Wednesday, 26 June 2013

संस्‍मरण

1970 में, करौली में एक नौजवान ग़ज़ल गायक फ़ारूक़ ने एक बेहद शानदार ग़ज़ल सुनाई थी. फ़ारूक़ उस कच्ची उमर में ही बहुत लोकप्रिय हो गए थे, और देश भर में उनकी मांग रहती थी, ग़ज़ल- संध्याओं में. बाद में अंगरेज़ी विभाग के ही मेरे एक सहकर्मी भी इसे उसी बलंदी के साथ सुनाते थे. वह अब नहीं रहे. आज अचानक उनकी याद आ गई, बेवजह-सी. इस ग़ज़ल के सिर्फ़ दो अशआर याद रह गए हैं.
न इतना तेज़ चले सिरफिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है.
ये किस मुक़ाम पे ले आया है जुनूं मुझको
जहां से अर्श भी नीचा दिखाई देता है.
 

ठोस ज़मीन पर खड़ा शायर ही यह बात कह सकता है.
आज के हालात के हिसाब से भी ये अशआर एकदम मौजूं लगते हैं. आइपीएल या फ़ेसबुक के संदर्भ में इनकी प्रासंगिकता तलाशने की ज़हमत न उठाएं.
 

-मोहन श्रोत्रिय

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