बात चौंसठ साल पुरानी है
मां जब छोड़ गई उससे एक
साल पहले की.
मुझे अचरज होता है कि
कितनी पक्की है दर्ज़
मेरी स्मृति में. चार बरस से कम का मैं
और यह दृश्य शायद पिछले
इतने सारे सालों में रोज़ाना
जीया है मैंने. अतिशयोक्ति न समझें इसे
चौबीस घंटों में कभी भी
एक बार तो गुज़रता ही रहा है यह
मुसलसल बिला नागा.
और लगता है जैसे कल ही हुआ था.
वह ज़माना था जब ससुर से
बोल नहीं सकती थी बहुएं
फिर भी मां हाथ पकड़ कर
ले गईं मुझे अपने
काका ससुर के पास
मेरे दूसरे हाथ में थी चमचमाती पट्टी
जिस पर सुंदर से अक्षरों में
लिख दिया था मैंने
वह सब
जो मां ने बोला था.
पट्टी को घोटे से चमकाया था मां ने
नरसल की छोटी सी कलम भी छीली थी
उसने ही. स्याही की दवात में
कलम भी उसने ही डाल कर रखी थी.
वह जैसे बहुत जल्दी में थी
कोई पन्द्रह दिन के भीतर ही
संयुक्ताक्षर लिखने सिखा दिए थे
उसने मुझे
संयुक्ताक्षर उसकी ज़रूरत हों जैसे
सबसे बड़ी ज़रूरत.
पट्टी पर लिखा था उस दिन
जो कुछ भी मैंने
वह आज तक हर दिन
वैसा ही कौंधता रहा है : "मैं
मां को बहुत प्यार करता हूं
दुनिया में सब से ज़्यादा
मां ने बताये हैं अपने सपने
और मैं उन्हें पूरे करूंगा
जब मां नहीं रहेगी."
ज़ाहिर है इस सबका मतलब नहीं
समझा था मैं तब
जब मैं लिख रहा था यह सब.
एक-एक शब्द ज़ोर देकर धीरे-धीरे
बोला था मां ने. जी हां, ज़्यादा
और ज़ाहिर में नुक़ता
लगाना भी सिखाया था
मां ने ही.
सीढियां चढ़कर ऊपर पहुंचते ही
अपने काका ससुर के सामने
रख दी थी पट्टी.
वह कुछ समझ नहीं पाए.
हां, लिखे हुए को पढ़कर जैसे ही
उनका चेहरा ऊपर उठा
अपने खनखनाते दर्प भरे स्वर में
बोली मां, 'यह लिखा है मेरे बेटे ने.'
मेरे छोटे दादा अवाक्
हां, यह इसने लिखा है
इसने ही लिखा है यह सब
अपने छोटे-से हाथों से
बोलो यह मेरा सपना पूरा
करेगा या नहीं
मदद करोगे न आप ?
कहते ही इतना सब
धड-धड करती वह उतर गई सीढ़ी.
दादा ने खींच कर मुझे
सीने से लगा लिया
लगभग भींचते हुए
अपने आपसे बतियाते हुए जैसे
वह चकित थे कि दस
दिन की उनकी गैर हाज़िरी में
कैसे मैं छोटा-सा बच्चा
उतना सब लिख पाया
बार-बार यह पूछते रहे हों खुद से ही जैसे
यह क्या हो गया है लक्ष्मी को?
ऐसी आवाज़ तो अब तक सुनी नहीं
किसी ने और यह भाग कैसे गई
धड-धड करती. और यह
'जब मां नहीं रहेगी' का मतलब क्या?
मैं क्या समझ सकता था
और
समझा सकता था क्या
उन्हें जो
सुबह ही लौटे थे लाहौर से
और उस "लिखे" के मतलब
मैं भी कहां समझता था
समझ गया होता तो लिख कैसे पाता?
दादा की सरपरस्ती में
पढ़ने के क्या मतलब थे मैं
समझा नहीं सकता आपको
किसी को भी. बस मैं जानता हूं
और यह 'गूंगे-के-गुड' जैसा है.
मां दिन भर में सबसे ज़्यादा उत्साहित
होती थी उस समय
जब मैं कोई नई इबारत
लिख कर दिखा देता था
फुदक-फुदक कर चलती थी वह
और मैं इसका मतलब समझने के
लिहाज़ से बहुत छोटा था तब.
पर मुझे मां का इस तरह खुश रहना
बहुत अच्छा लगता था
और मैं हर दम यही चाहता
रहता कि मां ऐसे ही खुश रहे हर दम.
रही भी, जितने दिन बचे थे उसके
पर ज़्यादा कहां थे ये दिन ?
'मरने' का मतलब
मैं क़तई नहीं जानता था तब
तब भी नहीं जाना जब
सुबह-सवेरे घर में कोहराम मच गया
पूरी हवेली जैसे हिल गई हो
लाल चादर में ढंका कोई शरीर था
या शरीर-जैसा कुछ जिसे
कंधों पर उठाकर ले चले थे
घर के - मोहल्ले के लोग
सब तरफ़ से लोग आकर
चलने लगे साथ-साथ.
और ठट्ठ के ठट्ठ लोग जुड़ते गए
कहां जा रहे हैं ये सब?
और लाल चादर में क्या है?
ये कौतूहल का विषय था मेरे लिए.
