Wednesday 17 July 2013

समझदारों को इशारा ही काफ़ी होता है



फूल पाने की इच्छा रखने वालों को कांटे बोने से बचना चाहिए. जैसा आप करेंगे, वैसा ही यदि दूसरे भी करने लगेंगे तो आपको भी कांटे ही तो मिलेंगे. गीतकार मोहन अंबर ने दूसरों की राह में कांटे बिछाने वालों से जो कहा था, वह तो और भी कष्टकर हो सकता है. उन्होंने अपने एक बेहद प्रसिद्ध गीत में ऐसे लोगों को आगाह ही तो किया था :

"देखो शूल बिछाने वालो, मैं बदला ऐसे लेता हूं
जितनी डगर न मैं चल पाऊं उतनी डगर तुम्हें मिल जाए.
...
देखो धूल उड़ने वालो यह मेरा आभार-प्रदर्शन
धुंध-अंजे मेरे नयनों की सारी नज़र तुम्हें मिल जाए."

समझदारों को इशारा ही काफ़ी होता है.
-मोहन श्रोत्रिय

Tuesday 16 July 2013

यह चौकस रहने का वक़्त है...विरासत को याद रखने का भी


इस देश की विशिष्ट पहचान इसकी बहुलतावादी संस्कृति के आधार पर निर्मित हुई थी. भाषा, साहित्य, संगीत, चित्रकला, स्थापत्य, रंगमंच एवं पाकशास्त्र - सभी इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं. जिसे "गंगा-जमुनी तहज़ीब" के नाम से जाना जाता है, उस संस्कृति में सहिष्णुता और भाईचारा उल्लेखनीय तत्व हैं, जिनकी अनदेखी अथवा अवहेलना आत्मघाती बन सकती है. अल्पकालिक लाभों के लिए इस छवि को खंडित करने का कुचक्र देश की अस्मिता के लिए भारी पड़ सकता है. भगवत शरण अग्रवाल की क्लासिक कृति "भारतीय संस्कृति के मूल स्रोत" पर एक बार फिर से नज़र डाल लेना उपयोगी रहेगा. जिन्हें नेहरु की "भारत : एक खोज" पढ़ने से परहेज़ हो, वे दिनकर की पुस्तक "संस्कृति के चार अध्याय" भी पढ़ लेंगे, तो भी अपने देश को बेहतर ढंग से समझने में सक्षम हो पाएंगे. "वैष्णव जन तो तेने कहिए..." सुना सबने होगा, पर मैं विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता कि सबने इसे भारतीय मनीषा के सारतत्व के रूप में भी देखा-समझा होगा . बार-बार लौटने की ज़रूरत है, इन सबकी तरफ़.

राष्ट्र की अवधारणा के साथ किसी भी किस्म की छेड़खानी के परिणाम दूरगामी होंगे. उग्र राष्ट्रवाद फ़ासिज़्म का लक्षण होता है, जो अंततः राष्ट्र के लिए ही घातक सिद्ध होता है. हिटलर का उदय नहीं हुआ होता तो जर्मनी आज विश्व की सबसे बड़ी शक्ति होता. दुनिया अमरीका की फ़ालतू की दादागिरी से भी बच गया होती. जर्मनी के कमज़ोर हो जाने का, और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की बंदर-बांट का ही यह परिणाम था कि अमरीका महाशक्ति बन बैठा, दुनिया भर का दरोगा ! यह याद रखना भी उपयोगी होगा कि नस्लीय श्रेष्ठता पर आधारित उग्र राष्ट्रवाद ही भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रमुख प्रेरणा-स्रोत रहा है. गोलवालकर की किताबें (संघ-वांग्मय) इसके अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत भी करती है. जनोत्तेजक वक्तृत्व कला इन दिनों खूब सुनने-देखने को मिल रही है, उसके उत्स भी हिटलर से जाकर मिलते हैं. निस्संग भाव से, और आंखें खुली रखकर हम इतिहास पर नज़र डालेंगे तो इस निष्कर्ष को झुठला नहीं पाएंगे.

-मोहन श्रोत्रिय

Saturday 13 July 2013

‎आ‬ जाओ, 2014! जल्दी आ जाओ, कि यह जुनूनी शोर तो थमे !

