Friday 30 March 2012

मेरे साथ यह कैसे हो गया !

यह एक अलग तरह का आलेख है. मनीष गुप्ता जो एक बैंकिंग प्रोफेशनल हैं तथा साथ ही अंग्रेज़ी भाषा पर भी महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं, एक ऐसे दौर से निकल कर आए हैं जिसे "ज़िंदगी और मौत के बीच झूलने" की संज्ञा भी दी जा सकती है. ज़ाहिर है इस तरह के अनुभव से गुज़रना किसी हादसे से कम नहीं होता है, और इसलिए अक्सर ऐसी परिस्थितियों में मज़बूत से मज़बूत आदमी भी टूट जाता है, हताश हो जाता है और ज़िंदगी में धुंधलके के अलावा कुछ दिखाई नहीं पड़ता. सारे रंग 'धूसर' रंग में तब्दील हो जाते हैं. मनीष, जैसा कि इस आलेख से उजागर होता है, इसके  अपवाद रहे हैं: आशावादिता से एकदम सराबोर और ज़िंदगी के प्रति पूरी तरह से कृतज्ञ. मनीष से मेरा परिचय उनकी मां की मार्फ़त हुआ है, मैंने उन्हें देखा नहीं है अभी तक. उनकी मां, विजय गुप्ता एक महाविद्यालय से सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं और यहीं हमारे समुदाय-परिसर में रहती हैं, और एक ही पेशे से जुड़ी होने के कारण हमारी ख़ास मित्र भी हैं. मनीष नौजवान हैं, और इस सबके बावजूद उत्साह से भरे हुए हैं. यह आलेख वास्तविक जीवन से ली गई 'प्रेरक कथा' के रूप में भी पढ़ा जा सकता है. मुझे यक़ीन है कि यह न केवल रोचक, बल्कि उपयोगी भी लगेगा. कष्ट से गुजरने वाले लोग ऐसे लोगों की तरफ बहुत उम्मीद से देखते हैं जो हंसते-खेलते "घाटियां पार कर आए हैं" और इस तरह उनके लिए 'रोल-मॉडल' की भूमिका अदा करते हैं. 

‪I never wallowed in this thought. I have seen several genuinely nice people suffer much more and my illness looked insignificant in comparison. Their stories of handling grief and getting life back to normal gave me tremendous strength and courage to face my little situation positively and with a smile. Your prayers and good wishes strengthened me and my family and I remain forever indebted to you.‬

‪Now, I have recovered and rejoined office and look forward to working again with passion (I know of no other way) and having fun along the way. As 2011, the most challenging and  hence, most memorable year of my life draws to a close, I am tempted to share a few of the lessons that I either learned new or where I reinforced my old beliefs (you know that I had a lot of time to reflect so there are many more, but some other time).  ‬

‪1. Never give up:‬

‪There was a time in May 2011 when I had become so weak that I could not even get up from the bed. Food didn’t taste good at all and body didn’t completely accept whatever little I managed to swallow. There was either no news or if it was, it was bad news. Three of our relatives had come forward to volunteer for organ donation, but each one had either been diabetic or hypertensive for some time, rendering their organs unsuitable for transplantation. I was terribly missing my dad who was the only O+ (my blood group) person in the immediate family and had passed away in Jan 2009. One day, in an emotional moment, I complained to god why he took away my dad when his son needed him the most. This somehow gave a new resolve and strength to the family, as if dad had somehow made some arrangements for me and all we had to do was to find them out.‬

‪We had already registered ourselves for cadaveric transplant and could do little more on that front. However, given there is no national repository for swaps, my family started meeting more and  more nephrologists to get our names registered in their databases. Within a couple of weeks, three offers came our way and the initial assessment for suitability commenced. Out of the blue, a friend called, heard about my condition and stepped forward to offer his organ to me. I was shocked. Weeks before, I thought we have reached a dead end,  but suddenly several doors had opened. I came to the conclusion that one can always ask parents for help, even if they are not alive, and they never fail to respond. All that they ask from us is to continue our efforts and not give up and resign to the fate. This believe was further strengthened when right after my surgery, both the cadaveric and the swap calls matured, and those organs helped to cure other patients in the queue.‬
‪‬
‪2. Have sincerity and depth in relations:‬

Have genuine relations. Invest time in nurturing them and cherish them as they mature. Take care of them when they are sick and/or old.  I didn’t need to ask my wife, mother, or sister if they shall volunteer under a swap program…I rightfully assumed it. My mom-in-law underwent the same test three times as she was simply not willing to believe that based on the first test results and her age, the doctor had suggested we keep her as a reserve and not as the first option. Here again, if the reports had turned out to be normal, I would not have had to ask. ‬

‪3. Try and avoid lifestyle related diseases:‬

Type 2 diabetes and hypertension are partly related to our lifestyles. Too much junk food and too little exercise. Try and avoid them. Wonder, if someone very dear to you (your child, your spouse, your parents, your sister or brother, or your dearest friend) needs you to save their life, and you simply cannot, all because you destroyed your own organs due to….too much junk food and too little exercise! ‬
‪4. Pledge to donate your organs after you are gone:‬

I didn’t know that one person can save as many as 9-10 lives even after his or her death.  Two eyes go to restore vision in two blind people, Two kidneys get transplanted in two patients suffering from kidney failure, One liver is split into two  (as it is the only internal organ that can re-grow) and save lives of two patients of liver failure. One heart saves a life, so can one pancreas, not to mention skin, that can heal several burn victims. In the year 2011, Mumbai had only 8 cadaver kidney transplants, when it could potentially have had thousands, forcing the balance to continue the financially and physically debilitating option of dialysis. Of the 37 million people across the globe who are blind, over 15 million (40%) are India. Over 3.5 million of these in India suffer from corneal blindness and simply cannot enjoy the beauty of this earth, and either don’t work or work well below their true potential, simply because we either burn or bury the corneas that could illuminate their lives.‬