मैं एक से दूसरी और तीसरी गोदी
में लिया जाता रहा
याद है अभी तक मैं निकल
भागना चाहता था क़ैद से
कैसी तो गर्मी थी और
कैसी तेज़ धूप
मेरे पैरों में जूते नहीं थे
इसीलिए शायद गोदी की क़ैद
में रखा जा रहा था मुझे.
तभी एक ततैये ने काट
लिया था मुझे गाल पर
आग सी लग गई थी पूरे
बदन में. और मैं चीख पड़ा ज़ोर से
सबने समझा मैं लाल चादर के
मायने समझ गया हूं शायद
मां जब छोड़ गई उससे एक
साल पहले की.
मुझे अचरज होता है कि
कितनी पक्की है दर्ज़
मेरी स्मृति में. चार बरस से कम का मैं
और यह दृश्य शायद पिछले
इतने सारे सालों में रोज़ाना
जीया है मैंने. अतिशयोक्ति न समझें इसे
चौबीस घंटों में कभी भी
एक बार तो गुज़रता ही रहा है यह
मुसलसल बिला नागा.
और लगता है जैसे कल ही हुआ था.
वह ज़माना था जब ससुर से
बोल नहीं सकती थी बहुएं
फिर भी मां हाथ पकड़ कर
ले गईं मुझे अपने
काका ससुर के पास
मेरे दूसरे हाथ में थी चमचमाती पट्टी
जिस पर सुंदर से अक्षरों में
लिख दिया था मैंने
वह सब
जो मां ने बोला था.
पट्टी को घोटे से चमकाया था मां ने
नरसल की छोटी सी कलम भी छीली थी
उसने ही. स्याही की दवात में
कलम भी उसने ही डाल कर रखी थी.
वह जैसे बहुत जल्दी में थी
कोई पन्द्रह दिन के भीतर ही
संयुक्ताक्षर लिखने सिखा दिए थे
उसने मुझे
संयुक्ताक्षर उसकी ज़रूरत हों जैसे
सबसे बड़ी ज़रूरत.
पट्टी पर लिखा था उस दिन
जो कुछ भी मैंने
वह आज तक हर दिन
वैसा ही कौंधता रहा है : "मैं
मां को बहुत प्यार करता हूं
दुनिया में सब से ज़्यादा
मां ने बताये हैं अपने सपने
और मैं उन्हें पूरे करूंगा
जब मां नहीं रहेगी."
ज़ाहिर है इस सबका मतलब नहीं
समझा था मैं तब
जब मैं लिख रहा था यह सब.
एक-एक शब्द ज़ोर देकर धीरे-धीरे
बोला था मां ने. जी हां, ज़्यादा
और ज़ाहिर में नुक़ता
लगाना भी सिखाया था
मां ने ही.
सीढियां चढ़कर ऊपर पहुंचते ही
अपने काका ससुर के सामने
रख दी थी पट्टी.
वह कुछ समझ नहीं पाए.
हां, लिखे हुए को पढ़कर जैसे ही
उनका चेहरा ऊपर उठा
अपने खनखनाते दर्प भरे स्वर में
बोली मां, 'यह लिखा है मेरे बेटे ने.'
मेरे छोटे दादा अवाक्
हां, यह इसने लिखा है
इसने ही लिखा है यह सब
अपने छोटे-से हाथों से
बोलो यह मेरा सपना पूरा
करेगा या नहीं
मदद करोगे न आप ?
कहते ही इतना सब
धड-धड करती वह उतर गई सीढ़ी.
दादा ने खींच कर मुझे
सीने से लगा लिया
लगभग भींचते हुए
अपने आपसे बतियाते हुए जैसे
वह चकित थे कि दस
दिन की उनकी गैर हाज़िरी में
कैसे मैं छोटा-सा बच्चा
उतना सब लिख पाया
बार-बार यह पूछते रहे हों खुद से ही जैसे
यह क्या हो गया है लक्ष्मी को?
ऐसी आवाज़ तो अब तक सुनी नहीं
किसी ने और यह भाग कैसे गई
धड-धड करती. और यह
'जब मां नहीं रहेगी' का मतलब क्या?
मैं क्या समझ सकता था
और
समझा सकता था क्या
उन्हें जो
सुबह ही लौटे थे लाहौर से
और उस "लिखे" के मतलब
मैं भी कहां समझता था
समझ गया होता तो लिख कैसे पाता?
दादा की सरपरस्ती में
पढ़ने के क्या मतलब थे मैं
समझा नहीं सकता आपको
किसी को भी. बस मैं जानता हूं
और यह 'गूंगे-के-गुड' जैसा है.
मां दिन भर में सबसे ज़्यादा उत्साहित
होती थी उस समय
जब मैं कोई नई इबारत
लिख कर दिखा देता था
फुदक-फुदक कर चलती थी वह
और मैं इसका मतलब समझने के
लिहाज़ से बहुत छोटा था तब.
पर मुझे मां का इस तरह खुश रहना
बहुत अच्छा लगता था
और मैं हर दम यही चाहता
रहता कि मां ऐसे ही खुश रहे हर दम.
रही भी, जितने दिन बचे थे उसके
पर ज़्यादा कहां थे ये दिन ?
