Thursday 13 September 2012

सबसे ख़तरनाक (पाश)

विडंबना देखिए कि इस महान कवि की इस महान कविता को एनसीईआरटी की ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक से निकलवाने की मांग राज्यसभा में भाजपा के सांसद रविशंकर प्रसाद सिंह ने की थी, जो पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी होने के साथ-साथ पार्टी के प्रवक्ता भी हैं. इनकी यह मांग क्या पार्टी की मांग के रूप में नहीं देखी जानी चाहिए? खालिस्तानी उग्रवादियों के खि़लाफ़ खम ठोक कर खड़े होने वाले, और उन्हीं की गोलियों का निशाना बने इस परम देशभक्त, बड़े कवि के बारे में इस पार्टी व इसके नेताओं की यह समझ साहित्य-संस्कृति के लिए कितनी ख़तरनाक साबित हो सकती है !

पाश की कविता
सबसे ख़तरनाक
 
श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना - बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना - बुरा तो है
भींचकर जबड़े बस वक्‍त काट लेना - बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है
तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो
तुम्हारी नज़र के लिए रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वह आंख होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी ठण्डी बर्फ़ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को
मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अंधेपन की
भाप पर मोहित हो जाती है
जो रोज़मर्रा की साधारणता को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दोहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है

सबसे ख़तरनाक वह चांद होता है
जो हर हत्‍याकाण्ड के बाद
वीरान हुए आंगनों में चढ़ता है
लेकिन तुम्हारी आंखों में मिर्ची की तरह नहीं गड़ता है

सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है
तुम्हारे कान तक पहुंचने के लिए
जो विलाप को लांघता है
डरे हुए लोगों के दरवाज़े पर जो
गुण्डे की तरह हुंकारता है

सबसे ख़तरनाक वह रात होती है
जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर
जिसमें सिर्फ़ उल्लू बोलते गीदड़ हुआते
चिपक जाता सदैवी अंधेरा बंद दरवाज़ों की चौगठों पर

सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये
और उसकी मुर्दा धूप की कोई फांस
तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाये

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

(कविता विनायक काले की दीवार से, साभार. वहां "शेयर" का विकल्प उपलब्ध नहीं था.)

यह दौर , दिशाहारा निष्ठाओं का...

अभी नही आया है
समय कि मेरी आवाज़
पर जड़े जा सकें ताले.

माना कि यह दौर है
बेहद निर्मम और सटीक
पर्याय भी
कृतघ्नता का

दिशाहारा निष्ठाओं का
और विष-बेल की तरह
पल-पल बढ़ती स्वार्थपरता का !

फिर भी बहुत कुछ बचा है
ज़रूरत है जिसे
सहेजने-संवारने की !
कनफोडू शोर में
सबसे तेज़ आवाज़ें
हो सकती हैं बेशक खुद को
प्रचारित करने का सुगम
मार्ग अपनाने वालों की.
पर ये आवाज़ें दीर्घजीवी
नहीं हो सकतीं. क़तई नहीं
कभी किसी हाल में नहीं.
कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं होता
गाल बजाने वालों
और मदारियों
के बीच. दोनों की सफलता
बन सकती है बायस
अल्पजीवी तोष का ही !
न कम, न ज़्यादा.

चुनौतियों से जूझने का
होता है अपना ही मज़ा
भरोसा हो बस
अपनी नीयत पर
अपनी क्षमताओं पर
और गंतव्य की दूरी
तथा पहुंचने की अनिश्चितता
के बावजूद संगी-साथी बने हैं जो
उनके अविचल-अविकल
साथ-संकल्प पर.

कठिन से कठिन रास्ते और
बनैले पशुओं से आबाद
बीहड़ जंगल भी
हो जाते हैं पार
भरोसेमंद साथियों के साथ
वे चाहे कम हों संख्या में.
ऐसे साथी तो कम ही होंगे
पर कहीं बेहतर होंगे
भानुमती के कुनबे से !

-मोहन श्रोत्रिय

Monday 10 September 2012

मुक्तिबोध की कविताएं

मुक्तिबोध की पुण्‍यतिथि के मौक़े पर उनकी तीन कविताएं तथा शमशेर और श्रीकांत वर्मा की संक्षिप्‍त टिप्‍पणियां. 
"मुक्तिबोध का सारा जीवन एक मुठभेड़ है. उनका साहित्य भी उस यथार्थ से मुठभेड़ की एक अटूट प्रक्रिया है जिससे जूझते हुए वह नष्ट हो गए.
हर रचना, उनके लिए, एक भयानक शब्दहीन अंधकार को - जो आज भी भारतीय जीवन को घेरे हुए है - लांघने की एक कोशिश थी. सारा इतिहास उनके लिए एक चुनौती था. मध्यवर्ग इस इतिहास की गुत्थी है, जिसे मुक्तिबोध समझना-सुलझाना चाहते थे. उनके चारों ओर मध्यवर्ग का नैराश्य, कुंठा, अवसाद, आत्म-वंचना, आत्म-परस्ती थी. इस संकट को, मध्यवर्ग के इस संकट को जितना मुक्तिबोध ने समझा किसी अन्य कवि ने नहीं..."

-श्रीकांत वर्मा
"मुक्तिबोध के साहित्य में हमारे संस्कारों को संवारने और उन्हें ऊंचा उठाने की बड़ी शक्ति है. वह हम मध्यवर्गीय पाठकों की दृष्टि को साफ़ करता है, समझ बढ़ाता है."
-शमशेर
"अब अभिव्यक्ति के ख़तरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब...
पहुंचना ही होगा दुर्गम
पहाड़ों के पार."

-मुक्तिबोध

पूंजीवादी समाज के प्रति

इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि

इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।

चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन

मुझे नहीं मालूम

मेरी प्रतिक्रियाएं
सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ
सच, हूं मात्र मैं निवेदन-सौंदर्य

सुबह से शाम तक
मन में ही
आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूं
अपनी ही काटपीट

ग़लत के ख़िलाफ़ नित सही की तलाश में कि
इतना उलझ जाता हूं कि
ज़हर नहीं
लिखने की स्याही में पीता हूं कि
नीला मुंह...
दायित्व-भावों की तुलना में
अपना ही व्यक्ति जब देखता
तो पाता हूं कि
खुद नहीं मालूम
सही हूं या गलत हूं
या और कुछ
 

सत्य हूं कि सिर्फ़ मैं कहने की तारीफ़
मनोहर केंद्र में
खूबसूरत मजे़दार
बिजली के खंभे पर
अंगड़ाई लेते हुए मेहराबदार चार
तड़ित-प्रकाश-दीप...
खंभे के अलंकार!!

सत्य मेरा अलंकार यदि, हाय
तो फिर मैं बुरा हूं.
निजत्व तुम्हारा, प्राण-स्वप्न तुम्हारा और
व्यक्तित्व तड़ित्-अग्नि-भारवाही तार-तार
बिजली के खंभे की भांति ही
कंधों पर रख मैं
विभिन्न तुम्हारे मुख-भाव कांति-रश्मि-दीप
निज के हृदय-प्राण
वक्ष से प्रकट, आविर्भूत, अभिव्यक्त
यदि करता हूं तो....
दोष तुम्हारा है

मैंने नहीं कहा था कि
मेरी इस ज़िंदगी के बंद किवाड़ की
दरार से
रश्मि-सी घुसो और विभिन्न दीवारों पर लगे हुए शीशों पर
प्रत्यावर्तित होती रहो
मनोज्ञ रश्मि की लीला बन
होती हो प्रत्यावर्तित विभिन्न कोणों से
विभिन्न शीशों पर
आकाशीय मार्ग से रश्मि-प्रवाहों के
कमरे के सूने में सांवले
निज-चेतस् आलोक

सत्य है कि
बहुत भव्य रम्य विशाल मृदु
कोई चीज़
कभी-कभी सिकुड़ती है इतनी कि
तुच्छ और क्षुद्र ही लगती है!!
मेरे भीतर आलोचनाशील आंख
बुद्धि की सचाई से
कल्पनाशील दृग फोड़ती!!