यह शोर देश को अराजकता की ओर ले जा रहा है. किसी भी तरह के "भ्रष्ट आचरण" को मुद्दे के रूप में सामाजिक विमर्श से बहिष्कृत कर रहा है. जिस मंदिर के पक्ष में अयोध्या-फ़ैज़ाबाद के मतदाता ने एक बार को छोड़कर कभी उत्साह नहीं दिखाया, उसे फिर से जीवित कर रहा है. अयोध्या का छोटा दुकानदार, दिहाड़ी पर काम करने वाला मज़दूर, फूलों और पूजा की वस्तुओं की गुमटी चलाने वाला ग़रीब - सभी बेहद आशंकित हैं, आतंकित हैं. कहते हैं, हर बार बाहर के लोगों ने यहां आकर हमारा जीना मुहाल किया है,
रोज़ की घर चलाने वाली कमाई को चौपट किया है.

दुर्भाग्य है कि अन्य राजनीतिक पार्टियां अपना एजेंडा सामने लाने की बजाय हिंदू-राष्ट्रवादी एजेंडे के इर्द-गिर्द घूम रही हैं. सिर्फ़ प्रतिक्रिया करने से हालात नहीं बदल सकते, यह तय लगता है !

पहले मन बंटते हैं, और फिर सामाजिक समरसता पर गहरी चोट करते हैं. युद्ध की-सी मानसिकता निर्मित की जा रही है, जिसका परिणाम सुखद नहीं हो सकता, कभी भी. वैकल्पिक राजनीति की दुहाई देने वालो, जागो ! जागो, कि बहुत सो लिए ! जागो, कि यह देश कठिन समय में सोने वालों को माफ़ नहीं करेगा ! जागो, कि पानी सिर के ऊपर से गुजरने ही वाला है !

-मोहनश्रोत्रिय

हत्यारों का कोई मज़हब नहीं होता, कोई ईमान नहीं होता !


हर हिंदू हिंदुत्ववादी नहीं होता, इसलिए उसे वैसा नहीं माना जा सकता. कोई हिंदू कितना भी बड़ा अहंकारी क्यों न हो, उसे यह ह्क़ नहीं बनता कि वह देश के तमाम हिंदुओं की ओर से बोल सके. बडबोले कठमुल्ले (हिंदू हों या मुसलमान) एक तरह की संकीर्णता से ग्रस्त होने के कारण एक-दूसरे को प्रासंगिक बनाए रखते हैं. पर ध्यान देने की बात यह है कि दोनों ही तरफ़ ऐसे लोगों की संख्या कहीं अधिक है जो मनुष्य-विरोधी कट्टरता के खिलाफ़ हैं, पूरी तरह से.

हिंदू-उदारता की दुहाई देने वालों को इस पर गौर करना चाहिए. छह महीने तक चला लो अपनी बदज़ुबानी, दिखा लो अपनी बदगुमानी, पर उसके बाद? यह समाज तो फिर भी चलता रहेगा, पर तुम्हारा क्या होगा, कालिया?

यह देश खल शक्तियों को नायक नहीं बना सकता. कभी नहीं. यह लिखा हुआ है, दीवार पर ! जो नहीं पढ़ना चाहते हैं इसे, नुक़सान उनका ही है. हर हाल में होगा भी.


मैं किसी भी तरह के, किसी भी तरफ़ के हत्यारे के न सिर्फ़ साथ नहीं हूं, बल्कि उसका खुला विरोधी हूं, चाहे जन्मना हिंदू हूं बेशक !

हत्यारों का कोई मज़हब नहीं होता, कोई ईमान नहीं होता ! वे संग-दिल होते हैं, इसलिए माफ़ी मांगने तक की तमीज़ नहीं होती उनमें. वे मुंह खोलते हैं, तो सड़ांध फैलने लगती है. प्रकृति ने कुछ जीव ऐसे भी बनाए हैं जो सड़ांध तक से आकृष्ट होते हैं. पर वे इंसान नहीं होते !

-मोहन श्रोत्रिय

विडंबना !



एक खलनायक जो कल चला गया, वास्तविक जीवन में नायकों से भी बड़ा नायक था. एक राजनीतिक नायक के रूप में पेश किया जा रहा व्यक्ति कोई क़सर नहीं छोड़ रहा यह साबित करने में कि वह मूलतः खलनायक है.

जो फ़िल्मों में खलनायक था, उसे हर आमोखास भावभीनी श्रद्धांजलि दे रहा है. जो राजनीति में नायक के रूप में पेश किया जा रहा है, उसे अधिकांश लोगों की नफ़रत ही मिल रही है. वह भय का संचार करने में दक्ष माना जाता है.