'मरने' का मतलब
मैं क़तई नहीं जानता था तब
तब भी नहीं जाना जब
सुबह-सवेरे घर में कोहराम मच गया
पूरी हवेली जैसे हिल गई हो
लाल चादर में ढंका कोई शरीर था
या शरीर-जैसा कुछ जिसे
कंधों पर उठाकर ले चले थे
घर के - मोहल्ले के लोग
सब तरफ़ से लोग आकर
चलने लगे साथ-साथ.
और ठट्ठ के ठट्ठ लोग जुड़ते गए
कहां जा रहे हैं ये सब?
और लाल चादर में क्या है?
ये कौतूहल का विषय था मेरे लिए.
मैं एक से दूसरी और तीसरी गोदी
में लिया जाता रहा
याद है अभी तक मैं निकल
भागना चाहता था क़ैद से
कैसी तो गर्मी थी और
कैसी तेज़ धूप
मेरे पैरों में जूते नहीं थे
इसीलिए शायद गोदी की क़ैद
में रखा जा रहा था मुझे.
तभी एक ततैये ने काट
लिया था मुझे गाल पर
आग सी लग गई थी पूरे
बदन में. और मैं चीख पड़ा ज़ोर से
सबने समझा मैं लाल चादर के
मायने समझ गया हूं शायद
और इसीलिए हो सकता है
दादा बोले तेरी मां को रामजी ने
बुला लिया है
मैं रामजी को नहीं जानता था
तुतलाते पूछा मैंने रामजी के बारे में
और लाल चादर के बारे में
जो बदलते कंधों पर
चल रही थी. किसको फ़ुर्सत थी
मेरे सवालों के जवाब देने की. या
शायद ज़रूरत भी नहीं थी. बच्चों के
सवाल वैसे भी खिझाते ही हैं
'बड़ों' को.
'चिता' कहां समझता था मैं?
पर जब लिटाया जा रहा था
लकड़ियों पर
लाल चादर को तो मैं चुपके से
दो लोगों की आड़ से देखकर
झलक पा गया अपनी मां के चेहरे की
सुर्ख लाल बिंदी
मोटी-सी बिंदी की
और बिना कुछ समझे हुए
रो पड़ा दहाड़ मार कर, ऐसे
जैसे फिर कभी नहीं रोया.
कोई भी गया, कभी नहीं.
वह दहाड़ मारकर रोना तो
आखिरी ही था. कोई एक काम
जो चार बरस की उम्र में ही
'आखिरी बार' हो गया !
दादा बोले तेरी मां को रामजी ने
बुला लिया है
मैं रामजी को नहीं जानता था
तुतलाते पूछा मैंने रामजी के बारे में
और लाल चादर के बारे में
जो बदलते कंधों पर
चल रही थी. किसको फ़ुर्सत थी
मेरे सवालों के जवाब देने की. या
शायद ज़रूरत भी नहीं थी. बच्चों के
सवाल वैसे भी खिझाते ही हैं
'बड़ों' को.
'चिता' कहां समझता था मैं?
पर जब लिटाया जा रहा था
लकड़ियों पर
लाल चादर को तो मैं चुपके से
दो लोगों की आड़ से देखकर
झलक पा गया अपनी मां के चेहरे की
सुर्ख लाल बिंदी
मोटी-सी बिंदी की
और बिना कुछ समझे हुए
रो पड़ा दहाड़ मार कर, ऐसे
जैसे फिर कभी नहीं रोया.
कोई भी गया, कभी नहीं.
वह दहाड़ मारकर रोना तो
आखिरी ही था. कोई एक काम
जो चार बरस की उम्र में ही
'आखिरी बार' हो गया !
चिता को अग्नि देने के लिए
हाथ लगवाया गया मेरा और
तुरत ही वहां से हटा भी
दिया गया मुझे.
मुझे याद नहीं कितनी देर तक
मेरी रोती हुई आँखों में
मेरी मां की सुर्ख लाल बिंदी तैरती रही.
सच मानें वह बिंदी मेरे बाल-मन पर
ऐसी अंकित हुई, कि अब भी मैं जब चाहूं
आंखें मूंदते ही उसे देख सकता हूं
उसी रंग और आकार में
जैसी दिपदिपाती थी मेरी मां के माथे पर
नज़र हटती भी नहीं थी,
और अब जब वैसी बिंदी किसी के
माथे पर दिख जाए तो
पहुंच जाता हूं आज से चौंसठ साल पहले
यादों की अंधेरी कोठरियां खुलने लगती हैं.
अंधेरी कोठरियों का भी अजब हाल है
खुलती हैं तो चीज़ें बेतरतीब
सामने आती हैं
हर बार अलग क्रम में.
मां का न रहना मेरे लिए
न जाने क्या-क्या खो जाने का
मिला-जुला रूप था. मेरे लिए
कुछ भी अब वैसा
ही नहीं रह गया था.
आप सोच सकते हैं कि
भरे-पूरे परिवार में भी
मां के जाते ही
एक छोटा-सा निरीह-सा बच्चा
'अनाथ' समझने लगे अपने आपको
बिना 'अनाथ' का मतलब समझे?