संवेदनशील मैं कि चिंताग्रस्त
कभी बहुत कुद्ध हो
सोचता हूं
मैंने नहीं कहा था कि तुम मुझे
अपना संबल बना लो
मुझे नहीं चाहिए निज वक्ष कोई मुख
किसी पुष्पलता के विकास-प्रसार-हित
जाली नहीं बनूंगा मैं बांस की
चाहिए मुझे मैं
चाहिए मुझे मेरा खोया हुए
रूखा सूखा व्यक्तित्व

चाहिए मुझे मेरा पाषाण
चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन
कौन हो कि कहीं की अजीब तुम
बीसवीं सदी की एक
नालायक ट्रैजेडी

ज़माने की दुखांत मूर्खता
फैंटेसी मनोहर
बुदबुदाता हुआ आत्म संवाद
होठों का बेवकूफ़ कथ्य और

फफक-फफक ढुला अश्रुजल


अरी तुम षडयंत्र-व्यूह-जाल-फंसी हुई
अजान सब पैंतरों से बातों से
भोले विश्वास की सहजता
स्वाभाविक सौंप
यह प्राकृतिक हृदय-दान
बेसिकली ग़लत तुम।

....ओ मेरे आदर्शवादी मन


ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया ?
उदरंभरि बन अनात्म बन गए
भूतों की शादी में कनात से तन गए
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर
दुखों के दागों को तमगों-सा पहना
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना
असंग बुद्धि व अकेले में सहना
ज़िंदगी निष्क्रिय बन गई तलघर
अब तक क्या किया ? जीवन क्या जिया ! !
बताओ तो किस-किस के लिए तुम दौड़ गए
करूणा के दृश्यों से हाय ! मुंह मोड़ गए
बन गए पत्थर
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया
दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम !
लोक-हित पिता को घर से निकाल दिया
जन-मन करूणा-सी मां को हकाल दिया
स्वार्थों के टेरियर कुत्तों को पाल लिया
भावना के कर्त्तव्य -- त्याग दिए
हृदय के मंतव्य -- मार डाले
बुद्धि का भाल ही फ़ोड दिया
तर्कों के हाथ उखाड़ दिए
जम गए, जाम हुए, फंस गए
अपने ही कीचड़ मे धंस गए
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गए !
अब तक क्या किया ? जीवन क्या जिया ?
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम ! !
(लंबी कविता 'अंधेरे में' से)

तीन कविताएं

मामला ज़िंदगी का

पैबंद जो लगे हैं
यहां-वहां
क्या हासिल होगा
उन्हें छिपाने से?
और उन्हें देख
लजाने से,
नज़रें चुराने से?

मामला ज़िंदगी का है
सिर्फ़ कपड़ों का नहीं !

 
क्या से क्या हो गया!

चढ़ा तो बहुत
धीरे-धीरे था वह
पर जब गिरा तो
कोई वक़्त ही
नहीं लगा. लुढ़कना शुरू
हुआ नहीं कि आ पड़ा
औंधे मुंह
धरती पर, निश्शब्द

निश्चेतन.
'चढ़ने' का विलोम
हर हाल में
'उतरना' ही नहीं होता,
'लुढ़कना' भी होता है,
जिसमें प्रयत्न-प्रतिरोध की
नहीं होती कोई गुंजाइश!
हालांकि लुढ़कना भी
होता है परिणाम
खुद ही की नासमझी का
भूल का!

पर समझाए कौन?
और क्यों?
किसी को काटा थोड़े है
काले कुत्ते ने !

विवशता आदिवासियों की
 
कविता में आती है
आदिवासियों की व्यथा-कथा.
निजी आयोजनों में
नाच दिखाने की
उनकी विवशता
कब जगह पाएगी कविता में?
जिस नाच के साक्षी ही नहीं,
उसमें शरीक भी रहे हों कवि
पूरी उन्मुक्तता और
उन्मत्तता के साथ?
 
-मोहन श्रोत्रिय

Wednesday 8 August 2012

आह मेरे लोगो ! ओ मेरे लोगो ! - कात्यायनी की ऐतिहासिक महत्‍व की कविता


कात्‍यायनी की कविता में संवेदना और विचार का एकाकार एक अत्‍यंत विरल परिघटना है. एक घनघोर मानवीय त्रासदी पर हिंदी में कदाचित यह सर्वश्रेष्‍ठ रचना है. गुजरात को यह किसी अकेली या अपवादस्‍वरूप घटना के रूप में न देखकर समकालीन सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के विद्रूप को सामने लाकर यह कविता सामाजिक बदलाव को प्रतिश्रुत साहित्‍यकारों का आह्वान भी करती है कि वे फ़ौरी और दीर्घकालिक दोनों तरह के कार्यभारों के निर्वहन के लिए इकट्ठा हों.


आह मेरे लोगो ! ओ मेरे लोगो !
(गुजरात---2002)


धुआं और राख और जली-अधजली लाशों
और बलात्कृत स्त्रियों-बच्चियों और चीर दिए गर्भों
और टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए शिशु-शरीरों के बीच,
कुचल दी गई मानवता, चूर कर दिए गए विवेक और
दफ्न कर दी गई सच्चाई के बीच,
संस्कृति और विचार के ध्वंसावशेषों में
कुछ हेरते, भटकते,
रुदन नहीं सिसकी की तरह,
उमड़ते रक्त से रुंधे गले से
बस निकल पड़ते हैं नाज़िम हिकमत के ये शब्द :
'आह मेरे लोगो !'
'साधो, ये मुर्दों का गांव'
--सुनते हैं कबीर की धिक्कार.
नहीं है मेरा कोई देश कि रोऊं उसके लिए :
'आह मेरे देश !'
नहीं है कोई लगाव इस श्मसान-समय से, कि कहूं :
'आह मेरे समय !'
इन दिनों कोई कविता नहीं,
सीझते-पकते फ़ैसलों के बीच, बस तीन अश्रु-श्वेद-रक्त-स्नात शब्द :
'आह मेरे लोगो !'

दर-बदर भटकते ब्रेष्ट का टेलीग्राम कल ही कहीं से मिला,
अभी आज ही सुबह आया था
कॉडवेल, राल्फ़ फॉक्स, डेविड गेस्ट आदि का भेजा हुआ हरकारा
पूछता हुआ ये सवाल कि एक अरब लोगों के इस देश में
क्या उतने लोग भी नहीं जुट पा रहे
जितने थे इंटरनेशनल ब्रिगेड में
क्या हैं कुछ नौजवान इंसानियत की रूह में हरक़त पैदा करने के लिए
कुछ भी कर गुज़रने को तैयार?- पूछा है भगत सिंह ने.
ग़दरी बाबाओं ने रोटी के टुकड़े पर रक्त से
लिख भेजा है संदेश.

महज मोमबत्तियां जलाके, शांति मार्च करके,
कहीं धरने पर बैठने के बाद घर लौटकर
हम अपनी दीनता ही प्रकट करेंगे
और कायरता भी और चालाकी भरी हृदयहीनता भी
शताब्दियों पुराने कल्पित अतीत की ओर देश को घसीटते
हत्यारों का इतिहास तक़रीबन पचहत्तर वर्षों पुराना है.
धर्म-गौरव की मिथ्याभासी चेतना फैलती रही,
शिशु मंदिरों में विष घोले जाते रहे शिशु मस्तिष्कों में,
विष-वृक्ष की शाखाएं रोपी जाती रहीं मोहल्ले-मोहल्ले,
वित्तीय पूंजी की कृत्या की मनोरोगी संतानें
वर्तमान की सेंधमारी करती हुई,
भविष्य को गिरवी रखती हुई,
अतीत का वैभव बखानती रहीं
और हम निश्चिन्त रहे
और हम अनदेखी करते रहे
और फिर हम रामभरोसे हो गए
और फिर कहर की तरह बरपा हुआ रामसेवक समय.
अभी भी हममें से ज्यादातर रत हैं
प्रतीकात्मक कार्रवाइयों और विश्लेषणों में, पूजा-पाठ की तरह
अपराध-बोध लिए मन में.

