Monday 1 July 2013

आत्मीयता में पगी कविताएं

छूटे गांव की चिरैया- यह शीर्षक है डॉ. मोहन कुमार नागर के कविता संग्रह का. अभी थोड़ी देर पहले ही मिला है.

एकदम सहज-सरल भाषा में लिखी आत्मीयता से भरी हुई कविताएं हैं इसमें. इनकी विषयवस्तु इन्हें अलग करती है, इन दिनों आ रही अन्य कविताओं से. इनकी टोन भी.
घर-परिवार (और उसकी खिड़की से झांकते समाज) के इर्द-गिर्द घूमती ये कविताएं रिश्तों के महीन धागे से बुनी हुई हैं. "नानी" सर्वाधिक कविताओं में आती है, और कहना होगा कि ढंग से आती है, अपनी पूरी गरिमा और ऊष्मा के साथ. नानी के बाद मां का स्थान बनता है. कवि का संघर्षमय बचपन और यौवन भी, नानी की बदौलत ही एक अत्यंत उज्ज्वल वर्तमान हो पाया है, ऐसा लगता है. इसलिए नानी कवि के लिए "बच्ची" भी बन जाती है.

जल्दी ही इनकी कुछ और कविताएं, अपनी एक टीप के साथ, यहां पर साझा करूंगा. अभी तो सिर्फ़ बानगी के तौर पर ये दो छोटी-सी कविताएं देखिए.

बच गई नानी
इस बार भी
नानी की झिकिर-झिकिर से तंग आकर
लौट गया कबाड़ी
फिर न आने की हज़ार क़समें खाता...

इस बार भी
खूदिया साड़ी से लेकर
ज़ंग लगी सुई तक-
बच गई नानी.


लोरी- 3
सम पर सम मिलते ही
लोरी युगलगीत हो गई

मां
सोती-सोती गाती रही
मुनिया
गाते-गाते सो गई.

कवि को बधाई. ज़ाहिर है, कविता संग्रह के लिए आभार भी.


-मोहन श्रोत्रिय

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