Wednesday 22 February 2012

सरोज कुमार की सात कविताएं


"बुद्ध को नाचीज़ मुर्दे ने
वह कह दिया,
जो संभव नहीं होता
धर्माचार्यों की पीढ़ियों से!

रौशनी
रेलिंग पकड़कर नहीं उतरती
और न सीढ़ियों से."

सरोज कुमार मंच-सिद्ध कवि तो हैं ही, उनकी कविताएं पढ़ने में भी उतना ही आनंद देती है, जितना सुने जाने पर. सिर्फ़ आनंद ही नहीं देतीं, सोचने को विवश भी करती हैं. इनके यहां व्यंग्य की धार काफ़ी पैनी और मारक है. चोहत्तर वर्षीय सरोज कुमार की अकादमिक सक्रियता भी उतनी ही बड़ी है, जितनी कि पत्रकारिता और साहित्य-सृजन के क्षेत्र में. 'जागरण' (इंदौर) के वर्षों तक साहित्य संपादक रहे सरोज कुमार, नई दुनिया (इंदौर) में दस साल तक हर शुक्रवार को नियमित स्तंभ लिखते रहे, "स्वान्तः दुखाय" शीर्षक से. पेशे से महाविद्यालयी-विश्वविद्यालयी शिक्षक रहे सरोज कुमार  के कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अनेक प्रतिष्ठित सम्मान भी हासिल हुए हैं. आज यकायक अपने एक घनिष्ठ मित्र, डॉ. भारतीय (जो सरोज कुमार के गुरु रह चुके हैं) के घर पर जब उनका ताज़ा कविता संग्रह "शब्द तो कुली हैं" देखा तो मैं इसे उलटने-पलटने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. कई कविताओं ने मेरा ध्यान अपनी ओर बरबस ही खींच लिया. मैंने अपने मित्र से इच्छा ज़ाहिर की, इनमें से कुछ कविताएं अपने ब्लॉग पर आप सबके साथ साझा करने की, तो उन्होंने सरोज कुमार को यह सूचना देने के लिए फोन ही कर दिया. मुझे खुशी है कि उन्होंने मेरी इच्छा का गर्मजोशी के साथ स्वागत-सम्मान करते हुए मुझे इन्हें साझा करने की अनुमति दे दी. अपनी कविता के बारे में सरोज कुमार का कहना है :"मेरी चक्की बहुत बारीक नहीं पीसती, न मुझे बारीक कताई भाती है. मैं पाठक/श्रोता तक सरलता से पहुंचना चाहता हूं.मेरे जैसा ही एक कवि, 13वीं शताब्दी में था, अद्दहमाण (जुलाहे का पुत्र अब्दुल रहमान). उसने अपनी कविता के बारे में, अपने ग्रंथ 'संदेश रासक' (अपभ्रंश) में जो कहा था, उसका अनुवाद यों है :"पंडितों का मेरी कुकविता से कोई संबंध नहीं रहता और मूर्ख अपनी मूर्खता के कारण कविता में रम नहीं पाता. इसलिए जो न पंडित हैं और न मूर्ख, जो मध्यम कोटि के हैं, उनके सामने इस कृति को पढ़ना."


1.   अलंकरण

डिग्री को 
तलवार की तरह घुमाते हुए 
वह संग्राम में उतरा  
वह काठ की सिद्ध हुई!

डिग्री को 
नाव की तरह खेते हुए
वह नदी में उतरा 
वह काग़ज़ की सिद्ध हुई!

डिग्री को
चेक की तरह संभाले हुए
वह बैंक पहुंचा 
वह हास्यास्पद सिद्ध हुई!

डिग्री को कांच में जड़वाकर 
उसी दीवार पर उसने लटका दिया,
जिस पर शेर का मुंह
और हिरन के सींग टंगे थे 
शोभा में, इजाफ़ा करते हुए! 

2.   राष्ट्रगीत 

वे नहीं गाते राष्ट्रगीत 
महानता के फ़्रेम में जड़े हुए 
विजेता के अंदाज़ में, मंच पर खड़े हुए
'सब एक साथ गाएंगे', कहने पर भी
वे नहीं गाते राष्ट्रगीत!

भारत भाग्य विधाता... वगैरह
इस अदा से सुनते हैं
मानो उनकी ही प्रशस्ति हो, 
वे ही तो हैं जन-गण-मन अधिनायक, 
जय-जयकार उचारें जिनका 
समारोह के गायक!

पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा...
इस अंदाज़ से सुनते हैं
मानो उनकी ही रियासतें हों
विन्ध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा...
उनके ही टीले हों, झरने हों, झीलें हों!

मंचों पर बार-बार खड़े-खड़े विश्वास बढ़ता जा रहा है,
कि बख्शीशें मांगता हुआ हिंदुस्तान
उनकी ही जय-गाथा गा रहा है!

3.   सेनापति

आईने के सामने बैठते ही
चिड़िया
अपने प्रतिबिम्ब को
चोंच मारने लगी!

उसे बताया
कि वो तू ही है
दूसरी नहीं,
तेरी चोंच टूट जाएगी
फिर तू कैसे खाएगी 
कैसे चह्चहाएगी!

बोली, मैं नहीं
वो मुझे चोंच मार रही है
पहली चोंच उसने ही मारी थी, 
मैं तो केवल
जवाब दे रही हूं!

मैंने समझाया :
जवाबी चोंच मत मार
लड़ाई 
अपने आप रुक जाएगी!

बोली :
ये बात किसी सेनापति से 
कहला दे,
तो जानूं!
तू तो कवि है
लड़ाई के मामले में 
तेरी बात 
क्यों मानूं?

4.    तुम कहीं के भी कवि क्यों न हो 

हो सकता है मेरे यहां दिन हो
तुम्हारे यहां रात हो!
मेरे यहां वसंत हो
तुम्हारे यहां पतझर!
मेरे यहां प्रजातंत्र 
तुम्हारे यहां तानाशाही!
मेरे यहां ग़रीबी 
तुम्हारे यहां ऐश्वर्य!
मरती हों मेरे यहां औरतें कुएं में गिरकर
तुम्हारे यहां गोलियां खाकर !
इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?
वसंत जब भी होगा और जहां भी
फूल खिलेंगे
कोशिश जब भी होगी और जहां भी 
कवि पैदा होंगे!

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता 
तुम्हारी चमड़ी के रंग 
और जीने के ढंग से,
तुम्हारी आस्थाओं और ईश्वर से!
यह काफ़ी है तुम्हें जानने के लिए 
कि तुम कवि हो 
और अगर हो, तो 
कहिं के भी क्यों न हो,
तुम्हारी अनुभूतियों के आलंबन 
और संवेदनाओं के मूलधन 
अनजाने नहीं हैं, 
कविता का पहला प्यार पीड़ा है!

आग जहां भी होगी,
आग होगी,
ईंधन के हिसाब से,
आज की ज़ात नहीं बदलती!

नदी जहां भी होगी, 
नदी होगी,
किसी देश की नदी
पहाड़ पर नहीं चढती!

तुम्हारी कविताएं
जितनी तुम्हारी हैं, उतनी हमारी भी,
कविता की कोई
मेकमहन रेखा नहीं होती!
कविता का समूचा जुगराफ़िया
एकमात्र इंसान है -
जिसकी संप्रभुता में 
प्रभुता नहीं प्यार है!