ये समय है कि
वातानुकूलित परिवेश-अनुकूलित
गंजी-तुंदियल या छैल-छबीली वाम विद्वत्ताओं से
अलग करें हम अपने आपको,
संस्‍कृति की सोनागाछी के दलालों के साथ
मंडी हाउस या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में
कॉफ़ी पीने का लंपट-बीमार मोह त्यागें,
हमें
निश्चय ही'
निश्चय ही,
निश्चय ही,
अपने लोगों के बीच होना है.
हमें उनके साथ एक यात्रा करनी है
प्रतिरक्षा से दुर्द्धर्ष प्रतिरोध तक.
इस फ़ौरी काम के बाद भी हमें सजग रहना होगा.
ये हमलावर लौटेंगे बार-बार आगे भी, क्योंकि
विनाश और मृत्यु के ये दूत,
पीले-बीमार चेहरों की भीड़ लिए अपने पीछे
चमकते चेहरे वाले ये लोग ही हैं
इस तन्त्र की आखिरी पंक्ति.

सहयात्रियों का हाथ पकड़कर कहना चाहते हैं हम उनसे,
साथियो ! दूरवर्ती लक्ष्य तक पहुंचने के रास्ते और रणनीति के बारे में
अपने मतभेद सुलझाने तक,
तैयारी के निहायत ज़रूरी, लेकिन दीर्घकालिक काम निपटने तक
हम स्थगित नहीं रख सकते
अपना फ़ौरी काम.
गुजरात को न समझें एक गुजरी हुई रात.
इस एक मुद्दे पर हमें
एक साथ आना ही होगा.
'आह मेरे लोगो' - इतना कहकर अपनी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें
कि एक स्वर से आवाज़ दें :'ओ मेरे लोगो!'
-ये तय करना है हमें
अभी, इसी वक़्त !


कूपमंडूक की कविता

क्यों कोसते हो इतना?
हम तो किसी का
कुछ नहीं बिगाड़ते ।

न ऊधो का लेते हैं
न माधो को देते हैं ।

संतोष को मानते हैं परम सुख ।
रहते हैं वैसे ही
जाहि बिधि रखता है राम ।

बिधना के विधान में
नहीं अड़ाते टांग।
जगत-गति
हमें नहीं व्यापती
तो तुमको क्या?

तुमको क्यों तकलीफ़ कि
हमारा आसमान छोटा-सा है
कुएं के मुंह के बराबर?

हमने क्या बिगाड़ा है
जो कोसते हो इतना

पानी पी-पीकर?


या कि होगा 

एक दिन
पर्यावरण की सुरक्षा पर
कोई कार्यक्रम नहीं हुआ.
जनसंख्या-विस्फोट पर
नहीं प्रकट की गई कोई चिंता.
कला की शर्तें
पूरी करने के लिए
नीलामी नहीं बोली गई
सच की, या ईमान की

एक दिन
मृत्यु नहीं हुई किसी कवि की
या कविता की
नहीं बैठा कोई विद्वान
किसी पूर्वज की पीठ पर
न ही कोई पुरस्कार बंटा
न तालियां बजीं.
उस दिन
कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त
करने की
कोई नई कोशिश नहीं हुई
न कोई हत्या,डकैती,राहजनी हुई
न कोई व्यापार-समझौता ।
उस दिन
नहीं छपे पूरी दुनिया के अखबार ।

अद्भुत था वह एक दिन
जो नहीं था
वास्तव में कभी
पर सोचते हैं सभी
कि था कभी ऐसा एक दिन
जीने के वास्ते
या कि होगा ?

परसाई के तीर

हरिशंकर परसाई का व्‍यंग्‍य कितना ही पुराना हो जाए, ऐसा लगता है जैसे आजकल में ही लिखा गया है. यह अकारण नहीं है कि हिंदी साहित्‍य ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्‍य में उनके क़द का कोई दूसरा लेखक नहीं दिखता. इसे दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा कि विदेशी भाषाओं में उनके लेखन का अनुवाद नहीं हो पाया, वरना यह बात बड़े इत्‍मीनान के साथ कही जा सकती है कि उनकी गिनती दुनिया के श्रेष्‍ठ लेखकों में होती. 

"मैं लेखक छोटा हूं, पर संकट बड़ा हूं."

"हमारी हज़ारों साल की महान संस्कृति है और यह समन्वित संस्कृति, यानी यह संस्कृति द्रविड़, आर्य, ग्रीक, मुस्लिम आदि संस्कृतियों के समन्वय से बनी है. इसलिए स्वाभाविक है कि महान समन्वित संस्कृति वाले भारतीय व्यापारी इलायची में कचरे का समन्वय करेंगे, गेहूं में मिट्टी का, शक्कर में सफ़ेद पत्थर का, मक्खन में स्याही सोख काग़ज़ का. जो विदेशी हमारे माल में "मिलावट" की शिकायत करते हैं, वे नहीं जानते कि यह "मिलावट" नहीं "समन्वय" है जो हमारी संस्कृति की आत्मा है. कोई विदेशी शुद्ध माल मांगकर भारतीय व्यापारी का अपमान न करे."

"अगर दो साइकिल सवार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़ें तो उनके लिए यह लाज़िमी हो जाता है के वे उठकर सबसे पहले लडें, और फिर धूल झाडें. यह पद्धति इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि गिरकर न लड़ने वाला साइकिल सवार "बुज़दिल" माना जाता है, "क्षमाशील संत" नहीं."

"जब विद्यार्थी कहता है कि उसे "पंद्रह दिए", उसका अर्थ होता है कि उसे"पंद्रह नंबर "मिले" नहीं हैं, परीक्षक द्वारा "दिए गए" हैं. मिलने के लिए तो उसे पूरे नंबर मिलने थे. पर "पंद्रह नंबर" जो उसके नाम पर चढ़े हैं, सो सब परीक्षक का अपराध है. उसने उत्तर तो ऐसे लिखे थे कि उसे शत-प्रतिशत नंबर मिलने थे, पर परीक्षक बेईमान हैं जो इतने कम नंबर देते हैं. इसीलिए, कम नंबर पाने वाला विद्यार्थी "मिले" की जगह "दिए" का प्रयोग करता है.''

"बेचारा आदमी वह होता है जो समझता है कि मेरे कारण कोई छिपकली भी कीड़ा नहीं पकड़ रही है. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है सब मेरे दुश्मन हैं, पर सही यह है कि कोई उस पर ध्यान ही नहीं देता. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है कि मैं वैचारिक क्रांति कर रहा हूं, और लोग उससे सिर्फ़ मनोरंजन करते हैं. वह आदमी सचमुच बड़ा दयनीय होता है जो अपने को केंद्र बना कर सोचता है."

"टुथपेस्ट के इतने विज्ञापन हैं, मगर हरेक में स्त्री ही 'उजले दांत' दिखा रही है. एक भी ऐसा मंजन बाज़ार में नहीं है जिससे पुरुष के दांत साफ़ हो जाएं. या कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस देश का पुरुष मुंह साफ़ करता ही नहीं है. यह सोचकर बड़ी घिन आई कि ऐसे लोगों के बीच में रहता हूं, जो मुंह भी साफ़ नहीं करते."