धरती जैसे कीली पर से उतर गई थी
चकराया-सा मैं जैसे एकदम गूंगा
हो गया था अदृश्य भी. किसी को
कोई परेशानी नहीं थी मेरे न दिखने से
गूंगे हो जाने से
हलवाई बैठा दिए गए थे मिठाइयां और
तरह-तरह के पकवान बन रहे थे
मां की 'शांति' के लिए
पर मुझे याद आता
मां को तो कभी पसंद नहीं थे
ये भांति-भांति के पकवान
और मैं समझ नहीं पाता इनका क्या रिश्ता
हो सकता था शांति से. 'शांति'
जो नाम था मेरी मां का इस घर में आने से पहले
यहां आकर वह 'शांति' से 'लक्ष्मी' बन गई
क्योंकि शांति यहां पहले से क़ायम थी
बुआ के रूप में. नाम बदल सकता था सिर्फ़ उसी का
जो ब्याहता होकर यहां आई थी पराये घर से.
हाथ लगवाया गया मेरा और
तुरत ही वहां से हटा भी
दिया गया मुझे.
मुझे याद नहीं कितनी देर तक
मेरी रोती हुई आँखों में
मेरी मां की सुर्ख लाल बिंदी तैरती रही.
सच मानें वह बिंदी मेरे बाल-मन पर
ऐसी अंकित हुई, कि अब भी मैं जब चाहूं
आंखें मूंदते ही उसे देख सकता हूं
उसी रंग और आकार में
जैसी दिपदिपाती थी मेरी मां के माथे पर
नज़र हटती भी नहीं थी,
और अब जब वैसी बिंदी किसी के
माथे पर दिख जाए तो
पहुंच जाता हूं आज से चौंसठ साल पहले
यादों की अंधेरी कोठरियां खुलने लगती हैं.
अंधेरी कोठरियों का भी अजब हाल है
खुलती हैं तो चीज़ें बेतरतीब
सामने आती हैं
हर बार अलग क्रम में.
मां का न रहना मेरे लिए
न जाने क्या-क्या खो जाने का
मिला-जुला रूप था. मेरे लिए
कुछ भी अब वैसा
ही नहीं रह गया था.
आप सोच सकते हैं कि
भरे-पूरे परिवार में भी
मां के जाते ही
एक छोटा-सा निरीह-सा बच्चा
'अनाथ' समझने लगे अपने आपको
बिना 'अनाथ' का मतलब समझे?
धरती जैसे कीली पर से उतर गई थी
चकराया-सा मैं जैसे एकदम गूंगा
हो गया था अदृश्य भी. किसी को
कोई परेशानी नहीं थी मेरे न दिखने से
गूंगे हो जाने से
हलवाई बैठा दिए गए थे मिठाइयां और
तरह-तरह के पकवान बन रहे थे
मां की 'शांति' के लिए
पर मुझे याद आता
मां को तो कभी पसंद नहीं थे
ये भांति-भांति के पकवान
और मैं समझ नहीं पाता इनका क्या रिश्ता
हो सकता था शांति से. 'शांति'
जो नाम था मेरी मां का इस घर में आने से पहले
यहां आकर वह 'शांति' से 'लक्ष्मी' बन गई
क्योंकि शांति यहां पहले से क़ायम थी
बुआ के रूप में. नाम बदल सकता था सिर्फ़ उसी का
जो ब्याहता होकर यहां आई थी पराये घर से.
जिस दिन वह चीत्कार मचा था
घर में उससे पहली रात ही
तो पता चला था
कि आया है घर में मेरा
छोटा-सा प्यारा-सा भैया
फिर खुसर-पुसर सुनाई दी कि
वह तो चला गया, और फिर
बहुत बाद में आया समझ में
कि जाते-जाते ले गया मेरी मां को भी.
यह तब की बात है जब लाल चादर का
'रहस्य' रहस्य नहीं रह गया था. तो
उस दिन से वह
'न-देखा' भैया मुझे दुश्मन लगने लगा.
और पिता?
वह तो जैसे अदृश्य हो गए
भूमिगत जैसे. वाद्य यंत्रों का संग
चुन लिया उन्होंने.
अरसे तक यह सिर्फ़ सुना मैंने
देखा नहीं.
बहुत बाद में समझ आया कि
क़ुरबानी की थी पिता ने
अपने सुखों की मेरे लिए
पर यह उदासीनता भी तो अंकित
हो ही चुकी थी बहुत गहरे मेरे मन पर,
और सच कहूं, तर्क-विवेक अपनी जगह
मैं कभी सहज नहीं हो पाया.
कितने ही कोड़े लगाए हों मैंने
बचपन से बनी ग्रंथि को, पर बात
वहीं जमी रही, और बावजूद तमाम खुलेपन के
बर्फ़ पिघल ही नहीं पाई.
वह जीवन भर स्वीकार न कर पाए
मां के चले जाने के अर्थों को और
मैं भुला नहीं पाया कभी भी
कि वह मौत सबसे ज़्यादा वंचित और शापित
बना गई थी मुझे ही.
'मां' कोई साधारण शब्द नहीं है
यह तो पूरा संसार है
कौन सिखाए
कौन हंसाए
कौन उंडेले दुनिया भर का प्यार
कौन बनाए रखे संतुलित
जीवन की पतवार?
मेरी दुखती रग को पहचाना
जब मैं बड़ा हो गया मेरे
मित्रों की मांओं ने
मेरे अपने घर की बड़ी स्त्रियों से
कहीं कहीं ज़्यादा. उनमें से कोई भी नहीं लगाती थी
वैसी सुर्ख लाल मोटी-सी बिंदी
पर शायद वे समझ पाईं
कि खोज रहा था
जो कुछ खो चुका था उसकी परछाई
वैसी तो न थीं पर ये परछाइयां
न मिली होतीं तो मैं मैं नहीं होता
वह नहीं होता जो सपने में देखा था मां ने.
