपरीत अधिकांश उभरते पुरुष कवि "तुम्हारी आंखों/ होठों / तुम्हें  देख कर" से शुरू करके या तो 'फ़ंतासी' बुनने में लगे हैं, या अंत तक पहुंचते-पहुंचते 'ट्रेक बदल कर' एक अविश्वसनीय-सा सूफ़ियाना रूप दे जाते हैं, कविता की शुरुआत से जिसकी कोई संगति नहीं दिखती/बैठती. कहने का आशय यह क़तई नहीं है कि अच्छी प्रेम कविताएं नहीं लिखी जा रही. लिखी जा रही हैं, पर अपवादस्वरुप ही. वैसे भी ऐसा कौन-सा प्रेम होता या हो सकता है, जिसमें समय की सच्चाई बिल्कुल न बोले. यह तो पता चल ही जाना चाहिए कि यह 2011 की प्रेम कविता है. पुरानी फ़िल्मों में प्रेम का चित्रांकन बहुत ही सांकेतिक हुआ करता था, आज की फ़िल्मों की तुलना में. क्या ऐसा ही बात आज की कविता में व्यक्त हो रहे प्रेम के बारे में नहीं कही जा सकती  कि यह आज की फ़िल्मों में चित्रांकित हो रहे प्रेम की तरह कुछ ज़्यादा ही 'लाउड' बन जा रहा है. इसका कारण कहीं ऐसा तो नहीं कि वास्तविक जीवन में जिस तत्व की कमी बेहद खटकती रही हो, उसकी क्षतिपूर्ति कविता में एक प्रति-संसार घड़कर की जा रही हो!  बेलगाम कल्पना और शब्द-प्रचुर अभिव्यक्तियों के बूते पर !
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सहिष्णुता समाज में कम होती रही है तो साहित्य जगत उससे अछूता/अप्रभावित कैसे रह सकता है? कवि का आलोचक के प्रति असहमति का भाव हो तो समझ में आता है, और असहमति के आधारों को खुल कर रख दिया जाए तो यह कवि और कविता की लोकतांत्रिकता ही कहलाएगी, पर यदि मनोनुकूल न होने पर न सिर्फ़ आलोचना को बल्कि आलोचक को भी ख़ारिज करने का प्रयत्न दिखे, तो इसे आप क्या कहेंगे? हर पीढ़ी के कवियों को अपने आलोचकों से शिकायत रही होगी. हमारी वरिष्ठ पीढ़ी के कवियों में से अधिकांश को भी थी. पर उसके आधार कदाचित अलग थे : कि जिन प्रतिमानों की कसौटी पर उनकी कविताओं को परखा जा रहा था, वे प्रतिमान ही पुराने पड़ चुके थे या नए कथ्य, नए मुहावरे, नई संवेदना और  नई कलात्मकता का सही मूल्यांकन के लिए वे नाकाफ़ी साबित हो रहे थे. मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी एक कवि ने भी आलोचक से कभी यह कहा हो कि पहले आप फ़लां-फ़लां से बेहतर कविता लिख कर दिखलाइए और फिर हमारी कविता पर टिप्पणी करने की अर्हता अर्जित कीजिए. शिकायत यही होती थी कि कुछ कवियों को नज़रंदाज़ किया जा रहा है या उन्हें कम करके आंका जा रहा है. कुछ कवियों ने तो इस 'अनदेखी' की परवाह ही नहीं की, और जो मुखर रूप से असंतुष्ट थे उन्होंने एक दूसरा रास्ता चुना. वह रास्ता यह था कि इन असंतुष्ट कवियों ने अपनी कविता का सौंदर्यशास्त्र भी निर्मित / निरूपित किया. पर आज की युवतर पीढ़ी बड़ी बेचैन है, जल्दबाज़ी में है. किसी कवि के एक मात्र संग्रह पर अगर जैसे-तैसे दो अच्छी समीक्षाओं का 'मीजान' बैठ गया, और एकाध पुरस्कार मिल गया तो वह इसे लगभग अपना 'ह्क़' समझने ही नहीं, बल्कि जताने भी लगता है कि उसकी कविता पर 'अच्छे' के अलावा कुछ न लिखा जाए. मैं तो अपने आपको कोई आलोचक-वालोचक मानता नहीं (कविता का एक सजग पाठक ज़रूर मानता हूं, अब आप जानें/बताएं कि पाठक भी आलोचना करने का ह्क़ रखता है या नहीं! यदि नहीं, तो कविता है किसके लिए? आलोचक भी तो प्रथमतः पाठक ही होगा), फिर भी दो-चार-छह कवि तो दबी ज़ुबान यह कह ही चुके हैं कि हम चाहते हैं आप हमारे संग्रह पर लिखें, अच्छा-सा लिख दें तो संग्रह भेज दें. संग्रह मेरे पास नहीं आए, सो आसानी से अंदाज़ लगा सकते हैं आप कि मैं उन्हें समुचित रूप से आश्वस्त नहीं कर पाया होऊंगा. मैं बीमा कंपनी चलाने वाला पाठक/टिप्पणीकार नहीं हूं.
