Monday, 8 July 2013

कभी नदी...कभी चट्टान...और कभी रेत !


यह अकारण नहीं था 
कि बहुत पसंद था उसे रूपक नदी का
रेत का
चट्टान का.


जब चाहे वह बहने लगती थी
नदी की मानिंद हर उसको सींचती-हर्षाती 
जो भी आ जाता था उसके संपर्क में.


ज़रूरत पड़ने पर वह नदी होते हुए भी
तब्दील कर सकती थी खुद को खुरदरी-नुकीली चट्टान में
बददिमाग़ लोगों के 
बदन को ज़ख्मी कर देने 
और इस तरह 
उनका मान-मर्दन कर देने में सक्षम.


ऐसे ही जब चाहे वह धर सकती थी रूप
रेत का चिलचिलाती धूप में जलती-पजराती रेत का 
दंडित करने के लिए 
नियम-भंग करने का दुस्साहस 
दिखाने वालों को.


मैं नदी का मुरीद था
और नदी होना मूल स्वाभाव था उसका.


-मोहन श्रोत्रिय

3 comments:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ८ /७ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।

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  2. बहुत सुंदर, आभार

    यहाँ भी पधारे ,
    रिश्तों का खोखलापन
    http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html

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  3. नदी के स्वभाव को मानक बना एक बहाव लिये रचना... बधाई.

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