‪On this note and on the eve of New Year, I WISH YOU ENOUGH!‬
‪‬
‪I wish you enough sun to keep your attitude bright no matter how grey the day may appear.‬
‪I wish you enough rain to appreciate the sun even more.‬

‪I wish you enough happiness to keep your spirit alive and everlasting.‬

‪I wish you enough pain so that even the smallest of joys in life may appear bigger.‬

I wish you enough gain to satisfy your needs, and…‬

‪I wish you enough loss to appreciate all that you possess.‬


‪regards and god bless!‬
‪manish‬

Wednesday 28 March 2012

तब और अब

बहुत पुरानी नहीं है यह बात
गर्मी के मौसम में बढ़ती थी जैसे ही
किल्लत पानी की
हर दूसरे-चौथे दिन झंडों की अगुवाई में
निकलती थी औरतें
मुसे कपडे पहने हुए, पर
इस सबके प्रति बेपरवाह
निकलती थी औरतें
टीकाटीक दुपहरी में पुराने मटकों को
रख कर सिर पर
पानी के दफ़्तर में फोड़ने के लिए
कोसते हुए सरकार को समवेत स्वर में.

महंगाई और जमाखोरी के खिलाफ़
निकलती थी रैलियां
ट्रेड यूनियनों की तरफ़ से
गुंजाते हुए आसमान को ओजस्वी नारों से
आम सभा में बदल जाती थी रैली
शहर के बीचो-बीच. बहरों के कान पर
नगाड़े बजाने की क़वायद जो कई दिनों तक
चढ़ी रहती थी लोगों की जुबान पर.
रैली निकालने वालों से पांच गुना भीड़
इकठ्ठा होती थी इन सभाओं में.
जहां 'सींग समाएं' वहीं बैठे-खड़े
सुनते थे वक्ताओं को.

यह कैसा उदारवाद आया है
जिसने हर दुख-तकलीफ़ को
झेलने और हालात के अपरिवर्तनीय होने का
ज़हरीला भाव भर दिया है जन-गण के मन में
नियति ही मान लिया गया हो जैसे
फालिज मार गया हो प्रतिरोधी मंसूबों को.

और ये जो कलश-यात्राएं देख रहे हैं आप
कभी भागवत कथा और कभी
गायत्री शांति-संपन्नता यज्ञों के नाम पर?
इन्होंने जगह ले ली है मटका-फोड़ अभियानों की
कितने उत्साह से
गहनों से लदी-फंदी महिलाएं चमचम
वस्त्रों में हंसती-बतियाती उल्लसित
निकालकर लाई जाती हैं घरों से पूरी
तैयारी के साथ जैसे जता रही हों
सबको कि सब कुछ तो ठीक है
इतना जितना पहले कभी नहीं था
धर्म-ध्वजा फहरा रही है
चमक रहा है आर्यावर्त्त
अब और क्या चाहिए? नव-धनाढ्य वर्ग
पाता है सामाजिक प्रतिष्ठा
मन को गहरे गुदगुदाने वाली स्वीकार्यता
अधर्म से अर्जित धन को उलीच कर
धर्म के नाम पर. एक ज़माना वह था
जब बुरा माना जाता था
प्रदर्शन धन का और
वैभव का निर्लज्ज प्रदर्शन
और आज? मुंह बाए देखते रहते हैं
राहगीर, और श्रद्धा(?) से बैठे दर्शक-श्रोता
मन के भीतर चलता हो जो भी
ऊपर से जयकारा है खुले गले से
धन्य धन्य धन्य धर्मात्मा,
त्यागी, दानी, अपरिग्रही
और न जाने क्या-क्या!

बच्चों की परीक्षाएं चल रही हैं
ज़ाहिर है पढ़ना तो तब तक है ही
जब तक एक भी पर्चे का धरा हुआ है बोझ छाती पर
यह पत्थर हटेगा तो रख जाएगी
कोचिंग की शिला जो धरी रहेगी अगले
साल की परीक्षा तक. दुविधा में
मां-बाप
नहीं कह पाते खुलकर कि गूंजते
लाउड स्पीकर के स्वर बरछी से चुभते हैं

उनकी छाती में और
उनके बच्चों के कानों में
और यह गूंज अंधियारा फैला देती है
उनकी आंखों के सामने. दुविधा पैदा होती है
इस डर से कि उन्हें नास्तिक धर्म-विरोधी
समझ लिया जाएगा. मैंने कहा
ऐसे कुछ दुखियारों से कि विरोध
पाखंड का, ढोंग का, वैभव के नंगे प्रदर्शन का
करने पर मिलता है ख़िताब गर
नास्तिकता का तो यह
बात शर्म की नहीं विजय की है
उल्लास मनाया जाना चाहिए जिस पर.
खुद के हितों पर पड़ रही हो चोट
फिर भी सच को सच न कहना
और ग़लत ढंग से प्रतिष्ठा अर्जित करने वालों
को बेनक़ाब करने से कतराना
व्यावहारिकता नहीं कायरता है
और कायरता की शर्मिंदगी उठाते
चले जाना चिंता की बात है
नास्तिकता का तमगा गर्व की बात है
वे चाहे गाली के रूप में ही कह रहे हों इस बात को.

तब और अब का फ़र्क़ दिखाना
प्रेरित नहीं है अतीत-मोह से
झुंझलाहट है जो पैदा होती है
खुले दिमाग, खुली आंखों और अच्छी स्मृति
के संयोजन से. लुप्त होते चले जाना अच्छी चीज़ों का
और दिखते रहना असहनीय ग़लत चीज़ों का
पैदा तो करता ही है गुस्सा
यह गुस्सा सामूहिक गुस्से में कब बदलेगा?
"उदात्त सामूहिक क्रोध" में जो भस्म करने की शक्ति से
भरा हो, और राख से नया सृजन करने की
संभावना को मूर्त रूप देने के
भाव और जोश से भर दे, हम सबको.

