Sunday 30 June 2013

गद्य-पद्य

-महावीरप्रसाद द्विवेदी 


कविता-प्रणाली के बिगड़ जाने पर यदि कोई नए तरह की स्वाभाविक कविता करने लगता है तो लोग उसकी निंदा करते हैं. कुछ नासमझ और नादान आदमी कहते हैं, यह बड़ी भद्दी कविता है. कुछ कहते हैं यह कविता ही नहीं. कुछ कहते हैं कि यह कविता तो ‘छंदोदिवाकर’ में दिए गए लक्षणों से च्युत है; अतएव यह निर्दोष नहीं..बात यह है कि जिसे अब तक कविता कहते आए हैं, वही उनकी समझ में कविता है और सब कोरी कांव-कांव ! 


इसी तरह की नुक़ताचीनी से तंग आकर अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ ने अपनी कविता को संबोधन करके उसकी सांत्वना की है. वह कहता है, “कविते !यह बेक़दरी का ज़माना है. लोगों के चित्त को तेरी तरफ़ खींचना तो दूर रहा, उलटी सब कहीं तेरी निंदा होती है. तेरी बदौलत सभा-समाजों और जलसों में मुझे लज्जित होना पड़ता है. पर जब मैं अकेला रहता हूं, तब तुझ पर मैं घमंड करता हूं. याद रख तेरी उत्पत्ति स्वाभाविक है. जो लोग अपने प्राकृतिक बल पर भरोसा रखते हैं, वे निर्धन होकर भी आनंद से रह सकते हैं. पर अप्राकृतिक बल पर किया गया गर्व कुछ दिन बाद ज़रूर चूर्ण हो जाता है.”

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आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज़ समझ रखा है. यह भ्रम है. कविता और पद्य में वही भेद है जो अंग्रेज़ी की पोएट्री (Poetry) और वर्स (Verse) में है. किसी प्रभावोत्पादक लेख, बात या वक्तृता का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुई सतरों का नाम पद्य है. जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता, वह कविता नहीं है. गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है. तुकबंदी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं. संस्कृत का प्रायः सारा पद्य समूह बिना तुकबंदी का है और संस्कृत से बढ़कर कविता शायद ही किसी और भाषा में हो. अरब में भी सैकड़ों अच्छे-अच्छे कवि हो गए हैं. वहां भी शुरू-शुरू में तुकबंदी का बिलकुल खयाल नहीं था.अंग्रेज़ी में भी बेतुकी कविता होती है. हां, एक ज़रूरी बात है कि वज़न और काफ़िये से कविता चित्ताकर्षक हो जाती है. पर कविता के लिए ये बातें ऐसी ही हैं जैसे शरीर के लिए वस्त्राभरण. यदि कविता का प्रधान धर्म, मनोरंजकता और प्रभावोत्पादकता उनमें न हो तो इनका होना निष्फल समझना चाहिए. पद्य के लिए काफ़िये वगैरह की ज़रूरत है, कविता के लिए नहीं. कविता के लिए तो ये बातें उलटी हानिकारक हैं. तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूंढने से कवियों के विचार-स्वातंत्र्य में बड़ी बाधा आती है. पद्य के नियम कवि के लिए एक तरह की बेड़ियां हैं. उनसे जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करे. पर काफ़िया और वज़न उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं. काफ़िये और वज़न को पहले ढूंढकर कवि को अपने मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है. इससे कवि अपने भाव स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट कर सकता. फल यह होता है कि कवि की कविता का असर कम हो जाता है. कभी-कभी तो वह बिलकुल ही जाता रहता है. अब आप ही कहिए कि जो वज़न और काफ़िया कविता के लक्षण का को अंश नहीं उन्हें ही प्रधानता ऐना भारी भूल है या नहीं?

('महावीरप्रसाद द्विवेदी रचना संचयन' से साभार. संपादन : भारत यायावर)



Wednesday 26 June 2013

ऐसा दो बार हुआ है, मेरे साथ


मैं अपना लिखा कहीं भी नहीं भेजता, छपने के लिए. आप कह सकते हैं कि मुझे भरोसा ही नहीं होता होगा कि मेरा लिखा-भेजा कहीं छप भी सकता है. कोई मित्र मंगा या लिखवा लेते हैं, तो भेज देता हूं. उन मित्रों की कृपा ही कहूंगा कि वे बिना किसी कतर-ब्योंत के उसे छाप भी देते ही हैं. यह कहना इसलिए ज़रूरी लगा कि अपने आपको महावीर प्रसाद द्विवेदी समझने वाले एक-दो संपादकों के बारे में तो यही सुनने को मिलता रहता है कि वे (उनके पास छपने के लिए भेजे गए) दूसरों के लिखे हुए को पढ़ने से पहले ही काट-छांट करने के अपने इरादे को अधिकार के रूप में रेखांकित कर देते हैं. यह अलग बात है कि ऐसे संपादकों के अख़बारों ने मेरे ब्लॉग "सोची-समझी" से मुझे बताये बगैर मेरी ब्लॉग प्रविष्टियों को अविकल रूप से छापा है, कम-से-कम आधा दर्ज़न बार. ये दोनों अखबार मेरे पास आते नहीं. भला हो मित्रों का जो पढ़कर सूचना तो दे देते थे.
हां, यह “दो बार” की बात तो रही ही जा रही है. नॉएडा में रहते हैं एक फ़ेसबुक मित्र, राजेंद्र शर्मा. 2013 के पुस्तक मेले से पहले, उनका संदेश आया कि वह विश्वविख्यात चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसेन पर लिखी कविताओं का एक संकलन संपादित कर रहे हैं. मेरे पास कोई कविता हो, तो भेज दूं. मैंने एक कविता उन्हें भेज दी. उनका तुरंत मेल आया कि कविता उन्हें खूब पसंद आई है, और वह इसे संकलन में शामिल कर रहे हैं.
कुछ समय बाद, यानि मेला संपन्न हो जाने के बाद, मेरी कई मेल्स के उत्तर में, उन्होंने इतना भर बताया कि संकलन शीघ्र ही छप जाएगा. तब से अब तक क़रीब सोलह महीने बीत गए. अब वह मेल का भी जवाब देना मुनासिब नहीं समझते. मैंने इस कविता को फ़ेसबुक के ड्राफ़्ट-बॉक्स में सुरक्षित कर रखा था. पिछले साल मेरा अकाउंट हैक हो जाने के साथ ही वहां सुरक्षित सारी सामग्री लुप्त हो गई. आज सुबह, मुझे अचानक खयाल आया कि मैंने कविता उन्हें मेल की थी, तो इसे “सेंट मेल” में तो होना ही चाहिए. मेल बॉक्स खंगाला, तो कविता मुझे मिल गई. खुशी हुई कि अब बार-बार उनको संदेश भेजकर निराश होने, और होते चले जाने से बच गया!
दूसरा वाकया फ़ेसबुक मित्र "रहे" राकेश श्रीमाल से जुड़ा है. उन्हीं दिनों उनका भी एक मेल आया कि वह साहित्यिकों द्वारा साहित्येतर विषयों पर लिखे डायरी-अंशों का संकलन निकाल रहे हैं. पुस्तक मेला शुरू होने से पहले ही आ जाएगा. मैंने उन्हें अलग-अलग मुद्दों से जुड़ी डायरी-प्रविष्टियां भेज दीं. कहना होगा कि उन्हें भी मेरा लिखा पसंद आया, और प्रस्तावित संकलन के स्तर के अनुरूप लगा. मुझे आज तक पता नहीं कि वह संकलन अभी तक भी छपा है या नहीं. मेरे किसी भी संदेश का जवाब देना उन्हें भी मुनासिब नहीं लगा. संकलन छप गया हो, और फिर भी मुझे न बताया गया हो, तब तो और भी बुरा !
समझ नहीं आता कि एक लाइन का जवाब देने में इतना ज़ोर क्यों आता है मित्रों को !
-मोहन श्रोत्रिय

