उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत पसंद की जाने वाली ज़ुबानों में से एक है जिसका अभ्युदय भारत में मुस्लिम शासन के लगभग 800 सालों की हुकूमत के दौरान हुआ, मुस्लिम हुकूमत के अंतिम 100सालों में (1800 के आते आते और उसके बाद) इसका प्रचार प्रसार लेखन में अभिव्यक्ति के बतौर इतिहास में दर्ज़ किया जाने लगा. मुस्लिम हुकूमत के दौरान मध्य एशिया के विभिन्न देशों से आये सैनिकों जिनमें तुर्क, मंगोल, ईरान और अरब के सैनिकों की संख्या अधिक थी, इन्हीं अहम नस्लों की फ़ौजी छावनी में एक मिश्रित भाषा अपने सहज-मानवीय व्यवहार के दौरान बनी जिसका नाम उर्दू है. उर्दू ज़ुबान को छावनी से निकल कर महल और सत्ता के गलियारों से संबंध रखने वाले समाजी तबके में अपना असर महसूस कराने में काफ़ी वक्त भी लगा और मेहनत भी. ज़ाहिर है मुग़लिया हकुमत के दौरान फ़ारसी ही राज्य भाषा थी जिसके समानान्तर या यूं कहें कि इसकी छत्रछाया में उर्दू ने अपने पैरों पर चलना सीखा. यह कहना ऐतिहासिक रुप से सच नहीं होगा कि उर्दू शुद्ध रुप से भारतीय भाषा है या इसका मुसलमानों से कोई वास्ता नहीं. यह भाषा शुद्ध रुप से भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के आगमन के पश्चात ही विकसित हुई जिसमें कालान्तर में देवनागरी के शब्दों का प्रचलन-सम्मिश्रण भी वैसे-वैसे बढ़ा जैसे-जैसे इसका असर और रसूख समाज के दूसरे इदारों में बढ़ा और इसे सामाजिक स्वीकृति मिली.
ज़ाहिर है, उर्दू का विकास क्योंकि छावनी में हुआ और उसका फ़ैलाव सत्ता से जुड़े सामाजिक तबके में ही हुआ लिहाज़ा यह जन भाषा कभी नहीं बन सकी. राजा के दरबार में साहित्य, काव्य अथवा राजा से जुड़े उसके मनसबदार, नवाब, सूबेदार, फ़ौज के अफ़सर, शासन चलाने वाले हाकिम, मालगुज़ारी वसूलने वाले और ज़मींदारों के बीच ही इसका प्रचलन बढ़ा. सामंती समाज में इसी तबके के पास पढ़ने लिखने, काव्य और मौसीकी के लिये वक्त था तब इनके मानसिक मनोरंजन या विलासिता के लिये जिस बाज़ार का निर्माण तत्कालीन समाज में हुआ उसे उर्दू से पूरा किया. ज़ाहिर है इस तबके को स्थानीय भाषा अथवा उसके कवियों से उस सुख की अनुभूति स्वाभाविक रूप से नहीं मिल सकती थी जिनका खून उन्हें चूसना था...जिनसे उन्हें लगान वसूलना था या जिन पर उन्हें शासन करना था. ब्रज भाषा, भोजपुरी, अवधी, खडी बोली में उनकी सत्ता के मद का रस भला कैसे व्यक्त किया जा सकता था? स्थानीय भाषाओं का दर्द उनके वर्गीय चरित्र के अनुरूप था जबकि मलाईदार सामंती तबकों को अपनी मानसिक संतुष्टि (ऐय्याशी) के लिये जिस फ़ाहे की जरुरत थी, वह रुहानी फ़ाहा फ़राहम कराने का काम उर्दू भाषा ने पूरा किया, इसके मिठास पर चर्चा करने वाले, उस पर रात-दिन एक करने वाले अदीब भारतीय इतिहास के इस करुणामय तथ्य को भूल जाते हैं कि आम जनता के लिये उस कठिन समय में इस मिठास का लुत्फ़ लेने वालों के हाथ कोहनियों तक और पैर घुटनों तक खून में रंगे हैं. ज़मीन पर विदेशी हुकमरानों का कब्ज़ा हुआ था, जिनकी ज़मीनें थीं वही देशज भाषी जोतदार-गुलाम बने और उर्दू बोलने वाले उनके राजा, हाकिम, लगान वसूलने वाले बने. निसंदेह उर्दू का इतिहास बताने वाले इस भाषा के सामंती चरित्र पर हमला किये बगैर ही इसका महिमामंडन यदि करते हैं तब उनके वर्गीय चरित्र का मूल्यांकन ज़रुर करना होगा. दूसरी एक वजह, इस भाषा का मुसलमानों से संबंधित होने के कारण इसके राजनीतिक रुप से संवेदनशील होना भी है जिसके चलते इस भाषा के वर्गीय चरित्र पर ऐतिहासिक मीमांसा ऐसे नहीं हुई जैसी होनी चाहिये थी. इतिहास के किसी क्रम और उससे जुडे़ अनाचार को भुलाकर किसी भाषा की समीक्षा करना न केवल एकांगी होगा वरन इतिहास के साथ निर्मम धोखाधड़ी भी होगा. भारत के संदर्भ में यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है, संस्कृत, पालि, अवधी, ब्रज, तमिल, तेलुगू आदि से लेकर उर्दू तक हमें इन भाषाओं के वर्गीय चरित्र और इनके सामाजिक आधार की समीक्षा ज़रुर करनी होगी तभी किसी फ़ैसलाकुन नतीजे पर पहुंचा जा सकता है.
सामंती चरित्र की विशेषताएं विलक्षण हैं, सामंत अपना घर, अपनी बैठक, खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, खाना-पीना, कपडे, तलवार, हत्यार, बैंत, जूती, धर्म, संस्कार, तौर-तरीके, मूंछ का बाल, यहां तक कि नाई-धोबी-लोहार-दर्जी आदि पर ही न केवल अपनी दबंगई की छाप छोड़ता है बल्कि उससे भी अधिक उसे अपनी भाषा पर घमंड होता है. सामंती सोच की इस कमज़ोरी को, या यूं कहें कि इस लक्षण को उर्दू ने बखूबी अपने काम में लगाया. इस भाषा ने न केवल भारत के सामंती तबके की वैचारिक नज़ाकत को प्रश्रय दिया बल्कि इस वर्ग के साथ खुद को जोड़ कर अपनी विशिष्टता बनाए रखने में भी कामयाब हुई, नवाब-सामंत-हाकिम भी इससे संतुष्ट था कि उसकी ज़ुबान की नज़ाकत सिर्फ़ उसे ही समझ में आती है, आम कामगार, खेत मज़दूर अथवा श्रमिक उसकी भाषा से अनभिज्ञ है, इससे उसके व्यक्तिगत दंभ को भी बल मिलता. यह दंभ दोनों को एक दूसरे की हिफ़ाज़त करने में मददगार साबित हुआ, लिहाज़ा उर्दू भारत के शासक वर्ग की ज़ुबान बन गई जबकि ज़मीनी स्तर पर जनता की ज़ुबान इलाकाई भाषाएं ही रहीं, लेकिन मुसलमान शासक वर्ग दिल्ली, कलकत्ता, मैसूर, हैदराबाद जैसे दूरस्थ स्थानों पर भी एक ही ज़ुबान मज़बूती से बोलता दिखा.
भारत पर अंग्रेज हुकूमत के दौरान और उससे निजात पाने की जुस्तजु यानि आज़ादी की लडाई के दौरान उर्दू के सामंती चरित्र पर थोडी चोट लगी. आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे सनानियों जिसमें मुसलमान तबका भी शामिल था अब आम जनता से बातचीत करने को तैयार दिखा, लिहाजा उर्दू की किताबें, इश्तहार और देशभक्ति के तरानों के माध्यम से उर्दू किसी हद तक आम जनता के घरों में आ पहुंची. हिंदी- हिंदू- हिंदु स्तान जैसे नारे का चलन 1930 के दशक से शुरु हो जाने के कारण उर्दू को मुस्लिम और हिंदी को हिंदू जैसे सख़्त लबादे ओढ़ने पर मजबूर होना ही था. धर्म के आधार पर जंगे आज़ादी की लडाई जब तकसीम हुई तब उर्दू को मुकम्मिल तौर पर मुसलमानों के आंगन तक ही सिकुड़ना था जोकि तर्कसंगत भी था. दार्शनिक, लेखक, कवि इक़बाल ने मुसलमानों को एक मुक़म्मिल राष्ट्र की अवधारणा के रूप में निरूपित कर ही दिया था, मौहम्मद अली जिन्ना ने इसी आधार पर द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की रचना की और एक स्वतंत्र मुसलमान राज्य की स्थापना करने में जुट भी गये, 1944 में गांधी को लिखे एक पत्र में जिन्ना ने खुद को मुसलमानों का एकमात्र नेता मानते हुए कुछ यूं कहा, " हम 10 करोड़ लोगों के एक मुक़म्मिल राष्ट्र हैं, हम अपनी विशिष्ट संस्कृति, सभ्यता, भाषा, साहित्य, कला, भवन निर्माण कला, नाम, उपनाम, मूल्यांकन की समझ, अनुपात, क़ानून, नैतिक आचार संहिता, रिवाज़, कलेंडर, इतिहास, परंपरा, नज़रिया, महत्वाकांक्षाओं के चलते एक राष्ट्र हैं. संक्षेप में हमारा जीवन पर और जीवन के बारे में एक विशिष्ट नज़रिया है लिहाजा किसी भी अंतर्राष्ट्रीय नियम क़ायदे-क़ानूनों के मद्देनज़र हम एक राष्ट्र हैं." इस व्यक्तव्य से भाषा के महत्व और उसकी गंभीरता को समझा जा सकता है.
भारत की आज़ादी और पाकिस्तान बनने के बाद उर्दू के लिये हुए संघर्ष को समझने के लिये हमें पाकिस्तान के इतिहास को ही टटोलना होगा. पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही होगी, यह पहले ही मुस्लिम लीग ने स्पष्ट कर दिया था लेकिन भविष्य में इस प्रश्न को लेकर कितना गंद-गुबार छिपा है इसे कौन जानता था? बंटवारे से पहले जिन्ना 10 करोड़ मुसलमानों के स्वयंभू नेता थे, लेकिन जो पाकिस्तान उन्हें मिला, दुर्भाग्य से उसमें अधिसंख्यक 4.5 करोड़ बंगाली मुसलमान थे जिन्हें अपनी भाषा और संस्कृति से बेहद प्यार था. जो तर्क जिन्ना ने भारत के बंटवारे से पहले अपने लिए दिए थे, उन्हीं तर्कों के आधार पर बंगाली समाज अपने हिस्से का "पाउण्ड आफ़ फ़्लेश" मांग रहा था जिसे मुस्लिम लीगी सामंती नेतृत्व अपने दंभ के चलते देने को तैयार नहीं था. बंगाली मुसलमानों के बहुमत होते हुए भी इस दंभी नेतृत्व ने उर्दू को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया. पृथ्वी पर बने पहले नवजात मुस्लिम राष्ट्र को सबसे पहले भाषा के सवाल पर ही चुनौती झेलनी पडी. पूरा पूर्वी पाकिस्तान (पूर्व बंगाल) में उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिये जाने पर गहरे विक्षोभ में डूब गया, इसी विरोध के मद्देनज़र जिन्ना ने ढाका विश्वविद्यालय के कर्जन हाल में 21 मार्च 1948 को अपने भाषण में कहा:
"मुझे आपके सामने यह स्पष्ट कर देना है कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी. जो भी इस संदर्भ में आपको गुमराह करने की कोशिश करेगा वह असल में पाकिस्तान का दुश्मन है. बिना एक राष्ट्रीय भाषा के कोई भी देश मजबूती के साथ एकजुट नहीं रह सकता और न ही कार्य कर सकता है. दूसरे देशों का इतिहास देखो इसीलिये जहां तक पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा का प्रश्न है, वह उर्दू ही होगी."
पूरा हाल इस व्यक्तव्य के बाद "नो" से गूंज गया, राष्ट्रपिता (क़ायदे आज़म) जिन्ना को अपने ही नौनिहाल देश में यह पहले सार्वजनिक विरोध का सामना था. 11 सितंबर 1948 को जिन्ना की मृत्यु के बाद लियाक़त अली ख़ान ने अपने भरपूर सामंती स्वरुप में उर्दू की वकालत जारी रखी जिसके साथ साथ बंगाली मुसलमानों में बंगाली भाषा के लिये मोह बढ़ता गया. पाकिस्तानी हुकमरानों ने इस विवाद से निपटने के लिये एक भाषा समिति भी बनाई जिसकी सिफ़ारिशें गुप्त रखी गईं. बंगाली भाषा को सार्वजनिक रूप से हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा बता कर (क्योंकि उसका आधार संस्कृत है) उसका शुद्धिकरण करने जैसी तकमीलें निकाली गईं. रवींद्र संगीत और नज़रुल के गीतों को हिंदू संस्कृति का वाहक घोषित किया गया जिसके चलते गैर मुस्लिम बंगाली समाज में असुरक्षा का भाव लगातार गहराता गया. भाषा के मसले पर सभाएं, धरना प्रदर्शन होने से लगातार बंगाल का राजनैतिक माहौल गर्माता रहा जिसे उर्दू के पैरोकारों-सामंतों-नेताओं ने पाकिस्तान के विरुद्ध चल रही साज़िश बताया. इसी माहौल में 21 फ़रवरी 1952 को ढाका में एक प्रदर्शन के दौरान हुकूमत ने गोली चला दी जिसमें सैकड़ों ज़ख़्मी हुए और विश्वविद्यालय के चार छात्रों की मौत हो गई जिनके नाम रफ़ीक, जब्बार, सलाम और बरक़त थे. इस घटना को बंगलादेश के इतिहास में "एकुशै" त्रासदी के नाम से जाना जाता है, इन्हीं चार लोगों की स्मृति में ढाका की शहीद मीनार बनाई गई और इन्हीं चारों शहीदों को बंगाल राष्ट्र के अग्रज नेताओं के रुप में आज भी जाना जाता है. 1952 से लेकर 16 दिसंबर 1971 के 19 वर्षों के इतिहास में पश्चिमी पाकिस्तान को बंगाल पर एक औपनिवेशिक ताक़त और उनके ज़ुल्मो-सितम में कोई 30 लाख बंगालियों की हत्याएं इसी उर्दू अदब के प्रेमियों, दंभियों, फ़ासिस्ट ताक़तों ने अपनी नाजायज़ संतान जमाते इस्लामी जैसे संगठन, फ़ौज, पुलिस, खुफ़िया इदारों आदि के जरिये करवाई. उर्दू भाषी अल्पसंख्यक होते हुए भी, अपने दंभी संस्कारों के चलते पूरे पाकिस्तान पर इस भाषा को थोपने का नतीजा यह हुआ कि अपने जन्म के कुल 24 साल के भीतर इसे पूर्वी पाकिस्तान से हाथ धोना पड़ा. इन 24 सालों में यदि बंगाली समुदाय का संसद, फ़ौज, सरकारी नौकरियों, पुलिस आदि में आनुपातिक प्रतिनिधित्व देखें तब यह स्पष्ट हो जाता है कि पश्चिमी पाकिस्तान के हुकमरान इन्हें कितने संदेह की दृष्टि से देखते थे. भाषा के साथ-साथ पूर्वी बंगाल से जुड़े अन्य राजनीतिक प्रश्नों/कारणों पर यहाँ टिप्पणी करना न तो प्रासंगिक है, और न उचित ही होगा. आज़ाद बंगलादेश के लिये ऐकुशै (इक्कीस) फ़रवरी एक राष्ट्रीय पर्व बन गया है, राष्ट्रभक्ति और बंगला भाषा के प्रेम से ओतप्रोत कई मधुर काव्य रचनाएं की गईं हर साल उन चारों छात्र शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि पूरे बंगला देशवासियों द्वारा अर्पित की जाती है.
भारत में उर्दू भाषा का चरित्र मूलत: कुलीन वर्गीय ही रहा, खासकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जिसकी स्थापना का मूल उद्देश्य भारतीय मुस्लिम सामंतों, नवाबों और मध्य-उच्च वर्ग के बच्चों को अंग्रेज़ी तालीम देना था (सर्व साधारण मुसलमानों के लिये नहीं) लिहाज़ा वहां तालीम लेने गए कुलीन मुस्लिम नौजवानों ने इस ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को भली-भांति निभाया. इसी विश्वविद्यालय के पढे़ सूरमाओं ने सबसे पहले उसी मुल्क को तोड़ने का वैचारिक आधार पैदा किया जहां वह पले बढे, आज भी यह विश्वविद्यालय उन देशभंजक कवियों और उर्दू भाषा के नाम पर सीना ठोक ठोक कर दंभ मारने वालों के कसीदे पढ़ने में कोई कोताही नहीं बरतता बल्कि उनके लिये सालाना जलसे भी मनाता है. इसी विश्वविद्यालय के पढे दानिशवरों ने पाकिस्तान में जुबान को मज़हब से जोड़ने वाली अमरनाल की संचरना की जिसके चलते, न केवल भाषा को ही नुक़सान उठाना पडा बल्कि पूरे इतिहास को सिरे से खारिज करने की मंशा में एक पूरी पीढी को ज़हर से भर दिया जिसे अपने अतीत के सही अर्थों का न तो ज्ञान रहा, न मान. आज इन्हीं उर्दू के दंभियों ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बोली जाने वाली पंजाबी ज़ुबान जिसकी पैदाइश भारतीय है, उसकी नयी लिपि फ़ारसी-अरबी के आधार पर विकसित की जा रही है. जिस विषैली मानसिकता के चलते उन्होंने बंगला भाषा के शुद्धिकरण का प्रयास 1950 के दशक में किया था, उसी दूषित मानसिकता के चलते वह पंजाबी की इबारत लिखने में ,उल्टे हाथ से शुरु करने और उसका गुरुमुखी प्रभाव समाप्त कर उसे अरबी-फ़ारसी लिपि देने में साफ़ स्पष्ट हो जाता है कि ये किस मानसिकता से ग्रस्त तबका है.
यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि उर्दू भाषा के साहित्यकारों की एक लंबी फ़ेहरिस्त उन लेखकों से भरी पडी है जिन्होंने भारत में इंकलाब करने की कसमें खाई थी, सज्जाद ज़हीर से लेकर कैफ़ी आज़मी तक बाएं बाजू के इन तमाम दानिशवरों, शायरों, अफ़साना निगारों ने जंगे आज़ादी में बडी-बडी कुर्बानियां दी हैं. 1943 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (अधिकारी-लाइन के चलते) ने पाकिस्तान विचार को लेनिन के सिद्धांत के आधार पर खुली मान्यता दी और बाक़ायदा मुस्लिम साथियों को पाकिस्तान पार्टी बनाने के लिए भेजा गया, सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के पहले जनरल सेक्रेटरी भी बने, उनके बाद फ़ैज़ साहब ने किसी हद तक परचम थामे रखा बावजूद इसके कि उन्हें कई दौरे हुक्मरानों ने जेल की सलाखों के पीछे डाले रखा फ़िर भी वह मरते दम तक अपने इंकलाबी मक़सद से नहीं हटे. दुर्भाग्य से ये तमाम नेता उर्दू भाषी ही थे जो अपनी आला तालीम के बावजूद कोई बडा ज़मीनी आंदोलन शायद इसी लिये नहीं खडा कर पाये क्योंकि इनकी तरबियत भी सामंती निज़ाम, ज़ुबान, उसूलों और रस्मों रिवाज में ही हुई थी. इन्होंने मुशायरों में भीड़ तो इकठ्ठी की लेकिन उसे जलूस बना कर सड़क पर लाने में सफ़ल न हुये. शायरी से किताबी और काफ़ी इंकलाब तो जरुर हुआ लेकिन सुर्ख इंकलाब का परचम कभी घरों के उपर नहीं फ़हराया जा सका. इन्हें लेनिन पुरस्कार जैसे बड़े बड़े एज़ाज़ हासिल तो हुए लेकिन व्यापक जनता का खुलूस न मिल सका. आज भी कमोबेश यही हक़ीक़त हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों में देखी जा सकती है. इस ज़ुबान के शायर/लेखक टेलिविज़न चैनलों पर अच्छी बहस करते देखे जा सकते हैं लेकिन दांतेवाडा काण्ड-सोनी सोरी-आज़ाद हत्याकांड आदि पर जावेद अख्तर कभी नहीं बोलते देखे जा सकते, वहां अरुंधति राय उन्हें पटकी देती नज़र आती हैं. नतीज़ा यही हुआ कि सलमान तासीर की हत्या के बाद उसके विरोध में चंद आदमी सड़क पर उतरे जबकि उसके क़ातिल को अदालत में वकीलों की तरफ़ से हीरो जैसा सम्मान मिला.
उर्दू का भविष्य पाकिस्तान में भी दिन ब दिन अंधेरे की गर्त में घुसता प्रतीत हो रहा है, जिन हालात से पाकिस्तान आज बावस्ता है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ये मुल्क एक बार फ़िर टूटन के कगार पर है. अमेरिका की मौजूदगी, उसके साथ टकराव और पाकिस्तानी समाज एक आंतरिक अंतर्विरोध उसे फिर तोड़ दें तो ताज़्ज़ुब न होगा. बलोचिस्तान की स्वतंत्रता के बाद स्वाभिक रूप से पंजाब, सिंध अपनी अपनी राष्ट्रीयताओं की तरफ़ तेज़ी से बढेगें जैसे नार्थ वेस्ट प्रोविन्स में पठान बढे हैं, इस राज्य में पश्तो ज़ुबान राज्य भाषा हो ही चुकी है, पंजाबी अपनी ज़ुबान लेंगे, सिंधी अपनी और बलोच अपनी ही भाषा को महत्व देंगे...बचे मुहाजिर, जिनकी हक़ीक़त से आज पूरी दुनिया दो चार है, उनका नेता लंदन में बैठा तकरीरें करता है और दिल्ली में आकर मुहाजिरों की खता माफ़ करने और उन्हें वापस हिंदुस्तान में पनाह देने का ऐलान पहले ही कर चुका है, ऐसे हालात में उर्दू का यह डगमगाता जहाज़ कितनी दूर और आगे परवाज़ करेगा यह कहना अभी मुश्किल है लेकिन क़यास लगाया ही जा सकता है.
भारत में उर्दू ज़ुबान पर मुलायम जैसे नेताओं ने अपनी रोटियां सेक सेक कर इसे शुद्ध रुप से सांप्रदायिक प्रश्न बना दिया है, जितना प्रचार उर्दू के नाम पर किया जाता है उससे अधिक गति से हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान शहर, कस्बों और गांवों की दीवारों पर पुता दिखाई देता है. बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि जगह ज़मीनी स्तर पर उर्दू के प्रचार-प्रसार के संजीदा काम हुए हैं, मदरसों से पढे हुए छात्र आमतौर पर धार्मिक इदारों में ही खप कर रह जाते है जिनकी व्यापक समाज के हित में कोई रचनात्मक भूमिका न के बराबर है, लेकिन सियासी मसले पर यह तबका आंदोलित होकर जब सड़क नापता है तब उसकी प्रतिक्रिया ज़बरदस्त होती है.
उर्दू भाषा को सच्ची राह और दिशा हिंदुस्तान के गली कूचों से ही मिलेगी, इस भाषा का प्रचार जितना जड़ों में होगा उतना ही इसके सिर से सामंती बोझ कम होगा, जितनी भी यह जन भाषा होगी उतनी ही सरस होगी. जब जब इसे महारानी बना कर पेश किया जाता रहेगा तब तब इसके वंश और खानदान की पड़ताल होगी, इसके खिलाफ़ साज़िशें होंगी, इसे हुक्मरान की नज़र से देखा जाता रहेगा जिसका नतीजा हम देख ही चुके हैं, हां अगर ये दूसरी भाषाओं की बहन बन गयी, तभी से इसकी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा सभी स्वत: ले लेंगे (आज भी इस सोच के लोग हैं जो इसी जज़्बे के चलते इसे न केवल सम्मान देते हैं बल्कि उसे अपने कुनबे की समझ कर इसकी सेवा करते हैं), सभी इसकी सेहत का, दाने-पानी का, इसके मिलने जुलने वालों को वही तवज्जो देंगे जैसे बहनों को मिली है, उन्हें दी जाती है, इसे भी दी जाएगी..शर्त यह है कि इसे महारानी के दंभी तख्तोताज़ से उतरना होगा जहां इसे नाजायज़ तरीके से कुंठित, दूषित, मानसिक तौर पर दिवालिया सियासी लोगों ने जबरन बैठा दिया है.
पाकिस्तान मे उर्दू साहित्य के हालात पर एक आलेख यहाँ पढ़ें.
बहुत उम्दा, उर्दू ज़बान और इसके सरोकारों पर इससे ज्यादा माकूल कोई परचा मैंने आज तक नहीं पढ़ा, कम से कम फेसबुक पर तो कतई नहीं.....शम्स साहब यकीनन तारीफ के हक़दार है और मोहन सर का शुक्रिया हमेशा की तरह एक लाजवाब तहरीर पढवाने के लिए......
ReplyDeleteThis is a sharp and biting piece, laudable survey. There are facts which I didn't know. Since I don't know Urdu and its adb, the literary part is beyong my reach and expertise. But there are some facts which ought to be doubly checked. I will from friends in BD and Pakistan who studied with me. Most disturbing is the figure associated with killing of 30 lacs Bengalis, almost an ethnic cleansing (which Yahya indeed did, by fundamentalist organizations like the Jamat-e-Islami and others. The figure seems to be somewhat exaggerated. Very disturbing facts, if really true. Mohan should give source of this essay where it was initially published. There is a tinge of rancor in the style of the author, I notice. It is a matter of debate whether writers, revolutionaries or not, will have to be on street for the cause for certification of their ideas and convictions, or they may be appreciated for stirring conscience of people, as Mohan here has done in different context, through pen. As they say, pen is more powerful than sword (i.e, taking to streets). Choice is individual's.
DeleteAssociating Urdu with comfort, court and exploitation is a bit far fetched, a hyperbole. I wish this whole piece is printed, circulated and debated among literary persons like Mohan Shrotriya himself and his equals. Strangely enough, he has reproduced the essay without his own comments that I would have valued and expected as a natural corollary of this xeroxing. Sure, this must have informed Mohan's community of readers, but most of them have appreciated this help. But no substantive comment. Mohan should take a lead, re-read and give his own assessment or critique. Hasan does definitely expects and awaits anxiously.