                                    -मोहन श्रोत्रिय 

Tuesday 27 March 2012

मेरी तीन कविताएं

(1)

आत्म-मुग्धता हरण कर लेती है विवेक का
और बन जाती है यह
दुधारी तलवार जो
ज़ख़्मी करती है सिर्फ़ उसे नहीं
जिसे हम अपना विरोधी समझने लगते हैं
बल्कि उसको भी जो आज़माता है हाथ
या कहें
भांजता है तलवार को. वहम भी तो
होते हैं पैदा आत्म-मुग्धता से अनिवार्य तौर पर
यानि दुर्निवार होता है बच पाना जिनसे.

ज़िंदगी ने लगाई हैं कितनी ठोकरें
या सिखाए हैं कितने सबक़
इससे मिलती है वह दृष्टि जो
करती है प्रेरित खुद पर चलाते
रहने को चाबुक या यों कहें
कर देती है तैयार अलग तरह से देखने को
चीज़ों को.


(2)

जीवन ने गुज़ारा है इतनी
कड़ी परीक्षाओं से, इतने लिए हैं इम्तिहान
जिनमें फ़ेल हो-होकर भी पास हुआ अंततः
सिर्फ़ इस बूते पर कि
छल, फ़रेब और विश्वासघात को मौक़ा
नहीं दे सकता था मेरी अपनी "खुदी" को तोड़ देने का.
मेरी क़ीमत पर खुशियां मनाने का,
उन सबको जिन्होंने कर दिया था
लगभग सुनिश्चित कि
मैं पगला जाऊं या फिर करलूं
आत्म हत्या. बीस से अधिक साल
हो गए और वे "विचार-वीर" दुखी से
ज़्यादा चकित हैं कि "मैं अभी भी हूं"
यहीं, सबके बीचो-बीच
सक्रिय और प्रसन्न.


(3)

मंज़िलें कितनी भी तय हों
रास्ते सीधे नहीं जाते वहां तक
साथ चलनेवाले भी कहीं भी छिटक कर
हो सकते हैं अलग.
बहुत संभव है
आगे मिल जाएं कुछ और लोग
जिनके साथी भी हो गए हों दूर
उनसे छिटक कर. कुछ समय के लिए
ग़लत साबित हो सकता है
भरोसा करना मनुष्य की जन्मजात
अच्छाई पर. सब कुछ के बावजूद
अच्छाई ही सर्वकालिक सत्य होती है,
आज जो भी लगे.
ईर्ष्याएं जीवित रहती हैं, टुच्चापन भी
और अहंकार भी
ज़ाहिर है, ये प्रतीक हैं अंधेरे के
पर हर अंधेरी सुरंग के परे रौशनी होती है,
कितनी ही मद्धिम और क्षीण क्यों न हो !

                                           -मोहन श्रोत्रिय 

Thursday 22 March 2012

नई सदी में भगत सिंह की स्मृति : शशिप्रकाश की तीन महत्वपूर्ण कविताएं

लोर्का को याद करते हुए अपने गद्यगीतनुमा स्मृति-लेख में यूनानी महाकवि ओदिसिअस एलाइतिस ने लिखा था, "महत्वपूर्ण यह नहीं कि आप चमकदार मुहावरों को ढूंढते हुए किताब के पन्ने पलटें बल्कि ज़रूरी यह है कि आप अपने आपको एक ऐसी ताक़त के साथ एकात्म महसूस करें जो आपको पेड़ की जड़ों तक ले जाए, जिससे आप दर्द से भरे चेहरों का स्पर्श कर सकें, महत्वपूर्ण यह है कि आप एक कवि के साथ अनंत, अनगढ़ और थरथराते हुए विश्व में यात्रा कर सकें, कुछ इस तरह की अनुभूति के साथ जो आपने अपने बचपन में महसूस की होगी."
आलोचना धर्म के जिन व्यापारियों-पंसारियों ने कविता की वं दृष्टि को भी जड़ीभूत मुहावरों-मंत्रों के रूपवादी काव्यशास्त्र की सिद्धगुटिका में बदल डाला है और जिनका "वाम" सट्टाबाज़ार की 'उड़नछू पूंजी' जैसा छलिया है, उनके लिए शशिप्रकाश की कविताएं महत्वपूर्ण नहीं हो सकतीं. उनके लिए तो ये अप्रिय और उपेक्षणीय ही होंगी. लेकिन साहित्य-संस्कृति और राजनीति के मोर्चे पर जो कुछ नए लोग (निस्संदेह, आज वे कुछ ही हैं) और जो कुछ थोड़े से पुराने, ईमानदार लोग क्रांतिकारी मार्क्सवादी अवस्थिति पर डटे रहते हुए वर्तमान विपर्यय और गतिरोध के कारणों को समझना चाहते हैं और उनकी जड़ों तक जाना चाहते हैं, एक नई शुरुआत और समाज-विकास की गतिकी में जिनका विश्वास अभी भी अक्षुण्ण है और जो, चाहे जिस किसी भी मोर्चे पर, जिस किसी भी रूप में, वर्तमान दमघोंटू गतिरोध के विरुद्ध सक्रिय हैं, उन तमाम लोगों के लिए ये कविताएं महत्वपूर्ण हैं.
                                                            -कात्यायनी 
                                                             सत्यम 

नई सदी में भगत सिंह की स्मृति

एक दुर्निवार इच्छा है
या एक पागल-सा संकल्प
कि हमें तुम्हारा नाम लेना है एक बार
किसी शहर की व्यस्ततम सड़क के बीचो-बीच खड़ा होकर
एक नारे, एक विचार, एक चुनौती
या एक स्वगत-कथन की तरह,
जैसे कि पहली बार,
और अपने को एकदम नया महसूस करते हुए.
नहीं,
यह कोई क़र्ज़ उतारना नहीं,
देश की छाती से कोई बोझ हटाना भी नहीं
विस्मृति की ग्लानि का,
(वह यूं कि जब स्मृति थी
तब भी कितना था परिचय वास्तव में?)
यह तो महज़
अंधेरे में रख दिए गए एक दर्पण के बारे में
कुछ बातचीत करनी है अपने-आप से.
सोचना है कि अंधेरे तक
किस तरह ले जाया गया था वह दर्पण
और किस तरह अंधेरा लाया जा रहा है आज
हर उस जगह
जहां कोई दर्पण है.
जहां भी परावर्तन की संभावना,
किरणों का प्रवेश वर्जित है
और कहीं आग लग रही है
कहीं गोली चल रही है.*

