इस देश की विशिष्ट पहचान इसकी बहुलतावादी संस्कृति के आधार पर निर्मित हुई थी. भाषा, साहित्य, संगीत, चित्रकला, स्थापत्य, रंगमंच एवं पाकशास्त्र - सभी इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं. जिसे "गंगा-जमुनी तहज़ीब" के नाम से जाना जाता है, उस संस्कृति में सहिष्णुता और भाईचारा उल्लेखनीय तत्व हैं, जिनकी अनदेखी अथवा अवहेलना आत्मघाती बन सकती है. अल्पकालिक लाभों के लिए इस छवि को खंडित करने का कुचक्र देश की अस्मिता के लिए भारी पड़ सकता है. भगवत शरण अग्रवाल की क्लासिक कृति "भारतीय संस्कृति के मूल स्रोत" पर एक बार फिर से नज़र डाल लेना उपयोगी रहेगा. जिन्हें नेहरु की "भारत : एक खोज" पढ़ने से परहेज़ हो, वे दिनकर की पुस्तक "संस्कृति के चार अध्याय" भी पढ़ लेंगे, तो भी अपने देश को बेहतर ढंग से समझने में सक्षम हो पाएंगे. "वैष्णव जन तो तेने कहिए..." सुना सबने होगा, पर मैं विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता कि सबने इसे भारतीय मनीषा के सारतत्व के रूप में भी देखा-समझा होगा . बार-बार लौटने की ज़रूरत है, इन सबकी तरफ़.
राष्ट्र की अवधारणा के साथ किसी भी किस्म की छेड़खानी के परिणाम दूरगामी होंगे. उग्र राष्ट्रवाद फ़ासिज़्म का लक्षण होता है, जो अंततः राष्ट्र के लिए ही घातक सिद्ध होता है. हिटलर का उदय नहीं हुआ होता तो जर्मनी आज विश्व की सबसे बड़ी शक्ति होता. दुनिया अमरीका की फ़ालतू की दादागिरी से भी बच गया होती. जर्मनी के कमज़ोर हो जाने का, और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की बंदर-बांट का ही यह परिणाम था कि अमरीका महाशक्ति बन बैठा, दुनिया भर का दरोगा ! यह याद रखना भी उपयोगी होगा कि नस्लीय श्रेष्ठता पर आधारित उग्र राष्ट्रवाद ही भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रमुख प्रेरणा-स्रोत रहा है. गोलवालकर की किताबें (संघ-वांग्मय) इसके अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत भी करती है. जनोत्तेजक वक्तृत्व कला इन दिनों खूब सुनने-देखने को मिल रही है, उसके उत्स भी हिटलर से जाकर मिलते हैं. निस्संग भाव से, और आंखें खुली रखकर हम इतिहास पर नज़र डालेंगे तो इस निष्कर्ष को झुठला नहीं पाएंगे.
-मोहन श्रोत्रिय
पर तब जर्मनी महाशक्ति होता ना श्रोत्रिय जी। और फालतू की दादगीरी होती जर्मनी की। आखिर शक्ति भ्रष्ट तो करती ही है। फासीवाद के मूलमें जहां नस्लीय श्रेष्ठता है वहीं अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण भी एक कारण है। राष्ट्र राज्य की अवधारणा में बहुलतावाद दरअसल एक विरोधाभास ही है। रही बात हमारे देश की तो इस बहुलतावाद का विकास प्राकृतिक था ना की एक सचेत प्रयास के द्वारा। ऐसे सभी सचेत प्रयास विफल ही हुये हैं चाहे वह अशोक का धम्म हो या अकबर का दीने इलाही अथवा नेहरू का धर्मनिरपेक्षतवाद। इस बहुलतावाद के विकास में इन सज्जनों से अधिक उस निरंतर संघर्ष का योगदान है जो विविध संस्कृतियों में हमेशा से होता आया है। संघर्ष ही नवसृजन का मूल है और आज धर्मनिरपेक्षतावादी इसी सहज प्रक्रिया को दबाने की कोशिश करते हैं, इसी से फासीवादी प्रतिक्रिया को बल मिलता है।
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