"जो नहीं है, उसे खोज लेना शोधकर्ता का काम है. काम जिस तरह होना चाहिए, उस तरह न होने देना विशेषज्ञ का काम है. जिस बीमारी से आदमी मर रहा है, उससे उसे न मरने देकर दूसरी बीमारी से मार डालना डॉक्टर का काम है. अगर जनता सही रास्ते पर जा रही है, तो उसे ग़लत रास्ते पर ले जाना नेता का काम है. ऐसा पढ़ाना कि छात्र बाज़ार में सबसे अच्छे नोट्स की खोज में समर्थ हो जाए, प्रोफ़ेसर का काम है."

"हम उत्पादक के लिए मनुष्य नहीं, उपभोक्ता हैं. हमारा कुल इतना उपयोग है कि हम खरीदार बने रहें."

"भारत की प्रतिष्ठा इसलिए भी बढ़ी है कि पुलिस लाठीचार्ज अब न के बराबर है. इससे दुनिया के लोग समझते हैं कि पुलिस अब बहुत 'दयालु' हो गई है. पर हमारी पुलिस अब सीधे गोली चलाती है, लाठीचार्ज के झंझट में नहीं पड़ती. गोली बनाने के कारखाने जनता के पैसे से चलते हैं, उनमें बना माल जनता के ही काम आना चाहिए."

"जनता उन मनुष्यों को कहते हैं जो वोटर हैं और जिनके वोट से विधायक तथा मंत्री बनते हैं. इस पृथ्वी पर जनता की उपयोगिता कुल इतनी कि उसके वोट से मंत्रिमंडल बनते हैं. अगर जनता के बिना भी सरकार बन सकती हो, तो जनता की कोई ज़रूरत नहीं है."

शशि प्रकाश की तीन छोटी कविताएं

शशिप्रकाश की ये कविताएं पंद्रह से बीस बरस पुरानी हैं,पर आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि लिखे जाने के वक्‍़त थीं. 

कठिन समय में विचार

रात की काली चमड़ी में
धंसा
रोशनी का पीला नुकीला खंजर.
बाहर निकलेगा
चमकते, गर्म लाल
खून के लिए
रास्ता बनाता हुआ.

शिनाख्त

धरती चाक की तरह घूमती है.
ज़िंदगी को प्याले की तरह
गढ़ता है समय.
धूप में सुखाता है.
दुख को पीते हैं हम
चुपचाप.

शोरगुल में मौज-मस्ती का जाम.
प्याला छलकता है.
कुछ दुख और कुछ सुख
आत्मा का सफ़ेद मेज़पोश
भिगो देते हैं.
कल समय धो डालेगा
सूखे हुए धब्बों को
कुछ हल्के निशान
फिर भी बचे रहेंगे.
स्मृतियां
अद्भुत ढंग से
हमें आने वाली दुनिया तक
लेकर जाएंगी.
सबकुछ दुहराया जाएगा फिर से
पर हूबहू
वैसे ही नहीं.

द्वंद्व

एक अमूर्त चित्र मुझे आकृष्ट कर रहा है.
एक अस्पष्ट दिशा मुझे खींच रही है.
एक निश्चित भविष्य समकालीन अनिश्चय को जन्म दे रहा है.
(या समकालीन अनिश्चय एक निश्चित भविष्य में ढल रहा है?)
एक अनिश्चय मुझे निर्णायक बना रहा है.
एक अगम्भीर हंसी मुझे रुला रही है.

एक आत्यन्तिक दार्शनिकता मुझे हंसा रही है.
एक अवश करने वाला प्यार मुझे चिंतित कर रहा है.
एक असमाप्त कथा मुझे जगा रही है.
एक अधूरा विचार मुझे जिला रहा है.
एक त्रासदी मुझे कुछ कहने से रोक रही है.
एक सजग ज़िंदगी मुझे सबसे कठिन चीज़ों पर सोचने के लिए मजबूर कर रही है.
एक सरल राह मुझे सबसे कठिन यात्रा पर लिए जा रही है.

Saturday 28 July 2012

अन्ना आंदोलन : कल और आज

परसों बाबा रामदेव अपने साथ पांच हज़ार लोगों को लाकर, और नौ अगस्त को नौ लाख लोगों को दिल्ली लाने की घोषणा करके , अन्ना टीम को चिढ़ा क्या गए, कल ही उसका असर भी दिखाई पड़ गया. कल दोपहर तक भीड़ को ग़ैर ज़रूरी बताने वाले अन्ना शाम तक कुछ हज़ार लोगों के आ जाने से कुछ इतने उत्साहित लगे कि वह 2014 के चुनाव की रूपरेखा बताने लगे, कि कैसे उम्मीदवारों का चयन करेंगे और कैसे संसद को ईमानदार लोगों से भर देंगे, और परिणामस्वरूप जन लोकपाल क़ानून बनवा लेंगे.

कल शाम होते-न-होते खबर आई कि 7, रेसकोर्स रोड (प्रधानमंत्री निवास) के सामने प्रदर्शन के लिए पहुंच गए हैं, अन्ना-भक्त और समर्थक. टीवी पर दिखाया जा रहा था यह सब, प्रदर्शनकारी रोके जाने और धर-पकड़ का प्रतिरोध करते हुए. कल तक अन्ना को शिकायत थी कि बिका हुआ मीडिया उनके अनशन पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था. आज जब मीडिया ने अन्ना टीम से सवाल-जवाब करने चाहे, तो टीम का एक भी सम्मानित और "क्रांतिकारी" सदस्य कोई जवाब देने को तैयार ही नहीं था. स्वयं अन्ना मीडियाकर्मियों से बचते हुए एक महंगी-सी कार की तरफ़ बढने लगे. किरण बेदी का अचानक गला खराब हो गया, यह उन्होंने इशारे से बताया गाड़ी की तरफ़ बढ़ते हुए. सवाल सिर्फ़ यही तो था कि रेसकोर्स रोड के प्रदर्शन के बाद क्या अब और जगह भी ऐसे प्रदर्शन होंगे? क्या यह नई रणनीति है? तो फिर शांतिपूर्ण अनशन की सार्वजनिक घोषणा का क्या हुआ? यह सवाल पूछा जाना इसलिए भी वाजिब और जायज़ है कि पिछले दिनों एजेंडे में कोई न कोई नया बिंदु जुड़ जाता रहा है, हर दिन.

पिछले साल जब यह आंदोलन शुरू हुआ था, तो भ्रष्टाचार को बड़ी और जड़ से उखाड़ फेंके जाने के योग्य समस्या मानते हुए भी, और तमाम "रंगतों के भ्रष्टों" का विरोध करते हुए भी, मेरी यह समझ थी कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार को आंशिक रूप से भी ख़त्म नहीं कर सकता. लोकपाल, उसके पहले "जन" लग जाने के बावजूद अप्रभावी रहेगा, क्योंकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार व अन्य सामाजिक बुराइयों को जन्म देने वाली "पूंजी-केंद्रित" व्यवस्था पर तो कोई चोट करना ही नहीं चाहता. पिछले साल की इसकी शक्ति देख कर यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं था कि यह आंदोलन ज़्यादा-से-ज़्यादा सत्ता-परिवर्तन को समर्पित आंदोलन कहा जा सकता है. पर उससे भ्रष्टाचार पर रोक कैसे लग जाती. कांग्रेस की जगह भाजपा की सरकार आ भी जाए तो न तो आर्थिक नीतियां बदलती हैं, न भ्रष्टाचार की "जड़ों" पर कोई "प्रहार" संभव है. सब ने देख लिया है कि भ्रष्ट येदियुरप्पा ने कैसे पूरी पार्टी को घुटनों पर ला दिया ! सबने यह भी देख ही लिया है रेड्डी बंधुओं ने "ज़मानत" का जुगाड़ बैठाने के क्रम में तीन-तीन न्यायाधीशों की नौकरी ले ली है. राजनीति और न्यायपालिका के नापाक गठबंधन का इससे ज़्यादा शर्मनाक उदाहरण और क्या होगा? सो यह भी साफ़ हो ही गया है कि सत्ता-परिवर्तन यदि अभीष्ट भी हो, तो क्या होने वाला है भविष्य में, वह अभी दिख रहा है.