हमें तुम्हारा नाम लेना है
उठ खड़े होने की तरह,
देश को धकापेल बनाने या
वाशिंगटन डी.सी. का कूड़ाघर बनाने की
बर्बर-असभ्य या
कला-कोविद कोशिशों के विरुद्ध.
नहीं, यह कोई भाव-विह्वल श्रद्धांजलि नहीं,
यह नीले पानी वाली उस गहरी झील तक
फिर एक यात्रा है
उग आए झाड़-झंखाड़ों के बीच
खो गया रास्ता खोजने की कोशिश करते हुए,
या शायद, कोई भी राह बनाकर वहां तक पहुंचने की जद्दोजहद भी है,
या शायद ऐसा कुछ
जैसे हम किसी विचार के छूटे हुए सिरे को
पकड़ते हैं
आगे खींचने के लिए.

हमें तुम्हारा नाम लेना है
इसलिए नहीं कि तुम्हारे नामलेवा नहीं.
संसद के खम्भे भी तुम्हारा नाम लेते हैं
बिना किसी उच्चारण दोष के
और वातानुकूलित सभागारों में
तुम्हारी तस्वीरें हैं और फूल मालाएं हैं
और धूपबत्तियों का खुशबूदार धुआं है.
एक ख्यातिलब्ध राजनयिक कहता है
कि तुम प्रयोग कर रहे थे क्रांति के साथ
और बाज़ार सुनता है
और रक्त-सने हत्यारे हाथों से
विमोचित हो रही है
तुम्हारी शौर्य-गाथा पर आधारित नई बिकाऊ किताब
और एक बूढ़ा विलासी पियक्कड पत्रकार
अपने अखबारी कालम में तुम्हें याद करता हुआ
अपने पूर्वजों के पाप धो रहा है.

हमें तुम्हारा नाम लेना है
कि वे लोग खूब ले रहे हैं तुम्हारा नाम
जिन्हें खतरा है
लोगों तक पहुंचने से तुम्हारा नाम
सही अर्थों में.
इसलिए सुनिश्चित ऐतिहासिक अर्थों का
संधान करते हुए
हमें फिर थकी हुई नींद में डूबे
घरों तक जाना है लेकर तुम्हारा नाम.
कई बार हमें विचारों को कोई नाम देना होता है
या को संकेत-चिह्न
और हम मांगते हैं इतिहास से ऐसा ही कोई नाम
और उसे लोगों तक
विचार के रूप में लेकर जाते हैं.

हमें तुम्हारा नाम लेना है
एक बार फिर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूंढते हुए
जहां रोटियों पर मांओं के दूध से अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारखानों में दिहाड़ी पर खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और आधे आसमान की ओर से.
उन्हें एक दर्पण, नीले पानी की एक स्वच्छ झील,
एक आग लगा जंगल और धरती के बेचैन गर्भ से
उफनने को आतुर लावे की पुकार चाहिए.
गंतव्य तक पहुंचकर
अदृश्य अक्षर चमक उठेंगे लाल टहकदार
और तय है कि लोग एक बार फिर इंसानियत की रूह में
हरक़त पैदा करने के बारे में सोचने लगेंगे.**

तुम्हारा नाम हमें लेना है
उस समय के विरुद्ध
जब सजीव चीज़ों में निष्प्राणता भरी जा रही है
एक उज्ज्वल सुनसान में
जहां रहते हैं शिल्पी और सर्जक बस्तियां बसाकर,
और कभी दिन थे, जब हालांकि अंधेरा था,
पर अनगिन कारीगर हाथों ने
मिटटी, राख, रक्त, पानी, धूप और कामनाओं-संकल्पों से-
स्मृतियों-सपनों को गूंथकर गढे थे लोग
विचारों ने बनाया था जिन्हें सजीव-गतिमान.
तुम्हारा नाम हमें लेना है
कि अधबने रास्ते कभी खोते नहीं,
हरदम कचोटते रहते हैं वे दिलों में
जागते रहते हैं
और पीढ़ियों तक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा के बाद
वे फिर आगे चल पड़ते हैं
और जब भी
पहुंचते हैं अपनी चिर वांछित मंज़िल तक,
तो वहां से
एक नई राह आगे चलने लगती है.

तुम्हारा नाम हमें लेना है
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करते हुए और
इतिहास का लंगर छिछले पानी में डालने की***
कोशिशों के खिलाफ़,
और विचारों के खिलाफ़ जारी
चौतरफ़ा युद्ध के खिलाफ़
और उम्मीद जैसे शब्दों को
संग्रहालयों में रख देने के खिलाफ़.
...या तो हमें कविता में लानी है यह बात
या फिर किसी भी तरह की काव्यकला के
आग्रह के बिना ही कह देना है कि
यह सत्ता पलट देनी होगी
जो पूरी नहीं करती हमारी बुनियादी ज़रूरतें
और छीनती है हमारे बुनियादी अधिकार****
और विद्वज्जन हैं कि मुख्य सडकें छोड़कर
पिछवाड़े की गंदगी और कूड़े भरी गलियों से होकर
आ-जा रहे हैं
ढूंढते हुए कविता का अर्थात
मेर्कूरी अव्देविच की तरह*****
और तकिये में सोने की गिन्नियां छुपाए
तीर्थाटन पर निकलने को तैयार हैं भिक्षुवेश में
यदि समय कोई ऐसा वैसा आ-जाए तो.
...बल्कि सबसे अच्छा तो यह होगा कि
बेहद ईमानदार निजी दुखों, प्यार, राग, आदिम सरोकारों,
शब्दों, तरलता, मौन, चिंतन के अकेलेपन,
जनता के सुनसान, पुरस्कार-कामना-बोझिल मन,
सीढ़ियों, रस्सियों, नक़बजनी के औज़ारों और
निर्लिप्त खबरों से भरी
धूसर, चमकीली या सांवली-सलोनी निर्दोष-सी कविताओं के
पाठ के बाद, किसी शाम, जब अपनी बारी आए
तो बस दुहरा दिए जाएं
तुम्हारे ये सीधे-सादे शब्द :
"इंकलाब जिंदाबाद!"