कुछ इधर की, कुछ उधर की


आपदा-दोहन


 साधु-वेश में कैसे-कैसे लोग घूम रहे हैं, यह केदारनाथ-आपदा ने और अधिक उजागर कर दिया है ! ठग, लुटेरे, और (कदाचित) हत्यारे भी !
कल्पना कीजिए, सवा करोड़ से अधिक की नक़दी और गहने मिले हैं, उनके पास. यह सब देवभूमि केदारनाथ के आसपास !
हिंदुत्व के ये नगाड़ची और कीर्तनिये कैसी धर्म-ध्वजा फहरा रहे हैं, यह देख-सुन-पढ़कर हम सभी भारतीयों के सिर शर्म से झुके जा रहे हैं, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए. इसे पढ़कर तो किसी तरफ़ से यह आवाज़ नहीं आएगी, ऐसी उम्मीद है, कि सभी भारतीयों की ओर से बोलने की अनाधिकार चेष्टा है यह ! कि किसने अधिकृत किया मुझे सभी के "सिरों" के बारे में ऐसा बयान देने के लिए ! अब देखिए, सिर तो सिर हैं, शर्मिंदगी की बात पर तो झुकेंगे ही !
यह कोई छोटी बात नहीं है कि कम-से-कम एक मुद्दे पर तो हम सब एक हैं, और समवेत स्वर में इन साधुओं की भर्त्सना करते हैं.
कल देहरादून-स्थित प्रखर युवा पत्रकार सुनीता भास्कर ने एक महिला यात्री के साथ हुई बातचीत के आधार पर जो पोस्ट डाली थी, वह भी रोंगटे खड़े कर देने वाली थी. जीवित बच निकले यात्रियों और सैलानियों के तमाम तरह के कुकर्मों का आंखों-देखा हाल था वह, उस महिला यात्री के हवाले से. सुनीता ने न केवल उस महिला का नाम दिया था, फ़ोन नंबर भी दिया था.

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ज्योतिषीय सन्नाटा

देश में ज्योतिषियों की भरमार है. दो-चार की ख्याति तो, जैसा ज्योतिष-प्रेमी बतलाते हैं, दुनियाभर में फैली है. इतने सारे ज्योतिषियों में से एक ने भी भविष्यवाणी क्यों नहीं की इस तबाही की? जबकि यात्रा (आस्था-प्रेरित अतवा पर्यटन-प्रेम-प्रेरित) पर जाने वालों में से बहुत से तो ज्योतिषियों से सलाह भी करके गए ही होंगे.
फ़ेसबुक पर भी न जाने कितने ज्योतिषी सक्रिय हैं ! कोई तो बोलता !
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क्रिकेट खिलाड़ियों को एक-एक करोड़ रुपया, पुरस्कार-स्वरूप


यह सब इसी देश में संभव है. दुनिया भर में कहीं भी क्रिकेट खिलाड़ियों पर ऐसी धन-वर्षा नहीं होती. सेना के जो जवान अपनी जान जोखिम में डाल कर निस्स्वार्थ सेवा कर रहे हैं, उन्हें ढंग से यश भी नहीं मिल रहा, धन की तो बात ही बहुत दूर की है. एक 'फ़िक्सर' (मनोज प्रभाकर) एक्सपर्ट राय दे रहा है, एक चैनल पर, और एक दूसरा 'फ़िक्सर' (श्रीशांत) बयान दे रहा है, "मैं अवश्य वापसी करूंगा" ! यह भी इसी देश में संभव है !
आज मीडिया "सबसे बड़े सेनापति" के रूप में धोनी को दिखा रहा है.
असल सैनिक उत्तराखंड में फंसे हुए लोगों की जान बचाने की जुगत में भिड़े हैं, सात-आठ दिन से ! लगातार ! उनका जज़्बा है जो बड़े सलाम का असल हक़दार है !
                                             
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यह नरेंद्र मोदी को "फ़ैंटम" के रूप में पेश करने की क़वायद है... 

 
"नरेंद्र मोदी आया, और पंद्रह हज़ार गुजरातियों को बचाकर ले गया."
यह नरेंद्र मोदी को "फ़ैंटम" के रूप में पेश करने की क़वायद है. अब कॉमिक्स तैयार होंगे! नई किस्म के स्टिकर्स बनेंगे ! नई किस्म के मास्क बनेंगे !
ग़ज़ब करता है अपना मीडिया भी ! यह पूछने-सत्यापित करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई ( जैसे नवभारत टाइम्स को भी नहीं हुई) कि आखिर कैसे? कहां से? क्या सब गुजराती एक स्थान पर आ मिले थे, केदारनाथ के चमत्कार-स्वरूप? यह भी कि वह मरने से बचायेगा भी गुजरातियों को ही? क्योंकि यहां आने वाले तो सभी हिंदू ही होंगे ! हमारी जां-बाज़ सेना के इतने दिन के अथक प्रयत्नों से जो उपलब्धि हुई, उससे ज़्यादा वह एक दिन में ही कर गया? इनोवा गाड़ियों से? कितने हेलिकॉप्टर थे? हो तो कितने ही सकते थे क्योंकि टाटाओं, अंबानियों, और न जाने किन-किन को तो एक इशारा ही काफ़ी था ! कोई यह भी नहीं पूछ रहा कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार को "केदारनाथ-मंदिर को संवारना" ही सबसे "पहली और बड़ी प्राथमिकता" लगी? और क्या यह शुभ लक्षण है?
तो अब उम्मीद अयोध्या पर नहीं, केदारनाथ पर आकर टिक गई है? आपदाओं का दोहन, और धार्मिक उन्माद पैदा करने से लोकतंत्र क़तई मज़बूत नहीं होता, फ़ासिज़्म आता है !
मीडिया ज़र-खरीद गुलाम की तरह आचरण कर रहा है.
                                              
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नेक इरादे, मासूम सवाल
 

नेक इरादों वाले मित्र भी कितने मासूम होते हैं ! अब देखिए न, कई मित्र यह सवाल पूछ रहे हैं कि ( इस देश के कॉरपोरेट्स तो नंबर एक के स्वार्थी है, उनकी तो बात ही न करें !) देश के पांच सात बड़े मंदिरों के पास लाखों करोड़ रुपये जमा हैं, जो इन्हें बतौर चढावा मिले हैं, उसमें से ये केदारनाथ आपदा-ग्रस्त लोगों के लिए कुछ भी निकालकर क्यों नहीं दे रहे? मेरा कहना है कि यह उम्मीद सिरे ही से ग़लत है क्योंकि ये सिर्फ़ "लेते" हैं. "देना" इनके शब्दकोश में है ही नहीं. चढावे किसी भगवान के निमित्त हों, "कब्ज़ा" सच्चा होता है. "चढावा किसका? कब्ज़ा जिसका !"
                                              
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पानी खोज लेता है नए रास्ते, मुख्यधारा में जा मिलने के लिए !