5.    लड़की को बड़ी मत होने दो

तुम इधर क्या ऊंघ रहे हो?
उधर लड़की बड़ी होने लगी है--
धीरे-धीरे
पांव पर खड़ी होने लगी है!
धरती को हिलाओ,
लड़की को डिगाओ,
अगर वह सचमुच खड़ी हो जाएगी
तो हमसे भी बड़ी हो जाएगी!

फिर हाथ पसारती
राखियों का क्या होगा?
हमारी सौंपी 
बैसाखियों का क्या होगा?

वह पांव खड़ी हो गई,
तो चलने भी लगेगी
नया-नया देखेगी,
मचलने भी लगेगी !
संविधान देख लेगी,
तो अधिकार मांगेगी
पिता की पासबुक से
कार मांगेगी!

फिर सनातन पगडंडियों का 
क्या होगा?
होनहारों की मंडियों का 
क्या होगा?

उसे कंचे, पांचे और 
कौडियां ही झिलाओ
सिलाई-बुनाई के
झुनझुनों से खिलाओ!

उसे देवरानी, जिठानी की
कहानी ही कहने दो
आंचल में दूध,
पानी आंखों में रहने दो!

चादर को 
माथे की पगड़ी मत होने दो,
लड़की है,
लड़की को बड़ी मत होने दो.

6.    मां

मां, जिसने मुझे जन्म दिया
मेरे लिए
ज़रूरत बेज़रूरत
मरने को भी तैयार हो 
जाएगी
बिना एक पल खोए!

पिता नहीं!

मैं कृति हूं मां की
ऐसी चित्र-कृति
जिसमें उंडेल दिए थे उसने
अपने सारे रंग
सारी सांसें, सारे सपने !

पिता तो बस
ईज़ल रख कर जा चुके थे.


7.   सपाट संसार

जो झूठ को झूठ नहीं कह पाता, 
वह सच को सच क्या कहेगा!
जो दुश्मन को दुश्मन नहीं कह पाता,
वह दोस्त को दोस्त क्या कहेगा!
जो कांटे को कांटा नहीं कह पाता,
वह फूल को फूल क्या कहेगा!

जिसे बुरा, बुरा नहीं लगता, 
उसे भला, भला कैसे लगेगा!
जिसे अन्याय, अन्याय नहीं लगता,
उसे न्याय, न्याय कैसे लगेगा !
जिसे गुलामी, गुलामी नहीं लगती,
उसे आज़ादी, आज़ादी कैसे लगेगी!

जिसके लिए पाप, पाप नहीं है,
उसके लिए पुण्य, पुण्य कैसे होगा?
जिसके लिए आग, आग नहीं है,
उसके लिए पानी, पानी कैसे होगा?
जिसके लिए धरती, धरती नहीं है, 
उसके लिए आकाश, आकाश कैसे होगा?

ज्ञान और साहस है-
तो जीवन है, ठाठ है!
जड़ता है, भय है-
तो संसार सपाट है!

Monday 20 February 2012

उर्दू का सवाल: व्यापक राष्ट्रीय, सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संदर्भों में शमशाद इलाही 'शम्स' का महत्वपूर्ण आलेख

उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत पसंद की जाने वाली ज़ुबानों में से एक है जिसका अभ्युदय भारत में मुस्लिम शासन के लगभग 800 सालों की हुकूमत के दौरान हुआ, मुस्लिम  हुकूमत  के अंतिम 100सालों में (1800 के आते आते और उसके बाद) इसका प्रचार प्रसार लेखन में अभिव्यक्ति के बतौर इतिहास में दर्ज़ किया जाने लगा. मुस्लिम  हुकूमत के दौरान मध्य एशिया के विभिन्न देशों से आये सैनिकों जिनमें तुर्क, मंगोल, ईरान और अरब के सैनिकों की संख्या अधिक थी, इन्हीं अहम नस्लों की फ़ौजी छावनी में एक मिश्रित भाषा अपने सहज-मानवीय व्यवहार के दौरान बनी जिसका नाम उर्दू है. उर्दू ज़ुबान को छावनी से निकल कर महल और सत्ता के गलियारों से संबंध रखने वाले समाजी तबके में अपना असर महसूस कराने में काफ़ी वक्त भी लगा और मेहनत भी. ज़ाहिर है मुग़लिया हकुमत के दौरान फ़ारसी ही राज्य भाषा थी जिसके समानान्तर या यूं कहें कि इसकी छत्रछाया में उर्दू ने अपने पैरों पर चलना सीखा. यह कहना ऐतिहासिक रुप से सच नहीं होगा कि उर्दू शुद्ध रुप से भारतीय भाषा है या इसका मुसलमानों से कोई वास्ता नहीं. यह भाषा शुद्ध रुप से भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के आगमन के पश्चात ही विकसित हुई जिसमें कालान्तर में देवनागरी के शब्दों का प्रचलन-सम्मिश्रण भी वैसे-वैसे बढ़ा जैसे-जैसे इसका असर और रसूख समाज के दूसरे इदारों में बढ़ा और इसे सामाजिक स्वीकृति मिली.

ज़ाहिर है, उर्दू का विकास क्योंकि छावनी में हुआ और उसका फ़ैलाव सत्ता से जुड़े सामाजिक तबके में ही हुआ लिहाज़ा यह जन भाषा कभी नहीं बन सकी. राजा के दरबार में साहित्य, काव्य अथवा राजा से  जुड़े उसके मनसबदार, नवाब, सूबेदार, फ़ौज के अफ़सर, शासन चलाने वाले हाकिम, मालगुज़ारी वसूलने वाले और ज़मींदारों के बीच ही इसका प्रचलन बढ़ा. सामंती समाज में इसी तबके के पास पढ़ने लिखने, काव्य और मौसीकी के लिये वक्त था तब इनके मानसिक मनोरंजन या विलासिता के लिये जिस बाज़ार का निर्माण तत्कालीन समाज में हुआ उसे उर्दू से पूरा किया. ज़ाहिर है इस तबके को स्थानीय भाषा अथवा उसके कवियों से उस सुख की अनुभूति स्वाभाविक रूप से नहीं मिल सकती थी जिनका खून उन्हें चूसना था...जिनसे उन्हें लगान वसूलना था या जिन पर उन्हें शासन करना था. ब्रज भाषा, भोजपुरी, अवधी, खडी बोली में उनकी सत्ता के मद का रस भला कैसे व्यक्त किया जा सकता था? स्थानीय भाषाओं का दर्द उनके वर्गीय चरित्र के अनुरूप था जबकि मलाईदार सामंती तबकों को अपनी मानसिक संतुष्टि (ऐय्याशी) के लिये जिस फ़ाहे की जरुरत थी, वह रुहानी फ़ाहा फ़राहम कराने का काम उर्दू भाषा ने पूरा किया, इसके मिठास पर चर्चा करने वाले, उस पर रात-दिन एक करने वाले अदीब भारतीय इतिहास के इस करुणामय तथ्य को भूल जाते हैं कि आम जनता के लिये उस कठिन समय में इस मिठास का लुत्फ़ लेने वालों के हाथ कोहनियों तक और पैर घुटनों तक खून में रंगे हैं. ज़मीन पर विदेशी हुकमरानों का कब्ज़ा हुआ था, जिनकी ज़मीनें थीं वही देशज भाषी जोतदार-गुलाम बने और उर्दू बोलने वाले उनके राजा, हाकिम, लगान वसूलने वाले बने. निसंदेह उर्दू का इतिहास बताने वाले इस भाषा के सामंती चरित्र पर हमला किये बगैर ही इसका महिमामंडन यदि करते हैं तब उनके वर्गीय चरित्र का मूल्यांकन ज़रुर करना होगा. दूसरी एक वजह, इस भाषा का मुसलमानों से संबंधित होने के कारण इसके राजनीतिक रुप से संवेदनशील होना भी है जिसके चलते इस भाषा के वर्गीय चरित्र पर ऐतिहासिक मीमांसा ऐसे नहीं हुई जैसी होनी चाहिये थी. इतिहास के किसी क्रम और उससे जुडे़ अनाचार को भुलाकर किसी भाषा की समीक्षा करना न केवल एकांगी होगा वरन इतिहास के साथ निर्मम धोखाधड़ी भी होगा. भारत के संदर्भ में यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है, संस्कृत, पालि, अवधी, ब्रज, तमिल, तेलुगू आदि से लेकर उर्दू तक हमें इन भाषाओं के वर्गीय चरित्र और इनके सामाजिक आधार की समीक्षा ज़रुर करनी होगी तभी किसी फ़ैसलाकुन नतीजे पर पहुंचा जा सकता है.