संदर्भ....

* मुक्तिबोध की कविता "अंधेरे में" की पंक्तियां..."कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई..."
**भगत सिंह के प्रसिद्ध कथन का संदर्भ कि..."जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड लेती है" तो इस परिस्थिति को बदलने के लिए ज़रूरी होता है कि "क्रांति की स्पिरिट ताज़ा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरक़त पैदा हो."
***'नौजवान भारत सभा' के घोषणापत्र में उद्धृत मैज़िनी की कविता की पंक्तियाँ हैं :
"लंगर ठहरे हुए छिछले पानी में पड़ता है.
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करो
जहां ज्वार हरदम ताज़ा रहता है-
और शक्तिशाली धाराएं स्वतंत्र होती हैं..."
**** 5 मई 1930 को विशेष ट्रिब्यूनल को लिखे अपने पत्र में भगत सिंह ने इसी आशय की बात कही थी.
***** फ़ेदिन के प्रसिद्ध उपन्यास 'पहली उमंगें' का एक कंजूस व्यापारी पात्र.



अगर तुम युवा हो
(एक पोस्टर कविता)

ग़रीबों-मज़लूमों के नौजवान सपूतो!
उन्हें कहने दो कि क्रांतियां मर गईं
जिनका स्वर्ग है इसी व्यवस्था के भीतर.
तुम्हें तो इस नरक से बाहर
निकलने के लिए
बंद दरवाज़ों को तोड़ना ही होगा,
आवाज़ उठानी ही होगी
इस निज़ामे-कोहना के खिलाफ़.
यदि तुम चाहते हो
आज़ादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान
और सुंदरता से भरी जिंदगी
तो तुम्हें उठाना ही होगा
नए इन्क़लाब का परचम फिर से.
उन्हें करने दो "इतिहास के अंत"
और "विचारधारा के अंत" की अंतहीन बकवास.
उन्हें पीने दो पेप्सी और कोक और
थिरकने दो माइकल जैक्सन की
उन्मादी धुनों पर.
तुम गाओ
प्रकृति की लय पर ज़िंदगी के गीत.
तुम पसीने और खून और
मिट्टी और रौशनी की बातें करो.
तुम बगावत की धुनें रचो.
तुम इतिहास के रंगमंच पर
एक नए महाकाव्यात्मक नाटक की
तैयारी करो.
तुम उठो,
एक प्रबल वेगवाही
प्रचंड झंझावात बन जाओ.

अंधकार है घना, मगर संघर्ष ठना है

अभी उष्ण है हृदय,
उबलता रक्त धमनियों में बहता है
ऊर्जस्वी इच्छाओं से
मन आप्लावित है
ऊष्मित नित-नूतन सपनों से.

'कला-कला' की कोमल-कांत पदावलियों से
क़लम मुक्त है.
अभी नहीं बाज़ार-भाव पर नज़र टिकी है.
कभी और क़त्तई नहीं हम
नए-नए नारों के चलते सिक्कों की
पूजा करते हैं,
न ही कला की शर्तों पर
राजनीति का भाषण देने के आरोपों से डरते हैं.

अभी हमारे लिए
प्रगति या परिवर्तन या क्रांति शब्द भी
घिसा नहीं है.
नई-नई यात्राओं की
आतुरता अब भी बनी हुई है,
नए प्रयोगों की उत्कंठा अभी शेष है.
अभी सीखने की आकुलता
गई नहीं है.
नए रास्तों पर चलने का
पागलपन भी मरा नहीं है.

सिर्फ़ सुबह का नहीं,
आग उगलती दुपहर का भी
सूर्य अभी अच्छा लगता है.
अभी अनल जो दहक रहा है
ज्वालागिरी के अतल उदर में,
लहक-लहक उठने को बेकल
हो उठता है बीच-बीच में!
ज्वार अभी उठते रहते हैं
गहन और गंभीर महासागर के तल से
आसमान छूने को आतुर.
तूफानी झंझावातों की उम्मीदें अब भी क़ायम हैं.

जनजीवन के संघर्षों के विद्यालय में
अभी प्राथमिक कक्षा में ही
बैठ रहे हैं,
मगर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक पढ़ने की,
आजीवन पढते जाने की
अटल और उद्दाम कामना
बनी हुई है.

हाथ मिलाओ साथी, देखो
अभी हथेलियों में गर्मी है.
पंजों का कस बना हुआ है.
पीठ अभी सीधी है,
सिर भी तना हुआ है.
अंधकार तो घना हुआ है
मगर गोलियथ से डेविड का
द्वंद्व अभी भी ठना हुआ है.

Saturday 10 March 2012

अड़तीस साल पहले लिखा था यह

'क्यों'-5 (फ़र.1974) में छपे मेरे संपादकीय नोट्स से कुछ अंश जो आज प्रासंगिक लग रहे हैं.

