Wednesday 8 August 2012

आह मेरे लोगो ! ओ मेरे लोगो ! - कात्यायनी की ऐतिहासिक महत्‍व की कविता


कात्‍यायनी की कविता में संवेदना और विचार का एकाकार एक अत्‍यंत विरल परिघटना है. एक घनघोर मानवीय त्रासदी पर हिंदी में कदाचित यह सर्वश्रेष्‍ठ रचना है. गुजरात को यह किसी अकेली या अपवादस्‍वरूप घटना के रूप में न देखकर समकालीन सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के विद्रूप को सामने लाकर यह कविता सामाजिक बदलाव को प्रतिश्रुत साहित्‍यकारों का आह्वान भी करती है कि वे फ़ौरी और दीर्घकालिक दोनों तरह के कार्यभारों के निर्वहन के लिए इकट्ठा हों.


आह मेरे लोगो ! ओ मेरे लोगो !
(गुजरात---2002)


धुआं और राख और जली-अधजली लाशों
और बलात्कृत स्त्रियों-बच्चियों और चीर दिए गर्भों
और टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए शिशु-शरीरों के बीच,
कुचल दी गई मानवता, चूर कर दिए गए विवेक और
दफ्न कर दी गई सच्चाई के बीच,
संस्कृति और विचार के ध्वंसावशेषों में
कुछ हेरते, भटकते,
रुदन नहीं सिसकी की तरह,
उमड़ते रक्त से रुंधे गले से
बस निकल पड़ते हैं नाज़िम हिकमत के ये शब्द :
'आह मेरे लोगो !'
'साधो, ये मुर्दों का गांव'
--सुनते हैं कबीर की धिक्कार.
नहीं है मेरा कोई देश कि रोऊं उसके लिए :
'आह मेरे देश !'
नहीं है कोई लगाव इस श्मसान-समय से, कि कहूं :
'आह मेरे समय !'
इन दिनों कोई कविता नहीं,
सीझते-पकते फ़ैसलों के बीच, बस तीन अश्रु-श्वेद-रक्त-स्नात शब्द :
'आह मेरे लोगो !'

दर-बदर भटकते ब्रेष्ट का टेलीग्राम कल ही कहीं से मिला,
अभी आज ही सुबह आया था
कॉडवेल, राल्फ़ फॉक्स, डेविड गेस्ट आदि का भेजा हुआ हरकारा
पूछता हुआ ये सवाल कि एक अरब लोगों के इस देश में
क्या उतने लोग भी नहीं जुट पा रहे
जितने थे इंटरनेशनल ब्रिगेड में
क्या हैं कुछ नौजवान इंसानियत की रूह में हरक़त पैदा करने के लिए
कुछ भी कर गुज़रने को तैयार?- पूछा है भगत सिंह ने.
ग़दरी बाबाओं ने रोटी के टुकड़े पर रक्त से
लिख भेजा है संदेश.

महज मोमबत्तियां जलाके, शांति मार्च करके,
कहीं धरने पर बैठने के बाद घर लौटकर
हम अपनी दीनता ही प्रकट करेंगे
और कायरता भी और चालाकी भरी हृदयहीनता भी
शताब्दियों पुराने कल्पित अतीत की ओर देश को घसीटते
हत्यारों का इतिहास तक़रीबन पचहत्तर वर्षों पुराना है.
धर्म-गौरव की मिथ्याभासी चेतना फैलती रही,
शिशु मंदिरों में विष घोले जाते रहे शिशु मस्तिष्कों में,
विष-वृक्ष की शाखाएं रोपी जाती रहीं मोहल्ले-मोहल्ले,
वित्तीय पूंजी की कृत्या की मनोरोगी संतानें
वर्तमान की सेंधमारी करती हुई,
भविष्य को गिरवी रखती हुई,
अतीत का वैभव बखानती रहीं
और हम निश्चिन्त रहे
और हम अनदेखी करते रहे
और फिर हम रामभरोसे हो गए
और फिर कहर की तरह बरपा हुआ रामसेवक समय.
अभी भी हममें से ज्यादातर रत हैं
प्रतीकात्मक कार्रवाइयों और विश्लेषणों में, पूजा-पाठ की तरह
अपराध-बोध लिए मन में.