सामंती चरित्र की विशेषताएं विलक्षण हैं, सामंत अपना घर, अपनी बैठक, खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, खाना-पीना, कपडे, तलवार, हत्यार, बैंत, जूती, धर्म, संस्कार, तौर-तरीके, मूंछ का बाल, यहां तक कि नाई-धोबी-लोहार-दर्जी आदि पर ही न केवल अपनी दबंगई की छाप छोड़ता है बल्कि उससे भी अधिक उसे अपनी भाषा पर घमंड होता है. सामंती सोच की इस कमज़ोरी को, या यूं कहें कि इस लक्षण को उर्दू ने बखूबी अपने काम में लगाया. इस भाषा ने न केवल भारत के सामंती तबके की वैचारिक नज़ाकत को प्रश्रय दिया बल्कि इस वर्ग के साथ खुद को जोड़ कर अपनी विशिष्टता बनाए रखने में भी कामयाब हुई, नवाब-सामंत-हाकिम भी इससे संतुष्ट था कि उसकी ज़ुबान की नज़ाकत सिर्फ़ उसे ही समझ में आती है, आम कामगार, खेत मज़दूर अथवा श्रमिक उसकी भाषा से अनभिज्ञ है, इससे उसके व्यक्तिगत दंभ को भी बल मिलता. यह दंभ दोनों को एक दूसरे की हिफ़ाज़त करने में मददगार साबित हुआ, लिहाज़ा उर्दू भारत के शासक वर्ग की ज़ुबान बन गई जबकि ज़मीनी स्तर पर जनता की ज़ुबान इलाकाई भाषाएं ही रहीं, लेकिन मुसलमान शासक वर्ग दिल्ली, कलकत्ता, मैसूर, हैदराबाद जैसे दूरस्थ स्थानों पर भी एक ही ज़ुबान मज़बूती से बोलता दिखा.

भारत पर अंग्रेज हुकूमत के दौरान और उससे निजात पाने की जुस्तजु यानि आज़ादी की लडाई के दौरान उर्दू के सामंती चरित्र पर थोडी चोट लगी. आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे सनानियों जिसमें मुसलमान तबका भी शामिल था अब आम जनता से बातचीत करने को  तैयार दिखा, लिहाजा उर्दू की किताबें, इश्तहार और देशभक्ति के तरानों के माध्यम से उर्दू किसी हद तक आम जनता के घरों में आ पहुंची. हिंदी- हिंदू-  हिंदु स्तान जैसे नारे का चलन 1930 के दशक से शुरु हो जाने के कारण उर्दू को मुस्लिम और हिंदी को  हिंदू  जैसे सख़्त लबादे ओढ़ने पर मजबूर होना ही था. धर्म के आधार पर जंगे आज़ादी की लडाई जब तकसीम हुई तब उर्दू को मुकम्मिल तौर पर मुसलमानों के आंगन तक ही सिकुड़ना था जोकि तर्कसंगत भी था. दार्शनिक, लेखक, कवि इक़बाल ने मुसलमानों को एक मुक़म्मिल राष्ट्र की अवधारणा के रूप में निरूपित कर ही दिया था, मौहम्मद अली जिन्ना ने इसी आधार पर द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की रचना की और एक स्वतंत्र मुसलमान राज्य की स्थापना करने में जुट भी गये, 1944 में गांधी को लिखे एक पत्र में जिन्ना ने खुद को मुसलमानों का एकमात्र नेता मानते हुए कुछ यूं कहा, " हम 10 करोड़ लोगों के एक मुक़म्मिल राष्ट्र हैं, हम अपनी विशिष्ट संस्कृति, सभ्यता, भाषा, साहित्य, कला, भवन निर्माण कला, नाम, उपनाम, मूल्यांकन की समझ, अनुपात, क़ानून, नैतिक आचार संहिता, रिवाज़, कलेंडर, इतिहास, परंपरा, नज़रिया, महत्वाकांक्षाओं के चलते एक राष्ट्र हैं. संक्षेप में हमारा जीवन पर और जीवन के बारे में एक विशिष्ट नज़रिया है लिहाजा किसी भी अंतर्राष्ट्रीय नियम क़ायदे-क़ानूनों के मद्देनज़र हम एक राष्ट्र हैं." इस व्यक्तव्य से भाषा के महत्व और उसकी गंभीरता को समझा जा सकता है.

भारत की आज़ादी और पाकिस्तान बनने के बाद उर्दू के लिये हुए संघर्ष को समझने के लिये हमें पाकिस्तान के इतिहास को ही टटोलना होगा. पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही होगी, यह पहले ही मुस्लिम लीग ने स्पष्ट कर दिया था लेकिन भविष्य में इस प्रश्न को लेकर कितना गंद-गुबार छिपा है इसे कौन जानता था? बंटवारे से पहले जिन्ना 10 करोड़ मुसलमानों के स्वयंभू नेता थे, लेकिन जो पाकिस्तान उन्हें मिला, दुर्भाग्य से उसमें अधिसंख्यक 4.5 करोड़ बंगाली मुसलमान थे जिन्हें अपनी भाषा और संस्कृति से बेहद प्यार था. जो तर्क जिन्ना ने भारत के बंटवारे से पहले अपने लिए दिए थे, उन्हीं तर्कों के आधार पर बंगाली समाज अपने हिस्से का "पाउण्ड आफ़ फ़्लेश" मांग रहा था जिसे मुस्लिम लीगी सामंती नेतृत्व अपने दंभ के चलते देने को तैयार नहीं था. बंगाली मुसलमानों के बहुमत होते हुए भी इस दंभी नेतृत्व ने उर्दू को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया. पृथ्वी पर बने पहले नवजात मुस्लिम राष्ट्र को सबसे पहले भाषा के सवाल पर ही चुनौती झेलनी पडी. पूरा पूर्वी पाकिस्तान (पूर्व बंगाल) में उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिये जाने पर गहरे विक्षोभ में डूब गया, इसी विरोध के मद्देनज़र जिन्ना ने ढाका विश्वविद्यालय के कर्जन हाल में 21 मार्च 1948 को अपने भाषण में कहा:


"मुझे आपके सामने यह स्पष्ट कर देना है कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी. जो भी इस संदर्भ में आपको गुमराह करने की कोशिश करेगा वह असल में पाकिस्तान का दुश्मन है. बिना एक राष्ट्रीय भाषा के कोई भी देश मजबूती के साथ एकजुट नहीं रह सकता और न ही कार्य कर सकता है. दूसरे देशों का इतिहास देखो इसीलिये जहां तक पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा का प्रश्न है, वह उर्दू ही होगी."



