Friday 30 August 2013

असंत के भक्त बौखलाए हुए हैं. बहुत बुरी तरह से


उमा भारती, स्मृति ईरानी और फिर हेमा मालिनी असंत के बचाव में उतरीं. विहिप के प्रवीण तोगडिया कैसे पीछे रहते? वह भी कूद पड़े. भाजपा के अन्य कई जाने-पहचाने चेहरे भी. सुषमा स्वराज जो मुंबई-बलात्कारियों के लिए फांसी की सज़ा की मांग कर रही थीं, संसद में, बार-बार ध्यान आकृष्ट किए जाने पर भी असंत पर चुप रहीं. मध्यप्रदेश के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने तो खुलकर दिखा दिया, अर्नब गोस्वामी के शो में, कि भाजपा के चाल-चरित्र-चेहरे को लेकर किसी को भी किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए. जिस नंगई का निर्लज्ज प्रदर्शन उन्होंने किया, वह "संस्कृति" की हवा निकालने के लिए काफ़ी था.

असंत की शिष्या एवं प्रवक्ता नीलम सार्वजनिक रूप से तो हेकड़ी का प्रदर्शन करती रही, पर लड़की को बहलाने-फुसलाने, और उसके परिवार पर दबाव बनाती यहां से वहां दौड-भाग रही है, ऐसी पुष्ट जानकारियां मीडिया पर आ रही हैं. असंत के साठ भक्तों का एक (अ)शिष्ट मंडल शरद यादव के घर तक पहुंच गया यह दबाव बनाने के लिए कि वह अपने शब्द वापस लें.

नमो की भाजपा नेताओं को इस हिदायत (कि वे आसाराम का बचाव न करें) का निहितार्थ भी यही लगता है कि वे खुलकर बचाव करते न दिखें, भीतरखाने जो भी करें. असंत जो शुरू में जेल को वैकुंठ कह कर हास्य पैदा करने की कोशिश कर रहे थे, अब इतने घबरा गए हैं कि सूरत से प्रवचन अधूरा छोड़कर ही भाग निकले. किसी अज्ञात स्थान की ओर.

अब सब का ध्यान राजस्थान की ओर मुड़ गया है. कल तीस अगस्त को क्या होगा, यह देखने के लिए ! यहां हवा में जो तैर रहा है, उससे लगता तो यही है कि असंत की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं. सब जानते हैं कि भक्त लोग कुछ गुल-गपाड़ा तो करेंगे, और भाजपाई भी साथ देंगे ही, पर पूरे देश में सही संदेश भेजने का भी यही वक़्त है, अशोक गहलोत सरकार के लिए. ज़रा चूके नहीं कि "रीढ़-विहीन" कहलाने को तैयार रहना होगा.

तो देखते हैं - कल असंत जोधपुर पहुंचते हैं या नहीं ! और यदि नहीं पहुंचते हैं, तो राजस्थान का पुलिस प्रशासन उससे जो अपेक्षाएं हैं, उन पर खरा उतरता है या नहीं !

-मोहन श्रोत्रिय

Wednesday 21 August 2013

तो पाखंड के खिलाफ़ क़ानून बनाने के लिए डॉ, दाभोलकर की शहादत ज़रूरी थी?


2005 में महाराष्ट्र विधान सभा ने जिस अंधविश्वास-पाखंड-प्रसार विधेयक को पारित कर दिया था, वह तब से अब तक लटका क्यों रह गया? वह लटका इसलिए रह गया क्योंकि भाजपा-शिवसेना ने विधान परिषद में उसमें अडंगा लगा दिया था. और सरकार उसके बाद इस विधेयक को भूल गई.
भाजपा-शिवसेना को क्या डर था इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद क़ानून की शक्ल अख्तियार कर लेने से? यही कि इन दोनों का वोट बैंक इसके खिलाफ़ था. हिंदू संस्कृति की दुहाई देने वाली शक्तियां वैसी स्थिति में अपना धंधा चौपट हो जाने के खतरे को अपने सिर के ऊपर मंडराती देख रही थीं. ये शक्तियां एक तरफ़ क़ानून बनाने की प्रक्रिया में अड़चनें खड़ी कर रही थीं, तो दूसरी तरफ़, डॉ दाभोलकर को अपनी गतिविधियों पर विराम लगाने की धमकियां दे रही थीं. यह भी कह रही थीं कि ऐसा नहीं हुआ तो उनका अंत वैसा ही होगा जैसा गांधी का हुआ था. और जब अब डॉ दाभोलकर की हत्या हो ही गई है तो यह कोई बहुत क़यास लगाने का मामला रह नहीं जाता कि ऐसा किसने किया होगा.