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भ्रष्टाचार है, इस देश में और जम कर है. इसे दूर भी किया जाना चाहिए. निस्संदेह. किसी भी तरह के विधि-विरुद्ध  एवं अनैतिक आचरण को कठोर रूप से दण्डित भी किया जाना चाहिए. इस व्यवस्था के चलते ऐसे आचरण का उन्मूलन हो सकता है या नहीं, यह अलग बात है. इस पर बहसें चलती भी रही हैं, पिछले चार महीनों के दौरान तो लगभग निरंतर. ऐसा न दिखते हुए भी, भ्रष्टाचार बुनियादी तौर पर सिर्फ़ आर्थिक नहीं बल्कि राजनैतिक मुद्दा भी है, क्योंकि बिना राजनैतिक संरक्षण के यह फल-फूल ही नहीं सकता. कभी नहीं. इसलिए भ्रष्टाचार का विरोध भी राजनैतिक क्यों नहीं होना चाहिए? वह अराजनैतिक क्यों बना रहना चाहिए? यह और भी बुरी बात है कि कोई प्रच्छन्न रूप से राजनीति भी करे और अपने आंदोलन को अराजनैतिक भी कहता रहे. कुछ मित्र व्यक्तिगत चर्चा में नैतिकता के आग्रह को प्रमुखता देने की बात करते हैं. मेरा सिर्फ़ इतना निवेदन होता है कि नैतिकता भी 'वर्गातीत' नहीं होती. यदि भ्रष्ट लोग किसी नैतिकता-आधारित भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन को समर्थन देने या उसमें शामिल होने लग जाएं तो क्या भ्रष्टाचार में उनकी लिप्तता स्वतः खारिज हो जाएगी, और वे पाक-साफ़ हो जाएंगे? दूसरे यह कि यदि शुरू से लेकर आखिर तक मैं आपके साथ नहीं हूं तो इसका मतलब यह कैसे हो गया कि मैं आपके शत्रु के साथ चला गया? यह 'बुशवादी' रवैया ठीक है क्या? और पलट कर आप से यह कहा जाए कि आप 'बगुला भगत भ्रष्टों' के साथ चले गए तो कैसा लगेगा? पर मैं यह नहीं कहता क्योंकि मैं ऐसा मानता ही नहीं. मेरी समझ यह है कि ऐसे लोग ईमानदारी से भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं, पर आंदोलन में जनता की किसी भी स्तर की भागीदारी से मोहाविष्ट होकर ये आंदोलन के संचालकों के मूल मंतव्यों का सही आकलन नहीं कर पा रहे हैं.