ये समय है कि
वातानुकूलित परिवेश-अनुकूलित
गंजी-तुंदियल या छैल-छबीली वाम विद्वत्ताओं से
अलग करें हम अपने आपको,
संस्‍कृति की सोनागाछी के दलालों के साथ
मंडी हाउस या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में
कॉफ़ी पीने का लंपट-बीमार मोह त्यागें,
हमें
निश्चय ही'
निश्चय ही,
निश्चय ही,
अपने लोगों के बीच होना है.
हमें उनके साथ एक यात्रा करनी है
प्रतिरक्षा से दुर्द्धर्ष प्रतिरोध तक.
इस फ़ौरी काम के बाद भी हमें सजग रहना होगा.
ये हमलावर लौटेंगे बार-बार आगे भी, क्योंकि
विनाश और मृत्यु के ये दूत,
पीले-बीमार चेहरों की भीड़ लिए अपने पीछे
चमकते चेहरे वाले ये लोग ही हैं
इस तन्त्र की आखिरी पंक्ति.

सहयात्रियों का हाथ पकड़कर कहना चाहते हैं हम उनसे,
साथियो ! दूरवर्ती लक्ष्य तक पहुंचने के रास्ते और रणनीति के बारे में
अपने मतभेद सुलझाने तक,
तैयारी के निहायत ज़रूरी, लेकिन दीर्घकालिक काम निपटने तक
हम स्थगित नहीं रख सकते
अपना फ़ौरी काम.
गुजरात को न समझें एक गुजरी हुई रात.
इस एक मुद्दे पर हमें
एक साथ आना ही होगा.
'आह मेरे लोगो' - इतना कहकर अपनी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें
कि एक स्वर से आवाज़ दें :'ओ मेरे लोगो!'
-ये तय करना है हमें
अभी, इसी वक़्त !


कूपमंडूक की कविता

क्यों कोसते हो इतना?
हम तो किसी का
कुछ नहीं बिगाड़ते ।

न ऊधो का लेते हैं
न माधो को देते हैं ।

संतोष को मानते हैं परम सुख ।
रहते हैं वैसे ही
जाहि बिधि रखता है राम ।

बिधना के विधान में
नहीं अड़ाते टांग।
जगत-गति
हमें नहीं व्यापती
तो तुमको क्या?

तुमको क्यों तकलीफ़ कि
हमारा आसमान छोटा-सा है
कुएं के मुंह के बराबर?

हमने क्या बिगाड़ा है
जो कोसते हो इतना

पानी पी-पीकर?


या कि होगा 

एक दिन
पर्यावरण की सुरक्षा पर
कोई कार्यक्रम नहीं हुआ.
जनसंख्या-विस्फोट पर
नहीं प्रकट की गई कोई चिंता.
कला की शर्तें
पूरी करने के लिए
नीलामी नहीं बोली गई
सच की, या ईमान की

एक दिन
मृत्यु नहीं हुई किसी कवि की
या कविता की
नहीं बैठा कोई विद्वान
किसी पूर्वज की पीठ पर
न ही कोई पुरस्कार बंटा
न तालियां बजीं.
उस दिन
कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त
करने की
कोई नई कोशिश नहीं हुई
न कोई हत्या,डकैती,राहजनी हुई
न कोई व्यापार-समझौता ।
उस दिन
नहीं छपे पूरी दुनिया के अखबार ।

अद्भुत था वह एक दिन
जो नहीं था
वास्तव में कभी
पर सोचते हैं सभी
कि था कभी ऐसा एक दिन
जीने के वास्ते
या कि होगा ?