* इस बीच बहुत कुछ हो गया है. मसलन, प्रतीक की नया प्रतीक के रूप में वापसी, महाजनी पत्रिकाओं की बौखलाहट; उनके द्वारा छोटी पत्रिकाओं व उनके व्यक्तिवादी एवं महत्वाकांक्षी संपादकों का अपने पक्ष में व श्रमजीवी पत्रिकाओं के खिलाफ इस्तेमाल. बहरहाल, यह सब अप्रत्याशित नहीं था. जनवादी चेतना जब प्रखर होने लगती है तो प्रतिक्रियावादी-फ़ासिस्टी ताक़तें अपनी ओर से घेराबंदी शुरू करती ही हैं. प्रतिबद्धता व जनवादी चेतना के विस्तार की अहमियत व अनिवार्यता को ये सब अपनी-अपनी तरह से विरूपित करने की कोशिश करती हैं. (अमरीका भी तो, चाहे हिंद-चीन में हो या लातिन अमरीका में, जन-क्रांतियों को कुचलने की कोशिश करता ही है). सही विचार पर कीचड़ उछालना इनका स्वाभाव व व्यक्तित्व बन जाता है. हॉवर्ड फ़ास्ट ने बहुत पहले कह दिया था: 
फ़ासीवाद सदा सत्य के खिलाफ़ जेहाद बोलकर अपने आपको प्रकट करता है, और यदि लेखक फ़ासीवाद का सामना व उसका प्रतिरोध नहीं करता है तो उसे सबसे पहले बलि अपनी कला की ही देनी होगी.
 ऐसे में जनवादी लेखकों का यह दायित्व बन जाता है कि वे विभिन्न स्तरों पर पनप रही फ़ासिस्टी साज़िशों का सक्रिय विरोध करें, और जनता के दुश्मनों को जनता के सामने लाएं...साम्यवाद-विरोध एक ऐसा षड़यंत्र है जो कि आम आदमी को उसके भविष्य के प्रति सशंक बनाता है. जैसे-जैसे लेखन व राजनीति में भविष्य के अंकुर दिखने लगते हैं, वैसे ही प्रतिक्रियावादी ताक़तें एकजुट होने लगती हैं. साहित्यिक क्षेत्र में यह हलचल व नाकेबंदी छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के मंचों पर परिलक्षित हो रही है. अफ़सोस तो तब होता है जब सही किस्म के लोग भी अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इस कुचक्र में शामिल हो जाते हैं. वे लोग तो पासा फेंकेंगे ही. इधर से एक भी व्यक्ति के उधर जाने से उन्हें सम्मानीयता मिलती है, और वे इसकी घोषणा धूम-धाम से करते हैं. पूंजीवादी प्रचारतंत्र का पूरा  फ़ायदा उठाते हैं.

** ...उन्हें ज़्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ी: ऐसे लोग मिल गए जो उनकी ही बात कहने को तैयार थे. जब आम आदमी के साहित्य की बात शुरू की गई तो उधर से प्रतिक्रिया हुई : कौन आम आदमी? कैसा आम आदमी? हमें तो दिखता ही नहीं - न मंच के आसपास, और न भीड़ में. जब प्रतिबद्धता का सवाल हुआ: किससे प्रतिबद्धता? क्या साम्यवादी दल की गुलामी ही प्रतिबद्धता है? प्रतिबद्ध होकर अपनी अस्मिता कैसे बनाए रख सकेंगे? हमारी स्वतंत्रता का क्या होगा? कैसी मज़े की बात है कि अस्मिता का संकट है इन लेखकों के सामने और उसका फ़ायदा मिल रहा है शोषकों को, साम्राज्यवादियों को, क्रांति-विरोधियों को! इन्हें चिंता है उस स्वतंत्रता की जो कि बिकने पर भी बनी रहती है- वह स्वतंत्रता जो साम्यवाद के विरोध में लिखने-बोलने के लिए सीआईए से पैसा दिलवाती है, अमरीकी विश्वविद्यालयों (साम्यवाद-विरोधियों की यहां अच्छी खपत है) में अच्छे पद दिलवाती है. जब-जब ये स्वतंत्रताकामी लोग अस्मिता व स्वतंत्रता की बात करते हैं तो इनका विरोध उस विचारधारा से होता है जो शोषण-विहीनसमाज की स्थापना की गारंटी देती है. स्वतंत्रता की बात करनेवाले पूंजीवाद का विरोध नहीं करेंगे, अमरीका का विरोध नहीं करेंगे, जबकि स्वतंत्रता का गला पूंजीवादी व्यवस्था में ही घोंटा जाता है. इनके नज़दीक स्वतंत्रता का अर्थ है शोषण के खिलाफ़ जेहाद बोलने वालों का अनिवार्य विरोध. पूंजी द्वारा संचालित एजेंसियां इनकी अस्मिता की रक्षा करती हैं, इन्हें "कुंठा-रहित इकाई" बने रहने में मदद करती हैं. यह आपके और मेरे लिए सही हो सकता है कि पूंजीवादी ढांचा कुंठाएं पनपाता है, कि कुंठाहीनता इस व्यवस्था में संभव ही नहीं है. पूंजीवाद को ध्वस्त करके नया समाज बनाना इन्हें "सांचे ढला समाज" लगता है.

*** सार्त्र का अस्तित्ववाद साम्यवादियों को प्रिय इसलिए नहीं हो गया कि वह दल से जुड़ गए (संदर्भ, "त्रयी कवितावृत्त" की भूमिका में व्यक्त जगदीश गुप्त की चिंता), बल्कि इसलिए प्रिय हो गए क्योंकि जनांदोलनों में उन्होंने स्वयं को बदलाव चाहने वालों के साथ जोड़ा, आंदोलनों को दिशा दी. और अस्तित्ववाद की जूठन बीनने वाले अज्ञेय (यह जुमला अज्ञेय का ही है, 'शेखर एक जीवनी' से साभार) इसलिए प्रिय नहीं हो पाए क्योंकि वह लेखक को एक विशिष्ट किस्म का प्राणी मानते रहे हैं, और जनांदोलनों व तब्दीली की आकांक्षाओं को कुचलने वाले साम्राज्यवादियों की सेवाएं उठाते रहे हैं. 'कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम' नामक संस्था के अध्यक्ष की हैसियत से सीआईए से उनके संबंधों का भंडाफोड़ किसी हिन्दुस्तानी अखबार ने तो नहीं किया, अमरीकी अख़बारों ने ही किया. यह भी सर्वविदित है कि इस तथ्य को आज तक काटा नहीं जा सका है. और (जगदीश गुप्त के लिए) अज्ञेय सार्त्र के बराबर इसीलिए हो गए कि उन्होंने 'अपने अपने अजनबी' जैसा अस्तित्ववादी उपन्यास लिखा है! हिंदुस्तान के किस हिस्से की कहानी है यह? अज्ञेय अंग्रेजों के लिए फ़ौज में लड़े तथा क्रांति-विरोधी ही नहीं, क्रांति को अपमानित करने वाला लेखन करते रहे. उनके घोषित साम्यवाद-विरोध से खुश होकर अमरीकी साम्राज्यवादियों ने बार-बार उन्हें अपने यहां बुलाकर विभिन्न पदों पर रख कर पुरस्कृत किया है. सार्त्र ने ऐसा कोई समझौता साम्राज्यवादियों से नहीं किया, बल्कि नोबेल पुरस्कार भी ठुकरा दिया. अज्ञेय, इसके विपरीत, अख़बारों में अफ़वाहें (ख़बरें) "प्लांट" करवाते रहे कि इस पुरस्कार के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया है.