पूरा हाल इस व्यक्तव्य के बाद "नो" से गूंज गया, राष्ट्रपिता (क़ायदे आज़म) जिन्ना को अपने ही नौनिहाल देश में यह पहले सार्वजनिक विरोध का सामना था. 11 सितंबर 1948 को जिन्ना की मृत्यु के बाद लियाक़त अली ख़ान ने अपने भरपूर सामंती स्वरुप में उर्दू की वकालत जारी रखी जिसके साथ साथ बंगाली मुसलमानों में बंगाली भाषा के लिये मोह बढ़ता गया. पाकिस्तानी हुकमरानों ने इस विवाद से निपटने के लिये एक भाषा समिति भी बनाई जिसकी सिफ़ारिशें गुप्त रखी गईं. बंगाली भाषा को सार्वजनिक रूप से हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा बता कर (क्योंकि उसका आधार संस्कृत है) उसका शुद्धिकरण करने जैसी तकमीलें निकाली गईं. रवींद्र संगीत और नज़रुल के गीतों को हिंदू संस्कृति का वाहक घोषित किया गया जिसके चलते गैर मुस्लिम बंगाली समाज में असुरक्षा का भाव लगातार गहराता गया. भाषा के मसले पर सभाएं, धरना प्रदर्शन होने से लगातार बंगाल का राजनैतिक माहौल गर्माता रहा जिसे उर्दू के पैरोकारों-सामंतों-नेताओं ने पाकिस्तान के विरुद्ध चल रही साज़िश बताया. इसी माहौल में 21 फ़रवरी 1952 को ढाका में एक प्रदर्शन के दौरान हुकूमत ने गोली चला दी जिसमें सैकड़ों ज़ख़्मी हुए और विश्वविद्यालय के चार छात्रों की मौत हो गई जिनके नाम रफ़ीक, जब्बार, सलाम और बरक़त थे. इस घटना को बंगलादेश के इतिहास में "एकुशै" त्रासदी के नाम से जाना जाता है, इन्हीं चार लोगों की स्मृति में ढाका की शहीद मीनार बनाई गई और इन्हीं चारों शहीदों को बंगाल राष्ट्र के अग्रज नेताओं के रुप में आज भी जाना जाता है. 1952 से लेकर 16 दिसंबर 1971 के 19 वर्षों के इतिहास में पश्चिमी पाकिस्तान को बंगाल पर एक औपनिवेशिक ताक़त और उनके ज़ुल्मो-सितम में कोई 30 लाख बंगालियों की हत्याएं इसी उर्दू अदब के प्रेमियों, दंभियों, फ़ासिस्ट ताक़तों ने अपनी नाजायज़ संतान जमाते इस्लामी जैसे संगठन, फ़ौज, पुलिस, खुफ़िया इदारों आदि के जरिये करवाई. उर्दू भाषी अल्पसंख्यक होते हुए भी, अपने दंभी संस्कारों के चलते पूरे पाकिस्तान पर इस भाषा को थोपने का नतीजा यह हुआ कि अपने जन्म के कुल 24 साल के भीतर इसे पूर्वी पाकिस्तान से हाथ धोना पड़ा. इन 24 सालों में यदि बंगाली समुदाय का संसद, फ़ौज, सरकारी नौकरियों, पुलिस आदि में आनुपातिक प्रतिनिधित्व देखें तब यह स्पष्ट हो जाता है कि पश्चिमी पाकिस्तान के हुकमरान इन्हें कितने संदेह की दृष्टि से देखते थे. भाषा के साथ-साथ पूर्वी बंगाल से जुड़े अन्य राजनीतिक प्रश्नों/कारणों पर यहाँ टिप्पणी करना न तो प्रासंगिक है, और न उचित ही होगा. आज़ाद बंगलादेश के लिये ऐकुशै (इक्कीस) फ़रवरी एक राष्ट्रीय पर्व बन गया है, राष्ट्रभक्ति और बंगला भाषा के प्रेम से ओतप्रोत कई मधुर काव्य रचनाएं की गईं हर साल उन चारों छात्र शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि पूरे बंगला देशवासियों द्वारा अर्पित की जाती है.





भारत में उर्दू भाषा का चरित्र मूलत: कुलीन वर्गीय ही रहा, खासकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जिसकी स्थापना का मूल उद्देश्य भारतीय मुस्लिम सामंतों, नवाबों और मध्य-उच्च वर्ग के बच्चों को अंग्रेज़ी तालीम देना था (सर्व साधारण मुसलमानों के लिये नहीं) लिहाज़ा वहां तालीम लेने गए कुलीन मुस्लिम नौजवानों ने इस ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को भली-भांति निभाया. इसी विश्वविद्यालय के पढे़ सूरमाओं ने सबसे पहले उसी मुल्क को तोड़ने का वैचारिक आधार पैदा किया जहां वह पले बढे, आज भी यह विश्वविद्यालय उन देशभंजक कवियों और उर्दू भाषा के नाम पर सीना ठोक ठोक कर दंभ मारने वालों के कसीदे पढ़ने में कोई कोताही नहीं बरतता बल्कि उनके लिये सालाना जलसे भी मनाता है. इसी विश्वविद्यालय के पढे दानिशवरों ने पाकिस्तान में जुबान को मज़हब से जोड़ने वाली अमरनाल की संचरना की जिसके चलते, न केवल भाषा को ही नुक़सान उठाना पडा बल्कि पूरे इतिहास को सिरे से खारिज करने की मंशा में एक पूरी पीढी को ज़हर से भर दिया जिसे अपने अतीत के सही अर्थों का न तो ज्ञान रहा, न मान. आज इन्हीं उर्दू के दंभियों ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बोली जाने वाली पंजाबी ज़ुबान जिसकी पैदाइश भारतीय है, उसकी नयी लिपि फ़ारसी-अरबी के आधार पर विकसित की जा रही है. जिस विषैली मानसिकता के चलते उन्होंने बंगला भाषा के शुद्धिकरण का प्रयास 1950 के दशक में किया था, उसी दूषित मानसिकता के चलते वह पंजाबी की इबारत लिखने में ,उल्टे हाथ से शुरु करने और उसका गुरुमुखी प्रभाव समाप्त कर उसे अरबी-फ़ारसी लिपि देने में साफ़ स्पष्ट हो जाता है कि ये किस मानसिकता से ग्रस्त तबका है.

यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि उर्दू भाषा के साहित्यकारों की एक लंबी फ़ेहरिस्त उन लेखकों से भरी पडी है जिन्होंने भारत में इंकलाब करने की कसमें खाई थी, सज्जाद ज़हीर से लेकर कैफ़ी आज़मी तक बाएं बाजू के इन तमाम दानिशवरों, शायरों, अफ़साना निगारों ने जंगे आज़ादी में बडी-बडी कुर्बानियां दी हैं. 1943 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (अधिकारी-लाइन के चलते) ने पाकिस्तान विचार को लेनिन के सिद्धांत के आधार पर खुली मान्यता दी और बाक़ायदा मुस्लिम साथियों को पाकिस्तान पार्टी बनाने के लिए भेजा गया, सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के पहले जनरल सेक्रेटरी भी बने, उनके बाद फ़ैज़ साहब ने किसी हद तक परचम थामे रखा बावजूद इसके कि उन्हें कई दौरे हुक्मरानों ने जेल की सलाखों के पीछे डाले रखा फ़िर भी वह मरते दम तक अपने इंकलाबी मक़सद से नहीं हटे. दुर्भाग्य से ये तमाम नेता उर्दू भाषी ही थे जो अपनी आला तालीम के बावजूद कोई बडा ज़मीनी आंदोलन शायद इसी लिये नहीं खडा कर पाये क्योंकि इनकी तरबियत भी सामंती निज़ाम, ज़ुबान, उसूलों और रस्मों रिवाज में ही हुई थी. इन्होंने मुशायरों में भीड़ तो इकठ्ठी की लेकिन उसे जलूस बना कर सड़क पर लाने में सफ़ल न हुये. शायरी से किताबी और काफ़ी इंकलाब तो जरुर हुआ लेकिन सुर्ख इंकलाब का परचम कभी घरों के उपर नहीं फ़हराया जा सका. इन्हें लेनिन पुरस्कार जैसे बड़े बड़े एज़ाज़ हासिल तो हुए लेकिन व्यापक जनता का खुलूस न मिल सका. आज भी कमोबेश यही हक़ीक़त हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों में देखी जा सकती है. इस ज़ुबान के शायर/लेखक टेलिविज़न चैनलों पर अच्छी बहस करते देखे जा सकते हैं लेकिन दांतेवाडा काण्ड-सोनी सोरी-आज़ाद हत्याकांड आदि पर जावेद अख्तर कभी नहीं बोलते देखे जा सकते, वहां अरुंधति राय उन्हें पटकी देती नज़र आती हैं. नतीज़ा यही हुआ कि सलमान तासीर की हत्या के बाद उसके विरोध में चंद आदमी सड़क पर उतरे जबकि उसके क़ातिल को अदालत में वकीलों की तरफ़ से हीरो जैसा सम्मान मिला.

उर्दू का भविष्य पाकिस्तान में भी दिन ब दिन अंधेरे की गर्त में घुसता प्रतीत हो रहा है, जिन हालात से पाकिस्तान आज बावस्ता है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ये मुल्क एक बार फ़िर टूटन के कगार पर है. अमेरिका की मौजूदगी, उसके साथ टकराव और पाकिस्तानी समाज एक आंतरिक अंतर्विरोध उसे फिर तोड़ दें तो ताज़्ज़ुब न होगा. बलोचिस्तान की स्वतंत्रता के बाद स्वाभिक रूप से पंजाब, सिंध अपनी अपनी राष्ट्रीयताओं की तरफ़ तेज़ी से बढेगें जैसे नार्थ वेस्ट प्रोविन्स में पठान बढे हैं, इस राज्य में पश्तो ज़ुबान राज्य भाषा हो ही चुकी है, पंजाबी अपनी ज़ुबान लेंगे, सिंधी अपनी और बलोच अपनी ही भाषा को महत्व देंगे...बचे मुहाजिर, जिनकी हक़ीक़त से आज पूरी दुनिया दो चार है, उनका नेता लंदन में बैठा तकरीरें करता है और दिल्ली में आकर मुहाजिरों की खता माफ़ करने और उन्हें वापस हिंदुस्तान में पनाह देने का ऐलान पहले ही कर चुका है, ऐसे हालात में उर्दू का यह डगमगाता जहाज़ कितनी दूर और आगे परवाज़ करेगा यह कहना अभी मुश्किल है लेकिन क़यास लगाया ही जा सकता है.

भारत में उर्दू ज़ुबान पर मुलायम जैसे नेताओं ने अपनी रोटियां सेक सेक कर इसे शुद्ध रुप से सांप्रदायिक प्रश्न बना दिया है, जितना प्रचार उर्दू के नाम पर किया जाता है उससे अधिक गति से हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान शहर, कस्बों और गांवों की दीवारों पर पुता दिखाई देता है. बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि जगह ज़मीनी स्तर पर उर्दू के प्रचार-प्रसार के संजीदा काम हुए हैं, मदरसों से पढे हुए छात्र आमतौर पर धार्मिक इदारों में ही खप कर रह जाते है जिनकी व्यापक समाज के हित में कोई रचनात्मक भूमिका न के बराबर है, लेकिन सियासी मसले पर यह तबका आंदोलित होकर जब सड़क नापता है तब उसकी प्रतिक्रिया ज़बरदस्त होती है.

उर्दू भाषा को सच्ची राह और दिशा हिंदुस्तान के गली कूचों से ही मिलेगी, इस भाषा का प्रचार जितना जड़ों में होगा उतना ही इसके सिर से सामंती बोझ कम होगा, जितनी भी यह जन भाषा होगी उतनी ही सरस होगी. जब जब इसे महारानी बना कर पेश किया जाता रहेगा तब तब इसके वंश और खानदान की पड़ताल होगी, इसके खिलाफ़ साज़िशें होंगी, इसे हुक्मरान की नज़र से देखा जाता रहेगा जिसका नतीजा हम देख ही चुके हैं, हां अगर ये दूसरी भाषाओं की बहन बन गयी, तभी से इसकी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा सभी स्वत: ले लेंगे (आज भी इस सोच के लोग हैं जो इसी जज़्बे के चलते इसे न केवल सम्मान देते हैं बल्कि उसे अपने कुनबे की समझ कर इसकी सेवा करते हैं), सभी इसकी सेहत का, दाने-पानी का, इसके मिलने जुलने वालों को वही तवज्जो देंगे जैसे बहनों को मिली है, उन्हें दी जाती है, इसे भी दी जाएगी..शर्त यह है कि इसे महारानी के दंभी तख्तोताज़ से उतरना होगा जहां इसे नाजायज़ तरीके से कुंठित, दूषित, मानसिक तौर पर दिवालिया सियासी लोगों ने जबरन बैठा दिया है.

पाकिस्तान मे उर्दू साहित्य के हालात पर एक आलेख यहाँ पढ़ें.

Saturday 18 February 2012

जो भी कहें फुकुयामा के शिष्य

दुनिया भर में फैले
फुकुयामा के शिष्य-समर्थक
जी चाहे जो कहें
नित्य संस्कारित होते मनुष्य
को रोका नहीं जा सकता
पीछे मुड़ कर देखने से. इस क्रिया से
ही पता चलता है कितने आगे आ गए हैं
वहां से जहां से शुरू हुई थी यात्रा.
यात्रा के विभिन्न पड़ावों की प्रतीक हैं
स्मृतियां.
स्मृतियां हिस्सा होती हैं
इतिहास का, और इतिहास उतना ही होता है
व्यक्ति का जितना किसी जाति का
यानि किसी राष्ट्र का. इतिहास की
सही समझ बचा लेती है हमें उसे
दोहराने के लिए अभिशप्त होने से.


स्मृतियां मृत नहीं होतीं
स्पंदित करती हैं बनाती हैं ऊर्जावान
प्रेरित करती हैं आगे बढ़ते रहने को
निरंतर. इसीलिए रिश्ता स्मृतियों का
होता है गहन और सघन
वर्तमान से, और विस्तार होता है भविष्य
वर्तमान का ही.
इतिहास, स्मृतियां, यथार्थ
और स्वप्न का योग बन जाता है
"काल" का समग्र
अविभाज्य और अविखंडनीय.


स्मृतियों को सहेजना अतीत से जुड़ी
क्रिया नहीं
यह वर्तमान को समृद्ध बनाने
और भविष्य को, अगली पीढ़ी को,
विरासत के रूप में सौंपने से
जुड़ी क्रिया है. स्मृतियों का ताल्लुक़
जड़ों से है, और जड़ें हरी बनी रहनी ही
चाहिए. बिना प्राणयुक्त जड़ों के
पेड़ की शाखों का हरा-भरा रह पाना
कम नहीं है खामखयाली से जिसके तार
जा मिलते हैं शेखचिल्लियों से.


