Wednesday, 26 June 2013

क्या-क्या बन जाना चाहते हैं बच्चे !


छोटे-छोटे बच्चे थे सब जो
खेल रहे थे पार्क में
उनके साथ थी एक युवती
गुरु-गंभीर
चश्मे में से अलग तरह से झांकती थीं
उसकी आंखें सम्मोहित-सी करती बच्चों को.
खेल-खेल में वह पूछ रही थी उनसे
क्या बनकर बहुत खुश होंगे वे !

बच्चों ने प्रश्न को अपनी तरह से समझा
और एक-एक करके बताने लगे अपनी इच्छा
टोका नहीं युवती ने
यह भी पता चलने नहीं दिया कि उसे
अलग तरह के उत्तरों की थी अपेक्षा
वह खुश थी कि बच्चे बोल रहे हैं
कि बच्चे सपने देखते हैं
कि बच्चे बेझिझक अपने सपनों को बांट रहे हैं औरों के साथ.

बच्चे भी ग़जब थे
कुछ-कुछ अजब भी थे
एक बन जाना चाहता था पंखा अपनी मां के लिए
कि वह हाथ से हवा झल सके भीषण गर्मी मे
जब बिजली चली गई हो
दूसरे का मन था ठंडे पानी का सरोवर बन जाने का
कि उसके सपनों की सफ़ेद बतखें तैरती रह सकें निर्बाध
तीसरा तितली बन जाना चाहता था कि रह सके निरंतर
फूलों के संग-साथ
चौथी, जो प्यारी-सी छुटकी थी बन जाना चाहती थी तारा
स्थित हो जाना चाहती थी एकदम उस तारे के पास
जिसके बारे में बताया गया था उसे कि वह तारा तो
उसकी मां का ही रूप है, बदला हुआ
और इसीलिए जब भी वह देखती थी उस तारे को तो उसमें
नज़र आती थी उसे उसकी मां
बिलकुल वैसी ही जैसी थी वह जब तक वह यहां थी
(छुटकी का नहीं हुआ था परिचय "मरना" नामक क्रिया से).

आगे भी चलता निश्चय ही यह सिलसिला
रोचक-मनमोहक-ज्ञानवर्धक
पर इतने में ही बज उठा अलार्म
गुस्से में उठा मैं इस दुर्लभ सपने के टूट जाने से
पर निकलना तो था ही मुझे प्रातःकालीन सैर पर.

टहलते-टहलते गुस्से की जगह ले ली
विरल अनुभव से गुज़रने के तोष ने.  

-मोहन श्रोत्रिय

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