मीडिया पिछले साल "लाड़ला" था अन्ना टीम का. इसलिए उसे जन लोकपाल के दायरे से बाहर रखा ही जाना था, सब तरफ़ से उठ रही मांग के बावजूद. एनजीओ को भी बाहर रखना था वरना अपने अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और किरण बेदी तो बरबाद ही हो जाते. फ़ोर्ड फाउंडेशन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से मिलने वाले लाखों डॉलर का हिसाब मांगने लग सकता था कोई भी सिरफिरा. पिछले साल कॉर्पोरेट संस्थानों ने कितनी आर्थिक मदद दी थी अन्ना आंदोलन को, यह भी अब तो उजागर ही है. सो कॉर्पोरेट को तो बाहर ही रखा जाना था, सख्त जन लोकपाल के दायरे से. चुनाव व्यवस्था को भ्रष्‍ट बनाने में कार्पोरेटी चंदे की कितनी भूमिका है, इसके आंकड़े देकर और इस तरह अन्ना टीम की आंख में उंगली डाल के दिखाने की ज़रूरत है क्या, इस सबके बावजूद भी, कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने की इच्छा तक से प्रेरित-चालित नहीं है.

कुछ लोग, जो ईमानदारी और सच्चे मन से इस आंदोलन से बड़ी-बड़ी उम्मीदें बांध बैठे हैं, कहते हैं कि यह आंदोलन यदि सफल नहीं हुआ/ होने दिया गया, तो भविष्य में कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संगठित और प्रभावी आवाज़ नहीं उठाई जा सकेगी. यह भय और आशंका सही नहीं है. भ्रष्टाचार इस व्यवस्था की अनिवार्य बुराई है. जैसे दलाली, अनापशनाप मुनाफ़ाखोरी, मिलावटखोरी, दहेज प्रथा तथा और बहुत सी बुराइयां हैं. इसके मायने ये हैं कि यह व्यवस्था चलती रहे, और बुराइयां दूर हो जाएं - यह न केवल विरोधाभासी है, बल्कि नामुमकिन भी है. एकमात्र विकल्प यह है कि जनता के व्यापकतम हिस्सों को लामबंद किया जाए सिर्फ़ भ्रष्टाचार को नहीं बल्कि समूची व्यवस्था को उखाड फेंकने के लिए. एक अच्छा चिकित्सक रोग के लक्षणों पर नहीं, रोग की जड़ पर प्रहार करता है. आज ऐसे बड़े उद्देश्य से प्रतिबद्ध व्यापक आंदोलन की तैयारियां बीज रूप में भी यदि नहीं दिख रही हैं, तो इसका यह आशय क़तई नहीं है, कि भविष्य में ही ऐसा नहीं होगा. यह तर्क ठीक नहीं है कि जब तक वैसा न हो पाए इस आंदोलन को तो सफल बनाया ही जाए. समझने की ज़रूरत यह है कि इस तरह के "रंग-रोगन-पलस्तरवादी" आंदोलनों की आंशिक सफलता भी उस बड़े और वांछित बदलाव की लड़ाई की जड़ों में मट्ठा डालने का ही काम करेगी. हालात जिस तरह बिगड़ रहे हैं - आसमान छूती महंगाई, बेरोज़गारी, स्त्रियों के खिलाफ़ बढते अपराध, जान-माल की असुरक्षा, आदि - ये सब ज़मीन तैयार कर रहे हैं नए तरह के जन-उभार के लिए. और इसे संभव बनाने का संदेश दिया-लिया भी जाने लगा है. पांच अहंकारी लोग, जो कभी अपने आपको "पांडव" कह दें और कभी "भगवान", जन आंदोलन के लिए "मुफ़ीद" नहीं हो सकते, क्योंकि अपने बारे में इस तरह के "भ्रम" फैलाने वाले लोग एक फ़ासिस्ट सोच को ही अभिव्यक्त करते हैं. वैसे भी पांडवों ने किस जनता के हितों के लिए लड़ाई की थी? भगवान के बारे में मुझे पता नहीं !

अराजकता की ओर ले जाना आसान है आंदोलन को, पर यह समझ लेना चाहिए सबको कि वैसा हो जाने पर यह शेर की सवारी करने जैसा हो जाएगा. शेर पर जब तक चढ़े हुए हैं, तब तक तो ठीक है. पर उसके बाद? कभी तो उतरना ही होगा. उतरने के बाद का हश्र सबको पता होता है. क्योंकि फिर तो जो भी होना होगा, वह शेर के मन पर ही निर्भर होगा. और ऐसे में शेर क्या करता है यह क़यास लगाने की बात नहीं है.

कोई जगह नहीं है यहां स्त्रियों के लिए: दो कविताएं


बेटियों को नीलामी पर चढ़ाने को अभिशप्त है यह मां

वह लड़कियां
बेचने-ख़रीदने का काम
नहीं करती. वह तो बस मां है
आदि से अंत तक मां
बस एक मां ! खुले बाज़ार में
अपनी चार-चार बेटियों को
बोली पर चढ़ा देने का अर्थ
लड़कियों की तिजारत
कहां से हो गया?

यह उसकी तरफ़ से ऐलान है
जो भी सुन ले, उसके नाम
कि नौ महीने से छः साल
तक की बेटियों को पाल
नहीं सकती है वह.
किसके गाल पर तमाचा है
यह सच? इसमें क्या व्यक्त
नहीं होती इक मां की घनघोर
हताशा और उसका कनफोड़ू
हाहाकार? जानती है वह
कि ऐसे तो मर ही जाएंगी बेटियां
होकर भूख और कुपोषण की शिकार.
उसने लगाई होगी बोली जब
तो क्या उसने दबाया नहीं होगा
अपनी चीख को? भद्र लोग
नापसंद करते हैं कविता में
चीख और हाहाकार के आ जाने को
क्योंकि विघ्न डालता है यह
उनके आनंद-रस-बोध में
जो होना ही चाहिए कविता में,
कुछ भी होता रहे चाहे समाज में
जिसे कहते हैं हम मनुष्य-समाज !

इसलिए यह है सिर्फ़ एक बयान
एक हलफ़िया बयान !
बक़लम खुद...पूरे होशो हवास में...
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कैसा है यह संदेश...!?!

कभी नहीं पकड़े जाएंगे
वे मां-बाप जिन्होंने
परसों
रेल के टायलेट में
जन्मी बच्ची को,
जन्मते ही त्याग दिया
नहीं नहीं नहीं
"नाल" समेत टायलेट की
सीट से पटरियों के बीच गिरा दिया
तय मानकर कि गिरते ही मर जाएगी
मर गई होगी. कड़ी-जान
वह सद्य-जात
सात घंटे तक चिढ़ाती रही
चिकित्सकों को, और तब तक
बहुत दूर निकल चुके माता-पिता को.

कभी नहीं पकड़े जाएंगे ये
जैसे नहीं पकड़े जा सके
तीन दिन पहले
ऐसे ही अपराध के दोषी माता-पिता
जिन्होंने बारां में यही किया था
फ़र्क़ सिर्फ इतना था कि
बेटी को "कूड़ा" मान फेंक
दिया था उन्होंने
कूड़े के ढेर में.

हर दो-चार दिन में दोहरा दी जाती हैं ये
घिन मितली और गुस्सा
पैदा करने वाली
क्रूरता और हृदयहीनता की शर्मनाक
मिसालें
वीरों की धरती कहे जाने वाले
मेरे अपने राजस्थान में!

