Saturday 17 August 2013

चक्र पूरा घूम गया है



अर्थव्यवस्था उस मुक़ाम पर पहुंच गई है वापस, जहां वह थी 1991में. कैसी विडंबना है कि उस लाइसेंस-परमिट-राज की जगह जिस नव-उदारवादी (भूमंडलीय -निजीकृत) अर्थव्यवस्था का इतना गुणगान किया गया था, उसने वापस वहीं पहुंचा दिया. हां, एक फ़र्क़ ज़रूर पड़ा, और वह यह कि भ्रष्टाचार तब की तुलना में कई गुना बढ़ गया, और निजी कम्पनियों की पूंजी में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई. निजी लोभ-लालच का जो निर्लज्ज खेल चला है इस दौर में, वह भी बेजोड़ है. न राजनेता बचे और न नौकरशाह ही, इस खेल के मज़े लेने से. रुपया गिर रहा है, तो गिरते ही चला जा रहा है, और लगता ही नहीं कि जल्दी ही थमेगा. मध्य वर्ग हाय-हाय कर रहा है, तो उनका तो कहना ही क्या जिनके पास नियमित आय का कोई स्रोत है ही नहीं. जमाखोरों के मज़े हैं, वे प्याज़ जैसी चीज़ को भी "सैकड़ा" दिखा सकते हैं, जल्दी ही.

चिंता की बात यह है कि सत्ताधारी तथा प्रमुख विपक्षी दल (जिसे लग रहा है कि उसे सत्ता मिली हुई ही समझी जाए) आर्थिक नीतियों के मामले में एक ही जगह खड़े हैं. मामला उन्नीस-बीस का भी नहीं है. और तीसरा मोर्चा? वह तो कहीं है ही नहीं, इस पल तक ! और मजबूरी में बन भी जाता है तो कोई फ़र्क़ आ जाने की उम्मीद करना वैसा ही है जैसे भैंसे से दूध पा लेने की आकांक्षा पाल लेना. क्योंकि उस संभावित तीसरे मोर्चे के अधिकांश घटक तो अपना दांव लगने पर, इन नीतियों की मलाई काट ही चुके हैं/ रहे हैं.

फिर भी कहना ज़रूरी रह जाता है क्या कि असली आज़ादी किसे मिली है !


-मोहन श्रोत्रिय

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