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रूस के एक छोटे से प्रांत की निचली अदालत में इस्कोन के संस्थापक प्रभुपाद द्वारा की गई गीता की टीका पर प्रतिबंध लगाने की मांग क्या उठी हमारे देश के संस्कृति-वीर बिना पूरी खबर पढ़े अति-सक्रिय हो गए. फ़ेसबुक पर ही नहीं, संसद तक में सरकार का आह्वान किया गया कि वह 'कुछ' करे, 'राजनयिक चैनेल' को सक्रिय करे. 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को समर्पित  विपक्षी दल ने तो लगे हाथ गीता को 'राष्ट्रीय ग्रंथ' घोषित करने की मांग तक कर दी. देश के बहुसंख्यक जन की भावनाओं के आहत होने का ज़िक्र किया जाना तो लाज़िमी था ही. ऐसे में, मैंने एक छोटी-सी टिप्पणी करना ही उचित और उपयुक्त समझा :"आहत होने के लिए तो अफ़वाहें ही काफ़ी होती हैं क्योंकि ऐसा ही होता है आस्थावानों का मन! प्रभुपाद की टीका जिसने पढ़ी भी न होगी वह भी घुला-मरा जा रहा है, और विलाप ऐसा चहुंदिश, कि कुछ लोगों को यकायक गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करवाने की मुहिम चलाने का मौक़ा हाथ लग गया. किसी भी मांग के निहितार्थों को समझने की तो जैसे ज़रूरत ही खत्म हो गई है."

Monday 19 December 2011

जाना एक जनता के कवि का

"घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है / बताओ कैसे लिख दूं धुप फागुन की नशीली है." तमाम तरह की रूमानियत के सांचों को तोड़ते हुए, आम जन के दुःख-तकलीफ़ को मुखरित करने वाला जन कवि चला गया. उन्होंने जो जगह खाली छोड़ी है, वह खाली ही रहेगी, भर नहीं सकती.
वह अकेले बहुतेरे कवियों से अधिक सार्थक और प्रेरक काम कर रहे थे, कविता के माध्यम से. उनकी जगह भर सकनेवाला दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ता. समय साबित करेगा कि वह दुष्यंत कुमार से बहुत आगे के कवि थे, अधिक प्रतिबद्ध और कहीं अधिक जन पक्षधर. यह अनुल्लेखनीय नहीं है कि उनकी रचनाएं प्रतिष्ठानी समर्थन-अनुमोदन-प्रोत्साहन के बगैर लोकप्रिय हुईं. दुष्यंत कुमार को उस समय की प्रतिष्ठानी साहित्यिक पत्रिकाओं का समर्थन तो मिला ही था. सत्तर के दशक के मध्य में, कहानी की पत्रिका 'सारिका' ने दुष्यंत-केंद्रित अंक निकालकर उनकी ग़ज़लों को साहित्य के पाठकों के बीच प्रतिष्ठित कर दिया था. मेरा मक़सद दुष्यंत को कम करके आंकना नहीं है (मैं स्वयं अपने आपको को उनका बड़ा प्रशंसक मानता हूं), पर यहां मैं जो रेखांकित करना चाहता हूं वह यह कि अदम, दुष्यंत के विपरीत ठेठ देहाती चेतना के कवि थे, और उनकी जन पक्षधरता कहीं अधिक व्यापक और विश्वसनीय थी. यह तो सोने में सुहागा-जैसी बात है कि वह शहरी मध्य वर्ग के बीच भी, सिर्फ़ अपनी कविता की कुव्वत पर ऐसी लोकप्रियता (या कहूं, लोक मान्यता) अर्जित कर पाए, जिससे किसी भी कवि को ईर्ष्या हो सकती है.
मैं तो उनसे कभी नहीं मिला पर जिनको भी उनके साथ उठने-बैठने का सौभाग्य मिला था, वे सब इस बात पर एकमत हैं कि अदम सबसे बड़े उछाह से मिलते थे. किसी को भी कभी लगा ही नहीं कि वे एक बड़े कवि के साथ बैठे हैं। न वह बदले न उनकी कविता बदली, न उनका पक्ष बदला। जबकि बदलने और बिकने के लिए कितना बड़ा बाज़ार मुँह बाए खड़ा है। कह सकता हूं कि जो बदल जाता है वो अदम गोंडवी नहीं होता." जाने-माने कवि बोधिसत्व ने बड़ी बात कह दी है. दूसरे कवियों का मूल्यांकन भी इस कसौटी को आधार बनाकर किया जा सकता है/किया जाना चाहिए.