स्मृति-विहीन हैं जो नहीं हो सकती
कोई जगह उनके जीवन में स्वप्न की.
और स्वप्न? इनके बिना गति है ही कहां?
कला साहित्य संस्कृति
ये सब होते हैं निर्मित
छोटे-छोटे निजी और बड़े
सामूहिक स्वप्नों से
भव्य स्वप्नों और स्वप्नद्रष्टाओं को
आदर जो मिलता है
करता है प्रेरित न केवल आज के
सृजनरत लोगों को बनता है
धरोहर आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी.


हम सब यदि जानते हैं अधिक अपने पूर्वजों से
तो इसलिए ही कि बैठे हैं हम उनके कंधों पर.
यह अवस्थिति सुविधाजनक
बना देती है हमारे लिए
आगे-पीछे और इर्द-गिर्द
देख पाने को
यही है भूत-भविष्य और वर्तमान को
एकमेक कर देना.

Wednesday 15 February 2012

क्या ग़ज़ब है तुम्हारा प्रति-संसार !

तुमने बनाया एक चित्र
और हौले से कहा "गौरैया"
वह फुदकी और रेलिंग पर जा बैठी.
तुमने खींची कुछ रेखाएं लंबवत
कुछ छोटी, कुछ बड़ी और कुछ उनसे भी बड़ी
तुमने कहा "वृक्ष", और देखते ही देखते
दूर तलक सामने जाती थी
जहां तक भी नज़र
किसिम-किसिम के छोटे-बड़े
और कुछ उनसे भी बड़े पेड़
झूमने-लहलहाने लगे. हरियाली का
सैलाब दूर तलक.


तुमने दो-तीन जगह तेज़ी से
ब्रश को दबा कर खींचा
आड़े-तिरछे
गाढ़े सफ़ेद-सलेटी रंगों में
उठ गए यहां-वहां छोटे मोटे पहाड़
बहने लगे झरने. बन गयी
एक छोटी-सी झील. तैरने लगे
जल-पक्षी, मुर्गाबियों और बतखों से
मिलते-जुलते.


तुम सोचते-से बैठे रहे कुछ देर
और फिर तुमने पूरा झुक कर
केनवस पर कुछ आकृतियां बनाईं
पास-पास, एक ही धरातल पर
कुछ ऊपर, कुछ और ऊपर और कुछ
उनसे भी ऊपर. उन्हें तुमने संबोधित किया
"फूल", "तितली", "भंवरा" कह कर... और
दारुण आश्चर्य ! अलग-अलग आकार
रूप और रंग के आंखों को ठंडक और मन को
गर्मास देने वाले फूलों की जैसे फुलबारी ही
महक उठी. यहां-वहां चमकीले पंखों को
फड़फड़ाती  तितलियां बैठती- उड़ती,
फिर आ बैठती तितलियां रंगों से
खेलने लगीं. कृष्ण-वर्णी भंवरे
गूंज मचाने लगे.


तुम आंख मूंद कर धीरे से
फुसफुसाए जैसे खुद से ही
कह रहे हो कुछ
आओ मेरे प्रियजनो आओ ! और
यह तो हद ही हो गई
प्रकट हो गई अनेक आकृतियां
स्त्रियों, पुरुषों और बच्चों की
रंग बिरंगे परिधान पहने उम्र के विविध
पड़ावों पर गतिमय स्त्रियां, पुरुष
बालक-बालिकाएं. फूलों और पेड़ों को
निहारते हुए ये सब !


तो क्या अपना प्रति-संसार
निर्मित करने में लगे हो तुम?
इस असल संसार से मिलता-जुलता
पर इससे एकदम अलग भी !


इसमें और क्या-क्या जुड़ना
बाक़ी है अभी? क्या इसमें मुझे भी
जगह मिलने की संभावना है
कोई हल्की-सी भी?

Friday 10 February 2012

राघवेंद्र रावत की तीन एकदम नई कविताएं

पेशे से इंजीनियर राघवेंद्र रावत का दूसरा कविता संग्रह "एक चिट्ठी की आस में" हाल ही में प्रकाशित हुआ है. उनका पहले कविता संग्रह "अंजुरी भर रेत" राजस्थान साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हुआ था. राघवेंद्र की यह खूबी है कि वह बहुत ही सीधी-सरल भाषा में कविता बुन लेते हैं. उनके यहां छोटे-छोटे अनुभव और अनुभूतियाँ हैं जिनकी विविधता और जीवन से निकटता उल्लेखनीय है. इस संग्रह का लोकार्पण अभी बाक़ी है इसलिए यहां उनकी सिर्फ़ तीन कविताएं बानगी के तौर पर प्रस्तुत कर रहा हूं ताकि राजस्थान के बाहर भी कविता के पाठक उनकी कविता की सादगी और अर्थमयता से परिचित हो सकें. वैसे भी, राघवेंद्र अन्य कवियों से थोड़ा भिन्न इस रूप में भी हैं कि वे नौकरी और संगठन के कामों में मुब्तिला रहते हुए कविता के लिए कम समय ही चुरा पाते हैं. 



 नेरूदा को पढ़ते हुए

ओ सुबह !
सूरज की उंगली पकड़
तुम चली आईं दबे पांव
मौसम के साथ क़दमताल करते
अपने विविध रूपों मैं

शिशिर मैं आईं तुम
ओस में नहाकर
हवा कि शीतल चिकोटी लिए
याद है मुझे

ओ सुबह !
अब लिए हो ताज़गी बसंत की
हर्षित है सरसों
तुम्हें देख कर
गोद में डाले सारे वसन
गुलमोहर, अशोक व गुलदाउदी के
कर दिया आह्वान नवजीवन का
फिर आओगी
भर पिचकारी
फागुन के रंग लिए
टेसू का संग लिए
प्रेम का उपहार लिए
प्रियतम के द्वार

ओ सुबह !
ज़रा ठहरो
भरने दो शीतलता
हृदय में टेसू की
सह सकूं
जेठ का आघात
खिलने दो अमलताश
आने दो अमराई

फिर आई हो
आकाशीय झरनों में नहा कर
मल्हार गाते हुए
कोयल और नीले पंछी के साथ
इस स्पर्श से मिट जायेंगे
धरती के उदास शिखर
अंकुरित होगा आशाओं का तिनाज

तुम आती हो
महक जाते हैं
मोगरे मन के
तुम्हीं पे गुनगुनाती है गौरैया
तुम्हारे स्पर्श से निकलती है गुटर- गूं
शांति कपोतों की

ओ सुबह !
मुझे इंतज़ार है
जब लाओगी
हर दुखी चेहरे पे ख़ुशी
उड़ेंगे उदासी के गुब्बारे हवा में
इस मरुभूमि में
फिर एक बार !





यात्रा- एक

ऊंचे -ऊंचे
पहाड़ उग आए हैं
घर और मेरे बीच
जहां से
लंबी यात्रा पर निकला
कुछ पाने
कुछ खोकर

उसके पार क्या देखूं
वहां नहीं है मां
चूल्हे पर हाथ की रोटियां बनाती
न पिता
उंगली पकड़ कर रास्ता दिखाते
अब घना कोहरा
मेरे भीतर गहराने लगा है
ढांप रहा है मेरी स्मृतियां
मेरे सपने

छत पर कपड़े सुखा रही है
एक
स्त्री
इस धुंधलके में भी
स्टेशन पहुंच रही है एक ट्रेन पीछे छोड़ते हुए
सुख-दुख के तमाम समंदर !