एक मित्र ने लिखा "पानी अपना रास्ता नहीं बदलता." सही ही लगता है. पर आंशिक संशोधन के साथ मेरा कहना है कि पानी का रास्ता रोकोगे, तो पानी अपने पुराने रास्ते पर चल पड़ने के लिए खोज लेगा नए-नए रास्ते. और इस प्रक्रिया में गर्वोन्मत्त खड़े विशाल भवन नींव से कटकर खड़े-खड़े बह जाएंगे पानी की तेज़ धार में.
आप अपने उद्देश्य की पूर्ति में विफल होंगे, और पानी पूरी तरह सफल. एक सीमा तक ही बर्दाश्त करती है प्रकृति, अपने साथ छेड़छाड़, और फिर जब बिफरती है तो तबाही मचा देती है. इस तबाही का दोष प्रकृति के मत्थे मंढने की कोशिशें अपने पापों और अपराधों पर पर्दा डालने का ही दूसरा रूप है.
                                                 
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इतिहास ऐसे भी बदला लेता है

किसी को "भारतीयकरण" का नारा देने वाले बलराज मधोक की याद है?
इतिहास कितना निर्मम हो जाता है, कितनी ही बार !
जो अपना नगाड़ा ढम-ढम करके पूरे देश में उत्तेजनापूर्ण बहस चला दे, उसके "होने-न होने" का किसी को ध्यान भी न रहे, इसे इतिहास के सबक़ के रूप में भी देखा जाना चाहिए.
पर हां, यह तो चालीस से तीन-चार अधिक साल पहले की बात है.
                                                  
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''फ़ासिस्ट संगठन की विशेषता होती है कि दिमाग़ सिर्फ़ नेता के पास होता है , बाक़ी सब कार्यकर्ताओं के पास सिर्फ़ शरीर होता है.''  (हरिशंकर परसाई)

अब देखिए न, नेता के आदेश से "धर्म-जय" का उद्घोष हो गया कि दैवीय चमत्कार के रूप में मंदिर बच गया ! वास्तव में बच भी गया क्या? "नंदी" का चबूतरा भी मंदिर का ही हिस्सा था न? और जो दूसरा मंदिर बहता चला गया? और ऋषिकेश में गंगा की धार पर खड़ी शिव की वह विराट मूर्ति जो अब कहीं नहीं दिखती? हजारों घरों के ध्वस्त हो जाने को क्या कहेंगे? लाखों लोगों के बेघर हो जाने को क्या कहेंगे? पचहत्तर हज़ार से ज़्यादा फंसे हुए यात्रियों को? जिन्हें लापता बताया जा रहा है, उनकी गिनती "मरे हुओं" में न हो, यह सूचना तंत्र की सीमा है. अंततः लापता मृतकों में नहीं गिने जाएंगे क्या? मनुष्य-जीवन और उसकी संपदा के पक्ष में चमत्कार क्यों नहीं हुआ. ऐसा चमत्कार क्यों नहीं हुआ कि सभी दर्शनार्थी और सैलानी बचे रह जाते? और यह भी कि सरकार को यह नहीं कहना पड़ता कि "धाम" के कपाट दो साल तो क्या, एक दिन के लिए भी बंद नहीं होंगे? क्या "चमत्कार-कर्ता" को यह पता था कि यह सब सिर्फ़ बादल के फटने से नहीं हुआ बल्कि भू-खनन-माफ़िया और राजनीतिक नेताओं की मिलीभगत से हुए अंधाधुंध निर्माण-कार्य और वृक्षों की ह्रदय-हीन कटाई के परिणामस्वरूप हुआ है? पर मंदिर की मान्यता के लिए भी तो ये होटल-धर्मशालाएं और गैस्ट हाउस ज़रूरी थे न? और ये सब प्रकृति के नियमों को अंगूठा दिखाते हुए नदी-किनारे ही बने थे. विज्ञापन में अच्छा लगता है न - एकदम नदी किनारे ! चमत्कार करने वाले को भी क्या नैसर्गिक सौंदर्य पसंद नहीं रह गया था?
इस प्रलय-जैसी तबाही में (मनुष्य को ग़ायब करके) किसी "दैवीय चमत्कार" के रूप में महिमा-मंडित करने वाले तत्व कैसा समाज बनाना चाहते हैं, यह एकदम साफ़ है. जो मंदिरों को मनुष्य की श्रेष्ठतम धरोहर के रूप में पेश करने का धंधा करते हैं, वे किस दर्ज़े के मनुष्य-विरोधी हैं, यह और खुलासा करने का मतलब है पाठकों की बुद्धि और सोचने-समझने के सामर्थ्य को प्रश्नांकित करना. यह अपराध मैं नहीं करूंगा. 

-मोहन श्रोत्रिय 

देखो यह आभार-प्रदर्शन !


उन्नीस सौ साठ के दशक के मध्य में एक गीत सुना था, कवि सम्मेलन में. यदि सही याद है, तो गीतकार मोहन अंबर का था. लगभग पूरा याद भी था. अब कुछ टुकड़े ही याद रह गए हैं. कल से गीत के दो अंतरों की आखिरी पंक्तियां बेसाख्ता याद आ रही हैं. मैंने पहले भी कभी कहा था कि कौन चीज़ कब और क्यों याद आजाए, इसकी तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती. मानव-मन के खेल निराले होते हैं !
बहरहाल, गीत की वे चार पंक्तियां यों हैं :


देखो शूल बिछाने वालो, यह मेरा आभार-प्रदर्शन
जितनी डगर न मैं चल पाऊं, उतनी डगर तुम्हें मिल जाए.
...

...
...
देखो धूल उड़ाने वालो, मैं बदला ऐसे लेता हूं
धुंध-अंजे मेरे नयनों की सारी नज़र तुम्हें मिल जाए.

उस समय के ढेर सारे गीत याद हैं, टुकड़ा-टुकड़ा, जिनमें जीवन के अनुभव बोलते थे, और सहृदय श्रोता के मन को छू लेते थे, अपनी सहज रूप से संप्रेषित अर्थवत्ता के कारण.

-मोहन श्रोत्रिय 

''ज़िंदगी वेद थी, पर जिल्द बंधाने में कटी''


नीरज के एक मुक्तक की यह पंक्ति यों ही याद नहीं आ गई. हुआ यह कि अभी थोड़ी देर पहले बाज़ार गया. मिक्सर का जार ठीक करने के लिए छोड़ आया था परसों, उसे लेने गया था. उसे लेकर, और पैसे देकर जैसे ही पलटा तो एक बेहद पहचाने हुए से शख्स को अपनी ओर देखते पाया. चेहरा पहचाना हुआ हो, और नाम याद न आए तो बड़ी कोफ़्त होती है. अपनी बढती उम्र का अहसास कचोटने भी लगता है. परेशानी से बचने के लिए मैंने तुरत यह स्वीकार कर लिया कि मुझे उनका नाम याद नहीं आ रहा है. वह हंसे, और बोले : "ग़नीमत है, आपको मेरा चेहरा याद है, जबकि यह बहुत बदल गया है. कम ही लोग पहचानते हैं. नाम तो बदला भी नहीं है, पर अक्सर लोग चेहरे और नाम को जोड़ नहीं पाते हैं." इतना सुनना था कि मुझे उनका नाम भी याद आ गया. चेहरे पर न जाने कितने युद्धों की इबारत लिखी हुई थी, पर बोलने का उनका अंदाज़ अभी भी वही था, जो क़रीब तीस साल पहले कई दिन तक साथ रहने के कारण स्मृति में रच-बस गया था. या कहिए स्मृति में पंजे गड़ा कर बैठ गया था.
मैंने उनसे पूछा कि वह अभी भी गीत लिखते हैं क्या ! उत्तर में संक्षेप में उन्होंने अपनी राम-कहानी सुनाई कि कैसे उनके मकान पर दबंग और रसूख वाले किरायेदार ने कब्ज़ा कर लिया था, और उन्हें दर-बदर कर दिया था ! कैसे एक खास दोस्त और वर्षों के सहकर्मी ने "अपना किया" उनके सिर पर "मंढ कर" उन्हें नौकरी से निकलवा दिया था ! जितनी यंत्रणा उन्होंने झेली उसकी वजह से लिखना-पढ़ना तो बंद होना ही था. हल्की-सी हंसी की झलक दिखाकर वह बोले, " मेरी ज़िंदगी तो महाभारत में बदल गई, किन-किन कौरवों से जूझूं, अकेला ही." अपना कोई स्थाई ठीया- ठिकाना न होने, और ज़्यादा देर तक साथ न रह सकने की मजबूरी की बात कहकर वह यह वादा तो कर गए कि एक बार मिलने तो आएंगे ही. लगता है, वह वादा निभाएंगे. निभाते हैं, तो उनकी कहानी के बाक़ी हिस्से, बाद में!