फिर भी अनेक अवसरों पर
कसक रही कि मां होती
उपलब्धियों से खुश तो वह ही
हो सकती थी पुरस्कारों
सोने के मेडल में उसका सपना
ही तो दिख सकता था उसे
जिनसे भी साझा की मैंने
विषाद मिश्रित खुशी
हर बार मैं खोजने लगता
वह चमक चेहरे पर जो उस सुर्ख
लाल बिंदी वाले चेहरे पर होती.
किसी मां को नहीं मर जाना चाहिए इस तरह
जैसे मर गई थी मेरी मां
एक दिन अचानक
सुबह-सवेरे
मुझे इस क़दर अकेला छोड़ कर
अपने सपनों की भारी गठरी
मेरे सिर पर छोड़ कर.
यह कोई तरीक़ा नहीं है प्यार
जताने का और जो प्रिय है उसका
जीना दुश्वार बना देने का !!!
घर में उससे पहली रात ही
तो पता चला था
कि आया है घर में मेरा
छोटा-सा प्यारा-सा भैया
फिर खुसर-पुसर सुनाई दी कि
वह तो चला गया, और फिर
बहुत बाद में आया समझ में
कि जाते-जाते ले गया मेरी मां को भी.
यह तब की बात है जब लाल चादर का
'रहस्य' रहस्य नहीं रह गया था. तो
उस दिन से वह
'न-देखा' भैया मुझे दुश्मन लगने लगा.
और पिता?
वह तो जैसे अदृश्य हो गए
भूमिगत जैसे. वाद्य यंत्रों का संग
चुन लिया उन्होंने.
अरसे तक यह सिर्फ़ सुना मैंने
देखा नहीं.
बहुत बाद में समझ आया कि
क़ुरबानी की थी पिता ने
अपने सुखों की मेरे लिए
पर यह उदासीनता भी तो अंकित
हो ही चुकी थी बहुत गहरे मेरे मन पर,
और सच कहूं, तर्क-विवेक अपनी जगह
मैं कभी सहज नहीं हो पाया.
कितने ही कोड़े लगाए हों मैंने
बचपन से बनी ग्रंथि को, पर बात
वहीं जमी रही, और बावजूद तमाम खुलेपन के
बर्फ़ पिघल ही नहीं पाई.
वह जीवन भर स्वीकार न कर पाए
मां के चले जाने के अर्थों को और
मैं भुला नहीं पाया कभी भी
कि वह मौत सबसे ज़्यादा वंचित और शापित
बना गई थी मुझे ही.
'मां' कोई साधारण शब्द नहीं है
यह तो पूरा संसार है
कौन सिखाए
कौन हंसाए
कौन उंडेले दुनिया भर का प्यार
कौन बनाए रखे संतुलित
जीवन की पतवार?
मेरी दुखती रग को पहचाना
जब मैं बड़ा हो गया मेरे
मित्रों की मांओं ने
मेरे अपने घर की बड़ी स्त्रियों से
कहीं कहीं ज़्यादा. उनमें से कोई भी नहीं लगाती थी
वैसी सुर्ख लाल मोटी-सी बिंदी
पर शायद वे समझ पाईं
कि खोज रहा था
जो कुछ खो चुका था उसकी परछाई
वैसी तो न थीं पर ये परछाइयां
न मिली होतीं तो मैं मैं नहीं होता
वह नहीं होता जो सपने में देखा था मां ने.
फिर भी अनेक अवसरों पर
कसक रही कि मां होती
उपलब्धियों से खुश तो वह ही
हो सकती थी पुरस्कारों
सोने के मेडल में उसका सपना
ही तो दिख सकता था उसे
जिनसे भी साझा की मैंने
विषाद मिश्रित खुशी
हर बार मैं खोजने लगता
वह चमक चेहरे पर जो उस सुर्ख
लाल बिंदी वाले चेहरे पर होती.
किसी मां को नहीं मर जाना चाहिए इस तरह
जैसे मर गई थी मेरी मां
एक दिन अचानक
सुबह-सवेरे
मुझे इस क़दर अकेला छोड़ कर
अपने सपनों की भारी गठरी
मेरे सिर पर छोड़ कर.
यह कोई तरीक़ा नहीं है प्यार
जताने का और जो प्रिय है उसका
जीना दुश्वार बना देने का !!!
पूरी कविता धाराप्रवाह पढ़ते हुए कई जगह आखें नम हुई... और अब जब कविता पढ़ चुके हैं तब संयुक्ताक्षर सीखाने वाली माँ... सुर्ख लाल बिंदी लगाने वाली माँ का चेहरा साक्षात् आँखोंके सामने मानों प्रस्तुत है... और एक धार है जो बह रही ही हृदय की अतल गहराइयों से ... आँखों के रस्ते! मृत्यु के मायने कौन समझ पाया है... पर अगर माँ साक्षात् हर क्षण साथ न होती तो यह भाव यात्रा इतनी स्पष्टता के साथ नहीं लिखी जा सकती थी... माँ का हर क्षण कवि के साथ होना महसूस कर अब हमारी भींगी आँखें एक इन्द्रधनुषी सुषमा भी देख पा रही है... जहां इस अभिव्यक्ति को पढ़कर माँ की मुस्कान सहज ही महसूस की जा सकती है!