नहीं होता मन
वीर मान लेने का
भगोड़ों और हत्यारों को !
कम वीभत्स नहीं है यह
असम, लखनऊ थाने
और खापों के चुनौती भरे
भयभीत करने वाले
संदेशों से !

एक तरह से संदेश
बहुत साफ़ है
जन्मते ही ऐसा नहीं कर दिया जाय तो
तैयार रहें आगे के अपराधों, धमकियों
कुकृत्यों के लिए. कोई
कुछ नहीं करेगा
न सत्ता, न क़ानून...
जातियों के अलमबरदार
बता रहे हैं सीना ठोंक कर
इसे अपने घर-परिवार का
मामला जिसमें
बरदाश्त नहीं किया जाएगा
हस्तक्षेप किसी का भी कैसा भी
बड़े अक्षरों में लिख दिया गया है जैसे
"कोई जगह नहीं है यहां स्त्रियों के लिए!"

Wednesday 18 July 2012

दो कविताएं - मूसा जलील


तातारी (रूसी) कवि जो सिर्फ़ अड़तीस साल जिए. 1906 में जन्मे और 1944 में उनकी मृत्‍यु हो गई. 'ऐसा भी होता है कभी-कभी' एक “यातना झेल रहे” कवि-मित्र के बारे में है. कवि-मित्र का नाम न देने का कारण न बताया जाए तो भी समझ आ ही जाना चाहिए . दूसरी कविता 'शॉल' स्वयं उनके जीवन से संबंधित है.


1.ऐसा भी होता है कभी कभी

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि
अविचल बनी रहती है आत्मा हालांकि
मौत की क्रूर आंधी चलती रहती है
चौतरफ़ा. आत्मा का लजीला-सा फूल भी
इतना गर्वीला कि कैसे सिहर जाए:
छोटी से छोटी पंखुड़ी भी बनी रहती है स्थिर.
उसके चेहरे पर दुख और पीड़ा की
छाया तक नहीं है. जो कवि को परेशान
कर सके दुनिया की ऐसी कोई चिंता-फ़िक्र नहीं.
“लिखना – और अधिक लिखना”
यही आकांक्षा है जो संचालित करती है
उसके अशक्य हाथों को.
क्रोधित होकर तुम हत्या भी कर दो, उसे
तुमसे कोई भय नहीं. काया जकड़ी है तो भी
उन्मुक्त है उसकी आत्मा. उसे चाहिए सिर्फ़
काग़ज़ का टुकड़ा और
बस एक पेंसिल
कितनी भी घिसी हुई क्यों न हो.

2. शॉल

जब हम अलग हो रहे थे
उसके प्यारे-से हाथों ने
दिया था मुझे क़शीदाकारी से सज्जित
यह शाल. लड़ाई के मैदान में मिले
घावों पर रख लिया मैंने इसे.
सबसे प्यारी सौगात है यह
मेरे जीवन की.

यह शॉल खून से रंग गया है
प्यारी-सी कहानी कहता हुआ
जैसे लड़ाई के बीचोबीच
झुकी हुई है मेरे सिर पर
मेरी प्रियतमा.

मैंने अपनी एक इंच भूमि पर भी कब्ज़ा
नहीं छोड़ा है. कभी भी नहीं टेके हैं
घुटने दुश्मन के सामने.
पता चल जाता है इस
शॉल से ही
कि कितनी क़द्र करता हूं मैं हमारे प्यार की.