यह सिर्फ़ महाराष्ट्र के लिए दुख और चिंता का विषय नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए है. डॉ दाभोलकर जो अभियान चलाए हुए थे, उसके निहितार्थों को ढंग से समझा जाए, तो यह साफ़ हो जाएगा कि वह वैज्ञानिक सोच विकसित करने और पाखंड पर चोट करने संबंधी संवैधानिक दायित्वों का ही निर्वाह कर रहे थे. यानि वह जो कुछ भी कर रहे थे, वह तो राज्य को अपने आप करना चाहिए था. अपने आपको एक आधुनिक राज्य के रूप में प्रस्तुत करने के लिए !

महाराष्ट्र सरकार अब अध्यादेश लाने की बात कर रही है. यह काम तो पिछले आठ सालों में कभी भी हो जाना चाहिए था. इस कायराना हत्या के बाद तो सरकार को ऐसे तमाम लोगों को सुरक्षा प्रदान करने को भी सुनिश्चित करना होगा. और धमकियों देने वालों, तथा धमकियों को क्रियान्वित करने वालों के खिलाफ़ कड़े क़दम भी उठाने होंगे. यह भी बताना होगा कि समाज को आगे ले जाने वालों (उदाहरण के लिए कबीर कलामंच) के काम से जुड़े लोगों को जेल में डालने में तो सरकार कोई वक़्त खोती ही नहीं, तो फिर तथाकथित संस्कृति मंचों की धमकियों का संज्ञान लेने में कोताही कैसे बरत जाती है?

कहने की ज़रूरत नहीं कि गांधी के बाद, डॉ दाभोलकर पहले व्यक्ति हैं, जो पुनरुत्थानवादी-सांप्रदायिक तत्वों के हाथों शहीद हुए हैं. यह खतरे का संकेत है, भारत सरकार के लिए भी. यह वह नया भारत तो कहीं से नहीं है, जिसका संकल्प संविधान-निर्माताओं ने लिया था. चेत सको तो चेत जाओ !

-मोहन श्रोत्रिय

Monday 19 August 2013

चैनल जिता रहे हैं, और जीतने वाली पार्टी के लोग आश्वस्त नहीं हैं...

आज का एक दिलचस्प वाकया साझा करूं?

मैं अपना आधार कार्ड बनवाने गया था, मानसरोवर-स्थित पोस्ट ऑफ़िस तक. कार बैक कर के, मुख्य द्वार से निकलने को ही था कि एक बड़ी-सी गाड़ी आकर रुकी. आगे जो दोनों बैठे थे, दोनों ने लगभग एक साथ नमस्ते करते हुए, रुकने का इशारा किया. दोनों ही कोई चालीस बरस पहले मेरे विद्यार्थी रहे थे. भाजपा में उनकी ठीक-ठाक पहचान बन चुकी है. दोनों में से एक तो एकाधिक बार चुनाव भी जीत चुके हैं, विधानसभा का. दूसरे, सिर्फ़ एक बार. उनकी खूबी यह है कि जग-ज़ाहिर विचार-भेद के बावजूद वे दोनों ही सार्वजनिक तौर पर मेरा परिचय अपने प्रिय शिक्षक के तौर पर कराने में संकोच नहीं करते हैं. बातचीत का सिलसिला चलने पर मैंने उन्हें बधाई दी कि अब तो उनकी पार्टी का राज आने वाला ही है. टीवी चैनलों ने तो जीत की घोषणा कर भी दी है. वे यह सब सुनकर खुश हुए हों, ऐसा मुझे नहीं लगा. इसके ठीक उलट, उनका कहना था : "ऐसा हो जाए, तब तो कहने ही क्या ! पर सच्ची बात तो यह है गुरूजी कि हमें तो खुद को पता नहीं कि जयपुर की सीटों को छोड़कर हमारी एकदम पक्की जीत वाली सीट कौनसी हैं. लगे हुए तो हैं हम भी, तन-मन से, पर आपसे झूठ नहीं बोलेंगे, अपने बारे में ही पता नहीं कि टिकट मिलेगा या नहीं, और मिला तो कहां से मिलेगा ! यह भी संभव है कि जहां हमारा काम लोगों को दिखता भी है, वहां किसी और को टिकट मिल जाए. खींच-तान तो चल ही रही है." साथ ही उन्होंने यह भी आशंका व्यक्त की कि "जादूगर"(मुख्यमंत्री) ने कहीं समय से पहले चुनाव करा लिए, तब तो कबाड़ा ही हो जाएगा.