बोधिसत्व कहते हैं, हम बहुत कुछ पाने के चक्कर में मूलधन खो देते हैं। अदम ने वह धन कभी नहीं खोया। उनमें ऐसी कई बातें थीं जो आज इंसानियत के अजूबाघर में, कवि समाज के म्यूजियम में भी नहीं मिलतीं। नक्कालों की दुनिया में वे एक खुले मन के कवि थे। वे रहें न रहें उनकी कविताएँ रहेंगी। उनकी कथाएँ रहेंगी। मैं भी तीन दिन से अपनी समझ के आधार पर तरह-तरह से यही बात कहता रहा हूं. ज़्यादातर मित्रों की सहमति व कुछेक की विमति है. एक शानदार इंसान बने रहना और बड़ा कवि भी बने रहना, बिना किसी शान-गुमान के, विरल बात है. जनता का प्यार बड़ी पूँजी थी, उनकी. चूंकि उनकी खूबियां अजूबाघर में भी नहीं मिलती, बहुत से लोग उन खूबियों के महत्त्व को समझ नहीं पाते, या कोशिश ही नहीं करते समझने की.
मजरूह का यह शेर उन्हें बेहद पसंद था, जैसा कि भाई शेष नारायण सिंह ने अपने संस्मरण में कहा है,
"सुतून-ए-दार पर रखते चलो सरों के चिराग़,
के जहां तक यह सितम की सियाह रात चले."
इससे यह भी पता चलता है कि वह अपने अग्रज समानधर्माओं को कितनी आत्मीयता के साथ पढ़-समझ रहे थे.
एक बड़े जन-पक्षधर, आखिरी सांस तक विचार और कवि-कर्म से प्रतिबद्ध कवि के निधन के बाद, उनके मित्र-वृत्त से ही शुरू हुई चर्चाएं उनकी कविता की धार को कम नहीं कर सकतीं, और न आगे आने वाले समय में उनकी प्रासंगिकता को ही प्रश्नांकित कर सकती हैं. अपने विश्वास पर मरते दम तक टिके रहने वाले और जनता के बीच ऐसी मान्यता अर्जित कर लेने वाले कवि विरल ही होते हैं.
मैं उनकी कुछ कविताएं बिना किसी टिप्पणी के यहां संलग्न कर रहा हूं.

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर मगर
बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे वो
अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे 
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काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
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भटकती है हमारे गांव में गूंगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहबत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।। 
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सब्र की इक हद भी होती है तवजो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को 
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अदब का आइना उन तंग गलियों से गुजऱता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-कय़ामत का सफऱ ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रखें 'धूमिल' की विरासत को कऱीने से. 
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जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
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जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
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हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, ज़ार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
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रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बतलाएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
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ऊपर दिए गए ग़ज़लों के छोटे-बड़े अंश आज के समाज, राजनीति-सत्ता, सांप्रदायिक उन्माद एवं युवा-वर्ग व साहित्य से जुड़े अनेक प्रश्नों को प्रतिबिंबित करते हैं. इससे न केवल कवि के रूप में उनकी सामाजिक सक्रियता का पता लगता है, बल्कि उनकी रचनात्मक ऊर्जा से भी पाठक सहज ही रू-ब-रू हो जाता है. और नीचे दी जा रही कविता तो पाठक को हिलाकर/रुलाकर रख देने वाली है. यह तमाम आधुनिकता, विकास, लोकतंत्र और समानता के दावों के बीच आज की सामंती समाज-संरचना तथा शोषण एवं दमन को उघाड़कर रख देती है, और पाठक शर्मिंदा होता है इस अमानवीयता के मंज़र को देखकर.

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको


आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !