Tuesday 2 July 2013

कात रे मन...कात : मायामृग की रचनाधर्मिता



मायामृग स्नेही मित्र हैं. अभी थोड़ी देर पहले उनकी तीन किताबों की सौगात मिली है. ज़ाहिर है, उनसे ही. “जमा हुआ हरापन” कविता संग्रह है. एक “चुप्पा शख्स की डायरी” नए किस्म का डायरी-प्रयोग है. और “कात रे मन... कात” बीज वाक्यों का संग्रह है, "अप्रकट" से संवाद की शैली में . डायरी उन्होंने फ़ेसबुक पर साझा की थी, धारावाहिक रूप से. बहुत पसंद भी की गई थी. मैंने भी की थी.

“कातरे मन...कात...कातेगा तो बुनेगा... बुनेगा तो ओढ़ेगा...सब ओढ़कर जीते हैं, तू भी ओढ़कर जी” बेहद दिलचस्प औरअर्थवान पंक्तियों का यह संग्रह एक सांस में पढ़ लेने वाली किताब है. इसकी खूबी है वह विशिष्ट अंदाज़े-बयां जो मायामृग ने शब्दों से खेलते-खेलते विकसित कर लिया है.या मुझे ही ऐसा लगता है? अब यह उनकी पहचान भी बन गया है. दो-चार नमूने देखिए :

हंसते हैं दांत वाले
रोएंगे आंख वाले.

हर बात पर हैरान होती है...
स्त्री है कि अचरज...

इक जंग है भीतर...जिसमें हार तय
है...इक जंग है बाहर...जिसमें जीत
की चाह नहीं...तुम कहो तो युद्धविराम
जारी रखाजाए...
कहते-कहते उघड़ सकता था
सच...तुम अगर तुरपाई ना
जानते... या तुम्हारे हाथ में
सुई-धागा न होता.
सुबह मंदिर के सामने से निकला तो
अज़ान सुनाई दी...अब मस्जिद के
सामने से निकल रहा हूं तो आरती
गूंज रही है...मार डालेंगे मुझे दोनों
तरफ़ वाले.

ऐसे ही लिखते रहें, मायामृग, अपने खिलंदड़ अंदाज़ में !

-मोहन श्रोत्रिय

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