ReplyDeleteसादर!
मां को जिस तरह आपने अपनी यादों में बसाया है, वह मां ही हो सकती है जो बच्चे के रोम-रोम में इस तरह बसती है। चौके से लेकर चिता तक...
ReplyDeleteअभी इतना ही कह पाऊँगा कि मार्मिक...यह कल्पना करके ही दहल जाता हूँ कि एक दिन माँ नहीं होगी...
ReplyDeletebehad marmik kavita.....apana bachapan yad ho aaya...sath hi ek dard bhi.....maan par itani marmik kavita isase pahale nahin padi....itana gahara dard is kavita main vyakt huwa hai use to kewal mahsoos hi kiya ja sakata hai usaki gaharayi vyakt nahni ki ja sakati hai...aankhen nam ho aayi....bin maan ke bachche aankhon ke samane khoomane lage...maan ke mahtva ko usake na rah pane par or gaharayi se mahsoos kiya jata hai ,yah kavita batati hai...
ReplyDelete'मां' कोई साधारण शब्द नहीं है
यह तो पूरा संसार है
कौन सिखाए
कौन हंसाए
कौन उंडेले दुनिया भर का प्यार
कौन बनाए रखे संतुलित
जीवन की पतवार?
nishchit roop se is rishte ka koyi viklp nahi hai.....
(कौन कहता है कि कविता छंदोबद्ध ही अच्छी लगती है.बंदिगत से निकल कर जब कविता अपने मन का विचरण करती हुई मंझिल तक पहुंचती है तो पाठक की आँखों को कायनात कुछ अलग नज़र आती है.-सम्पादक )see here http://www.apnimaati.com/2012/01/blog-post_14.html
ReplyDeleteकुछ लिखने में असमर्थ हूँ...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteetni sashakat lekin saraal kavita?adbhut,akalpniya.
ReplyDeletebas foot foot kar ro padi hoon..
ReplyDeleteमां की यादें और मां की सीख नहीं भूली जा सकती इस जीवन में। यह कविता आत्म-कथ्य सी लगे मुझे पर शायद सारे शब्द बटोरूं तो भी इतने सहज भाव से इतना मार्मिक प्रभाव नहीं रच पाऊंगा। मेरे मन के भावों को ऐसी अभिव्यक्ति देने वाले रचनाकर के प्रति आंतरिक आभार।
ReplyDeleteमाँ की महिमा पर, और उसके महातम्य पर बहुत भावुक रचना. सँसार की हर भाषा, हर विधा में इस विषय में लिखा गया है. आपकी रचना उसी क्रम में एक सुन्दर अभ्व्यक्ति है.माँ की ममता पर मैंने भी एक कहानी लिखी है अब इससे प्रभावित होकर मै आज ही उसे अपने ब्लॉग में प्रकाशित कर रहा हूँ. प्रेरणा के लिए भी धन्यवाद.
ReplyDeleteMain kuch kah nahin sakta.Is kavita par chup rahana hi meri nazar me Maa ko sacchi shradhaanjali aur usake liye saccha payar hai. Shabd maun hain , main chup hoon aur yah bahut mushkil se hota hai.
ReplyDeletebehad marmik rachna hai
ReplyDeleteAAP BEAWAR COLLEGE ME RAHE HE?
ReplyDelete1975-1976 me aapne SD GOVT COLLEGE ME EK SEMINAR DI THI>
www.facebook.com/drhschauhan/
बहुत कारुणिक कविता ! एक छोटे से बच्चे के लिए माँ का होना और फिर अचानक न होना कितना संघातिक होता है कि जिसका घाव जीवन भर नहीं भरता ! मार्मिक !
ReplyDeleteमोहन जी, खूब रुलाया आपने...अपने दुखों का पहाड़ जैसे पाठकों से सर पर दे मारा हो....आप फ़िर भी हलके न होंगे...और न होंगे मेरे जैसे पाठक भी. आपकी आँखों को उसी लाल मोटी दिपदिपाती बिंदी का इन्तेज़ार तब तक रहेगा जब तक इन्हें देखना आता है. बचपन की छोटी से छोटी खोई हुई चीज़ भी जैसे वक्त को उसी जगह खूंटे पर बांध देती है, और अगर मां खो जाये, तब उसका उस क्षण से सरकना ना-मुमकिन ही है. मां पर इतनी मार्मिक कविता अभी तक नहीं पढी...सलाम उस शांति को जिसने ऐसे हाथ जने..
ReplyDeleteकुछ भी लिख पाने के हालत में नहीं हूँ........शब्दों पर ज़ज्बात भारी पड़ रहे हैं !!
ReplyDeleteमातृत्व और मृत्यु का मुखामुखम इस कविता को विशिष्ट बनाता है . मृत्यु की छाया में मातृत्व में निहित करूणा और कामना जितनी उद्दीप्त होती है , उतनी ही मातृत्व की छाया में मृत्यु की निकटता और आत्मीयता. यह स्मृति के कैमरे से जीवन और मृत्यु की द्वंद्वात्मक एकता को एक तीव्र और घनीभूत क्षण में कैप्चर करना है . शिल्प और भाषा के लिहाज से यह कविता विष्णु खरे की कतिपय श्रेष्ठतम कविताओं के साथ खड़ी होती है , लेकिन भाव में निजता का गहरा स्पर्श इसे इस का अपना अद्वितीय व्यक्तित्व प्रदान करता है .