                                                    अनुवाद - मोहन श्रोत्रिय

Wednesday 11 July 2012

गंगा ढाबा: यादों के गलियारों से



जून 1976 के पहले सप्ताह में, मैं पहली बार जेएनयू के नए कैंपस में गया था, उत्तराखंड स्थित नामवरजी के निवास पर. तब तक जितना भी विकसित था कैंपस, पहली नज़र में बेहद आकर्षक लगा. अप्रेल के महीने में सतना में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में उदय प्रकाश से हुई मुलाक़ात काफ़ी घनिष्ठता में बदल गई थी, उन तीन दिनों में ही. उदय ने बेहद आत्मीयता से यह इच्छा व्यक्त की थी कि मैं जेएनयू आऊं. संयोग से इन्हीं दिनों यूजीसी ने टीचर फ़ेलोशिप स्कीम शुरू करने का ऐलान कर दिया. तो इसी क्रम में मिलने जाना हुआ नामवरजी से. मैं पिछले दस साल से अंग्रेज़ी साहित्य का अध्यापन कर रहा था, और इस वक़्त अजमेर ज़िले के ब्यावर स्थित राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में कार्यरत था. मेरा मन था कि अंग्रेज़ी-हिंदी तुलनात्मक साहित्य का विषय लेकर जेएनयू में नामवरजी के निर्देशन में काम करूं. नामवर जी जब जोधपुर में थे तबसे मुझे जानते थे, और वहां उनसे अक्सर मिलना हो जाता था. उनके जोधपुर-काल में, मैं भीनमाल (ज़िला जालोर) में था, और (स्वयं प्रकाश के साथ) साहित्यिक त्रैमासिक क्यों का संपादन करता था. जोधपुर जाना अक्सर होता था, इसलिए नामवरजी से मिलना भी होता ही रहता था. प्रगतिशील लेखक संघ के नाम पर भी उनसे जुड़ाव था ही, तो जब मैंने नामवरजी से यूजीसी की स्कीम के बारे में बताया तो उन्होंने प्रसन्नता ज़ाहिर की. स्कीम के तहत राज्य सरकार इस सुविधा का लाभ उठाने की स्वीकृति तभी जारी कर सकती थी जबकि कहीं मेरा प्रवेश-चयन हो जाए.
इस सारी प्रक्रिया के पूरा होने में कुछ वक़्त लगना ही था. अंततः, 16 अगस्त से  भारतीय भाषा केन्द्र में टीचर फ़ेलो के रूप में मेरा नाम जुडना था. जेएनयू पहुंचकर मैं कुछ समय तक उदय के साथ रहा, पेरियार हॉस्टल के सबसे ऊपरी माले पर. परिवार के साथ रहने के लिए विश्वविद्यालय द्वारा जगह उपलब्ध कराये जाने तक उदय के साथ ही रहा.
शाम होते ही सारे रास्ते गंगा ढाबा की ओर मुड़ने लगते थे. गर्मागरम चाय के दौर, और साथ ही और भी गर्म राजनीतिक चर्चाओं के कभी न खत्म होते दौर! छोटे-छोटे समूहों में बंटे-बैठे लोग अलग दिखते हो सकते थे, पर लगभग सभी चर्चाएं राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमती थीं, आपातकाल के ढलान के इस दौर में! कुछेक पुराने मित्र अपने उन साथियों के किस्से भी सुनाते थे, वहीं बैठ कर, नए आए लोगों को. कुछ दिन बाद मैं ढाबे और चट्टानों के पीछे बने स्टाफ़ क्वार्टर्स में शिफ़्ट हो गया, 720 नंबर के क्वार्टर में. यह आवास विश्वविद्यालय द्वारा मुझे औपचारिक रूप से आवंटित तो नहीं हुआ था, पर मूनिस साब ने अनौपचारिक रूप से यह सुविधा मुहैया करा दी थी. यहां रहने वाले कम्प्यूटर इंजीनियर जीवी सिंह प्रशिक्षण पर बुल्गारिया जा रहे थे, उनसे जब मूनिस साब ने मेरी समस्या बताई तो वह एक कमरे में अपना सामान-असबाब बंद करके बाक़ी दो कमरे मुझे सौंप गए. तो गंगा ढाबा यहां से भी उतना ही दूर था, जितना पेरियार हॉस्टल से. ओल्ड कैंपस से आने पर बस से उतरते ही यहां थे. गंगा ढाबा का एक विस्तार मेरा घर भी हो गया था, और अक्सर कुछेक मित्र यहां से उठकर वहां भी आ जाते थे.
ढाबे, सड़क-किनारे के भी, जीवंत होते ही हैं, पर गंगा ढाबा की जीवंतता कई अर्थों में लाजवाब थी. शाम को यह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता था. क्षेत्रों की दृष्टि से, मज़हबों, जातियों और पृष्ठभूमियों की विविधता की दृष्टि से भी. दो समूह वामपंथी छात्रों के थे, और एक फ़्री थिंकर्स का. त्रोत्स्कीवादियों का भी एक समूह था, छोटा-सा. ठीक-ठाक पढे-लिखे लोग थे ये. दक्षिणपंथी राजनीति अंकुआने बेशक लगी थी पर, मुखर नहीं थी. एक तरह से आतंकित भी रहती थी. हिंदी पट्टी से आने वाले लोग सहमे-सहमे रहते थे, अंग्रेज़ियत के माहौल में, पशुपतिनाथ सिंह और घनश्याम मिश्र जैसे अपवाद बेशक थे. हां, यह कभी समझ नहीं आया कि उर्दू की पृष्ठभूमि वाले लोग इतने बेख़ौफ़ और मुखर कैसे होते थे ! चाहे अली जावेद हों, या क़मरआग़ा या मौलाना अनीस. और भी कई लोग थे, जिनके नाम मशक्‍़क़त करने पर ही याद आ सकते हैं. एक दिलचस्प बात यह भी लगती थी कि अपने-अपने राज्यों में विद्यार्थी परिषद की राजनीति करते रहे कुछ लोग यहां आते ही एसएफ़आई में शामिल हो जाते थे. डीपीटी (देवी प्रसाद त्रिपाठी, आजकल राज्य सभा के सदस्य) से तो यह बात मैंने सीधे उनके स्वयं के बारे में ही पूछी थी. एक बार फिर, लंबी चर्चा के दौरान अपने घर पर.
अनिल चौधरी (जो अब साठ साल के हो गए हैं), राजेंद्र शर्मा (जिन्हें बाद में लोग "डिक्टेटरकहने लगे, यह भी तब पता चला जब वह we love jnu से जुड़े), विजय शंकर चौधरी, अली जावेद, उदय प्रकाश, असद ज़ैदी, रमेश दीक्षित, रमेश दधीच और चमन लाल यहां नियमित रूप से मौजूद होने वाले मित्र थे. कभी-कभी सोहेल हाश्मी भी. मनमोहन, रामबक्ष आदि मित्र कम बोलने वालों में हुआ करते थे. आपस में तो खूब बोलते थे, पर समूह में संकोची-वृत्ति थी इनकी. रामनाथ महतो भी बोलते मजबूरी में ही थे, पर हलके से व्यंग्य अच्छा कर जाते थे. यही हाल महेंद्रपाल शर्मा का था, पर वह बोलते भी रहते थे, और व्यंग्य भी सटीक कर गुज़रते थे. पंकज सिंह दो-चार महीने में कभी अचानक अवतरित हो जाते थे, पर उसके बाद टिक कर रह जाते थे. उनसे मिलना-बात करना बेहद अच्छा लगता था. विजय शंकर और पंकज सिंह से तब के बाद मुलाक़ात का योग ही नहीं बैठा.
शनिवार की शाम को रीगल बिल्डिंग स्थित टी हाउस जाना होता था, क्योंकि वहां शहर भर के साहित्यिक मित्रों का जमावड़ा होता था. बाहर से आने वाले मित्रों से भी वहां मिलना हो जाता था. सो दस बजे से पहले लौटना हो नहीं पाता था. पर बस से उतरते ही कुछ लोग तो बैठे मिल ही जाते थे गंगा ढाबा पर.. पंद्रह-बीस दिन का वक्फ़ा ऐसा आया, जब गंगा ढाबा पर लगभग स्थाई अनुपस्थिति रही. वह इसलिए कि परसाईजी सफ़दरजंग अस्पताल में भर्ती थे, अपनी टूटी टांग का इलाज करा रहे थे. जबलपुर में हुआ ऑपरेशन बिगड़ गया था, अतः यहां आए थे. जब तक वह वहां रहे मैं नियमित रूप से उनसे मिलने जाता था, और क़रीब दो घंटे वहां बैठता था. संघियों ने परसाई जी की टांग तोड़ दी थी, उनके लेखन से त्रस्त होकर. परसाईजी अक्सर हंसते हुए लोगों को बताया करते था कि लड़कों ने घर में घुसकर उनके पैर छुए, और फिर हॉकी स्टिक से प्रहार करके उनकी टांग तोड़ दी. इसे मात्र संयोग कहेंगे क्या कि नाथूराम गोडसे ने भी गांधीजी पर गोलियां चलाने से पहले उनके पैर छूने का उपक्रम किया था? क्या यह उनकी संस्कृति का हिस्सा है? संस्कृति का या अपसंस्कृति का?
आपातकाल उठने और चुनाव के दिनों का माहौल काफ़ी गर्म और दिलचस्प दोनों ही हुआ करता था. गंगा ढाबा यानि देशभर की खबरों का प्रामाणिक अड्डा! देश के हर राज्य के लोग यहां थे, और वे आदतन वहां के अपडेट्स मित्रों से साझा किया करते थे.
जून के महीने में मैं अपने लिए आवंटित रूसी अध्ययन केन्द्र (सीआरएस) के वार्डेन फ़्लैट में शिफ़्ट हो गया, तो गंगा ढाबा और गीता बुक सेंटर सप्ताह में तीन-चार दिन का रह गया. एक कारण इसका यह भी था कि चूंकि मैं सपरिवार रहता था, मेरे कई मित्र परिवारों का मेरे घर आना-जाना बढ़ गया था. इनमें कुछ तो जेएनयू के शिक्षक मित्र थे, और कुछ यहां से बाहर के साहित्यिक मित्र थे. चूंकि मैं अखिल भारतीय शिक्षक आंदोलन में भी सक्रिय था तो जेएनयू के शिक्षकों से भी मेरे बड़े घनिष्ठ संबंध बन गए थे. पर गंगा ढाबा तो एक लत थी, जो छोड़े न छूटे. बाद के दिनों में कुछ नए युवा मित्र भी यहां से जुड़ गए थे. इनमें पुरुषोत्तम अग्रवाल से काफ़ी उम्मीदें थीं. समय ने सिद्ध भी कर दिया कि वे उम्मीदें ग़लत नहीं थीं.
पिछले दिनों जब गंगा ढाबा ब्लॉग पर "गेंग्स ऑफ वासेपुरकी समीक्षा पर टिप्पणी कर रहा था तो मन अतीत की भूली-बिसरी स्मृतियों से भर गया. मित्र आशुतोष कुमार ने आग्रह किया कि मैं उन दिनों के बारे में कुछ लिखूं. पता नहीं कैसा बन पाया है, पर यह जैसा भी बन सका, जेएनयू में गंगा ढाबा के केंद्रीय महत्त्व को उकेरने के लिए अतीत में झांकने की मेरी कोशिश की सूचना तो देता ही है. क्या बेफ़िक्री के दिन थे! मस्ती और उत्साह के दिन भी!
हां, एक बात और...वहां रहते हुए मैं कभी गंगा हॉस्टल में नहीं रहा था, जिसका नाम इस ढाबे के साथ जुड़ने पर गंगा ढाबा ने संस्थानिक रूप ग्रहण कर लिया, और पूरे देश में अपनी पहचान भी बनाई. अगस्त 1979 में मैं राजस्थान वापस आ गया. पर संयोग ऐसा बना कि अंग्रेज़ी एवं भाषाविज्ञान केंद्र में कार्यरत अपने मित्रों के आग्रह पर चार महीने के लिए जेएनयू फिर आया, एक विशेष टीचिंग असाइनमेंट पर. सोमवार से शुक्रवार तक वहां, और फिर दो दिन अपने परिवार के साथ. शुरू में तो मैं अपने मित्र हरीश नारंग के साथ रहा. वह उस समय पेरियार के वार्डेन थे. बाद के दो महीने, मैं अली जावेद के साथ रहा था गंगा हॉस्टल में. यह पुनरागमन जैसे पिछली बार रही क़सर को पूरा करने के लिए ही हुआ था.
जेएनयू से जुड़ना एक अप्रतिम अनुभव था, गंगा ढाबा से जुड़ना भी लगभग वैसा ही.