यात्रा -दो


पिता कहते थे
मैं आया था
घर से खाली हाथ
जीवन भर कमाया
धन-यश /सुख-दुख
घर-परिवार

सौंप दिया
सर्वस्व
अनंत यात्रा पर जाने से पूर्व
सिवाय दुखों के
छिपा कर ले गए
मां से बिछुड़ने का दर्द
फिर थे खाली हाथ
आज नहान के वक़्त !

Tuesday 7 February 2012

लंगडी टांग का काव्य-अभ्यास : संकट समस्या-पूर्ति का



एक ज़माना था जब कवि "निर्मित" करने के उद्देश्य से छंद का अभ्यास कराने के लिए एक "समस्या" दी जाती थी, पंक्ति के रूप में. कविता-लेखन में निष्णात बनने के आकांक्षी अपनी रचना में उस दी गई पंक्ति की "तुक" का निर्वाह करते हुए समस्या-पूर्ति करते थे. निर्णायक फ़ैसला सुनाते थे, जैसा कि सभी प्रतियोगिताएं में होता है. जो सफल होते थे वे "सिद्ध" आशु कवि (तुरत-रचना में निपुण: मौक़े के मुताबिक रचना-सक्षम) बनने की राह पर अग्रसर हो जाते थे, और जो उतने सफल नहीं हो पाते थे वे शब्दकोश लेकर बैठ जाते थे, और अगली समस्या की पूर्ति में प्राण-पण से जुट जाते थे. पर कभी-कभी स्थिति इतनी विकट हो जाती थी कि समस्या के रूप में एक पंक्ति निर्धारित करने वाले काव्य-गुरु की जान पर भी बन आती थी. यहां गौर करने लायक़ बात यह है कि इस पूरे उपक्रम में "अर्थमयता" पर उतना ज़ोर नहीं होता था, जितना कि रचना के "रूप तत्व" पर. आग्रह छंद का अभ्यास कराने पर जो होता था.

एक बार का वाकया है कि काव्य-गुरु ने मन ही मन लय को सराहते हुए समस्या रूपी पंक्ति यह दे दी : "आवत नार उछारत नीबू". सारे कवि इस पंक्ति को घोटते हुए सभा स्थल से बाहर निकले. सभी को समस्या बेहद आसान लगी, और सबके मन में एक ही आकांक्षा - कि अगले आयोजन में प्रथम रहना है. किसी को अंदाज़ तक नहीं था कि मामला उतना सीधा-सादा रहने वाला नहीं था. काव्य-गुरु भी पूरी तरह बेखबर, आसन्न संकट से. पर उन्हें तो संकट का सामना प्रतियोगिता के दिन ही करना था. यानि बीच के दिनों में उनकी नींद को कोई खतरा नहीं था. प्रशिक्षु कवियों की हालत बुरी, इतनी बुरी कि न खाना अच्छा लगे, न चैन मिले, और न नींद ही आ कर दे.

जैसा कि कभी-कभी क्रिकेट में होता है, प्रतियोगिता के दिन जल्दी-जल्दी विकिट गिरने लगे : "तू चल, मैं आया" की तर्ज़ पर. एक-एक करके प्रतियोगी उठे, और यह कह कर कि समस्या-पूर्ति नहीं कर पाए, सिर झुका कर अपने स्थान पर वापस आ कर बैठने लगे. काव्य-गुरु तक स्तब्ध इस विफलता के महा आख्यान को देख-सुन कर. जब सबका मान-मर्दन अनुष्ठान पूरा हो गया, तो आखिरी "वीर" उठा, और गला साफ़ करके रचना पढ़ने लगा :



"कीबू न मिल्यो, खीबू न मिल्यो, गीबू न मिल्यो, मिल्यो नहिं घीबू


चीबू न मिल्यो, छीबू न मिल्यो, जीबू न मिल्यो, मिल्यो नहिं झीबू
टीबू न मिल्यो, ठीबू न मिल्यो, डीबू न मिल्यो, मिल्यो नहिं ढीबू
तीबू न मिल्यो, थीबू न मिल्यो, दीबू न मिल्यो, मिल्यो नहिं धीबू

कैसी समस्या दई महाराज कि आवत नार उछारत नीबू?"


काव्य-गुरु का चेहरा फक्क ! यह क्या हुआ !

हुआ कुछ नहीं, "तुक" मिलाने की सीमा ने स्वयं को उद्घाटित कर दिया.

अब संकट यह खड़ा हुआ कि इस आखिरी "वीर" को विजेता माना जाए या नहीं? क़ायदे से तो नहीं किया जा सकता था उसे विजेता घोषित. पर उसने हार भी कहां मानी थी? दूसरे इस पंक्ति को आधार बनाकर जैसी भी समस्या-पूर्ति हो सकती थी वह तो उसने कर भी दी ही थी. यही नहीं, उसने तो अनजाने में काव्य-गुरु को "आइना" भी दिखा दिया था. अर्थ की दृष्टि से एकदम निरर्थक था वह सब जो उसने सुनाया, पर उससे बेहतर तो काव्य-गुरु भी नहीं सुना सकते थे. और कुछ हो न हो, इस प्रकरण से तुकबंदी की अर्थहीनता तो उजागर हो ही गई. और मज़ा यह है कि आज फिर "तुक मिलाने" की क़वायद को कविता के साथ जोड़ने की मांग की जाने लगी है.

एक सत्य घटना से जुड़ा यह बयान, उन मित्रों के नाम जो कविता को फिर से "रससिक्त" बनाने के आग्रह के इर्द-गिर्द माहौल बनाने के लिए प्रयत्नशील दिखते हैं.

Wednesday 1 February 2012

सवाई सिंह शेखावत की नौ कविताएं

सवाई सिंह शेखावत की गिनती राजस्थान के वरिष्ठ कवियों में होती है. कवियों के बीच प्रिय कवि के रूप में भी. रचनात्मक रूप से अत्यंत सक्रिय, किंतु ऐसे साधक के रूप में जो विशेष आग्रह पर ही दृश्यमान जगत में अवतरित होते हैं. इनके अब तक ६ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिन्हें खासी सराहना भी प्राप्त हुई है. राजस्थान साहित्य अकादमी से दो बार पुरस्कृत-सम्मानित सवाई सिंह की कविता देखने में बेहद सरल लगती है पर ध्यान से पढ़े जाने पर अर्थ की कई परतें खुलने लगती हैं और जीवनानुभव की संश्लिष्टता उद्घाटित होने लगती है. इसे विडंबना ही कहा जाएगा या हम जैसे लोगों की काहिली और कोताही भी कि सवाई सिंह शेखावत जैसे महत्त्वपूर्ण कवि को राजस्थान के बाहर वह पहचान, स्वीकार्यता और सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वह भरपूर हकदार हैं अपनी कविता के बूते पर.
यहां उनकी नौ छोटी कविताओं से आपका परिचय करते हुए मुझे खुशी हो रही है. कविताओं के विषय इस बात की गवाही देते हैं कि सवाई सिंह शेखावत की दृष्टि जहां-जहां पड़ती है वहां-वहां उन्हें कविता का कच्चा माल मिल जाता है. लगता ही नहीं कि उन्हें कोई अतिरिक्त प्रयास करना पड़ा है.