परसाई के तीर

हरिशंकर परसाई का व्‍यंग्‍य कितना ही पुराना हो जाए, ऐसा लगता है जैसे आजकल में ही लिखा गया है. यह अकारण नहीं है कि हिंदी साहित्‍य ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्‍य में उनके क़द का कोई दूसरा लेखक नहीं दिखता. इसे दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा कि विदेशी भाषाओं में उनके लेखन का अनुवाद नहीं हो पाया, वरना यह बात बड़े इत्‍मीनान के साथ कही जा सकती है कि उनकी गिनती दुनिया के श्रेष्‍ठ लेखकों में होती. 

"मैं लेखक छोटा हूं, पर संकट बड़ा हूं."

"हमारी हज़ारों साल की महान संस्कृति है और यह समन्वित संस्कृति, यानी यह संस्कृति द्रविड़, आर्य, ग्रीक, मुस्लिम आदि संस्कृतियों के समन्वय से बनी है. इसलिए स्वाभाविक है कि महान समन्वित संस्कृति वाले भारतीय व्यापारी इलायची में कचरे का समन्वय करेंगे, गेहूं में मिट्टी का, शक्कर में सफ़ेद पत्थर का, मक्खन में स्याही सोख काग़ज़ का. जो विदेशी हमारे माल में "मिलावट" की शिकायत करते हैं, वे नहीं जानते कि यह "मिलावट" नहीं "समन्वय" है जो हमारी संस्कृति की आत्मा है. कोई विदेशी शुद्ध माल मांगकर भारतीय व्यापारी का अपमान न करे."

"अगर दो साइकिल सवार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़ें तो उनके लिए यह लाज़िमी हो जाता है के वे उठकर सबसे पहले लडें, और फिर धूल झाडें. यह पद्धति इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि गिरकर न लड़ने वाला साइकिल सवार "बुज़दिल" माना जाता है, "क्षमाशील संत" नहीं."

"जब विद्यार्थी कहता है कि उसे "पंद्रह दिए", उसका अर्थ होता है कि उसे"पंद्रह नंबर "मिले" नहीं हैं, परीक्षक द्वारा "दिए गए" हैं. मिलने के लिए तो उसे पूरे नंबर मिलने थे. पर "पंद्रह नंबर" जो उसके नाम पर चढ़े हैं, सो सब परीक्षक का अपराध है. उसने उत्तर तो ऐसे लिखे थे कि उसे शत-प्रतिशत नंबर मिलने थे, पर परीक्षक बेईमान हैं जो इतने कम नंबर देते हैं. इसीलिए, कम नंबर पाने वाला विद्यार्थी "मिले" की जगह "दिए" का प्रयोग करता है.''

"बेचारा आदमी वह होता है जो समझता है कि मेरे कारण कोई छिपकली भी कीड़ा नहीं पकड़ रही है. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है सब मेरे दुश्मन हैं, पर सही यह है कि कोई उस पर ध्यान ही नहीं देता. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है कि मैं वैचारिक क्रांति कर रहा हूं, और लोग उससे सिर्फ़ मनोरंजन करते हैं. वह आदमी सचमुच बड़ा दयनीय होता है जो अपने को केंद्र बना कर सोचता है."

"टुथपेस्ट के इतने विज्ञापन हैं, मगर हरेक में स्त्री ही 'उजले दांत' दिखा रही है. एक भी ऐसा मंजन बाज़ार में नहीं है जिससे पुरुष के दांत साफ़ हो जाएं. या कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस देश का पुरुष मुंह साफ़ करता ही नहीं है. यह सोचकर बड़ी घिन आई कि ऐसे लोगों के बीच में रहता हूं, जो मुंह भी साफ़ नहीं करते."