कहने की ज़रूरत नहीं है, कि उनसे मिलना सुखद और प्रीतिकर लगा, पर उनकी अधूरी कहानी ने ही बेहद कष्ट पहुंचाया. एक भला आदमी कितना निरीह बन जा सकता है, कितना लाचार और निस्सहाय ! प्रतिभा और सृजन-क्षमता तो ऐसे में चली जाती है, तेल लेने ! एक बहुमूल्य जीवन की सारी रचनात्मकता जैस जिल्दसाज़ के यहां पड़ी हुई हो, और उनके पास जिल्दसाज़ी की क़ीमत अदा करने जितनी भी क्षमता न बची हो.

क्या-क्या बन जाना चाहते हैं बच्चे !


छोटे-छोटे बच्चे थे सब जो
खेल रहे थे पार्क में
उनके साथ थी एक युवती
गुरु-गंभीर
चश्मे में से अलग तरह से झांकती थीं
उसकी आंखें सम्मोहित-सी करती बच्चों को.
खेल-खेल में वह पूछ रही थी उनसे
क्या बनकर बहुत खुश होंगे वे !

बच्चों ने प्रश्न को अपनी तरह से समझा
और एक-एक करके बताने लगे अपनी इच्छा
टोका नहीं युवती ने
यह भी पता चलने नहीं दिया कि उसे
अलग तरह के उत्तरों की थी अपेक्षा
वह खुश थी कि बच्चे बोल रहे हैं
कि बच्चे सपने देखते हैं
कि बच्चे बेझिझक अपने सपनों को बांट रहे हैं औरों के साथ.

बच्चे भी ग़जब थे
कुछ-कुछ अजब भी थे
एक बन जाना चाहता था पंखा अपनी मां के लिए
कि वह हाथ से हवा झल सके भीषण गर्मी मे
जब बिजली चली गई हो
दूसरे का मन था ठंडे पानी का सरोवर बन जाने का
कि उसके सपनों की सफ़ेद बतखें तैरती रह सकें निर्बाध
तीसरा तितली बन जाना चाहता था कि रह सके निरंतर
फूलों के संग-साथ
चौथी, जो प्यारी-सी छुटकी थी बन जाना चाहती थी तारा
स्थित हो जाना चाहती थी एकदम उस तारे के पास
जिसके बारे में बताया गया था उसे कि वह तारा तो
उसकी मां का ही रूप है, बदला हुआ
और इसीलिए जब भी वह देखती थी उस तारे को तो उसमें
नज़र आती थी उसे उसकी मां
बिलकुल वैसी ही जैसी थी वह जब तक वह यहां थी
(छुटकी का नहीं हुआ था परिचय "मरना" नामक क्रिया से).

आगे भी चलता निश्चय ही यह सिलसिला
रोचक-मनमोहक-ज्ञानवर्धक
पर इतने में ही बज उठा अलार्म
गुस्से में उठा मैं इस दुर्लभ सपने के टूट जाने से
पर निकलना तो था ही मुझे प्रातःकालीन सैर पर.

टहलते-टहलते गुस्से की जगह ले ली
विरल अनुभव से गुज़रने के तोष ने.  

-मोहन श्रोत्रिय

नया भाषा-संस्कार


भाषा-चेतस शरीफ़ लोग जिनसे सहमत नहीं होते, या जिन्हें अपने विरोधियों के रूप मे देखते हैं, उन्हें शोहदे का ख़िताब देकर सम्मानित करते हैं. अगले ही दिन उन्हें फ़ेसबुक के पंडे कहकर सम्मानित करते हैं. तीस दिन में तीस नए शब्द ख़िताब  का दर्ज़ा पा लेंगे, यह तय दिखता है क्योंकि हर दिन कुछ-न-कुछ ऐसा होता ही रहेगा कि पुराना ख़िताब नाकाफ़ी लगने लगेगा.
हर शब्द, उसे बरतने वाले व्यक्ति के मनोभावों-मनोदशाओं को प्रतिबिंबित करता है, ऐसा सुनते आए हैं, बचपन से. बचपन चाहे साठ बरस पीछे छूट गया हो, पर तब की बातें अभी तक चेतना में गुंथी हुई हैं. आप इन्हें संस्कार कह सकते हैं, यदि इसमें रूढिवादिता और पुराणपंथीपन की गंध न आए तो !
उस समय के शिक्षक हर बताई गई बात की गांठ बांध लेने का निर्देश दिया करते थे. अब वे गांठें खुल ही नहीं पाती तो क्या करूं? आप मुझे अतीत-जीवी कहने-मानने को स्वतंत्र तो हैं ही, मेरे बिना कहे भी.
निस्संग भाव से सोचकर देखें कि यह रुके, तो अच्छा नहीं रहेगा/लगेगा क्या? मन में पीड़ा-भाव न होता तो यह लिखने को विवश न होता.

यह भी कोई बात हुई !


वह आया और बिना रुके बोलता रहा / चलिए, अभी इसी दम / बस चल पडिए / उठेंगे और चलेंगे नहीं / तो फिर पहुंचेंगे कैसे / कहीं भी.

मैंने पूछा/ कहां?/ उसने फिर कहा / कहीं भी.


कहीं भी में / कोई दिलचस्पी नहीं है अपनी / इतना कहकर मैंने उसका हाथ झटक दिया.


कही भी पहुंचने को तैयार/ होने के लिए/ ज़रूरी है भरपूर मात्रा में/ अवसरवादिता/ मौक़े का फ़ायदा उठाने का कौशल.


अपन को / नहीं पहुंचना कहीं भी / कोशिश करते रहेंगे/ पहुंचने की / जहां पहुंचना चाहिए/ सफल होना / न होना / नहीं है सिर दर्द अपना / तनिक भी.


चल पड़ने की आवाज़ भीतर से आती है / दिशा-संकेत भी मिलते हैं / वहीं से.

-मोहन श्रोत्रिय 

यादों का क्या !