ReplyDeleteअनुभूत सत्य को बहुत प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करने वाली बेहतरीन कविता | बधाई
ReplyDeleteएक तरफ अपनी जननी से प्रेम का यह उद्दात्त रूप और दूसरी ओर आज के समाज में उसी माँ-बाप के लिए इतना तिरस्कार ...?...इसे पढते हुए सुबह से ही यह सवाल मुझे मथ रहा है कि बच्चे अपने माँ- बाप को वृद्धाश्रम में कैसे छोड़ आते है, और क्यों उनके घरों में अपने ही रचनाकारों के लिए एक कोना तक नहीं खाली होता ...?
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी कविता है . माँ तो माँ है ही ..महान, बच्चे का संसार ,बच्चे के व्यक्तित्व की नींव रखने वाली ..पर इस कविता में जो आपने एक चार साल के बच्चे के दिल में उतर कर उसके भावों को कविता में लिख दिया है वह ऐसा है जैसे ज़ख्मों को शीशे के टुकड़ों में पिरो दिया हो ..अनाथ. चिंता ..उस वक्त जबकि उसे पता नहीं इन शब्दों का अर्थ क्या होता है!और जिस लक्ष्मी माँ ने अपने सपनो का बोझ अपने चार साल के बच्चे के कन्धों पर डाल दिया ...उसकी लाल बिंदी शायद आज प्रतिभा बन कर उस बच्चे के माथे पर चमक रही है ..वह लक्ष्मी माँ उस पट्टी पर एक ऐसी ज़मीन रख गयी जिसमे उस बच्चे के भाव कविता के रूप में उग रहे हैं ...एक अनाथ बचपन के भावों का जो चित्र खींचा है आपने ...किसी भी मर्म को छू लेंगे यह भाव और कोई भी आँख रोये बिना नहीं रहेगी ...
ReplyDeleteबेहद मर्मस्पर्शी मगर सत्य को उकेरती रचना ना जाने कहाँ तक ले गयी और उस बाल सुलभ मन पर अंकित दृश्य की वेदना को इस तरह कहने के लिये भी काफ़ी हिम्मत चाहिये होती है और समझ सकती हूँ ना जाने कितने यादो के गलियारों से गुजरे होंगे तब शायद कह पाये होंगे …………अन्दर तक जैसे गर्म सीसे सी उतरती चली गयी एक खाका सा खींच दिया आपने…………आपके दर्द की गहराई तक तो शायद कोई पहुंच ही नही पायेगा सिर्फ़ एक प्रश्न ही हर कोई अपने सम्मुख पायेगा……
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ReplyDeleteसब कुछ जैसे एक बार फिर मेरी आँखों के सामने से गुजर गया.इस कविता ने दुःख को साझा कर लिया.मन भर आया वाकई किसी माँ के हिस्से दुःख नही होने चाहिए,आंसू नही होने चाहिए ,माँ का कलेजा मोम का होता है.लेकिन ज़िंदगी यही है... एक दिन हमारे दर्द दिल से निकल कर कागज़ पर शब्दों की शक्ल में ढल जाते हैं,और अमर और अविस्मरणीय बन जाते हैं.
ReplyDeleteमैं बार बार पढ़ रही हूँ ,बार बार जैसे कोई तीखी लकीर चीर रही है .....इससे ज़्यादा कह पाना मुश्किल है ,कविता ने मन भारी कर दिया.
बस .. माँ कोई साधारण शब्द नही है...."किसी मां को नहीं मर जाना चाहिए इस तरह
जैसे मर गई थी मेरी मां
एक दिन अचानक "
kai saalon se dil me chupe dard ko shabdon me bakhubi tarasha hai..." maa " se mahan iss duniya me koi nahi hai....koi ho bhi nahi sakta hai....bahut hridayshparshi likha hai aapne...
ReplyDeleteयह क्या लिख डाला आपने !
ReplyDeleteव्यथा की एक मर्मस्पर्शी अनुगूंज पैठ गई है मेरे पूरे वजूद में . हतप्रभ-सा हो गया हूं. कई पंक्तियां इतनी पैनी हैं कि बरछी की तरह बेधती चली जाती हैं. बेचैनी और उद्वेलन थोडा कम हो और मन थोडा थिर हो तो कुछ और सोचूं इस कविता के बारे में.
"मां' कोई साधारण शब्द नहीं है
यह तो पूरा संसार है ........
किसी मां को नहीं मर जाना चाहिए इस तरह
जैसे मर गई थी मेरी मां
एक दिन अचानक
सुबह-सवेरे
मुझे इस क़दर अकेला छोड़ कर ."
इन पंक्तियों को ऐसा विलक्षण और पुरअसर रूप आप जैसा भावप्रवण और सच्चा व्यक्ति ही दे सकता है . मुझे तो शब्द नहीं मिल रहे हैं. बरसों का जमा पुराना दुख इतना गल कर....तरल हो कर बह सकता है और ऐसा प्रभावकारी रचनात्मक रूप ले सकता है यह सोच कर ही मानव मन की सामर्थ्य और खूबसूरती पर हैरत होती है .
आप जैसे सच्चे,भावप्रवण और प्रबुद्ध गुरु का स्नेह पा सका हूं यह मेरा सौभाग्य है. आज मकर संक्रांति के दिन माथा टिकाता हूं आपके चरणों में . आशीर्वाद दें कि अपनी सीमाओं में थोड़ा-बहुत जितना भी संभव हो आपके जैसा हो सकूं.