ऐसे में, मैं उन्हें शुभकामनाएं ही दे सकता था, सो दे दीं. घर आने को भी कहा. उन्होंने सिर हिला कर हां का संकेत भी दे दिया.

रास्ते में मैं यही सोचता रहा कि आखिर ये चैनल वाले "सर्वे" करते कहां हैं ! इनकी विश्वसनीयता इतनी कम क्यों हो गई है कि जिन्हें ये जीता हुआ बताते हैं, वे भी इनकी बातों पर भरोसा करके प्रसन्न क्यों नहीं हो पाते ! और यह भी कि "जादूगर" को वह गणित पता है क्या, जो समय-पूर्व चुनाव में उसकी जीत पक्की कर सके ! तो फिर क्या उसके मन में भी कुछ चल रहा है क्या, जल्दी चुनाव कराने के बारे में?

-मोहन श्रोत्रिय

क्यों? आखिर क्यों?



खून क्या सच में बोलता है
सिर पर चढ़कर?
क्या मृतकों की कराहें
और परिवारी जन की आहें भी
कोई असर दिखाती हैं अपना?

तो फिर यह बात क्यों नहीं करती परेशान
उन्हें जिनके हाथ रंगे हैं खून से अभी तक
मामला चाहे ग्यारह बरस पहले का हो
या उनतीस बरस पहले का?

लगता तो नहीं कि खून
सिर पर चढ़कर बोलता है...

अब तक तो नहीं बोला
एक भी मामले में.
सच तो यह है कि उल्टा ही हुआ
दोनों बार !

राष्ट्र की सामूहिक अंतश्चेतना
मौन क्यों रह गई थी?

दोनों बार दरिंदगी को वैधता ही मिली थी.
क्यों? आखिर क्यों?

-मोहन श्रोत्रिय

Saturday 17 August 2013

देखो, उधर !



चट्टानी संकुल के पीछे
दिखा था जैसे सपने में
हरा-भरा विस्तीर्ण वन
जिसमें बहुतायत है
सघन फलदार वृक्षों की.

खोजना-बनाना है
वहां तक पहुंचने का रास्ता !

किसी को तो करनी ही
होती है पहल !

-मोहन श्रोत्रिय

राजनीतिबाज़ प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं लेखकों से



पहले एक ने कहा, मेंढक !
जवाब में सुना, कॉकरोच !
मनभावन राजनीतिक विमर्श है न यह?

कौन कहता है कि लेखक प्रभाव नहीं डालते राजनीति पर !
अभी कुछ दिन पहले ही तो
दो लेखकों ने कुछेक अन्य लेखकों को संज्ञा दी थी
मक्खी, मच्छर, भुनगे और गधे की !

नाम तो और भी धरे थे
लेखकों ने
वे ज़्यादा प्रतिभाशाली और मौलिक जो होते हैं.

अच्छा है राजनीतिबाज़
पढ़ रहे हैं लेखकों को
और सीख भी रहे हैं उनसे !


-मोहन श्रोत्रिय

दिल्ली का सिहासन पा लो, पर बिना झूठ और अफ़वाहों का सहारा लिए


झूठ और अफ़वाह इनके हथियार रहे हैं, वर्षों से ! इन दोनों का निर्लज्ज प्रसार इनका शौक रहा है, हित-साधन की सीढ़ी भी. इंटरनेट के ज़माने में ये "कहीं-की तस्वीरों को कहीं-और-की" बताकर अपना कारज साधने में लगे हैं. फ़ेसबुक रंगी पड़ी रहती है, हर रोज़, इन तस्वीरों से. इन फ़र्ज़ी तस्वीरों के ज़रिये एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ़ भड़काने-उकसाने का काम इनके राजनीतिक हितों की पूर्ति में सहायक होता बेशक दिखे, यह विभिन्न तरह के संकटों से गुज़रते हुए अपने समाज के साथ धोखा है. सुनियोजित है, इसलिए और ज़्यादा घृणित भी.