Tuesday 6 March 2012

सिद्धेश्वर सिंह की दो कविताएं


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर सिद्धेश्वर सिंह की दो कविताएं आपके साथ साझा करना अच्छा लग रहा है. सिद्धेश्वर सिंह चर्चित कवि हैं, चाहे एक ही संग्रह प्रकाशित हुआ है उनका अभी तक. उनके संग्रह "कर्मनाशा" के प्रकाशित होने के पहले ही उनकी कविताओं ने संजीदा पाठकों और कविता से किसी भी तरह का सरोकार रखने वाले मित्रों का ध्यान ठीक से अपनी ओर खींच लिया था. सिद्धेश्वर की पहचान एक सिद्ध अनुवादक के रूप में भी बन गई है. इन दोनों कविताओं पर किसी टिप्पणी की ज़रूरत मुझे नहीं लगती, खासकर इसलिए कि ये अपनी बात, ऊंचे स्वर में, सब तक संप्रेषित कर पाने की क्षमता से संपन्न हैं. व्यंग्य-व्यथा का सहमेल इन कविताओं को विशिष्ट बना देता है.

बालिका वर्ष

खुश हो जा मेरी बिट्टो!
यह तेरा वर्ष है.
दक्षेस ने तेरे नाम कर दिया है यह वर्ष
पता है तुझे दक्षेस?
समझ ले दुनिया के सात देश
इस वर्ष तेरी ही चिंता में डूबे हुए हैं.
उन्हें हर हाल में साल रहा है तेरा दुख
वे हर तरफ़ से खोज रहे हैं
तेरे लिए खुशी-- तेरे लिए सुख.
सात भाइयों की तरह
तुझे चंवर डुला रहे हैं सात देश.

देश किसे कहते हैं
यह मत जान मत सोच
छोटे-से बाल मस्तिष्क पर
मत डाल इतना  गुरुतर बोझ 
इस वर्ष तू मुस्कान बिखेरती रह
तेरी ओर टकटकी बांधे देख रहा है
समूचा प्रचारतंत्र, प्रजातंत्र और राजतंत्र.
इस वर्ष तू भूख की बात मत कर
मत रो कि तेरे कपडे तार-तार हो गए हैं
गुमसुम मत बैठ कि तेरे पास कोई खिलौना नहीं है
तेरे पास एक वर्ष है बिट्टो! हर्ष कर!
पूरे तीन सौ पैंसठ दिन
तेरे नाम कर दिए गए हैं
हमारे प्रति कृतज्ञ रह और काम कर.
अपने चेहरे की तरह चम्कडे घर के सारे बासन
कोयले से मत लिख क ख ग
फ़र्श पर फैला मत गंदगी.
चूल्हे पर अदहन तैयार है
पूरे कुनबे के लिए भात रांध और माड पी
यह तेरा वर्ष है - तुझे तंदुरुस्त देखना है
बचना है हारी-बीमारी से !

राजधानियों में 
दीवारों पर चस्पां हैं तेरे पोस्टर
मेजों पर बिखरी पड़ी हैं
तेरी रंगीन पुस्तिकाएं
टेलिविज़न के परदे पर तू उछल-कूद कर रही है
देख तो इस वर्ष तुझे कितनी फ़ुर्सत हो गई है
नन्हे खरगोशों की तरह
तू एक साथ सात देशों की ज़मीन पर खेल रही है.

वर्ष बीतने पर 
क्या तू सचमुच मांद में दुबक जाएगी मेरी बिट्टो !
या एक वर्ष तक हर्ष मनाकर 
बिल्कुल ठक जाएगी मेरी बिट्टो!
वर्षांत क़रीब है
यह तेरा वर्ष है बिट्टो ! तू खुश रह!

बेटी

घास पर
ठहरी हुई ओस की एक बूंद
इसी  बूंद से बचा है
जंगल का हरापन
और समुद्र की समूची आर्द्रता.

सूर्य चाहता है इसका वाष्पीकरण 
चंद्रमा इसे रूपायित कर देना चाहता है हिम में
मधुमक्खियां अपने छत्ते में स्थापित कर
सहेज लेना चाहती हैं इसकी मिठास
कवि चाहते हैं
इस पर कविता लिख कर अमरत्व हासिल कर लेना.

मैं एक साधारण मनुष्य
एक पिता
क्या करूं?
चुपचाप अपनी छतरी देता हूं तान
गोकि उसमें भी हो चुके हैं कई-कई छिद्र.

बाहर लगातार
बढ़ रहा है सूर्य का ताप
क्या करूं मैं?
क्या कर रहे हैं आप?

