Wednesday, 26 June 2013

कुछ इधर की, कुछ उधर की


आपदा-दोहन


 साधु-वेश में कैसे-कैसे लोग घूम रहे हैं, यह केदारनाथ-आपदा ने और अधिक उजागर कर दिया है ! ठग, लुटेरे, और (कदाचित) हत्यारे भी !
कल्पना कीजिए, सवा करोड़ से अधिक की नक़दी और गहने मिले हैं, उनके पास. यह सब देवभूमि केदारनाथ के आसपास !
हिंदुत्व के ये नगाड़ची और कीर्तनिये कैसी धर्म-ध्वजा फहरा रहे हैं, यह देख-सुन-पढ़कर हम सभी भारतीयों के सिर शर्म से झुके जा रहे हैं, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए. इसे पढ़कर तो किसी तरफ़ से यह आवाज़ नहीं आएगी, ऐसी उम्मीद है, कि सभी भारतीयों की ओर से बोलने की अनाधिकार चेष्टा है यह ! कि किसने अधिकृत किया मुझे सभी के "सिरों" के बारे में ऐसा बयान देने के लिए ! अब देखिए, सिर तो सिर हैं, शर्मिंदगी की बात पर तो झुकेंगे ही !
यह कोई छोटी बात नहीं है कि कम-से-कम एक मुद्दे पर तो हम सब एक हैं, और समवेत स्वर में इन साधुओं की भर्त्सना करते हैं.
कल देहरादून-स्थित प्रखर युवा पत्रकार सुनीता भास्कर ने एक महिला यात्री के साथ हुई बातचीत के आधार पर जो पोस्ट डाली थी, वह भी रोंगटे खड़े कर देने वाली थी. जीवित बच निकले यात्रियों और सैलानियों के तमाम तरह के कुकर्मों का आंखों-देखा हाल था वह, उस महिला यात्री के हवाले से. सुनीता ने न केवल उस महिला का नाम दिया था, फ़ोन नंबर भी दिया था.

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ज्योतिषीय सन्नाटा

देश में ज्योतिषियों की भरमार है. दो-चार की ख्याति तो, जैसा ज्योतिष-प्रेमी बतलाते हैं, दुनियाभर में फैली है. इतने सारे ज्योतिषियों में से एक ने भी भविष्यवाणी क्यों नहीं की इस तबाही की? जबकि यात्रा (आस्था-प्रेरित अतवा पर्यटन-प्रेम-प्रेरित) पर जाने वालों में से बहुत से तो ज्योतिषियों से सलाह भी करके गए ही होंगे.
फ़ेसबुक पर भी न जाने कितने ज्योतिषी सक्रिय हैं ! कोई तो बोलता !
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क्रिकेट खिलाड़ियों को एक-एक करोड़ रुपया, पुरस्कार-स्वरूप


यह सब इसी देश में संभव है. दुनिया भर में कहीं भी क्रिकेट खिलाड़ियों पर ऐसी धन-वर्षा नहीं होती. सेना के जो जवान अपनी जान जोखिम में डाल कर निस्स्वार्थ सेवा कर रहे हैं, उन्हें ढंग से यश भी नहीं मिल रहा, धन की तो बात ही बहुत दूर की है. एक 'फ़िक्सर' (मनोज प्रभाकर) एक्सपर्ट राय दे रहा है, एक चैनल पर, और एक दूसरा 'फ़िक्सर' (श्रीशांत) बयान दे रहा है, "मैं अवश्य वापसी करूंगा" ! यह भी इसी देश में संभव है !
आज मीडिया "सबसे बड़े सेनापति" के रूप में धोनी को दिखा रहा है.
असल सैनिक उत्तराखंड में फंसे हुए लोगों की जान बचाने की जुगत में भिड़े हैं, सात-आठ दिन से ! लगातार ! उनका जज़्बा है जो बड़े सलाम का असल हक़दार है !
                                             
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यह नरेंद्र मोदी को "फ़ैंटम" के रूप में पेश करने की क़वायद है... 