इतिहास को खंगालना पीड़ादायक और सुविधाजनक दोनों हो सकता है , लेकिन उससे सीख तो हमेशा ही मिल सकती है ...उत्तम आलेख ...
ReplyDeleteबहुत सही विश्लेषण किया है |ऐतिहासिक और द्वंद्वात्मक परिप्रेक्ष्य के बिना केवल राजनीति की भाषा में चीजों को समझे जाने की प्रक्रिया ने हमेशा गड़बड़ी की है |उर्दू की जमीन को जाने बिना हम विभ्रम की गलियों में भटकते रहेंगे या फिर उनको साम्प्रदायिकता का रंग दे देंगे |आपने उर्दू की जमीन से उसकी हकीकत को समझा है |सही परिप्रेक्ष्य के गंभीर चिंतन-परक आलेख के लिए बधाई
ReplyDeleteअभी तक उर्दू को हिंदी के संदर्भ में देखा जाता रहा है, खासकर भाषा समस्या पर लिखने वाले हिंदी, उर्दू और अंगेजी के विद्वानों के लेखन में. पहली बार उर्दू को मुस्लिम प्रभुवर्ग, बांग्लादेश और पाकिस्तान के संदर्भ में मैंने पढ़ा. यह खास बात है. शम्स भाई ने बहुत है धारदार और निर्मम विश्लेषण किया है. काश कि मैं यह कह पाता उर्दू जहां से पैदा हुई है वही बचेगी. काश की बचे और अपनी तरक्कीपसंद, आजाद ख्याल रूह की ओर लौटे.काश कि उसमें ग़ालिब. मीर. पैदा हों और वह प्रेमचंद को भी रख सके.
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख......दिलो-दिमाग़ पर गहरा असर छोड़ने वाला....शम्स साहब को सलाम....
ReplyDeleteइतिहास को खंगालना पीड़ादायक और सुविधाजनक दोनों हो सकता है , लेकिन उससे सीख तो हमेशा ही मिल सकती है ...उत्तम आलेख ...
ReplyDeleteलेख कल देर रात पढ़ा था। अचानक कुछ कहते नहीं बना पर सच मानिए दिमाग में चलते रहा। अगर आजादी के आंदोलन के दौरान उर्दू आम आदमी तक पहुंची थी और आम आदमी ने इसे अपनाया था तो इससे दिक्कत किसे और क्यूं थी? जो हुआ वो तर्कसंगत था, सिर्फ इतना कहना काफी है या इसके पीछे भी ऐतिहाषिक षडयंत्रों की भूमिका है जिसमें अंग्रेज शासक और शासक वर्ग से नजदीकी और नौकरियां तलाश रहा द्विज वर्ग शामिल था और जो नवजागरण और यहां तक कि स्वतंत्रता आंदोलन को चोट पहुंचाने तक की हद तक साम्प्रदायिक कार्ड खेल रहा था। मुझे लगता है कि जिस तरह भावनात्मक उद्वेग में उर्दू का महिमागान या उसका मर्सिया पढ़ा जाता है, यहां भी कई बार झटके से निष्कर्ष निकलते हैं।
ReplyDeleteलोकभाषा और सत्ता की भाषा निश्चय ही दो अलग चीजें रही होंगी। पूरे उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाको में भाषा का अलग-अलग प्रवाह भी कई बातें सामने रखता है। जरूरी नहीं कि जिस नफासत या जिस भाषा को एक इलाके का रसूखदार या पढ़ा-लिखा वर्ग अपनाता हो, उसे लोक भी ज्यूं का त्यूं अपना सकता हो। लेकिन, जहां मैं रहता हूं (गांव हसनपुर लुहारी, ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर (अब प्रबुद्धनगर)),वहां लोगों की आम `जाहिल` जबान में उर्दू खूब शामिल हो गई। जाहिर है वो दरबार की भाषा नहीं है, वह कौरवी खड़ी बोली है जिसमें उर्दू, संस्कृत से निकले शब्द, लोक के लुप्त होते शब्द, पंजाबी, हरियाणवी, राजस्थानी आदि का सम्मिश्रण मिलता है। हो सकता है कि गांव में दरबार होने औऱ पास में ज़लालाबाद में भी दरबार रहने के कारण ऐसा हो। लेकिन, कुल मेरठ और आसपास के इलाकों की आम बोली में यह घुला-मिलापन आपको मिल सकता है।
यह बात भी सच है कि उर्दू इस वक़्त मदरसों और उर्दू में छपे किसी पन्ने को गली से उठाकर दीवारों में ठूंसते मुसलमान बच्चों के लिए अकी़दत की तरह है और हिंदुओं के लिए मुसलमान भाषा।
भाषा को लेकर जिद की बात सही है। यह बात राष्ट्रवादी भी कहां समझने के लिए तैयार हैं और दक्षिण में इसका कट्टर विरोध भी देखने में आता है। हिंदी को राष्ट्रभाषा मनवाने की ज़िद के बरक्स दूसरी ज़िदें भी जारी हैं। पंजाब में पंजाबी बोली ने खुद को शानदार भाषा के रूप में विकसित किया है और उर्दू को लेकर संघर्ष का जिक्र बलराज साहनी के मशहूर पर्चे में भी है। लेकिन `हिंदुस्तानी` पंजाब में हिंदी-पंजाबी का संघर्ष भी देख सकते हैं। हालांकि हिंदू और सिख धर्मों के नाम पर राजनीति करने वाली ताकतों में गठबंधन भी रहता है। जिस इलाके में आम आदमी के लिए अंग्रेजी समझना नामुमकिन हो, वहां सिख संस्थाओं पर पंजाबी के साथ अंग्रेजी के ही बोर्ड मिलेंगे लेकिन हिंदी में लिखा जाना गवारा नहीं किया जाएगा, भले ही इससे बात ज्यादा लोग समझ सकते हों। फिर जहां मुसलमानों को मारकर भगा दिया गया और उर्दू को भी तिलांजलि दे दी गई, वहां भाषा के नाम पर ही पंजाब से अलग होकर हरियाणा अस्तित्व में आया। अब वहां संस्कृति के नाम पर हावी मोनो जाटू ज़िद हिंदी को भी पराई भाषा बताती है और मीडियोकरों ने फायदे उठाने के लिए हरियाणवी के नाम पर घटिया और अश्लील पाठ्यक्रम भी चालू करा दिया है।
मेरे जैसे लोगों के लिए गुत्थी सुलझने के बजाय उलझती जाती है। इसलिए मैंने लेख पढ़ा और बहुत सी बातों से सहमत रहा, बहुत सी बातों से चिंतित। तब खयाल आया कि कमेंट करने के बजाय श्रोत्रिय जी से यह निवेदन हो कि इस पर भाषा, इतिहास, नवजागरण आदि में दखल रखने वालों से राय लेकर यहां रखी जाए ताकि शम्स जी को भी अच्छा लगे और हमें भी फायदा हो।
पुनश्च: जावेद अख्तर और शबाना तो इस खेल के पुराने खिलाड़ी हैं। लक्षमी मित्तल से लेकर अटल बिहारी तक उनकी पहुंच सहज रहती आई है। लेकिन जेएनयू जो अपने बागी तेवरों के लिए नामी रहा, वहां के लोग क्या कर रहे हैं, कहां-कहां कि शोभा बढ़ा रहे हैं. वहां के नामवर तो हिंदी विभाग तैयार होते वक़्त उर्दू को शामिल किए जाने के कट्टर विरोधी थे। उनके खयाल में हिंदी विभाग पाकिस्तान बनने जा रहा था। इस वक़्त उस जेएनयू के कई क्रांतिकारी प्रतिरोध के तमगे भी पाते-बांटते घूमते हैं और सत्ता तिष्ठानों के बेशरम नगीने भी बने हुए हैं।
अभी तक उर्दू को हिंदी के संदर्भ में देखा जाता रहा है, खासकर भाषा समस्या पर लिखने वाले हिंदी, उर्दू और अंगेजी के विद्वानों के लेखन में. पहली बार उर्दू को मुस्लिम प्रभुवर्ग, बांग्लादेश और पाकिस्तान के संदर्भ में मैंने पढ़ा. यह खास बात है. शम्स भाई ने बहुत है धारदार और निर्मम विश्लेषण किया है. काश कि मैं यह कह पाता उर्दू जहां से पैदा हुई है वही बचेगी. काश की बचे और अपनी तरक्कीपसंद, आजाद ख्याल रूह की ओर लौटे.काश कि उसमें ग़ालिब. मीर. पैदा हों और वह प्रेमचंद को भी रख सके.