"जो नहीं है, उसे खोज लेना शोधकर्ता का काम है. काम जिस तरह होना चाहिए, उस तरह न होने देना विशेषज्ञ का काम है. जिस बीमारी से आदमी मर रहा है, उससे उसे न मरने देकर दूसरी बीमारी से मार डालना डॉक्टर का काम है. अगर जनता सही रास्ते पर जा रही है, तो उसे ग़लत रास्ते पर ले जाना नेता का काम है. ऐसा पढ़ाना कि छात्र बाज़ार में सबसे अच्छे नोट्स की खोज में समर्थ हो जाए, प्रोफ़ेसर का काम है."

"हम उत्पादक के लिए मनुष्य नहीं, उपभोक्ता हैं. हमारा कुल इतना उपयोग है कि हम खरीदार बने रहें."

"भारत की प्रतिष्ठा इसलिए भी बढ़ी है कि पुलिस लाठीचार्ज अब न के बराबर है. इससे दुनिया के लोग समझते हैं कि पुलिस अब बहुत 'दयालु' हो गई है. पर हमारी पुलिस अब सीधे गोली चलाती है, लाठीचार्ज के झंझट में नहीं पड़ती. गोली बनाने के कारखाने जनता के पैसे से चलते हैं, उनमें बना माल जनता के ही काम आना चाहिए."

"जनता उन मनुष्यों को कहते हैं जो वोटर हैं और जिनके वोट से विधायक तथा मंत्री बनते हैं. इस पृथ्वी पर जनता की उपयोगिता कुल इतनी कि उसके वोट से मंत्रिमंडल बनते हैं. अगर जनता के बिना भी सरकार बन सकती हो, तो जनता की कोई ज़रूरत नहीं है."

शशि प्रकाश की तीन छोटी कविताएं

शशिप्रकाश की ये कविताएं पंद्रह से बीस बरस पुरानी हैं,पर आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि लिखे जाने के वक्‍़त थीं. 

कठिन समय में विचार

रात की काली चमड़ी में
धंसा
रोशनी का पीला नुकीला खंजर.
बाहर निकलेगा
चमकते, गर्म लाल
खून के लिए
रास्ता बनाता हुआ.

शिनाख्त

धरती चाक की तरह घूमती है.
ज़िंदगी को प्याले की तरह
गढ़ता है समय.
धूप में सुखाता है.
दुख को पीते हैं हम
चुपचाप.

शोरगुल में मौज-मस्ती का जाम.
प्याला छलकता है.
कुछ दुख और कुछ सुख
आत्मा का सफ़ेद मेज़पोश
भिगो देते हैं.
कल समय धो डालेगा
सूखे हुए धब्बों को
कुछ हल्के निशान
फिर भी बचे रहेंगे.
स्मृतियां
अद्भुत ढंग से
हमें आने वाली दुनिया तक
लेकर जाएंगी.
सबकुछ दुहराया जाएगा फिर से
पर हूबहू
वैसे ही नहीं.

द्वंद्व

एक अमूर्त चित्र मुझे आकृष्ट कर रहा है.
एक अस्पष्ट दिशा मुझे खींच रही है.
एक निश्चित भविष्य समकालीन अनिश्चय को जन्म दे रहा है.
(या समकालीन अनिश्चय एक निश्चित भविष्य में ढल रहा है?)
एक अनिश्चय मुझे निर्णायक बना रहा है.
एक अगम्भीर हंसी मुझे रुला रही है.

एक आत्यन्तिक दार्शनिकता मुझे हंसा रही है.
एक अवश करने वाला प्यार मुझे चिंतित कर रहा है.
एक असमाप्त कथा मुझे जगा रही है.
एक अधूरा विचार मुझे जिला रहा है.
एक त्रासदी मुझे कुछ कहने से रोक रही है.
एक सजग ज़िंदगी मुझे सबसे कठिन चीज़ों पर सोचने के लिए मजबूर कर रही है.
एक सरल राह मुझे सबसे कठिन यात्रा पर लिए जा रही है.