-मोहन श्रोत्रिय

Thursday 11 July 2013

ऐसे आसानी से नहीं छोड़ देंगी पार्टियां जातिवादी खेल खेलना...



हमारी प्रमुख पार्टियां राजनीतिक लाभ के लिए जातिवाद का खेल खेलना आसानी से बंद कर देंगी, यह उम्मीद करने का कोई ठोस सामाजिक आधार नज़र नहीं आता. जिस तरह से बसपा, भाजपा, सपा और कांग्रेस ने कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया है, तुरत-फ़ुरत, उससे ही संदेह पैदा होता है. जो कल तक विभिन्न जातियों के महा सम्मेलन आयोजित कर रहे थे, वे अचानक इस परिघटना को दुर्भाग्यपूर्ण मानने-घोषित करने लग जाएं, तो यह तो ज़ाहिर हो ही जाता है कि ये अपना तरीक़ा बदलने भर का मन बना रहे हैं. आयोजनों की अंतर्वस्तु के बदल जाने के संकेत ग्रहण करना जल्दबाज़ी होगी. राजनीतिक पार्टियों के चुनाव-अभियान-कौशल को कम करके आंकने की ग़लती भी.

कल प्रकाश जावडेकर ने तो ग़ज़ब ही कर दिया ! एक चर्चा में बार-बार कठघरे में खड़ा किए जाने की स्थिति में उन्होंने जनता के अधिसंख्य हिस्से के मतदान-मनोविज्ञान को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया. जैसे कि जातियां अपने मन से, अपने बूते पर इन सम्मेलनों का आयोजन करती हों. यानि जनता खुद चाहती है संगठित जाति के रूप में वोट डालना, और ये "बेचारी-निर्दोष-निस्स्वार्थ-निष्कपट-पार्टियां" तो जनता का मन रखने के लिए इन आयोजनों में शरीक होती हैं. यह तर्क वैसा ही है जैसा हमारे घटिया फ़िल्मकार देते हैं घटिया फ़िल्में बनाने के पक्ष में. कि वे वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं. जातिवाद की जड़ों को सींचने का काम राजनीतिक पार्टियों ने सर्वाधिक किया है, यह किसी से छुपा नहीं है. आगे आने वाला समय यह प्रमाणित कर देने वाला है कि सिर्फ़ कानूनी प्रावधानों/अंकुशों के चलते समाज नहीं बदल सकता.

बदल जाए तो बहुत खुशी होगी.




-मोहन श्रोत्रिय

Monday 8 July 2013

दोनों की नियति थी एक ही

तीर को आता देख अपनी ओर
फुदकी चिड़िया और
जा छुपी झुरमुट में

चक्राकार घूमती मछली को
नहीं थी उपलब्ध
यह सुविधा. वरना संपन्न नहीं हो पाता
स्वयंवर द्रौपदी का. मछली कर पाती
अनुसरण चिड़िया का
तो तय मानें बच गई होती द्रौपदी
पांच पतियों द्वारा दिए गए
जख्मों की आजीवन-टीस से.

मछली की नियति बन गई
नियति पांचाली की.

-मोहन श्रोत्रिय

पवित्रता का दौरा : हरिशंकर परसाई


निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं. निंदा खून साफ़ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है. निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं. निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है. संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं. 'मो सम कौन कुटिल खल कामी'- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है. संत बड़ा काइयां होता है. हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है.स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी. अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है. मेरा अंदाज़ है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं. मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे- आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है?

मैंने ध्यान नहीं दिया. उन्होंने फिर कहा- वह शराब पीता है. निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है. वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए. अब मुझे दया आ गई. उनका चेहरा उतर गया था. मैंने कहा- पीने दो. वे चकित हुए. बोले- पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?

मैंने कहा- हां, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक. उसके पीने से अपना कोई नुक़सान भी नहीं है. उन्हें संतोष नहीं हुआ. वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे. तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले- आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पांव डालते हैं या बायां? स्त्री के साथ रोज़ संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?

अब वे 'ही...ही' पर उतर आए. कहने लगे- ये तो प्राइवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब. मैंने कहा- वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राइवेट बात है. मगर इससे आपको ज़रूर मतलब है. किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएंगे- वह बड़ा दुराचारी है. वह उड़द की दाल खाता है. तनाव आ गया. मैं पोलाइट हो गया- छोड़ो यार, इस बात को. वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं. सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है. कहते हैं- तुमने मुझे अमर बना दिया. यहां तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूं.(ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी.) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे.