कौन याद कब उभर आए, कहा नहीं जा सकता. आज मैं अपने मित्र-बड़े भाई की किताब के आखि़री प्रूफ़ देख रहा था. करौली से हमारा साथ शुरू हुआ था, सैंतालीस साल पहले. सो अचानक प्राध्यापक के रूप में कॉलेज का अपना पहला दिन याद आ गया. साथ ही और भी बहुत कुछ ऐसा याद आ गया जो करौली जैसे छोटे क़स्बे को खास बना देता है.
इक्कीस बरस की उमर. एमए का परिणाम आने के डेढ़ महीने के भीतर ही मुझे नियुक्ति का तार मिल गया (डाक से पुष्टि बाद में आया करती थी). विश्वविद्यालय से निकला ही था, तो वेश-भूषा भी विद्यार्थियों जैसी ही : आधी बांह की कमीज़, ड्रेन पाइप पैंट, नोकदार चमचमाते काले जूते. प्राचार्य के दफ़्तर की ओर जा रहा था, कि पीछे से एक विद्यार्थी की आवाज़ कानों में पड़ी, "यह भी कोई एडमिशन लेने आ गया दिखता है!" पलटकर देखा तो बोलने वाला एक लंबा-सा स्मार्ट लड़का था. दफ़्तर में औपचारिकताएं पूरी होते ही, प्राचार्य (जो स्वयं भी अंगरेज़ी साहित्य के ही थे) ने पूछा "आज क्लास लेंगे?" मैंने कहा, "क्यों नहीं?" उन्होंने बताया कि आधा घंटा बाद हॉल में विज्ञान के प्रथम वर्ष की अनिवार्य अंगरेज़ी की क्लास होगी. वह मुझे पुस्तकालय ले जा रहे थे, तभी लड़कों का वही झुंड दिख गया, और वह लड़का भी. शायद वह समझ गया कि मैं एडमिशन लेने तो नहीं आया था. पुस्तकालय में, मैंने नोट किया, कि प्राचार्य मेरी रुचियों का अंदाज़ लगाने की कोशिश कर रहे हैं. जिस शेल्फ़ के सामने मैं रुकता वह भी रुक जाते. थोड़ी देर बाद ही घंटी बज गई, और वह मुझे हॉल के दरवाज़े पर आगे बढ़ लिए (बाद में पता चला कि वह आस-पास ही मंडरा रहे थे, आश्वस्त हो जाने के लिए कि मुझे कोई परेशानी का सामना तो नहीं करना पड़ रहा है. ग़नीमत थी कि नहीं पड़ा. और वह बाद में चाय पीते-पीते अपनी खुशी व्यक्त कर भी गए कि मेरा पहला दिन उनकी उम्मीद से कहीं ज़्यादा शानदार रहा.
हॉल में घुसा, और सभी छात्र खड़े हो गए. वह लड़का भी जिसे मैं यहां "पढ़ने आया अपने जैसा लड़का" लगा था. मेरी नज़र उसी पर थी. मैं मुस्कराया, और उसने नज़रें नीचे कर लीं. कहा कि सबके नाम कल लिखेंगे, और एक-एक से परिचय भी कल ही करेंगे. आज तो अपना परिचय दे देते हैं. और चूंकि शिक्षक का परिचय पढ़ाने से मिलता है, तो पढ़ाकर देना ही ठीक रहेगा. किताब मिली नहीं थी. व्याकरण से ही एक टॉपिक चुना, और शुरू हो गए. इतनी देर में यह समझ में तो आ गया था कि बोर्ड पर लिखने के लिए जब विद्यार्थियों की तरफ़ पीठ करूंगा तो कोई शोर तो शुरू नहीं ही होगा. एक वाक्य लिखता और तुरत उसका खुलासा करने के लिए मुड़ जाता. उस स्मार्ट लड़के की ओर ज़रूर देख लेता.
पहले बीस मिनट निर्विघ्न निकल जाएं तो फिर क्या डर? तो सच में कोई डर नहीं था.
वह स्मार्ट लड़का हिंडौन में नामी-गिरामी वकीलों में गिना जाता है. जब भी यहां मुझसे मिलने आता है तो पहले दिन के अपने जुमले का ज़िक्र किए बिना नहीं रहता. साथ ही यह भी जोड़ना नहीं भूलता "मेरी समझ में यह क्यों नहीं आया कि आप पढ़ने नहीं, पढ़ाने आए थे?"

-मोहन श्रोत्रिय 

संस्‍मरण

1970 में, करौली में एक नौजवान ग़ज़ल गायक फ़ारूक़ ने एक बेहद शानदार ग़ज़ल सुनाई थी. फ़ारूक़ उस कच्ची उमर में ही बहुत लोकप्रिय हो गए थे, और देश भर में उनकी मांग रहती थी, ग़ज़ल- संध्याओं में. बाद में अंगरेज़ी विभाग के ही मेरे एक सहकर्मी भी इसे उसी बलंदी के साथ सुनाते थे. वह अब नहीं रहे. आज अचानक उनकी याद आ गई, बेवजह-सी. इस ग़ज़ल के सिर्फ़ दो अशआर याद रह गए हैं.
न इतना तेज़ चले सिरफिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है.
ये किस मुक़ाम पे ले आया है जुनूं मुझको
जहां से अर्श भी नीचा दिखाई देता है.
 

ठोस ज़मीन पर खड़ा शायर ही यह बात कह सकता है.
आज के हालात के हिसाब से भी ये अशआर एकदम मौजूं लगते हैं. आइपीएल या फ़ेसबुक के संदर्भ में इनकी प्रासंगिकता तलाशने की ज़हमत न उठाएं.
 

-मोहन श्रोत्रिय

बुद्ध ने कहा, आनंद से

बुद्ध से आनंद ने पूछा था कि आप इस निरंतर गाली दे रहे व्यक्ति की बातों पर मुस्करा क्यों रहे हैं, और जवाब क्यों नहीं दे रहे हैं? इस पर भी बुद्ध ने फिर मुस्कराकर कहा, जिसके पास जो होगा वही तो देगा. अब यह तुम पर है कि उसे स्वीकार करो/न करो. कोई तुम्हें धन देना चाहता है, और तुम लेने से इन्कार कर दो, तो वह धन कहां रहेगा? देने की कोशिश करने वाले के पास ही न? तो इसी तरह मैं इसकी गालियों को नहीं ले रहा हूं, तो ये भी इसी के पास लौटकर चली जाएंगी न? मैं इसीलिए मुस्करा रहा हूं, और मेरी मुस्कान के साथ इसका क्रोध बढता जा रहा है. खीझ भी. क्रोध और खीझ आत्मघाती होते हैं क्योंकि ये इसके तनाव और अवसाद को बढाएंगे.
तो मित्रो, पिछले पांच-सात दिनों में मुझे जो गालीनुमा ख़िताब ("शोहदों" और "पंडों" का "गॉड फ़ादर", "फ़ेसबुक-बाबा", "बाबा फेलूनाथ") एक विद्वान सदाशयी संपादक और पिछले दिनों बहु-सम्मानित साहित्यकार ने दिए हैं, उन्हें मैं आनंद की मार्फ़त मिली सीख के अनुरूप, मुस्कराकर लौटा रहा हूं. कहने की ज़रूरत है क्या कि अब ये ख़िताब किसके खज़ाने की शोभा बढ़ाएंगे !
वैसे भी जो मुझे जानते हैं (उनकी संख्या कितनी ही कम क्यों न हो?), उनकी मेरे बारे में राय इन खिताबों से बदलेगी नहीं, और जो नहीं जानते या नहीं जानना चाहते हैं उनकी राय की फ़िक्र में मुझे दुबला क्यों होना चाहिए? एक सज्जन तो मेरी अंत्येष्टि की कामना करते हुए भी देखे गए. हमारे ब्रज में एक कहावत प्रचलित है कि "कव्वों के कोसने से ढोर मरने लगते तो एक भी ढोर नहीं बचता!" अब वह (अंत्येष्टि की कामना करने वाले भद्र समीक्षक) इस कहावत को अभिधा में लेकर मुझे "ढोर" कहने लगें तो यह उनकी समझ! पर इसमें एक जोखिम भी निहित है, क्योंकि वैसा करने का मतलब होगा कि वह अपने आपको "कव्वों" से जोड़ रहे हैं.