ReplyDeleteलेख सुविचारित है और अधिकाँश बातों पर असहति की गुंजाइश नहीं है. मेरा सवाल बस एक है कि यदि उर्दू आम सैनिकों के मध्य विक्सित हुई और इसीमे उनका आपसी सम्बन्ध बना तो यह कैसे कहा जा सकता है कि उस युग में उर्दू बोलचाल की भाषा नहीं रही होगी.कालान्तर में क्या हुआ यह बात अलग है लेकिन उसकी उत्पत्ति बोलचाल की भाषा के रूप में, संपर्क -भाषा के रूप में हुई मेरी जानकारी यही है.यह भी याद रखना होगा कि उर्दू से पूर्व जो भाषा प्रैडीसैसर के रूप में प्रचलन में थी उसे मेरे ख़याल से हिन्दवी कहा जाता था और अगर यह सच है तो इसे केवल आक्रान्ताओं कि भाषा ना कहकर तत्कालीन आवश्यकता की उपज कहना अधिक समीचीन होगा.
ReplyDeleteमैंने इस लेख को कई बार पढ़ा. कई स्थापनाओं से बिल्कुल सहमति है. लेकिन कुछ चीजें उलझ भी रही हैं. मसलन तरक्कीपसंद तहरीक के शुरुआती झंडाबरदारों के खालिस उर्दूदां होने के बावजूद आजादी के तुरत बाद से उर्दू के हालात जो बदतर हुए उनकी वजूहात क्या हैं? दूसरे, अंग्रेजी और अपने वर्तमान स्वरूप में हिन्दी की जो पैदाइश है वह भी राष्ट्रवाद के कोख से सत्ताधारी और पुरोहित वर्ग की भाषा के रूप में ही नहीं हुई है क्या? क्या अन्य भारतीय भाषाओं के साथ इसका व्यवहार साम्राज्यवादी नहीं रहा? मसलन राजस्थान की मातृभाषा हिन्दी कैसे बन गयी? क्या वहाँ बोले जाने वाली राजस्थानी भाषा नहीं थी? मीरा आखिर हिन्दी की कवि कैसे हैं?
ReplyDeleteतीसरा, भाषा का सत्ता वर्ग के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के हथियार के रूप में इस्तेमाल का सच क्या सिर्फ उर्दू के साथ घटा वाकया है? क्या उर्दू के हालिया हालात की जड़ें आजादी और बंटवारे के बाद के उस मुस्लिम विरोधी माहौल में नहीं हैं जहाँ इसे रोज़गार से पूरी तरह काट दिया गया? क्या सामंती परिवेश में पैदा हुई उर्दू तरक्कीपसंद तहरीक के शायरों और मेहनतकशों की जुबान पर चढ़ने के बाद वैसी ही रह गयी? आपने पाकिस्तान में उर्दू के लादे जाने की जो बातें की हैं क्या वे हिन्दी के सन्दर्भ में हिदुस्तान में हु ब हू सच नहीं हैं?