 
"नरेंद्र मोदी आया, और पंद्रह हज़ार गुजरातियों को बचाकर ले गया."
यह नरेंद्र मोदी को "फ़ैंटम" के रूप में पेश करने की क़वायद है. अब कॉमिक्स तैयार होंगे! नई किस्म के स्टिकर्स बनेंगे ! नई किस्म के मास्क बनेंगे !
ग़ज़ब करता है अपना मीडिया भी ! यह पूछने-सत्यापित करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई ( जैसे नवभारत टाइम्स को भी नहीं हुई) कि आखिर कैसे? कहां से? क्या सब गुजराती एक स्थान पर आ मिले थे, केदारनाथ के चमत्कार-स्वरूप? यह भी कि वह मरने से बचायेगा भी गुजरातियों को ही? क्योंकि यहां आने वाले तो सभी हिंदू ही होंगे ! हमारी जां-बाज़ सेना के इतने दिन के अथक प्रयत्नों से जो उपलब्धि हुई, उससे ज़्यादा वह एक दिन में ही कर गया? इनोवा गाड़ियों से? कितने हेलिकॉप्टर थे? हो तो कितने ही सकते थे क्योंकि टाटाओं, अंबानियों, और न जाने किन-किन को तो एक इशारा ही काफ़ी था ! कोई यह भी नहीं पूछ रहा कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार को "केदारनाथ-मंदिर को संवारना" ही सबसे "पहली और बड़ी प्राथमिकता" लगी? और क्या यह शुभ लक्षण है?
तो अब उम्मीद अयोध्या पर नहीं, केदारनाथ पर आकर टिक गई है? आपदाओं का दोहन, और धार्मिक उन्माद पैदा करने से लोकतंत्र क़तई मज़बूत नहीं होता, फ़ासिज़्म आता है !
मीडिया ज़र-खरीद गुलाम की तरह आचरण कर रहा है.
                                              
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नेक इरादे, मासूम सवाल
 

नेक इरादों वाले मित्र भी कितने मासूम होते हैं ! अब देखिए न, कई मित्र यह सवाल पूछ रहे हैं कि ( इस देश के कॉरपोरेट्स तो नंबर एक के स्वार्थी है, उनकी तो बात ही न करें !) देश के पांच सात बड़े मंदिरों के पास लाखों करोड़ रुपये जमा हैं, जो इन्हें बतौर चढावा मिले हैं, उसमें से ये केदारनाथ आपदा-ग्रस्त लोगों के लिए कुछ भी निकालकर क्यों नहीं दे रहे? मेरा कहना है कि यह उम्मीद सिरे ही से ग़लत है क्योंकि ये सिर्फ़ "लेते" हैं. "देना" इनके शब्दकोश में है ही नहीं. चढावे किसी भगवान के निमित्त हों, "कब्ज़ा" सच्चा होता है. "चढावा किसका? कब्ज़ा जिसका !"
                                              
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पानी खोज लेता है नए रास्ते, मुख्यधारा में जा मिलने के लिए !


एक मित्र ने लिखा "पानी अपना रास्ता नहीं बदलता." सही ही लगता है. पर आंशिक संशोधन के साथ मेरा कहना है कि पानी का रास्ता रोकोगे, तो पानी अपने पुराने रास्ते पर चल पड़ने के लिए खोज लेगा नए-नए रास्ते. और इस प्रक्रिया में गर्वोन्मत्त खड़े विशाल भवन नींव से कटकर खड़े-खड़े बह जाएंगे पानी की तेज़ धार में.
आप अपने उद्देश्य की पूर्ति में विफल होंगे, और पानी पूरी तरह सफल. एक सीमा तक ही बर्दाश्त करती है प्रकृति, अपने साथ छेड़छाड़, और फिर जब बिफरती है तो तबाही मचा देती है. इस तबाही का दोष प्रकृति के मत्थे मंढने की कोशिशें अपने पापों और अपराधों पर पर्दा डालने का ही दूसरा रूप है.
                                                 