-मोहन श्रोत्रिय 

और दो संस्‍मरण

चमत्कार

1970 के साल की बात है. बेटी (दीप्ति, जिसे हम घर पर रिज्जी कहते हैं) के जन्म के बाद की पहली दिवाली की. जिस दिवाली को हम ठाठ से मनाना चाहते थे, पर मना नहीं पाए. दिवाली की पूर्व-संध्या यकायक चिंता और व्यग्रता का सबब बन गई. हम (मैं, और भाईसाब यानि भारद्वाज जी, जिनकी जल्दी ही छपने वाली किताब का ज़िक्र किया था मैंने, अभी तीन दिन पहले) घर लौटे, तो देखा कि रिज्जी बेहाल है. खांसी ऐसी कि रुक कर ही न दे, सांस लेने में मुश्किल, और चेहरा इतना लाल कि जैसे खून ही टपकने वाला हो. न तो ऐसी खांसी देखी थी पहले, और न उसकी वजह से सांस लेने में ऐसी परेशानी ! भाईसाब ने उसे गोद में लिया, और बोले : “चलो, अस्पताल चलो.” अस्पताल घर से ज़्यादा दूर नहीं था. जैसे ही अस्पताल के दरवाज़े पर पहुंचे, तो देखा कि सामने खड़ी एक ठसाठस भरी बस में डॉ. शत्रुघ्न अग्रवाल चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने उन्हें ज़ोर से, लगभग चीखते हुए आवाज़ दी, और वह बस से उतर गए. वह क़स्बे के इस ज़िला अस्पताल में सबसे कुशल चिकित्सक थे. उन्हें समस्या बताई तो वह रिज्जी का चेहरा देखते ही, कुछ घबराए से लगे. हमें लगभग खींचते हुए अस्पताल में ले गए. एक बड़ी टॉर्च मंगवाई, और रिज्जी के गले के भीतर तक का नज़ारा देखा. तुरत स्टोर-कीपर को बुलाया (जो संयोग से अभी तक वहां था) और उसे एंटी-डिफ्थीरिया-सीरम लाने को कहा. जब तक इंजेक्शन आए और लगे, उन्होंने कहा कि पांच मिनट की भी देर हो जाती तो बात बिगड़ जाती, आने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, और यदि हम आ भी गए होते तो भी कोई मदद नहीं मिल पाती, क्योंकि दिवाली की छुट्टियों में सिर्फ़ डॉ. गौड़ (हड्डी के डॉक्टर) ही यहां उपलब्ध होते, जो हाथ खड़े कर देते. इंजेक्शन लगाने के बाद उन्होंने रिज्जी को क्वेरंटाइन वार्ड में भर्ती कर लिया. यह कोई व्यवस्थित वार्ड नहीं था. एक अलग-थलग बरामदे में एक पलंग डाला हुआ था. उजाले और हवा से महरूम. स्टोर-कीपर ने आकर बताया कि उसके पास दो इंजेक्शन और रखे हैं, आपातकालीन उपयोग के लिए. अगले दिन तक हमें इनकी एवज़ में तीन इंजेक्शन जमा कराने होंगे. आज लोगों को यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि क़स्बे के सबसे बड़े कैमिस्ट के पास भी ये इसलिए उपलब्ध नहीं होते थे कि उसके पास फ़्रिज नहीं था. हमने ‘हां’ कह दिया, क्योंकि हमें भरोसा था कि भरतपुर में मेरा बचपन का मित्र रमेश सूचना मिलते ही वह इंजेक्शन लेकर (बर्फ़-भरे डिब्बे में रखकर) अगली रात, यानि दिवाली की रात तक आ जाएगा. ऐसा ही हुआ भी, और उसकी दिवाली भी हमारी तरह अस्पताल में ही बीती (मनी तो क्या कहूं?). डॉ. अग्रवाल ने छुट्टियों में प्रभारी रहने वाले डॉ. गौड़ को बुलाकर सारा केस समझा दिया. ये डॉ. गौड़ भी हमारे अच्छे मित्र थे, और अक्सर सायंकालीन भ्रमण में साथ रहा करते थे. इसके बाद डॉ. अग्रवाल किसी ट्रक में बैठकर गंगापुर के लिए रवाना हुए, हमें पूरी तरह आश्वस्त करते हुए कि वह रात ठीक से गुज़र जाने का मतलब होगा कि बेटी ने घाटी पार कर ली है. रात का गुज़रना बाक़ी था, पूरी आश्वस्ति केलिए. रात गुज़र गई, पर हमारा मन अभी भी पूरी तरह चिंता-मुक्त नहीं था.
अगले दिन दो और इंजेक्शन लग गए, और मेरा मित्र चूंकि इंजेक्शन ले आया था, तीन अतिरिक्त भी ताकि हमारे काम न आएं तो अस्पताल में औरों के काम आएं. इन अतिरिक्त इंजेक्शनों की ज़रूरत नहीं पड़ी, या शायद एक की पड़ी हो तो पड़ी हो. तीसरे दिन सुबह जब डॉक्टर ने रिज्जी के गले में झांका, तो उनका चेहरा खिल गया. उन्होंने बताया कि जीभ से लेकर गले के भीतर तक पसरी-फैली वह सफ़ेद झिल्ली पूरी तरह गायब हो चुकी थी, जिसे देखकर ही डॉ. अग्रवाल के चेहरे पर बनी चिंता की लकीरें हमने देखी थीं,
तबसे लेकर अब तक न जाने कितनी बार यह खयाल मन में आया है, आता रहा है, कि बच जाने और न बच पाने के बीच कोई बेहद महीन धागा ही होता है, लगभग अदृश्य सा. दो मिनट की भी देर हो जाती, और डॉ. अग्रवाल की बस रवाना हो जाती तो क्या होता? बहुत कल्पनाशील होने की ज़रूरत नहीं है इसका उत्तर देने में सक्षम होने के लिए. एक ऐसा उत्तर जिसे देने में डर लगता है, और मन नहीं मानता है कि वह उत्तर दिया जाए. भीतर से एक ही आवाज़ आती है कि चमत्कारों ने घटित होना बंद नहीं कर दिया है.
और जैसा संत ऑगस्टीन ने कहा था : “चमत्कार प्रकृति के प्रत्याख्यान के रूप में घटित नहीं होते, अपितु प्रकृति संबंधी हमारे ज्ञान के प्रत्याख्यान के रूप में घटित होते हैं.”
                                                  ***

दुनिया की नज़र में वे छोटे लोग थे, पर दिल के बहुत बड़े थे. और हमारे लिए सगों से भी ज़्यादा सगे

आज एक बार फिर करौली !
हम जिस मकान में रहते थे, वह उस ज़माने के हिसाब से अच्छे बने मकानों में था. साफ़-सुथरा, हवादार ! तीन परिवार रहते थे. मकान-मालिक बंबई में रहते थे.
उन्होंने एक कमरा एक दंपति को दे रखा था, घर की निगरानी के लिए. वहां रहने वाले हम सभी के छोटे-मोटे काम वे दोनों बड़े उत्साह से करते रहते थे. वह दंपति निस्संतान था, पर पति-पत्नी दोनों के सीने में बच्चों के प्रति प्यार के पाताल-तोड़ कुएं थे, या कहिए प्यार के झरने बहते रहते थे. हम से उम्र में दोनों बड़े थे, पर हम उन दोनों को ही नाम से ही बुलाते थे - गोपीजी और अतरबाई. गोपीजी की दुकान थी, उसे हेयर कटिंग सेलून तो कहा नहीं जा सकता. पर हां, वह बाल काटने का काम करते थे.
जब मेरी बेटी(मेरी एक मात्र संतान) पैदा हुई, तो उन्हें तो जैसे एक खिलौना ही मिल गया. अधिकांश समय दीप्ति या तो अतर बाई की गोद में होती थी, या फिर सुबह-शाम गोपीजी उसे कंधे पर लिए फिरते थे. बाज़ार तक का चक्कर लगवा लाते थे. दो बरस तक यह सिलसिला यों ही चलता रहा. हम कुल मिलाकर वहां छह साल रहे, पर दीप्ति जब दो साल की होगई थी, तो हमारा वहां से तबादला हो गया. कहने की ज़रूरत नहीं कि जब हम वहां से चलने वाले थे तो कई दिन पहले से गोपीजी और अतर बाई दीप्ति को एक मिनट के लिए भी अपने से अलग करने से बेहद दुखी हो जाते थे. उनकी रात कैसी बीतती होगी यह बात हमें परेशान करती थी.
वहां से चले आने के बाद भी कई बार करौली जाना हुआ था. ठहरते कहीं भी हों, पर सबसे पहले अपने उस पुराने "घर" जाकर गोपीजी-अतर बाई से मिलना हमारा पहला काम होता था. 1980 में आखिरी बार उनसे मिलना हुआ. पर जब 1995 में दीप्ति की शादी होने वाली थी तो मुझे लगा कि मुझे करौली जाकर ही उन्हें न्योता देना चाहिए. आप अंदाज़ नहीं लगा सकते कि उन्हें कितनी खुशी हुई होगी. अपनी तमाम शारीरिक परेशानियों और आर्थिक कष्टों के बावजूद वे दोनों जयपुर आए. पहली दफ़ा शहर में आए थे, और मान सरोवर पहुंचकर ऐसे भटके कि बीच सड़क पर बैठकर मदद के लिए गुहार लगाने लगे. ग़नीमत रही कि एक ऐसे नौजवान की नज़र उन पर पड़ गई, जो उस दृश्य को अनदेखा नहीं कर पाया, खुद बड़ा भावुक होने के कारण. उसने निमंत्रण पत्र पर पता देखकर उन्हें आश्वस्त किया कि वे मेरे घर के बहुत पास हैं. उन्हें वहीं बैठा छोड़कर, वह मेरे घर आया. मैं उसके साथ जाकर उन्हें अपने घर लेकर आया. मुझे देखते ही वे जैसे बिलखे, और दोनों एक साथ मेरे गले लगे, मेरी आंखों में भी आंसू आ गए. चार दिन तक वे अपने तमाम कष्टों को भूले रहे, और फुदके-फुदके फिरते रहे. हमारी नज़र में ही नहीं, अन्य घनिष्ठ मित्रों की नज़र में भी वे शादी में हमारे सबसे खास मेहमान बने रहे. दोनों का कहना यह था कि उनके जीवन की "साध" पूरी हो गई कि वे दीप्ति की शादी में शामिल होने के लिए ज़िंदा रहे.