चेतना का विस्तार. हां, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूं. एक संपन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं. पीने के बाद वे 'प्रोलेतारियत' हो जाते हैं. कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं. वे यों भी भले आदमी हैं. पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते. मानवीयता उन पर रम के 'किक' की तरह चढ़ती-उतरती है. इन्हें मानवीयता के 'फ़िट' आते हैं- मिरगी की तरह. सुना है मिरगी जूता सुंघाने से उतर जाती है. इसका उल्टा भी होता है. किसी-किसी को जूता सुंघाने से मानवीयता का 'फ़िट' भी आ जाता है. यह नुस्खा भी आज़माया हुआ है. एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था. एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे(आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं. वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रात: समय की वायु को 'सेवन करत सुजान' होते हैं). यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं. उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेज़ी बोलने लगे. कबीर ने कहा है- ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’. यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेज़ी बोले. नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था. हमने कहा- अब इन्हें मत भेजो. ये अंग्रेज़ी बोलने लगे. पर उनकी चेतना का विस्तार ज़रा ज़्यादा ही हो गया था. कहने कहने लगे- नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा. 'अंग्रेज़ी' भाषा का कमाल देखिए. थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज़ को खूबसूरत कह रहे हैं. जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए. यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है. रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है. ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है. कहा-इंडिया इज़ ए ब्यूटीफुल कंट्री. और छुरी-कांटे से इंडिया को खाने लगे. जब आधा खा चुके, तब देशी खाने वालों ने कहा, अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो. तुमने ‘इंडिया’ खा लिया. बाकी बचा 'भारत' हमें खाने दो. अंग्रेज ने कहा- अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं. हम तो जाते हैं. तुम खाते रहना. यह बातचीत 1947 में हुई थी. हम लोगों ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई. बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफ़र ऑफ़ पॉवर है- सत्ता का हस्तांतरण. मगर सच पूछो तो यह 'ट्रांसफ़र ऑफ़ डिश' हुआ- थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई. वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे. ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं.

फिर राजनीति आ गई. छोडि़ए. बात शराब की हो रही थी. इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी 'रिस्क' पर. नुक़सान की ज़िम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी. मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था. मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज़ और दुखी था. मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं. वह शराब से स्त्री पर आ गया- और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं.

मैंने कहा- हां, यह बड़ी खराब बात है.

उसका चेहरा अब खिल गया. बोला- है न?

मैंने कहा- हां खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है.

वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया. सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊंचे दर्जे के 'स्कैंडल' में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा. वह उठ गया. और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झांकने के लिए होती है. कितने लोग हैं जो 'चरित्रहीन' होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे 'चरित्रवान' होकर मर जाते हैं. आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झांककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है. किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए. ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं. हर आते-जाते ठेले को रोककर झांककर पूछते हैं- तेरे भीतर क्या छिपा है?

एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं- उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए. वह चरित्रहीन है. वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें 'चरित्रहीन' होने का चांस नहीं दे रही है. उसे डांटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे. जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है- ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी. वह धोखा नहीं करता, कालाबाज़ारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता. एक स्त्री से उसकी मित्रता है. इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया. बड़ा सरल हिसाब है अपने यहां आदमी के बारे में निर्णय लेने का. कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए. वे परेशान होंगे. बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है. तब उन्होंने कहा होगा- जयदा झंझट में मत पड़ो. मामला सरल कर लो. सारी नैतिकता को समेटकर टांगों के बीच में रख लो.

कभी नदी...कभी चट्टान...और कभी रेत !


यह अकारण नहीं था 
कि बहुत पसंद था उसे रूपक नदी का
रेत का
चट्टान का.


जब चाहे वह बहने लगती थी
नदी की मानिंद हर उसको सींचती-हर्षाती 
जो भी आ जाता था उसके संपर्क में.


ज़रूरत पड़ने पर वह नदी होते हुए भी
तब्दील कर सकती थी खुद को खुरदरी-नुकीली चट्टान में
बददिमाग़ लोगों के 
बदन को ज़ख्मी कर देने 
और इस तरह 
उनका मान-मर्दन कर देने में सक्षम.