उर्दू के सवाल पर शमशाद इलाही 'शम्स' का आलेख संजीदा और महत्वपूर्ण होने के साथ पूरी तरह वैज्ञानिक और संतुलित है, ऐसा कहने में मुझे थोड़ी हिचक लगती है। भाषा और धर्म के दबाव से मुक्त रहकर अपनी बात कहने के अतिरिक्त उत्साह में उनका स्वर कहीं-कहीं अतिवादी भी हो गया है। अव्वल तो मैं किसी भाषा, धर्म या संस्कृति को मालिकों और मातहतों में बांटकर देखना उचित नहीं समझता - हां सामंती मानसिकता वाले मालिक और सियासी संगठन अपने-अपने तरीके से उनका इस्तेमाल जरूर करते रहे हैं और वह आज भी कर रहे हैं। भाषा या धर्म से जुड़ा व्यापक जन-समुदाय कभी आक्रामक होकर दूसरे पर लदने की तरफदारी नहीं करता, वह वैसा ही करना पसंद करता है, जैसे व्यवहार की वह अपने प्रति अपेक्षा रखता है। न दबाव में रहो और किसी पर दबाव डालो। आमजन अपने मन-ईमान में अमन-पसंद रहते हुए यही सोच रखता है। इसी को व्यापक अर्थ में लोक-न्याय कहा जाता है। लेकिन भाषा, धर्म या दूसरे दीगर मसलों को लेकर अपने सियासी स्वार्थों के चलते कुछ परजीवी धर्मगुरू, तथाकथित राजनेता और जातीय-पंच आम लोगों को उकसाकर या डरा-धमकाकर, किन्हीं मसलों पर अपनी जुनूनी बातें और मनमानियां मनवाते रहे हैं, लेकिन व्यापक जन-समुदाय ने आमतौर पर उन्हें नापसंद ही किया है। ऐसे लोग अपने जीवनकाल में ही उन्हीं अन्तर्विरोधों के चलते खारिज भी कर दिये गये। इसलिए उर्दू या किसी भी भाषा के मामले में यह कहना जल्दबाजी होगी कि वह किसी पर लाद दी गई, रही बात उसके सरकारी जुबान या संपर्क भाषा बनने की वह एक राष्ट्र की फौरी जरूरत हो सकती है, और अगर सियासत करने वाले समझदारी से काम लेकर सभी लोकभाषाओं को उचित सम्मान देते हुए, (यानी अपने अपने क्षेत्र में उसे उचित मान-मान्यता देकर राज-काज में बराबरी का स्थान देकर) एक संतुलन कायम कर सकें तो बहुत सी परेशानियों से बचा जा सकता है। भाषा के मामले में भी सैक्यूलर सोच को बढाया जाए तो मेरा खयाल है, बहुत-सी परेशानियों और फालतू के विवाद से बचा जा सकता है। जिन्ना या सियासी मुस्लिम नेताओं की जो भी राजनीति रही हो, उर्दू के बारे में यह कहना सही नहीं है कि वह बंगला, पंजाबी, सिन्धी या पश्तो पर जबरन लाद दी गई। उसे पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा या संपर्क भाषा बनाते हुए बाकी जुबानों के साथ बेहतर सलूक नहीं हुआ, ये ऐतिहासिक भूल वहां के शासकों से निश्चय ही हुई है और इसका खामियाजा वे आज भी भुगत रहे हैं, यही कारण है कि हमारे देश की तरह पाकिस्तान की भाषा समस्या भी उलझी हुई नजर आती है। 'शम्स' की इस बात से सहमत हूं कि "जितनी भी यह जन भाषा होगी उतनी ही सरस होगी. जब जब इसे महारानी बना कर पेश किया जाता रहेगा तब तब इसके वंश और खानदान की पड़ताल होगी, इसके खिलाफ़ साज़िशें होंगी, इसे हुक्मरान की नज़र से देखा जाता रहेगा जिसका नतीजा हम देख ही चुके हैं, हां अगर ये दूसरी भाषाओं की बहन बन गयी, तभी से इसकी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा सभी स्वत: ले लेंगे।"
ReplyDeleteएक नयी दृष्टि देने वाला सूझ-बूझ से भरा लेख जो कई सवाल खड़े करता है और कई सवालों के समाधान भी करता है ! शम्स जी को बधाई !
ReplyDeleteउर्दू की बात चले और भावनात्मक रक्तपात न हो , ऐसा कैसे हो सकता है .भाषा न छावनी में पैदा होती है , न महल में. न धर्म में न राजनीति में . वह गाँव या शहर में पैदा होती है . उर्दू शहर में पैदा हुयी . उस का 'घर का नाम' हिंदी था और 'स्कूल का नाम ' उर्दू. लेकिन उर्दू -हिदी साम्प्रदायिकता के इतिहास का जोर ऐसा है कि शमश भाई जैसे रौशनख़याल कामरेड भी उर्दू को मुसलमानों से जोड़े बगैर नहीं रह पाते .मैंने आज तक किसी को यह कहते नहीं सुना कि अंग्रेज़ी ईसाइयत की भाषा है . कहते भी कैसे . एक जमाने तक तो बाइबिल का अंग्रेज़ी में तर्जुमा करना भी गुनाहेअज़ीम माना जाता था. लेकिन यह भुला दिया गया कि ठीक उसी तरह एक जमाने तक , हिन्दुस्तान में , कुरआन शरीफ का उर्दू में तर्जुमा करने की कोशिश भी कुफ्र ही समझी जाती रही. जैसे यह भुला दिया गया कि उर्दू के सर्वश्रेष्ठ दौर में नवलकिशोर प्रेस न होता तो आधुनिक उर्दू अदब भी न होता , बेशुमार हिंदू उर्दूदानों की बात तो जाने दीजिए. Sheeba Aslam Fehmi का यह कहना कि ''Saaf saaf suniye, Urdu ko sampradayik nazar se Hinduon ne dekha aur 'Musalman ki zaban' keh kar is se alag ho gaye.'' भाषा के मसले को साम्प्रदायिक नज़रिए से देखने का दुखद उदहारण है .गुजारिश है कि श्म्शुर रहमान फारुखी की एक छरहरी सी किताब '' उर्दू का आरम्भिक युग '' पढ़ ली जाए , फिर बात ही . जिस से कि उन कम से कम उन तथ्यों के बारे में बिरादराना खून खराबा न हो , जो अब भली भाँती स्थापित हैं. .. और हाँ , धीरेश भाई जे एन यू का नामवर हिंदी विभाग देश का पहला हिंदी विभाग था , जहां हिंदी एम् ए करने के लिए उर्दू पढ़ना अनिवार्य था.
ReplyDeleteबेहतरीन तहरीर उर्दू जुबान पर ...उर्दू के सभी मसअलों को छूती संजीदा पेशकश .....शुक्रिया शम्स साहब .....मोहन सर
ReplyDeleteएक बेहद विचारोत्तेजक लेख है यह... भाषा और संप्रदाय को लेकर जो उपनिवेशवादी सोच थी, उससे हम आज भी नहीं उबर पाए हैं। इसी का परिणाम है कि हम आज भी भाषाई मामलों में बहुत दकियानूसी ढंग से सोचते हैं। शम्स भाई ने कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मुद्दे उठाये हैं, लेकिन राजनैतिक और सामाजिक कारणों से अब उर्दू ही क्या किसी भी भारतीय भाषा पर बात करना ही जैसे सांप्रदायिक या कि क्षेत्रीयतावादी हो जाना माना जाता है। ऐसे समय में मादरी जबान पर बात करना खतरे से खाली नहीं, जब सब कुछ ग्लोबलाइज्ड हो... शम्स भाई बहुत उम्दा लिखते हैं और उनकी राजनैतिक समझ का मैं बेहद कायल भी हूं, लेकिन भारतीय समाज और राजनीति की जो हाले है उसमें नहीं लगता कि हालात जल्द ही बदलने वाले हैं।
ReplyDeleteआशुतोष जी, आपके द्वारा सुझाई गई पुस्तक कहां से मिलेगी, कृपया बताइएगा। मुझे लगता है कि टुकड़ा टिपण्णियों के अलावा भी इस मसले पर बड़े लेख यहां दिए जाने चाहिए। श्रोत्रिय जी को यह जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी।
ReplyDeleteआशुतोष जी जेएनयू का हिंदी विभाग दुर्भाग्य से नामवर के उसी स्टेंड का साक्षी बना था, जिसका मैंने जिक्र किया है।
कृष्ण कल्पित की कविता `रेख़ते के बीज` भी इस वक़्त याद आ रही है-http://ek-ziddi-dhun.blogspot.in/2010/01/blog-post_7845.html
ReplyDeleteसभी विद्वानों को प्रणाम, आपने अपना कीमती वक्त दिया, लेख पढा-विमर्श भी किया. कहीं कहीं सरपट दौडा हूँ, क्योंकि जिन नतीजों पर बहुत से साथियों की असहमति है, उसे साबित करने के लिये बहुत से उद्धर्ण दिये जाने की आवश्यकता थी, जैसे बंगाल के अशरफ़ तबके की भूमिका, पश्चिमी पाकिस्तान के मलाईदार सामंतों-शासक वर्ग के साथ उसकी एकरुपता/एकजुटता बहुत कठोर तथ्य था, लेख निरंतर लंबा होता जा रहा था सो, कई स्थानों पर सीधे निष्कर्ष लिखे. जो साथी असहमत हैं, कोशिश करुंगा कि आने वाले वक्त में उनकी उम्मीदों पर खरा उतरुं. इस प्रश्न को मैंने दलित-वाम नज़रिये से देखने की कोशिश की है. सादर
ReplyDeleteUrdu Language : Itni gehrai se Urdu Bhasha Ka parichaya,shayad hi pahale kisi ne publish kiya ho. Yeah lekh Urdu se parichay hi nahi, balki Urdu ke Udvikas Aur Vikaas ka tarkik vivran prastut karta ha. Gyan vardhak lek ha... Ek serial form mein aagey bhi iski nirntarta bana sake to pathko ke liye achcha hoga... Dhanyawad.