आज वे नहीं हैं, दोनों ही. पर हमारे जीते-जी वे हमारे साथ रहेंगे. जाति-बिरादरी और खून के रिश्तों से कहीं बड़ा था उनका रिश्ता, हमारे साथ.


-मोहन श्रोत्रिय 

दो संस्‍मरण


धरा क्या है, नाम में?

कॉलेज में पढ़ाते सात-आठ दिन बीते होंगे कि एक दिन सुबह-सुबह ही धुआंधार बरसात शुरू हो गई. सिर्फ़ एक क्लास हो पाई थी. आगे की कोई संभावना नहीं थी क्योंकि वहां एक अलिखित परिपाटी चली आ रही थी कि आठ बजे तक तेज़ बरसात शुरू हो जाए तो कालेज आने की ज़रूरत नहीं. इसका असल कारण यह था कि वज़ीरपुर दरवाज़े से निकलते ही एक ढलान शुरू हो जाता था, जो चारसौ - पांच सौ गज के बाद चढाई में तब्दील हो जाता था. वहां से क़रीब दो सौ गज चलने के बाद कॉलेज का मुख्य द्वार आता था. तो एक तरफ़ से, शहर का, और दूसरी तरफ़ से कॉलेज वाली सड़क का पानी उस ढलान वाले इलाक़े को सराबोर कर देता था, सरोवर में तब्दील कर देता था. कई दफ़ा तो आदमी-डुबान पानी हिलोरें मारता रहता था वहां.
तो इसके बाद क्लास ही नहीं होनी थीं, इसका मतलब छुट्टी थोड़े ही था, हमारे लिए. छुट्टी कर भी दी जाती, तो घर कैसे पहुंचते ! स्टाफ़रूम का सहायक भी नहीं आया था, इसलिए चाय भी नहीं मिल सकती थी. दूध भी तो वह ही लेकर आता था.
दो मित्रों ने कहा चलो, बाहर चाय पी आते हैं. छाते तो वहां सबके पास होते ही थे (मैंने भी खरीद लिया था, वहां पहुंचने के अगले ही दिन), कॉलेज के सामने से, बाईं ओर से जो सड़क निकलती थी (गंगापुर-कैलादेवी की तरफ़), उस पर एक थडी थी, (जो क़ायदे से थी तो कॉलेज परिसर में ही), वहां चाय के साथ पकोड़े सुबह से शाम तक कभी भी मिल सकते थे.
थडी के मालिक के बारे में इतना तो पता चल ही चुका था कि वह लोक-गायक हैं, और आशु कवि भी हैं. ज़ाहिर है, उनसे मिलने की मेरी इच्छा भी अब तक बलवती हो चुकी थी. मैंने हां ही नहीं कर दी, बल्कि मैं तो आगे बढ़ भी लिया. वहां पहुंचने के लिए हमें कॉलेज परिसर से बाहर निकलने की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि केमिस्ट्री-लैब में होकर भी वहां तक जा सकते थे.
वहां पहुंचकर देखा कि कि एक पांच-फ़ुट से कम लंबाई वाला व्यक्ति सफ़ेद बुर्राक कुरता-धोती पहने बैठा हुआ है, और एक सहायक चाय बना रहा है. दूसरी सिगड़ी पर कड़ाही में तेल औंट रहा था. मेरे वरिष्ठ मित्र ने मेरा परिचय कराया उनसे. वह खुश हुए. उनकी लंबाई ही कम थी, चौड़ाई तो ठीक से अधिक ही थी. यानि उनका "मध्य प्रदेश" काफ़ी फैलाव लिए हुए था. उनका नाम बताया गया, "टुच्चे गुरु". मैं चौंका, पर शायद वह खुद मेरे आश्चर्य के भाव को भांप गए थे, तो हंसकर बोले मेरा यही नाम है. दो-चार मिनट तक औपचारिक बात-चीत चलती रही. इसके बाद, मेरे वरिष्ठ मित्र की फ़रमाइश पर उन्होंने अपना खुद का लिखा हुआ एक बेहद लोकप्रिय पद सुनाया :
"मेरे श्याम के नैन बने हैं फूल कमल के
लहर-लहर लहराएं हिलोरे जमुना-जल के".
मैं आज भी उनकी गायन-मुद्रा को देख सकता हूं, आंख बंद करके, और मुझे कोई संकोच नहीं यह कहने में कि मैंने ऐसी शानदार प्रस्तुति जीवन में अन्यत्र कहीं नहीं देखी. अंग-अंग थिरक रहा था, और गाने के सौंदर्य में न जाने कितने चांद-सूरज जड़ रहा था.
वहां एक लोक विधा प्रचलित है - आशु कविताई और गायन की. यह स्पर्धा के रूप में आयोजित होती है. कई टीमें भाग लेती हैं. इसे किलगी-तुर्रा कहा जाता है. और जब यह प्रतियोगिता होती है, तो सुनने के लिए जैसे पूरा क़स्बा उमड़ आता है. रात भर चलता है यह कार्यक्रम. और अपने, चाय-पकोड़े वाले ये "टुच्चे गुरु" इस कार्यक्रम की जान होते थे, साल-दर-साल. असल नायक ! और उस दिन जैसे उनका क़द काफ़ी बढ़ जाता था. क़स्बे में उन्हें जो सम्मान हासिल था, वह बड़े-बड़ों की ईर्ष्या का सबब था.
मेरे पिताजी जब करौली आते (ठहरते चूंकि एक ही रात थे), तो हमारे घर एक संगीत का कार्यक्रम होता था, हर बार, बिना किसी अपवाद के. मेरे पिता तबला शानदार बजाते थे, और ग़ज़लें भी उतने ही जानदार ढंग से सुनाते थे. क़स्बे के लगभग सभी कलाकार इसमें शामिल होते थे, तथा मेरे मित्र भी, जो बेसब्री से इस आयोजन का इंतज़ार करते थे. टुच्चे गुरु इस कार्यक्रम की भी "जान" हुआ करते थे. वह मेरे पिता के समवयस्क होने के बावजूद उनके घुटनों तक झुककर अपना सम्मान प्रकट करते थे (इससे ज़्यादा तो वह झुक भी नहीं सकते थे, चाहकर भी), पर उनकी प्रस्तुति के बाद मेरे पिता उन्हें गले लगा लिया करते थे.
कार्यक्रम के दो-तीन महीने बाद ही, जब भी टुच्चे गुरु से बात होती, वह छूटते ही कहते, "बुलवा लो न साब, अपने पिताजी को. बहुत दिन हो गए अब तो !"
वह व्यक्ति, वह कला-साधक-महानायक अब नहीं है, पर मेरी याददाश्त के एक कोने में तो अभी भी हैं, वह अपनी पूरी धज के साथ. और जब तक मैं हूं, उनकी जगह बनी रहेगी.