मज़ा यह है कि कंवल भारती को एक टिप्पणी की वजह से गिरफ़्तार किया जा सकता है, पर सही मायनों में देश में अमन-चैन को खतरा-बन-रही इस तरह की पोस्ट्स डालने वालों के खिलाफ़ किसी तरह की कार्रवाई करने की ज़रूरत न तो सरकार को महसूस हो रही है, और न अन्य किसी राजनीतिक पार्टी को ही.

किश्तवाड में हुई तीन मौतों के मामले में ये "तीन" के बाद कई "शून्य" लगाने में भी कोई संकोच नहीं कर रहे. इनमें हिम्मत नहीं कि इस सच का भी बयान करें कि एक हिंदू बारात को प्रशासनिक अधिकारीयों द्वारा सुक्षा देने में असमर्थता जताने की जानकारी मिलते ही मुस्लिम नौजवानों ने यह बीड़ा उठाया कि बारात निकलेगी, शादी होगी, और सुरक्षित घर लौटेगी, दुल्हन को लेकर. और ऐसा हुआ. इसे सांप्रदायिक तनाव के उस घटाटोप में एक चमकदार किरण के रूप में न केवल देखा जाना चाहिए, बल्कि प्रचारित-प्रसारित भी किया जाना चाहिए. ऐसी घटनाओं को रेखांकित किए जाने से आपसी सद्भाव को बढ़ावा मिलेगा.


-मोहन श्रोत्रिय

चक्र पूरा घूम गया है



अर्थव्यवस्था उस मुक़ाम पर पहुंच गई है वापस, जहां वह थी 1991में. कैसी विडंबना है कि उस लाइसेंस-परमिट-राज की जगह जिस नव-उदारवादी (भूमंडलीय -निजीकृत) अर्थव्यवस्था का इतना गुणगान किया गया था, उसने वापस वहीं पहुंचा दिया. हां, एक फ़र्क़ ज़रूर पड़ा, और वह यह कि भ्रष्टाचार तब की तुलना में कई गुना बढ़ गया, और निजी कम्पनियों की पूंजी में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई. निजी लोभ-लालच का जो निर्लज्ज खेल चला है इस दौर में, वह भी बेजोड़ है. न राजनेता बचे और न नौकरशाह ही, इस खेल के मज़े लेने से. रुपया गिर रहा है, तो गिरते ही चला जा रहा है, और लगता ही नहीं कि जल्दी ही थमेगा. मध्य वर्ग हाय-हाय कर रहा है, तो उनका तो कहना ही क्या जिनके पास नियमित आय का कोई स्रोत है ही नहीं. जमाखोरों के मज़े हैं, वे प्याज़ जैसी चीज़ को भी "सैकड़ा" दिखा सकते हैं, जल्दी ही.

चिंता की बात यह है कि सत्ताधारी तथा प्रमुख विपक्षी दल (जिसे लग रहा है कि उसे सत्ता मिली हुई ही समझी जाए) आर्थिक नीतियों के मामले में एक ही जगह खड़े हैं. मामला उन्नीस-बीस का भी नहीं है. और तीसरा मोर्चा? वह तो कहीं है ही नहीं, इस पल तक ! और मजबूरी में बन भी जाता है तो कोई फ़र्क़ आ जाने की उम्मीद करना वैसा ही है जैसे भैंसे से दूध पा लेने की आकांक्षा पाल लेना. क्योंकि उस संभावित तीसरे मोर्चे के अधिकांश घटक तो अपना दांव लगने पर, इन नीतियों की मलाई काट ही चुके हैं/ रहे हैं.

फिर भी कहना ज़रूरी रह जाता है क्या कि असली आज़ादी किसे मिली है !


-मोहन श्रोत्रिय