बुद्ध से आनंद ने पूछा था कि आप इस निरंतर गाली दे रहे व्यक्ति की बातों पर मुस्करा क्यों रहे हैं, और जवाब क्यों नहीं दे रहे हैं? इस पर भी बुद्ध ने फिर मुस्कराकर कहा, जिसके पास जो होगा वही तो देगा. अब यह तुम पर है कि उसे स्वीकार करो/न करो. कोई तुम्हें धन देना चाहता है, और तुम लेने से इन्कार कर दो, तो वह धन कहां रहेगा? देने की कोशिश करने वाले के पास ही न? तो इसी तरह मैं इसकी गालियों को नहीं ले रहा हूं, तो ये भी इसी के पास लौटकर चली जाएंगी न? मैं इसीलिए मुस्करा रहा हूं, और मेरी मुस्कान के साथ इसका क्रोध बढता जा रहा है. खीझ भी. क्रोध और खीझ आत्मघाती होते हैं क्योंकि ये इसके तनाव और अवसाद को बढाएंगे.
तो मित्रो, पिछले पांच-सात दिनों में मुझे जो गालीनुमा ख़िताब ("शोहदों" और "पंडों" का "गॉड फ़ादर", "फ़ेसबुक-बाबा", "बाबा फेलूनाथ") एक विद्वान सदाशयी संपादक और पिछले दिनों बहु-सम्मानित साहित्यकार ने दिए हैं, उन्हें मैं आनंद की मार्फ़त मिली सीख के अनुरूप, मुस्कराकर लौटा रहा हूं. कहने की ज़रूरत है क्या कि अब ये ख़िताब किसके खज़ाने की शोभा बढ़ाएंगे !
वैसे भी जो मुझे जानते हैं (उनकी संख्या कितनी ही कम क्यों न हो?), उनकी मेरे बारे में राय इन खिताबों से बदलेगी नहीं, और जो नहीं जानते या नहीं जानना चाहते हैं उनकी राय की फ़िक्र में मुझे दुबला क्यों होना चाहिए? एक सज्जन तो मेरी अंत्येष्टि की कामना करते हुए भी देखे गए. हमारे ब्रज में एक कहावत प्रचलित है कि "कव्वों के कोसने से ढोर मरने लगते तो एक भी ढोर नहीं बचता!" अब वह (अंत्येष्टि की कामना करने वाले भद्र समीक्षक) इस कहावत को अभिधा में लेकर मुझे "ढोर" कहने लगें तो यह उनकी समझ! पर इसमें एक जोखिम भी निहित है, क्योंकि वैसा करने का मतलब होगा कि वह अपने आपको "कव्वों" से जोड़ रहे हैं.
-मोहन श्रोत्रिय
तो मित्रो, पिछले पांच-सात दिनों में मुझे जो गालीनुमा ख़िताब ("शोहदों" और "पंडों" का "गॉड फ़ादर", "फ़ेसबुक-बाबा", "बाबा फेलूनाथ") एक विद्वान सदाशयी संपादक और पिछले दिनों बहु-सम्मानित साहित्यकार ने दिए हैं, उन्हें मैं आनंद की मार्फ़त मिली सीख के अनुरूप, मुस्कराकर लौटा रहा हूं. कहने की ज़रूरत है क्या कि अब ये ख़िताब किसके खज़ाने की शोभा बढ़ाएंगे !
वैसे भी जो मुझे जानते हैं (उनकी संख्या कितनी ही कम क्यों न हो?), उनकी मेरे बारे में राय इन खिताबों से बदलेगी नहीं, और जो नहीं जानते या नहीं जानना चाहते हैं उनकी राय की फ़िक्र में मुझे दुबला क्यों होना चाहिए? एक सज्जन तो मेरी अंत्येष्टि की कामना करते हुए भी देखे गए. हमारे ब्रज में एक कहावत प्रचलित है कि "कव्वों के कोसने से ढोर मरने लगते तो एक भी ढोर नहीं बचता!" अब वह (अंत्येष्टि की कामना करने वाले भद्र समीक्षक) इस कहावत को अभिधा में लेकर मुझे "ढोर" कहने लगें तो यह उनकी समझ! पर इसमें एक जोखिम भी निहित है, क्योंकि वैसा करने का मतलब होगा कि वह अपने आपको "कव्वों" से जोड़ रहे हैं.
-मोहन श्रोत्रिय
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