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इतिहास ऐसे भी बदला लेता है

किसी को "भारतीयकरण" का नारा देने वाले बलराज मधोक की याद है?
इतिहास कितना निर्मम हो जाता है, कितनी ही बार !
जो अपना नगाड़ा ढम-ढम करके पूरे देश में उत्तेजनापूर्ण बहस चला दे, उसके "होने-न होने" का किसी को ध्यान भी न रहे, इसे इतिहास के सबक़ के रूप में भी देखा जाना चाहिए.
पर हां, यह तो चालीस से तीन-चार अधिक साल पहले की बात है.
                                                  
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''फ़ासिस्ट संगठन की विशेषता होती है कि दिमाग़ सिर्फ़ नेता के पास होता है , बाक़ी सब कार्यकर्ताओं के पास सिर्फ़ शरीर होता है.''  (हरिशंकर परसाई)

अब देखिए न, नेता के आदेश से "धर्म-जय" का उद्घोष हो गया कि दैवीय चमत्कार के रूप में मंदिर बच गया ! वास्तव में बच भी गया क्या? "नंदी" का चबूतरा भी मंदिर का ही हिस्सा था न? और जो दूसरा मंदिर बहता चला गया? और ऋषिकेश में गंगा की धार पर खड़ी शिव की वह विराट मूर्ति जो अब कहीं नहीं दिखती? हजारों घरों के ध्वस्त हो जाने को क्या कहेंगे? लाखों लोगों के बेघर हो जाने को क्या कहेंगे? पचहत्तर हज़ार से ज़्यादा फंसे हुए यात्रियों को? जिन्हें लापता बताया जा रहा है, उनकी गिनती "मरे हुओं" में न हो, यह सूचना तंत्र की सीमा है. अंततः लापता मृतकों में नहीं गिने जाएंगे क्या? मनुष्य-जीवन और उसकी संपदा के पक्ष में चमत्कार क्यों नहीं हुआ. ऐसा चमत्कार क्यों नहीं हुआ कि सभी दर्शनार्थी और सैलानी बचे रह जाते? और यह भी कि सरकार को यह नहीं कहना पड़ता कि "धाम" के कपाट दो साल तो क्या, एक दिन के लिए भी बंद नहीं होंगे? क्या "चमत्कार-कर्ता" को यह पता था कि यह सब सिर्फ़ बादल के फटने से नहीं हुआ बल्कि भू-खनन-माफ़िया और राजनीतिक नेताओं की मिलीभगत से हुए अंधाधुंध निर्माण-कार्य और वृक्षों की ह्रदय-हीन कटाई के परिणामस्वरूप हुआ है? पर मंदिर की मान्यता के लिए भी तो ये होटल-धर्मशालाएं और गैस्ट हाउस ज़रूरी थे न? और ये सब प्रकृति के नियमों को अंगूठा दिखाते हुए नदी-किनारे ही बने थे. विज्ञापन में अच्छा लगता है न - एकदम नदी किनारे ! चमत्कार करने वाले को भी क्या नैसर्गिक सौंदर्य पसंद नहीं रह गया था?
इस प्रलय-जैसी तबाही में (मनुष्य को ग़ायब करके) किसी "दैवीय चमत्कार" के रूप में महिमा-मंडित करने वाले तत्व कैसा समाज बनाना चाहते हैं, यह एकदम साफ़ है. जो मंदिरों को मनुष्य की श्रेष्ठतम धरोहर के रूप में पेश करने का धंधा करते हैं, वे किस दर्ज़े के मनुष्य-विरोधी हैं, यह और खुलासा करने का मतलब है पाठकों की बुद्धि और सोचने-समझने के सामर्थ्य को प्रश्नांकित करना. यह अपराध मैं नहीं करूंगा. 

-मोहन श्रोत्रिय 

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