Wednesday, 21 August 2013

तो पाखंड के खिलाफ़ क़ानून बनाने के लिए डॉ, दाभोलकर की शहादत ज़रूरी थी?


2005 में महाराष्ट्र विधान सभा ने जिस अंधविश्वास-पाखंड-प्रसार विधेयक को पारित कर दिया था, वह तब से अब तक लटका क्यों रह गया? वह लटका इसलिए रह गया क्योंकि भाजपा-शिवसेना ने विधान परिषद में उसमें अडंगा लगा दिया था. और सरकार उसके बाद इस विधेयक को भूल गई.
भाजपा-शिवसेना को क्या डर था इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद क़ानून की शक्ल अख्तियार कर लेने से? यही कि इन दोनों का वोट बैंक इसके खिलाफ़ था. हिंदू संस्कृति की दुहाई देने वाली शक्तियां वैसी स्थिति में अपना धंधा चौपट हो जाने के खतरे को अपने सिर के ऊपर मंडराती देख रही थीं. ये शक्तियां एक तरफ़ क़ानून बनाने की प्रक्रिया में अड़चनें खड़ी कर रही थीं, तो दूसरी तरफ़, डॉ दाभोलकर को अपनी गतिविधियों पर विराम लगाने की धमकियां दे रही थीं. यह भी कह रही थीं कि ऐसा नहीं हुआ तो उनका अंत वैसा ही होगा जैसा गांधी का हुआ था. और जब अब डॉ दाभोलकर की हत्या हो ही गई है तो यह कोई बहुत क़यास लगाने का मामला रह नहीं जाता कि ऐसा किसने किया होगा.

यह सिर्फ़ महाराष्ट्र के लिए दुख और चिंता का विषय नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए है. डॉ दाभोलकर जो अभियान चलाए हुए थे, उसके निहितार्थों को ढंग से समझा जाए, तो यह साफ़ हो जाएगा कि वह वैज्ञानिक सोच विकसित करने और पाखंड पर चोट करने संबंधी संवैधानिक दायित्वों का ही निर्वाह कर रहे थे. यानि वह जो कुछ भी कर रहे थे, वह तो राज्य को अपने आप करना चाहिए था. अपने आपको एक आधुनिक राज्य के रूप में प्रस्तुत करने के लिए !

महाराष्ट्र सरकार अब अध्यादेश लाने की बात कर रही है. यह काम तो पिछले आठ सालों में कभी भी हो जाना चाहिए था. इस कायराना हत्या के बाद तो सरकार को ऐसे तमाम लोगों को सुरक्षा प्रदान करने को भी सुनिश्चित करना होगा. और धमकियों देने वालों, तथा धमकियों को क्रियान्वित करने वालों के खिलाफ़ कड़े क़दम भी उठाने होंगे. यह भी बताना होगा कि समाज को आगे ले जाने वालों (उदाहरण के लिए कबीर कलामंच) के काम से जुड़े लोगों को जेल में डालने में तो सरकार कोई वक़्त खोती ही नहीं, तो फिर तथाकथित संस्कृति मंचों की धमकियों का संज्ञान लेने में कोताही कैसे बरत जाती है?

कहने की ज़रूरत नहीं कि गांधी के बाद, डॉ दाभोलकर पहले व्यक्ति हैं, जो पुनरुत्थानवादी-सांप्रदायिक तत्वों के हाथों शहीद हुए हैं. यह खतरे का संकेत है, भारत सरकार के लिए भी. यह वह नया भारत तो कहीं से नहीं है, जिसका संकल्प संविधान-निर्माताओं ने लिया था. चेत सको तो चेत जाओ !

-मोहन श्रोत्रिय

2 comments:

  1. यह वह नया भारत तो कहीं से नहीं है, जिसका संकल्प संविधान-निर्माताओं ने लिया था.
    ***
    इस विकट काल से कैसे निकलेंगे हम...

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  2. How can an anti superstition bill work? it is an absurd thought to curb it by law.

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