ज़रूरी चीज़ों के बारे में

कितना कुछ जानने के गुमान में
कितना कम जानते हैं हम
जीवन से जुड़ी ज़रूरी चीज़ों के बारे में

जैसे मुफ्त की हवा सेंत का पानी
चुकाया मोल तो याद आई नानी
पानी की हानि में फिर-फिर बूड़े दूबरे
बस खेले खाये ऊबरे

कल ऐसा ही कुछ हवा को लेकर हुआ
तो हम क्या करेंगे
जी लेंगे फिर भी जिस-तिस तिकड़म से
या केवल घुट मरेंगे ?


शब्द के अवमूल्यन पर

कितना निष्करुण समय है
ज़रूरतन नहीं महज शौक़ के लिए
हम शामिल होते हैं शब्दों के पतन में
बिना किसी खेद के

भाषा की दुनिया में जगह बनाने के लिए
सोपान से शिखर तक जाने के लिए
विकट साधना करनी पड़ती है शब्द को
बहुत कठिन और जोखिम भरी है यह यात्रा
एक-एक क़दम तौल कर रखना पड़ता है
कितने खंदक मुंह बाए खड़े हैं राह में

“भाषा का नेक नागरिक होने के लिए
हम किसी शब्द की रीढ़ न बन पाएं
कोई हर्ज़ नहीं
लेकिन एक अच्छे खासे शब्द को
गर्त में धकेलने का हक़ हमें नहीं है

शब्दों की दुनिया में
कल फिर एक हादसा हुआ
जब चैनल वालों ने एक गुंडे को
बाहुबली कहकर पुकारा

मुझे सख्त एतराज़ है
शब्द के अवमूल्यन पर


हमारे सुनने का ऐब


हमारे सुनने का बुनियादी ऐब है
हम अक्सर ऊँचा सुनते हैं
नर्म मुलायम आवाज़ों को तवज्जो नहीं देते
जीवन की कोमल तानों को अनसुना करते हैं
जब कि मानुष होने के लिए
उनका सुना जाना ज़्यादा ज़रुरी है

सुनने की कोशिश में
हम नहीं सुनते मनुष्य की रुलाई
हम शब्दों की गूंज सुनते हैं या आक्रामक हँसी
भूतपूर्व सुनते है या फिर महान भविष्य में
हमारा सुनना समकाल में नहीं होता
(बावजूद तमाम उद्घोषणाओं के)

याद रखने की जुगत में हम भुलाने को सुनते हैं
ठोस सुनते हैं मगर आड़ा-तिरछा
सूधा नहीं सुनते सयानप और बाँकपने से रहित
चुप से बचकर सुनते हैं और एक चीख़
हमें खींच लेती है गुरुत्वाकर्षण की तरह

हमारे सुनने में देश है और दुनिया भी
लेकिन अपने ही मुहल्ले की आवाज़ नहीं है
हम हड़बड़ी में सुनते है या फिर सतर्क होकर
सहज मिली खुशी की तरह नहीं सुनते

हमारे सुनने में शामिल हैं कुछ चुस्त जुमले
सीधी सरल बातें हमें बोदी लगती हैं और दयनीय भी
एक कामयाब चालू आदमी को हम आदरपूर्वक सुनते हैं
एक असफल आदमी को सुनते हैं उपहास की तरह

सुनने के विमर्श को लेकर
हम कितना ही गंभीर होने का नाट्य करें
अपने तमाम संजीदापन के बावजूद
हम सुनते हैं मतलब की यारी की
जबरे की सुनते हैं या जरदारी की ।



पुराने जूते

पुराने जूते सुखद और उदार हैं
किसी पुराने आत्मीय की तरह
अपना विन्यास और अकड़ भूल कर
वे पाँवों के अनुरूप ढल जाते हैं
इतने अपने इतने अनुकूल

गंदले होकर ही कमाई जा सकती है
जीवन की मशक्कत भरी तमीज़
यह केवल जूते जानते हैं
नये जूते बेशक चमचमाते शानदार हैं
लेकिन जीवन की आवश्यक विनम्रता
उन्हे पुराने जूतों से सीखनी पड़ती है

कहते हैं "गेटे" को पुराने जूते छोड़ते हुए
बहुत तकलीफ होती थी
प्रिय पुरखे को दफ़नाने की तरह

एक कवि को पुराने जूतों की तरह
आत्मीय और उदार होना चाहिए
केवल तभी उसकी कविता बचा सकती है
जीवन को कंटीले धूल-धक्कड़ से
झुलसती धूप से ठिठुरते शीत से


दिल्ली

कितनी नई है
और पुरानी भी यह दिल्ली
हर हमलावर रुख़ किये हुए
दिल्ली की ओर

जिधर भी दिखें
कसी हुई जीन
सजे हुए घुड़सवार
वह रास्ता जाता है
दिल्ली की तरफ़

हज़रत निजामुद्दीन औलिया ने
फ़रमाया था-‘अभी दूर है दिल्ली’
मुझे मालूम नहीं कोई पहुँचा या नहीं
जो रवाना हुए थे दिल्ली के लिए
इतिहास में एक भी उदाहरण दर्ज़ नहीं

दिल्ली अभिशप्त है
दिल्ली नहीं पहुँचने के लिए
फिर भी हर सुबह
आदमी करता है कूच
दिल्ली के लिए


दियासलाई

आदमी की ईजादों में
दुर्लभतम ईजाद है दियासलाई
वह भक् से जलती है उजाले में
और हो जाती है ओझल

आदमी कब सीखेगा जीना
क्षण की त्वरा में


अमरता के रास्ते

मुझे क्षमा करें महत्जन
मेरी क्षुद्रताओं के लिए
मैं झुकता हूं घुटनों के बल
मामूली प्रार्थनाओं में
और मांगता हूं विराट ईश्वर से
केवल मामूलीपन
कि मैं न थकूं आदमी के होने से
बचे रहें आदमी में
भय और शर्म
घृणा और प्रेम
उसका सर्द-गर्म खून
उसकी बेसब्री इरादे उसके
उसकी देह में ढला इस्पात

अमरता के तमाम रास्ते
जाते हैं उधर से


प्रेम में

प्रेम करते पुरुष के लहू में
चीखते हैं भेड़िये
उग आती हैं दाढ़ें
पंजे और नाखून
प्यार में पुरुष बेतरह गुर्राता है
हाँफता है कांपता है
और शिथिल हो जाता है

प्रेम करने की कला
केवल स्त्री जानती है
वह बेसुध भीगती है
प्रेम की बारिश में
फिर कीलित कर देती है उस क्षण को
देखी है कभी ग्लेशियर से फूटती
पीन उज्ज्वल जल-धार

एक स्त्री ही गुदवा सकती है
अपने वक्षस्थल पर
अपने प्रेमी का नाम
नीले हरफ़ों में
मैं फिर लौटूंगा

मैं फिर लौटूंगा
इस पृथ्वी पर सहस्राब्दियों बाद
किसी उजले धूप भरे दिन में
हाथों में लिए मामूली विकल्प
एक अदद कविता का शिल्प
उठा हुआ सिर अवकाश में
सुस्ताता हुआ शिरीष के वृक्ष तले

कोई दिलचस्पी नहीं होगी
मुझे दुनिया को जीतने के बारे में
दसों दिशाओं में
और अन्त तक
हिम्मत न हारने के बारे में

मैं फिर लौटूंगा
स्थगित करते हुए
अन्तिम ऊंचाई
महान् प्रस्ताव
जिन्होंने मुश्किल बनाया दुनिया को
और काफ़ी ऊल-जलूल भी

धड़कता होगा जीवन
अपने अनिवार्य स्पंदन में
मेरे चहुँ ओर
मांगता हुआ अपने होने का हक़
लेकिन मैं तज चुका हूंगा
अपने होने का अधिकार