Wednesday 26 June 2013

यादों का क्या !


कौन याद कब उभर आए, कहा नहीं जा सकता. आज मैं अपने मित्र-बड़े भाई की किताब के आखि़री प्रूफ़ देख रहा था. करौली से हमारा साथ शुरू हुआ था, सैंतालीस साल पहले. सो अचानक प्राध्यापक के रूप में कॉलेज का अपना पहला दिन याद आ गया. साथ ही और भी बहुत कुछ ऐसा याद आ गया जो करौली जैसे छोटे क़स्बे को खास बना देता है.
इक्कीस बरस की उमर. एमए का परिणाम आने के डेढ़ महीने के भीतर ही मुझे नियुक्ति का तार मिल गया (डाक से पुष्टि बाद में आया करती थी). विश्वविद्यालय से निकला ही था, तो वेश-भूषा भी विद्यार्थियों जैसी ही : आधी बांह की कमीज़, ड्रेन पाइप पैंट, नोकदार चमचमाते काले जूते. प्राचार्य के दफ़्तर की ओर जा रहा था, कि पीछे से एक विद्यार्थी की आवाज़ कानों में पड़ी, "यह भी कोई एडमिशन लेने आ गया दिखता है!" पलटकर देखा तो बोलने वाला एक लंबा-सा स्मार्ट लड़का था. दफ़्तर में औपचारिकताएं पूरी होते ही, प्राचार्य (जो स्वयं भी अंगरेज़ी साहित्य के ही थे) ने पूछा "आज क्लास लेंगे?" मैंने कहा, "क्यों नहीं?" उन्होंने बताया कि आधा घंटा बाद हॉल में विज्ञान के प्रथम वर्ष की अनिवार्य अंगरेज़ी की क्लास होगी. वह मुझे पुस्तकालय ले जा रहे थे, तभी लड़कों का वही झुंड दिख गया, और वह लड़का भी. शायद वह समझ गया कि मैं एडमिशन लेने तो नहीं आया था. पुस्तकालय में, मैंने नोट किया, कि प्राचार्य मेरी रुचियों का अंदाज़ लगाने की कोशिश कर रहे हैं. जिस शेल्फ़ के सामने मैं रुकता वह भी रुक जाते. थोड़ी देर बाद ही घंटी बज गई, और वह मुझे हॉल के दरवाज़े पर आगे बढ़ लिए (बाद में पता चला कि वह आस-पास ही मंडरा रहे थे, आश्वस्त हो जाने के लिए कि मुझे कोई परेशानी का सामना तो नहीं करना पड़ रहा है. ग़नीमत थी कि नहीं पड़ा. और वह बाद में चाय पीते-पीते अपनी खुशी व्यक्त कर भी गए कि मेरा पहला दिन उनकी उम्मीद से कहीं ज़्यादा शानदार रहा.
हॉल में घुसा, और सभी छात्र खड़े हो गए. वह लड़का भी जिसे मैं यहां "पढ़ने आया अपने जैसा लड़का" लगा था. मेरी नज़र उसी पर थी. मैं मुस्कराया, और उसने नज़रें नीचे कर लीं. कहा कि सबके नाम कल लिखेंगे, और एक-एक से परिचय भी कल ही करेंगे. आज तो अपना परिचय दे देते हैं. और चूंकि शिक्षक का परिचय पढ़ाने से मिलता है, तो पढ़ाकर देना ही ठीक रहेगा. किताब मिली नहीं थी. व्याकरण से ही एक टॉपिक चुना, और शुरू हो गए. इतनी देर में यह समझ में तो आ गया था कि बोर्ड पर लिखने के लिए जब विद्यार्थियों की तरफ़ पीठ करूंगा तो कोई शोर तो शुरू नहीं ही होगा. एक वाक्य लिखता और तुरत उसका खुलासा करने के लिए मुड़ जाता. उस स्मार्ट लड़के की ओर ज़रूर देख लेता.
पहले बीस मिनट निर्विघ्न निकल जाएं तो फिर क्या डर? तो सच में कोई डर नहीं था.
वह स्मार्ट लड़का हिंडौन में नामी-गिरामी वकीलों में गिना जाता है. जब भी यहां मुझसे मिलने आता है तो पहले दिन के अपने जुमले का ज़िक्र किए बिना नहीं रहता. साथ ही यह भी जोड़ना नहीं भूलता "मेरी समझ में यह क्यों नहीं आया कि आप पढ़ने नहीं, पढ़ाने आए थे?"

-मोहन श्रोत्रिय 

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