Sunday 4 March 2012

सुन भाई हरगुनिया, निर्गुनिया फाग: प्रेम शर्मा की दो कविताएं

प्रेम शर्मा अपने ज़माने के लोकप्रिय गीतकार थे. 2003 में उनका निधन हो गया. उनका एकमात्र संग्रह "ना वे रथवान रहे" मरणोपरांत प्रकाशित हुआ, 2005 में, जिसका श्रेय उनकी बेटियों -ऋतु और ऋचा तथा बड़े दामाद रोमेल मुद्राराक्षस को जाता है. संग्रह में कितनी ही रचनाएं हैं जिन्हें साझा किया जा सकता था. फिर मुझे लगा, पहले अलग-अलग रंगतों की, भिन्न भाव-भूमियों पर आधारित दो रचनाएं ही साझा करूं. होली नज़दीक है, तो इस मौके पर 'निर्गुनिया फाग' उपयुक्त लगी. 'पुलिया पर बैठा बूढ़ा' बहुत-कुछ-कहती कविता लगी इस अर्थ में कि वर्तमान में बैठा एक  बूढ़ा आदमी अपने जीवन पर नज़र डालते हुए कैसे जीवन और जगत पर भी टिप्पणी करता रहता है, अनायास ही. इन दोनों रचनाओं के बीच छब्बीस साल का फ़ासला है. दोनों रचनाएं पूर्व-प्रकाशित भी हैं : पहली साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपी थी, और दूसरी, ज्ञानोदय में. दूसरी कविता को इस आलोक में भी देखा जा सकता है कि यह उनकी आखिरी कविता भी है. प्रेम शर्मा की कविताई पर सबसे पहली बार मेरा ध्यान खींचा था, उनकी कविता "घोड़ों का अर्ज़ीनामा" ने, जिसे ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस ने अपनी दीवार पर साझा किया था. इस कविता पर मेरी टिप्पणी थी : "क्या खूब कहानी कही है. दासता के खिलाफ़, और आज़ादी के ह्क़ में ! अंग्रेज़ी में जो जुमला चलता है, 'from the horse's mouth', वह विश्वसनीयता का प्रतीक माना जाता है. इस अर्थ में तो घोड़ों का बयान और भी विश्वसनीय बन जाता है. यह कविता यहां साझा करके तुमने अपने पिता का पुण्य-स्मरण तो किया ही है, यह भी बता दिया है कि कविता और आम लोगों से जोड़ने वाली भाषा के 'जीन्स' तुम्हें कहां से मिले हैं."

प्रेम शर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रसिद्ध गीतकार भारत भूषण, कुबेरदत्त (दुर्योग से दोनों का पिछले दिनों ही निधन हुआ है), सुरेश सलिल और निर्मला गर्ग ने बेहद आत्मीयतापूर्वक लिखा है, जिससे गुज़रने के मायने हैं एक अच्छे गीतकार और शानदार इंसान से रू-ब-रू होना. मैं हुआ, मुझे अच्छा लगा, और इसी से मन बना कि उनका लिखा कुछ साझा किया जाए.


सुन भाई हरगुनिया, निर्गुनिया फाग

जल ही
जल नहीं रहा,
             आग नहीं
             आग
सूरत बदले
चेहरे
             सीरत बदला

             जहान,
पानी उतरा
दर्पण,            

             खिड़की-भर
             आसमान,
ढलके
रतनार कंवल, 

             पूरते
             सुहाग,
जीते-
मरते शरीर 

              दुनिया
              आती-जाती,
जूझते हुए
कंधे, 

             छीजती हुई
             छाती,
 कल ही
कल नहीं रहा

              आज नहीं
              आज,
सुन भाई
हर्गुनिया

             निर्गुनिया
             फाग.

पुलिया पर बैठा बूढ़ा

पुलिया पर
बैठा एक बूढ़ा
कांधे पर
मटमैला थैला,
थैले में
कुछ अटरम-सटरम
आलू-प्याज़
हरी तरकारी
कुछ कदली फल
पानी की एक बोतल भी है
मदिरा जिसमें मिली हुई है,
थैला भारी.

बूढ़ा बैठा
सोच रहा है
बाहर-भीतर
खोज रहा है,
सदियों से
ग़ुरबत के मारे
शोषण-दमन
ज़ुल्म सब सहते
कोटि-कोटि
जन के अभाव को
उसने भी
भोगा जाना है
उसने भी
संघर्ष किया है
आहत लहूलुहान हुआ है
सच और हक़ के
समर-क्षेत्र में
वह भी
ग़ुरबत का बेटा है.

मन ही मन
बातें करता है
गुमसुम-गुमसुम
बैठा बूढ़ा
बातों-बातों में अनजाने
सहसा उसके
क्षितिज कोर से
खरा सा कुछ बह जाता है,
चिलक दुपहरी
तृष्णा गहरी,
थैले से
बोतल निकालकर
बूढ़ा फिर
पीने लगता है
अपना कड़ुवा
राम-रसायन
पीना भी आसान नहीं है,
घूंट-घूंट
पीता जाता है
पुलिया पर
वह प्यासा बूढ़ा

उसकी
कुछ यादें जीवन की
शेष अभी भी
कुछ सपने हैं
जो उसके बेहद अपने हैं,
कुछ अपने थे
जो अब आकाशी सपने हैं,
उसकी भी
इक फुलबगिया थी,
प्राण-प्रिया थी
उसके संघर्षों की मीतुल
चंदन-गंध सुवासित शीतल
अग्नि-अर्पिता
दिवंगता है

रोया-रोया
खोया-खोया
काग़ज़ पर
लिखता जाता है
कथा-अंश
दंश जीवन के
पुलिया पर
वह बैठा बूढ़ा.
तभी अचानक
देखा उसने
झुग्गी का अधनंगा बालक
कौतुक मन से
देख रहा
सनकी बूढ़े को
बूढ़ा फिर
हंसने लगता है
बालक भी
हंसने लगता है
दोनों छगन-मगन हो जाते,
थैले से
केला निकालकर
बूढ़ा बालक को देता है
उठकर फिर वह
चल देता है
उस पुलिया से
राह अकेली
भरी दुपहरी.