ऐसे ही जब चाहे वह धर सकती थी रूप
रेत का चिलचिलाती धूप में जलती-पजराती रेत का 
दंडित करने के लिए 
नियम-भंग करने का दुस्साहस 
दिखाने वालों को.


मैं नदी का मुरीद था
और नदी होना मूल स्वाभाव था उसका.


-मोहन श्रोत्रिय

Tuesday 2 July 2013

अमरीकी खुफिया तंत्र का क्षय हो


अमरीकी कारगुज़ारियों के पक्ष में भारत सरकार का इस तरह कूद पड़ना शर्मनाक है. यह अमरीकी दादागिरी और धौंसपट्टी को "वैधता" प्रदान करने से किसी तरह कम नहीं है. सरकार के जमीर को और देश के आत्मसम्मान को गिरवी रख देने जैसा कृत्य है यह. इसकी घनघोर निंदा होनी चाहिए.


अमरीका अपने हितों को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से दुनिया भर में कुछ भी करते फिरने का जो लाइसेंस दिखाता फिरता है, अपने हितों पर आंच आने की स्थिति में भी न केवल उसका विरोध न करना, बल्कि उसे जायज़ भी ठहराना इसके आलावा क्या दर्शा सकता है कि भारत सरकार "रीढ़-विहीन" है.

यह विशेष रूप से चिंताजनक इसलिए भी है कि अमरीका दुनियाभर में पिछली सदी के शीतकालीन तनाव के मुहावरों के प्रचलन को बढ़ावा देने की हर संभव कोशिश में लगा हुआ है, और विकासशील देशों के दक्षिणपंथी / वाम-विरोधी बौद्धिक तत्वों को अपनी गिरफ़्त में लेने के नए-नए तरीक़े भी काम में ले रहा है. इन तत्वों का यकायक आक्रामक और उग्र हो उठना इसलिए तनिक भी विस्मयकारी नहीं है.

-मोहन श्रोत्रिय

कात रे मन...कात : मायामृग की रचनाधर्मिता



मायामृग स्नेही मित्र हैं. अभी थोड़ी देर पहले उनकी तीन किताबों की सौगात मिली है. ज़ाहिर है, उनसे ही. “जमा हुआ हरापन” कविता संग्रह है. एक “चुप्पा शख्स की डायरी” नए किस्म का डायरी-प्रयोग है. और “कात रे मन... कात” बीज वाक्यों का संग्रह है, "अप्रकट" से संवाद की शैली में . डायरी उन्होंने फ़ेसबुक पर साझा की थी, धारावाहिक रूप से. बहुत पसंद भी की गई थी. मैंने भी की थी.

“कातरे मन...कात...कातेगा तो बुनेगा... बुनेगा तो ओढ़ेगा...सब ओढ़कर जीते हैं, तू भी ओढ़कर जी” बेहद दिलचस्प औरअर्थवान पंक्तियों का यह संग्रह एक सांस में पढ़ लेने वाली किताब है. इसकी खूबी है वह विशिष्ट अंदाज़े-बयां जो मायामृग ने शब्दों से खेलते-खेलते विकसित कर लिया है.या मुझे ही ऐसा लगता है? अब यह उनकी पहचान भी बन गया है. दो-चार नमूने देखिए :

हंसते हैं दांत वाले
रोएंगे आंख वाले.

हर बात पर हैरान होती है...
स्त्री है कि अचरज...

इक जंग है भीतर...जिसमें हार तय
है...इक जंग है बाहर...जिसमें जीत
की चाह नहीं...तुम कहो तो युद्धविराम
जारी रखाजाए...
कहते-कहते उघड़ सकता था
सच...तुम अगर तुरपाई ना
जानते... या तुम्हारे हाथ में
सुई-धागा न होता.
सुबह मंदिर के सामने से निकला तो
अज़ान सुनाई दी...अब मस्जिद के
सामने से निकल रहा हूं तो आरती
गूंज रही है...मार डालेंगे मुझे दोनों
तरफ़ वाले.

ऐसे ही लिखते रहें, मायामृग, अपने खिलंदड़ अंदाज़ में !

-मोहन श्रोत्रिय

"मैं लेखक छोटा हूं, पर संकट बड़ा हूं."


