मैं अपना लिखा कहीं भी नहीं भेजता, छपने के लिए. आप कह सकते हैं कि मुझे भरोसा ही नहीं होता होगा कि मेरा लिखा-भेजा कहीं छप भी सकता है. कोई मित्र मंगा या लिखवा लेते हैं, तो भेज देता हूं. उन मित्रों की कृपा ही कहूंगा कि वे बिना किसी कतर-ब्योंत के उसे छाप भी देते ही हैं. यह कहना इसलिए ज़रूरी लगा कि अपने आपको महावीर प्रसाद द्विवेदी समझने वाले एक-दो संपादकों के बारे में तो यही सुनने को मिलता रहता है कि वे (उनके पास छपने के लिए भेजे गए) दूसरों के लिखे हुए को पढ़ने से पहले ही काट-छांट करने के अपने इरादे को अधिकार के रूप में रेखांकित कर देते हैं. यह अलग बात है कि ऐसे संपादकों के अख़बारों ने मेरे ब्लॉग "सोची-समझी" से मुझे बताये बगैर मेरी ब्लॉग प्रविष्टियों को अविकल रूप से छापा है, कम-से-कम आधा दर्ज़न बार. ये दोनों अखबार मेरे पास आते नहीं. भला हो मित्रों का जो पढ़कर सूचना तो दे देते थे.
हां, यह “दो बार” की बात तो रही ही जा रही है. नॉएडा में रहते हैं एक फ़ेसबुक मित्र, राजेंद्र शर्मा. 2013 के पुस्तक मेले से पहले, उनका संदेश आया कि वह विश्वविख्यात चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसेन पर लिखी कविताओं का एक संकलन संपादित कर रहे हैं. मेरे पास कोई कविता हो, तो भेज दूं. मैंने एक कविता उन्हें भेज दी. उनका तुरंत मेल आया कि कविता उन्हें खूब पसंद आई है, और वह इसे संकलन में शामिल कर रहे हैं.
कुछ समय बाद, यानि मेला संपन्न हो जाने के बाद, मेरी कई मेल्स के उत्तर में, उन्होंने इतना भर बताया कि संकलन शीघ्र ही छप जाएगा. तब से अब तक क़रीब सोलह महीने बीत गए. अब वह मेल का भी जवाब देना मुनासिब नहीं समझते. मैंने इस कविता को फ़ेसबुक के ड्राफ़्ट-बॉक्स में सुरक्षित कर रखा था. पिछले साल मेरा अकाउंट हैक हो जाने के साथ ही वहां सुरक्षित सारी सामग्री लुप्त हो गई. आज सुबह, मुझे अचानक खयाल आया कि मैंने कविता उन्हें मेल की थी, तो इसे “सेंट मेल” में तो होना ही चाहिए. मेल बॉक्स खंगाला, तो कविता मुझे मिल गई. खुशी हुई कि अब बार-बार उनको संदेश भेजकर निराश होने, और होते चले जाने से बच गया!
दूसरा वाकया फ़ेसबुक मित्र "रहे" राकेश श्रीमाल से जुड़ा है. उन्हीं दिनों उनका भी एक मेल आया कि वह साहित्यिकों द्वारा साहित्येतर विषयों पर लिखे डायरी-अंशों का संकलन निकाल रहे हैं. पुस्तक मेला शुरू होने से पहले ही आ जाएगा. मैंने उन्हें अलग-अलग मुद्दों से जुड़ी डायरी-प्रविष्टियां भेज दीं. कहना होगा कि उन्हें भी मेरा लिखा पसंद आया, और प्रस्तावित संकलन के स्तर के अनुरूप लगा. मुझे आज तक पता नहीं कि वह संकलन अभी तक भी छपा है या नहीं. मेरे किसी भी संदेश का जवाब देना उन्हें भी मुनासिब नहीं लगा. संकलन छप गया हो, और फिर भी मुझे न बताया गया हो, तब तो और भी बुरा !
समझ नहीं आता कि एक लाइन का जवाब देने में इतना ज़ोर क्यों आता है मित्रों को !
-मोहन श्रोत्रिय
क्या कह सकते हैं आज के बदलते ट्रैंड के विषय में
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