यह अकारण नहीं था
कि बहुत पसंद था उसे रूपक नदी का
रेत का
चट्टान का.
जब चाहे वह बहने लगती थी
नदी की मानिंद हर उसको सींचती-हर्षाती
जो भी आ जाता था उसके संपर्क में.
ज़रूरत पड़ने पर वह नदी होते हुए भी
तब्दील कर सकती थी खुद को खुरदरी-नुकीली चट्टान में
बददिमाग़ लोगों के
बदन को ज़ख्मी कर देने
और इस तरह
उनका मान-मर्दन कर देने में सक्षम.
ऐसे ही जब चाहे वह धर सकती थी रूप
रेत का चिलचिलाती धूप में जलती-पजराती रेत का
दंडित करने के लिए
नियम-भंग करने का दुस्साहस
दिखाने वालों को.
मैं नदी का मुरीद था
और नदी होना मूल स्वाभाव था उसका.
-मोहन श्रोत्रिय
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ८ /७ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर, आभार
ReplyDeleteयहाँ भी पधारे ,
रिश्तों का खोखलापन
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html
नदी के स्वभाव को मानक बना एक बहाव लिये रचना... बधाई.
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