                                            ***

कल पिता की बरसी थी. सोलहवीं.

कल दिन भर उनका गायक का रूप दिल-ओ-दिमाग़ पर हावी रहा. सतत्तर बरस की उम्र तक तबले पर थिरकती उनकी उंगलियां दिखती रहीं, मन की आंखों से. ब्रज के लोकगीत और रसिया गूंजते रहे. पचास के दशक में आकाशवाणी पर वह यह सब सुनाते थे. फिर स्वाद बदलने को, 'जाग दर्दे इश्क़ जाग, दिल को बेक़रार कर...' और ' मैं कोई पत्थर नहीं इंसान हूं. कैसे कह दूं, ग़म से घबराता नहीं...कोई साग़र दिल को बहलाता नहीं' सुनते थे, यह सब कानों में गूंजता रहा.
उनके बहाने नौटंकी सम्राट गिर्राज जी की भी याद ताज़ा हो आई. वह पिता के घनिष्ठतम मित्रों में से थे. अब तो वह भी नहीं रहे. उनके निधन तक जब भी मैं कामां जाता था, तो उनके साथ तीन-चार घंटे की बैठक होती ही थी, निरपवाद रूप से. कम लोगों को पता है कि पचास के दशक में नौटंकी मंडली "मनोहर-गिर्राज" की मंडली के रूप में जानी जाती थी. मनोहर जी बहुत जल्दी चले गए. उन्हें गिर्राज जी से भी अधिक प्रतिभाशाली माना जाता था. खुशी की बात आखिरकार यही रही कि गिर्राज जी को उनकी कला के लिए तमाम सम्मानों से नवाज़ा गया. उनसे जब भी बात होती थी तो वह मनोहर जी और मेरे पिता का स्मरण श्रद्धापूर्वक करते थे, और मिलने पर मुझे बांहों में भरकर 'कुंवर साब' कहते, और इस तरह अपना ममत्व लुटाते.
वृन्दावन में, जहां पिता ने तीस बरस बिताए, आज भी वहां के लोग उनके 'समाज-गायन' की न केवल प्रशंसा करते हैं, इस बात पर दुख भी जताते हैं कि जब से वह गए हैं, वृन्दावन का 'समाज-गायन' वैसा नहीं रहा. न तो कला की दृष्टि से, और न निष्ठा की दृष्टि से !

-मोहन श्रोत्रिय 

Monday 24 June 2013

मक़बूल फ़िदा हुसेन : मैं गु़स्सा था तुमसे


तुम्हारे बाहर जा बसने से 
मैं गु़स्सा था हुसेन 
बेहद  बेइंतिहा. यूं गु़स्सा तो 
था मैं सियासतदानों से भी 
और इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के
वज़ीरों और हुक्‍़मरानों और 
मुल्क़ की सबसे बड़ी कचहरी से भी.

मज़हबी जुनूनियों और लम्पट तबकों को
तो "हर दिन होली और रात दिवाली" का 
तोहफ़ा दे दिया तुमने अनजाने ही 
अपने बाहर जा बसने के फै़सले से
और बसने के लिए चुना भी
तो एक इस्लामी देश.
करेला और नीम चढ़ा. 
तुम्हें क्यों ख़याल तक 
नहीं आया अपने 
करोड़ों मुरीदों का ?
कि तुम निराश करोगे उन्हें 
अपने इस क़दम से 
इस फै़सले से...

मैंने पहली बार जब नाम
पढ़ा था तुम्हारा  और जाना था 
तुम्हे एक बेहद मशहूर
चित्रकार के रूप में 
तो शब्दकोश में खोजे थे 
मायने "मक़बूल" के.
जितने भी अर्थ मिले मक़बूल के
वे सब के सब आयद होते थे तुम पर
"हर दिल अज़ीज़"
"स्वीकृत-सम्मानित" और 
"वाक् सिद्ध".

क्यों नहीं था तुम्हें खु़द को 
यक़ीन   कि बेमानी नहीं थे
ये मायने तुम्हारे
नाम के?
तुम्हारे प्रशंसकों की तादाद इतनी भी 
कम न थी कि  डिग जाना सही हो 
तुम्हारे आत्मविश्वास का.
टिकना था  टिके रहना था 
तुम्हें रहना था अडिग अविचल 
जो तुम नहीं रहे   यही नहीं 
तुम अपने फै़सले को सही ठहराने 
में जुट गए
और तुम्हें यहां से धकियाने वालों को 
मिल गया एक हथियार 
तुम्हारे खिलाफ़  जिसने 
बना दिया और अधिक लाचार 
तुम्हारे अपने ही 
समर्थकों को जो हर सूरत में 
चाहते थे तुम्हारी वापसी 
ससम्मान वापसी 
उस धरती पर 
जहां तुम चलते थे नंगे पैर 
मुक्तिबोध की शवयात्रा में शामिल
होने के दिन से ही.
यह पैंतालीस 
साल का वक्‍़फा इतना कम भी 
तो न था कैसे चले होगे तुम
अजनबी मुल्क़ की धरती पर?

कैसे समझ सकते थे तुम्हारे काम की 
क़ीमत और अहमियत 
वे लोग जिन्हें कोई सलीका 
न था कला के मूल्यांकन का,
जो प्रशिक्षित हैं बचपन से और 
अभ्यस्त भी देखने के 
हर चीज़ को मज़हब के दकियानूसी 
चश्मे से?
तुम्हें क्यों नहीं लगा कि 
तुम कर रहे थे कमज़ोर 
अपने ही लोगों को जो
लगातार बेनक़ाब करने में लगे थे
खजुराहो और कोणार्क की विरासत 
पर फ़ख्र करने वालों के दोग़लेपन को.

मक़बूल तुम कैसे 
ज़िंदा रह सकते थे परायी धरती पर
ज़फ़र के दर्द से तुम इतने नावाकिफ़
थे क्या?
परायी धरती में दफ़नाए गए तुम
ज़फ़र ही की तरह
बेहद तकलीफ़ है मुझे इससे.
बहुतेरे औरों को भी यह नाग़वार गुज़रा है. 

सियासतदानों को कोई  ख़ास फ़र्क़ 
नहीं पड़ता इससे 
पर जो यकीन करते हैं इस मुल्क़ की 
गंगा-जमुनी तहज़ीब की 
तहरीक में जी-जान से,
वे सब तो शर्मसार हैं. पर यह तो 
मानोगे तुम भी 
मक़बूल फ़िदा हुसेन कि
तुम भी विचलित हो गए 
और चूक गए इस तहरीक में अपना 
यक़ीन ज़ाहिर करने से.

मक़बूल तुम और मक़बूल 
होते-होते रह गए. चित्रकार तो 
बड़े थे ही तुम 
रह गए  कुछ और बड़ा इंसान 
बनते-बनते.  एक हद से ऊपर उठ पाना 
संभव भी नहीं होता शायद. खै़र...... 


- मोहन श्रोत्रिय