खून क्या सच में बोलता है
सिर पर चढ़कर?
क्या मृतकों की कराहें
और परिवारी जन की आहें भी
कोई असर दिखाती हैं अपना?
तो फिर यह बात क्यों नहीं करती परेशान
उन्हें जिनके हाथ रंगे हैं खून से अभी तक
मामला चाहे ग्यारह बरस पहले का हो
या उनतीस बरस पहले का?
लगता तो नहीं कि खून
सिर पर चढ़कर बोलता है...
अब तक तो नहीं बोला
एक भी मामले में.
सच तो यह है कि उल्टा ही हुआ
दोनों बार !
राष्ट्र की सामूहिक अंतश्चेतना
मौन क्यों रह गई थी?
दोनों बार दरिंदगी को वैधता ही मिली थी.
क्यों? आखिर क्यों?
-मोहन श्रोत्रिय
कवि हृदय को भेदते ये प्रश्न जाने कब उत्तरित होंगे... जाने कब जागेगी राष्ट्र की सामूहिक अन्तश्चेतना?
ReplyDeleteचिंता एवं चिंतन का समय है यह... कोई तो हल निकले!
खून है कहाँ जो सिर चढ कर बोले क्योंकि जो बोलता है असल में मृतक का नही हंता का होता है जिसमें कभी कहीं न कहीं लालिमा हुआ करती थी । इस क्यों का ही तो उत्तर नही मिलता आजकल । बहुत ही विचारणीय कविता ।
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