"हमारी हज़ारों साल की महान संस्कृति है और यह समन्वित संस्कृति, यानी यह संस्कृति द्रविड़, आर्य, ग्रीक, मुस्लिम आदि संस्कृतियों के समन्वय से बनी है. इसलिए स्वाभाविक है कि महान समन्वित संस्कृति वाले भारतीय व्यापारी इलायची में कचरे का समन्वय करेंगे, गेहूं में मिटटी का, शक्कर में सफ़ेद पत्थर का, मक्खन में स्याही सोख काग़ज़ का. जो विदेशी हमारे माल में "मिलावट" की शिकायत करते हैं, वे नहीं जानते कि यह "मिलावट" नहीं "समन्वय" है जो हमारी संस्कृति की आत्मा है. कोई विदेशी शुद्ध माल मांगकर भारतीय व्यापारी का अपमान न करे."

"अगर दो साइकिल सवार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़ें तो उनके लिए यह लाज़िमी हो जाता है के वे उठकर सबसे पहले लडें, और फिर धूल झाडें. यह पद्धति इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि गिरकर न लड़ने वाला साइकिल सवार "बुज़दिल" माना जाता है, "क्षमाशील संत" नहीं."

"जब विद्यार्थी कहता है कि उसे "पंद्रह दिए", उसका अर्थ होता है कि उसे"पंद्रह नंबर "मिले" नहीं हैं, परीक्षक द्वारा "दिए गए" हैं. मिलने के लिए तो उसे पूरे नंबर मिलने थे. पर "पंद्रह नंबर" जो उसके नाम पर चढ़े हैं, सो सब परीक्षक का अपराध है. उसने उत्तर तो ऐसे लिखे थे कि उसे शत-प्रतिशत नंबर मिलने थे, पर परीक्षक बेईमान हैं जो इतने कम नंबर देते हैं. इसीलिए, कम नंबर पाने वाला विद्यार्थी "मिले" की जगह "दिए" का प्रयोग करता है.''

"बेचारा आदमी वह होता है जो समझता है कि मेरे कारण कोई छिपकली भी कीड़ा नहीं पकड़ रही है. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है सब मेरे दुश्मन हैं, पर सही यह है कि कोई उस पर ध्यान ही नहीं देता. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है कि मैं वैचारिक क्रांति कर रहा हूं, और लोग उससे सिर्फ़ मनोरंजन करते हैं. वह आदमी सचमुच बड़ा दयनीय होता है जो अपने को केंद्र बना कर सोचता है."


-हरिशंकर परसाई

Monday 1 July 2013

आत्मीयता में पगी कविताएं

छूटे गांव की चिरैया- यह शीर्षक है डॉ. मोहन कुमार नागर के कविता संग्रह का. अभी थोड़ी देर पहले ही मिला है.

एकदम सहज-सरल भाषा में लिखी आत्मीयता से भरी हुई कविताएं हैं इसमें. इनकी विषयवस्तु इन्हें अलग करती है, इन दिनों आ रही अन्य कविताओं से. इनकी टोन भी.
घर-परिवार (और उसकी खिड़की से झांकते समाज) के इर्द-गिर्द घूमती ये कविताएं रिश्तों के महीन धागे से बुनी हुई हैं. "नानी" सर्वाधिक कविताओं में आती है, और कहना होगा कि ढंग से आती है, अपनी पूरी गरिमा और ऊष्मा के साथ. नानी के बाद मां का स्थान बनता है. कवि का संघर्षमय बचपन और यौवन भी, नानी की बदौलत ही एक अत्यंत उज्ज्वल वर्तमान हो पाया है, ऐसा लगता है. इसलिए नानी कवि के लिए "बच्ची" भी बन जाती है.

जल्दी ही इनकी कुछ और कविताएं, अपनी एक टीप के साथ, यहां पर साझा करूंगा. अभी तो सिर्फ़ बानगी के तौर पर ये दो छोटी-सी कविताएं देखिए.

बच गई नानी
इस बार भी
नानी की झिकिर-झिकिर से तंग आकर
लौट गया कबाड़ी
फिर न आने की हज़ार क़समें खाता...

इस बार भी
खूदिया साड़ी से लेकर
ज़ंग लगी सुई तक-
बच गई नानी.


लोरी- 3
सम पर सम मिलते ही
लोरी युगलगीत हो गई

मां
सोती-सोती गाती रही
मुनिया
गाते-गाते सो गई.

कवि को बधाई. ज़ाहिर है, कविता संग्रह के लिए आभार भी.


-मोहन श्रोत्रिय