मैं स्वीकार करता हूं कि किसी वयस्क शिशु की अपनी मां से ऐसी मार्मिक और कातर और तरल शिकायत मैंने और नहीं सुनी . 'मेरी मां' से शुरू होकर 'किसी भी मां' तक पहुंच कर यह कविता मृत्यु की पृष्ठभूमि में मातृत्व के जीवनदायी राग के आलाप में बदल जाती है.
बहुत रुलाया बाबा आपने, ऐसे हालातों से मैं भी गुजरी हूँ, पर मुझे तो न माँ का चेहरा ही याद है और न कोई बात, सिवाए एक दृश्य के कि जब वे अस्पताल में भर्ती थी और जब हम दोनों बच्चों को उनसे मिलने के लिए ले जाया गया तो जब तक हम ओझल नहीं हो गए, वे हाथ हिलाती हुई हमें दूर जाते हुए देखती रही...वो हिलता हाथ ही अब मेरी स्मृतियों में रह गया है! उनकी किताबें, अधूरी कढ़ी कुछ दस्तकारियाँ, एक अधूरा बुना तारों का सुंदर बैग ही रह गया था मेरे पास उन्हें याद करने के लिए....विमाता के डर से दूर हो गए पिता ने कभी भी उनका जिक्र तक नहीं किया हमसे, और कभी-कभी पड़ोसियों द्वारा की गयी उनकी भलमनसाहत की तारीफों में ही सदा ढूँढा उन्हें...... एक छोटे बच्चे के लिए माँ का जाना सचमुच बहुत दुखद है.......
ReplyDeleteपहली बार हिला हूँ इस तरह से...माँ के कई रूप हैं और हर रूप में माँ की ममता सबसे ऊपर होती है लेकिन आपने तो ममता के आयाम ही बदल दिए...
ReplyDeleteफिर भी अनेक अवसरों पर
कसक रही कि मां होती
उपलब्धियों से खुश तो वह ही
हो सकती थी पुरस्कारों
सोने के मेडल में उसका सपना
ही तो दिख सकता था उसे
जिनसे भी साझा की मैंने
विषाद मिश्रित खुशी
हर बार मैं खोजने लगता
वह चमक चेहरे पर जो उस सुर्ख
लाल बिंदी वाले चेहरे पर होती.
बचपन में पोस्ट ऑफिस में एक पोस्टमास्टर आये थे, उनके बेटे से मेरी बहुत पटती थी...जब तब हम एक दूसरे का हाथ थामे गलियों और चौराहे के चक्कर लगा आया करते थे...पिताजी की सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी थी(अपने घर से हजारों किलोमीटर दूर इस शहर में भी हमें वही मान और सम्मान मिलता था जो की गाँव में मिलता)...इसलिए उनके क्वार्टर पर जाने में कोई रोक टोक मुझे नहीं हुई....लेकिन एक कसक सी होती थी बाल मन में भी कि उसकी माँ हमारी माँ जैसी क्यूँ नहीं है....क्यूँ उसके घर में मुझे अच्छा अच्छा खाने को मिलता है और जैसे ही वो मेरी प्लेट छूता एक गुर्राती आँखें उसे ऐसा करने से रोक देती....लेकिन अपने दोस्त के लिए मैं उन्हें अपनी पॉकेट में भर लेता और क्रिकेट ग्राउंड में बैठ कर हम दोनों सखा उसका भरपूर आनंद उठाते....मेरे घर आने पर माँ उसका कुछ ज़्यादा ही ख्याल रखती और उस समय उसकी नम होती आँखें मुझसे छुपी न रहती थी लेकिन बाल मन कहाँ इतना परिपक्व होता है और कुछ क्षणों के पश्चात ही मैं सब कुछ भूलकर उसके साथ खेलने लग जाता लेकिन उसकी आँखें मेरी माँ की गोद हमेशा खोजती रहती और मेरी ही तरह मेरी माँ के गोद में वो भी अपनी जगह बना ही लेता और मैं जगता रहता लेकिन उसकी आँखें स्वप्नों के जाल तुरंत बुनने लग जाती. फिर कुछ दिनों के बाद उसके पिता का ट्रांसफर कहीं और हो गया और फिर हम कभी नहीं मिले....जब थोडा बड़ा हुआ तो माँ ने बताया कि उसके पिता ने दूसरा विवाह किया था.....और मैं जडवत....जिसकी गांठें आज भी जस कि तस हैं....और आपकी इस कविता ने उन गांठों को आज फिर हरा कर दिया.....
किसी मां को नहीं मर जाना चाहिए इस तरह
जैसे मर गई थी मेरी मां
एक दिन अचानक
सुबह-सवेरे
मुझे इस क़दर अकेला छोड़ कर
अपने सपनों की भारी गठरी
मेरे सिर पर छोड़ कर.
यह कोई तरीक़ा नहीं है प्यार
जताने का और जो प्रिय है उसका
जीना दुश्वार बना देने का !!!
इस पूरी कविता में मुझे हर जगह सिर्फ वही दिखा और माँ......बस माँ....
Maa is g8.............
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर एवम् भावनात्मक चित्रण। बचपन में माँ का गुजर जाने की मेरी पीड़ा को शब्द दे दिये आपने।
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