आज का एक दिलचस्प वाकया साझा करूं?
मैं अपना आधार कार्ड बनवाने गया था, मानसरोवर-स्थित पोस्ट ऑफ़िस तक. कार बैक कर के, मुख्य द्वार से निकलने को ही था कि एक बड़ी-सी गाड़ी आकर रुकी. आगे जो दोनों बैठे थे, दोनों ने लगभग एक साथ नमस्ते करते हुए, रुकने का इशारा किया. दोनों ही कोई चालीस बरस पहले मेरे विद्यार्थी रहे थे. भाजपा में उनकी ठीक-ठाक पहचान बन चुकी है. दोनों में से एक तो एकाधिक बार चुनाव भी जीत चुके हैं, विधानसभा का. दूसरे, सिर्फ़ एक बार. उनकी खूबी यह है कि जग-ज़ाहिर विचार-भेद के बावजूद वे दोनों ही सार्वजनिक तौर पर मेरा परिचय अपने प्रिय शिक्षक के तौर पर कराने में संकोच नहीं करते हैं. बातचीत का सिलसिला चलने पर मैंने उन्हें बधाई दी कि अब तो उनकी पार्टी का राज आने वाला ही है. टीवी चैनलों ने तो जीत की घोषणा कर भी दी है. वे यह सब सुनकर खुश हुए हों, ऐसा मुझे नहीं लगा. इसके ठीक उलट, उनका कहना था : "ऐसा हो जाए, तब तो कहने ही क्या ! पर सच्ची बात तो यह है गुरूजी कि हमें तो खुद को पता नहीं कि जयपुर की सीटों को छोड़कर हमारी एकदम पक्की जीत वाली सीट कौनसी हैं. लगे हुए तो हैं हम भी, तन-मन से, पर आपसे झूठ नहीं बोलेंगे, अपने बारे में ही पता नहीं कि टिकट मिलेगा या नहीं, और मिला तो कहां से मिलेगा ! यह भी संभव है कि जहां हमारा काम लोगों को दिखता भी है, वहां किसी और को टिकट मिल जाए. खींच-तान तो चल ही रही है." साथ ही उन्होंने यह भी आशंका व्यक्त की कि "जादूगर"(मुख्यमंत्री) ने कहीं समय से पहले चुनाव करा लिए, तब तो कबाड़ा ही हो जाएगा.
ऐसे में, मैं उन्हें शुभकामनाएं ही दे सकता था, सो दे दीं. घर आने को भी कहा. उन्होंने सिर हिला कर हां का संकेत भी दे दिया.
रास्ते में मैं यही सोचता रहा कि आखिर ये चैनल वाले "सर्वे" करते कहां हैं ! इनकी विश्वसनीयता इतनी कम क्यों हो गई है कि जिन्हें ये जीता हुआ बताते हैं, वे भी इनकी बातों पर भरोसा करके प्रसन्न क्यों नहीं हो पाते ! और यह भी कि "जादूगर" को वह गणित पता है क्या, जो समय-पूर्व चुनाव में उसकी जीत पक्की कर सके ! तो फिर क्या उसके मन में भी कुछ चल रहा है क्या, जल्दी चुनाव कराने के बारे में?
-मोहन श्रोत्रिय
मैं अपना आधार कार्ड बनवाने गया था, मानसरोवर-स्थित पोस्ट ऑफ़िस तक. कार बैक कर के, मुख्य द्वार से निकलने को ही था कि एक बड़ी-सी गाड़ी आकर रुकी. आगे जो दोनों बैठे थे, दोनों ने लगभग एक साथ नमस्ते करते हुए, रुकने का इशारा किया. दोनों ही कोई चालीस बरस पहले मेरे विद्यार्थी रहे थे. भाजपा में उनकी ठीक-ठाक पहचान बन चुकी है. दोनों में से एक तो एकाधिक बार चुनाव भी जीत चुके हैं, विधानसभा का. दूसरे, सिर्फ़ एक बार. उनकी खूबी यह है कि जग-ज़ाहिर विचार-भेद के बावजूद वे दोनों ही सार्वजनिक तौर पर मेरा परिचय अपने प्रिय शिक्षक के तौर पर कराने में संकोच नहीं करते हैं. बातचीत का सिलसिला चलने पर मैंने उन्हें बधाई दी कि अब तो उनकी पार्टी का राज आने वाला ही है. टीवी चैनलों ने तो जीत की घोषणा कर भी दी है. वे यह सब सुनकर खुश हुए हों, ऐसा मुझे नहीं लगा. इसके ठीक उलट, उनका कहना था : "ऐसा हो जाए, तब तो कहने ही क्या ! पर सच्ची बात तो यह है गुरूजी कि हमें तो खुद को पता नहीं कि जयपुर की सीटों को छोड़कर हमारी एकदम पक्की जीत वाली सीट कौनसी हैं. लगे हुए तो हैं हम भी, तन-मन से, पर आपसे झूठ नहीं बोलेंगे, अपने बारे में ही पता नहीं कि टिकट मिलेगा या नहीं, और मिला तो कहां से मिलेगा ! यह भी संभव है कि जहां हमारा काम लोगों को दिखता भी है, वहां किसी और को टिकट मिल जाए. खींच-तान तो चल ही रही है." साथ ही उन्होंने यह भी आशंका व्यक्त की कि "जादूगर"(मुख्यमंत्री) ने कहीं समय से पहले चुनाव करा लिए, तब तो कबाड़ा ही हो जाएगा.
ऐसे में, मैं उन्हें शुभकामनाएं ही दे सकता था, सो दे दीं. घर आने को भी कहा. उन्होंने सिर हिला कर हां का संकेत भी दे दिया.
रास्ते में मैं यही सोचता रहा कि आखिर ये चैनल वाले "सर्वे" करते कहां हैं ! इनकी विश्वसनीयता इतनी कम क्यों हो गई है कि जिन्हें ये जीता हुआ बताते हैं, वे भी इनकी बातों पर भरोसा करके प्रसन्न क्यों नहीं हो पाते ! और यह भी कि "जादूगर" को वह गणित पता है क्या, जो समय-पूर्व चुनाव में उसकी जीत पक्की कर सके ! तो फिर क्या उसके मन में भी कुछ चल रहा है क्या, जल्दी चुनाव कराने के बारे में?
-मोहन श्रोत्रिय
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