ReplyDeleteshamshad ilahi shams ka lekh aur jeevan singhji avam ashutoshkumar ki tippaniya vicharniya hain.jo sawal ashutoshji ne apne uddarano se uthaye hain un per aur charcha honi chahiye.aaj ke bhasker main vedpratap vedik to pakistan se baluchistan ke alag hone ka saket u.s parliyament main aaye prastav ke aadhar per kar rahe hain.
ReplyDeleteshamshad ilahi shams ka lekh aur jeevan singhji avam ashutoshkumar ki tippaniya vicharniya hain.jo sawal ashutoshji ne apne uddarano se uthaye hain un per aur charcha honi chahiye.aaj ke bhasker main vedpratap vedik to pakistan se baluchistan ke alag hone ka saket u.s parliyament main aaye prastav ke aadhar per kar rahe hain
ReplyDeletejitni taarif ki jaaye kam lagti hai, aaj tak urdu ko lekar kafi kuchh padha hai, par aaj padhkar bahut achchha mahsoos hua aur ab tak jo gyan tha urdu ke sambamdh me usme kafi izafa hua hai
ReplyDeleteShamshad Elahee Shams भाई मुझे इस ब्लॉग को पढकर बहुत खुशी मिली व इस पोस्ट से बहुत कुछ सिखने को मिला. वास्तव में सम्म्स भाई धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने इतनी मेहनक करके इस आलेख को बहुत ही मन से दात्चित होकर लिखा. मैं उनकी लेखनी कि इतिहासपरक अभिरुचि से अभिभूत हो गया .
ReplyDeleteकिस तरह भिन्न भिन्न बोलिया सत्ता के साथ एक जगह से दूसरी जगह यात्रा करते हुवे जनता पर शासन करने के दोरान अपनी शासन-प्रशासन कि भाषा गढ़ लेती हैं यह बहुत अच्छ अदाहरण हैं.
इस आलेख को पढकर मैं यह लिख सकता हूँ कि जिस प्रकार कि उर्दू भाषा शासित व आधारित पाकिस्तान भी एक राष्त्रता नहीं हैं उसी प्रकार हिंदी भाषा से शासित हिंदुस्तान एक राष्ट्रीयता आधारित देश नहीं कहा जा सकता हैं !
आशुतोष भाई, मेरा कामरेड होना सच बोलना या उसे छिपाने को मजबूर नहीं करता...भारत में मुस्लिम हुकूमत अगर न होती तब क्या उर्दू का जन्म होता? इसे मानने मे क्या हर्ज है कि यह भाषा मुसलमानों के भारत में आने से ही पैदा हुई है.
ReplyDeleteआज प्रगतिशील वसुधा के अंक-89 में सुधीर रंजन सिंह के साथ रामविलास शर्मा जी ने साक्षात्कार में यह बात मुझे इस प्रसंग में बहुत महत्वपूर्ण लगी जो रामविलास जी ने कही... आपके लिए जस की तस रख रहा हूं। ... '' 1800 के पहले उर्दू शब्द का व्यवहार कहीं भी भाषा के लिए नहीं होता था, छावनी के लिए होता था। 1802 में जब फोर्ट विलियम कॉलेज आबाद हुआ तो उसके बाद उन्होंने संगठित प्रयत्न किया कि मुसलमानों की भाषा उर्दू हो और हिंदुओं की भाषा हिंदी हो और उन्होंने लल्लू जी लाल को बुलाया, दूसरों को लाये, काजी मलीर को लाये। काजी मलीर ने जब उर्दू लिखी तो वो बहुत, हिंदी के बहुत करीब थी, तो उन्होंने कहा कि इसमें फारसी के शब्द और डालो, जिससे अलग दिखाई दे। ये सारी प्रक्रियाएं कर चुके हैं ये लोग। 1872 के आसपास जब राजा शिवप्रसाद ने यह प्रयत्न किया कि हाई स्कूल तक कम से कम हिंदू-मुसलमान लड़कें एक ही कक्षा में पढ़ें-भूगोल, इतिहास, विज्ञान। उन्होंने कहा कि ऐसे ही टेक्स्ट बुक बना दीजिये। अंग्रेजों ने कहा कि बना के दिखाओ, और पंडित और मुल्ला, दोनों उसको स्वीकार करें, तब हम प्रयास करें। तब उन्होंने बड़ी मेहनत से तीन-चार टेक्स्ट बुक-पाठ्य पुस्तकें बनाईं और उन्होंने पंडितों से भी पास करा लिया और मौलवियों से भी पास करा लिया। लेकिन जो लेफ्टिनेंट गवर्नर था, उसने रद्द कर दिया, उसने कहा कि यहां पर मुसलमानों के खिलाफ है और यहां हिंदुओं के खिलाफ है। इस तरह संगठित रूप से ये प्रयास करते रहे।''
ReplyDeleteइसे यहां उद्धृत करने का एक ही मकसद है कि उर्दू भाषा को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशें अंग्रेजों ने शुरु से ही जारी रखीं और लोग उसी मानसिकता से आज भी उर्दू के बारे में सोचते हैं।
प्रेम भाई आपकी जानकारी से यह पोस्ट और अधिक सार्थक हो गयी ..बहुत बहुत आभार आपका.
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