Tuesday 10 July 2012

जाग सको तो जागो...

वो दिन कब आएगा जब तमाम वामपंथी पार्टियों के ठिकानों (आप इसे "दफ़्तरों" पढ़ सकते हैं!) पर धावा बोलकर वहां बैठे पदाधिकारियों की आंखों में उंगली डाल कर आज के हिंदुस्तान का सच दिखाया जाएगा? लगता नहीं, कि ये अपने आप इस सच को देखने की ज़हमत उठाएंगे. कोई दीर्घकालिक योजना इनके पास है, इसका सबूत इनके दैनंदिन आचरण-व्यवहार से तो मिलता नहीं. हालात और कितने बदतर हों कि इनकी कुंभकर्णी नींद टूटे ! जब रणनीति ही नहीं है, तो कार्यनीति कहां से आएगी? इन्हें कार्पोरेटी-फ़ासिस्ट गंठजोड़ की वास्तविकता क्यों नहीं दिख पा रही? विकास के नाम पर जल-जंगल-ज़मीन, सब को सुंदर-सी तश्तरी में रख कर कारपोरेटों को भेंट कर देने की साज़िश समझ में क्यों नहीं आ रही? इन्हें अपने काडर के भीतर पनपता असंतोष भी क्यों दिखाई नहीं दे रहा? इतनी चुप्पी, इतना सन्नाटा इनके ठिकानों में, कि यह निष्कर्ष निकालना गैर-वाजिब नहीं होगा कि जनता को इनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. दुश्मन पीटता है, तो पिट लें! मारता है, तो मर जाएं ! महिलाओं की अस्मत लुटती है, तो लुटे! विकास के नाम पर सांप्रदायिक शक्तियां देश के सामने संकट पैदा कर रही हों तो करती रहें ! कब तक यह चलता रहेगा कि ये इस या उस मुद्दे पर इस या उस बुर्जुआ पार्टी के साथ खड़ी होकर अपने "होने" को प्रमाणित करती रहेंगी? दुनिया भर में चल रही परिवर्तनकामी कसमसाहट पर इनकी नज़र क्यों नहीं पड़ रही? इन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जनता यदि ज़ुल्म का प्रतिकार करने के लिए एकजुट हो गई किसी दिन, तो इन्हें अपनी पांतों में घुसने नहीं देगी! आस-पास फटकने भी नहीं देगी !

और किस खतरे की घंटी के बजने का इंतज़ार है, इन्हें??? ताले अभी भी बनते हैं. "अलीगढ़ी" पसंद न हों तो "चीनी" ताले खूब मिल रहे हैं. बाज़ार अंटा-पटा पड़ा है, चीनी तालों और कैंचियों से. और दुकान में सामान न हो तो, ताला लगा देना "अविवेकी" नहीं माना जाता. दुकान खुली रख कर मक्खियां मारते रहने से ज़्यादा बदनामी होती है. वैसे भी मक्खियां मारने का काम संभालने के लिए तो सत्ता ने करोड़ों लोगों को खेत-ज़मीन से बेदखल करके बेरोज़गार बना ही दिया है. मक्खियां मारना इन्हें "शोभा" थोड़े ही देता है !

परिवर्तन की वस्तुगत परिस्थितियां तो काफ़ी "पकी हुई-सी" दिखती हैं, उन्हें और पकाने के लिए जिस सही "उत्प्रेरक" की ज़रूरत होती है, उस काम का ज़िम्मा निहित होता है, परिवर्तन की इच्छा को फ़ैसलाकुन हमले की तैयारी में तब्दील करके जनता को लामबंद करने की नेतृत्व-क्षमता रखने वाली पार्टी/पार्टियों में! देर तो खूब हो गई है, फिर भी जागने का मन हो तो सवेरा हो ही जाएगा. यह दूसरी बात है कि यह सुबह "वो सुबह कभी तो आएगी" से जुदा हो, शुरुआत में. पर जागने पर होने वाली सुबह "उस सुबह" में बदल जाए इसके लिए बहुत पापड़ बेलने होंगे. यदि "पापड़ बेलने का मन” हो तो :

1. सभी रंगतों के वाम को एक साथ मिल-बैठ कर, आज के सामाजिक यथार्थ के "चरित्र" का विश्लेषण करके, एक समयबद्ध न्यूनतम साझा कार्यक्रम की रूपरेखा बनानी होगी;

2. समाज के विभिन्न संस्तरों में से अपने "स्वाभाविक मित्र/सहयोगी चिह्नित करने होंगे, तथा उनके मन में अपने प्रति विश्वास पैदा करना होगा;

3. पिछले चालीस-पचास साल में जो परिवर्तन-लक्षित चिंतन हुआ है, दुनिया भर में, उसके आधार पर, अपनी समझ को दुरुस्त करना होगा. अतीत के किसी (स्वर्णिम भी?) दौर में उलझे-अटके रहना, समझ की दुरुस्तगी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होगा, इस खतरे से बाखबर हुए बिना “कल” का रास्ता निर्धारित नहीं किया जा सकता, और न दिशा ही;

4. अपने वैचारिक/बौद्धिक हमदर्दों को हिक़ारत की नज़र से देखना बंद करके उनके साथ सतत जीवंत संवाद क़ायम करना होगा;

5. दलित-अदिवासियों-महिलाओं के मुद्दों को अपने अल्पकालिक व दीर्घकालिक, दोनों एजेंडों में न केवल प्राथमिकता के साथ शामिल करना, बल्कि यह दिखाना भी होगा कि एक बड़ी लड़ाई के परचम तले ही इन प्रश्नों का समाहार संभव है, विमर्शवादी तरीकों से नहीं. इन्हें एक ही लड़ाई का हिस्सा बनाकर सामाजिक समरसता को बनाए रखा जा सकता है, जिसके बिना लड़ाई बंट जाती है, और विफल होने को अभिशप्त होती है.

यह भी ध्यान रखें कि आपके हमदर्दों को भी जवाब देने पड़ते हैं, क्योंकि जवाब उनसे मांगे जाते हैं. इसीलिए यह आह्वान जागने का! आत्महंता दृष्टि यदि स्थाई भाव नहीं बनी है तो, जागो.

Thursday 26 April 2012

1. बच्चे सपना देखते हैं 

बच्चे सपना देखते हैं
पहले भी देखते थे सपने वे
घोड़े पर बैठे राजकुमार
के रूप में
खुद को देखते थे सपनों में
या फिर परियों की संगत में
उड़ते-फिरते रहते थे
आसमान में
सपनों में.

उनके आज के सपनों का
सारतत्व बदल गया है
बदल क्या गया है
बदलवा दिया है
मा-बाप ने
ऐसे सपने जो छीन लेते हैं
बचपन
बना देते हैं अकाल युवा.
चिंताग्रस्त युवा जो घबराता है
सपनों के बोझ से.


2. बच्चों को बड़ा होने दो पेड़ सा 

बच्चों को उनके अधिकार
बताने का कोई अर्थ नहीं है
बड़ों को बताओ
बच्चों के प्रति उनके कर्तव्य.
कि बच्चे खेल-कूद सकें
पढ़-लिख सकें
बड़े हो सकें
जैसे उन्हें होना चाहिए बड़ा.
और फिर?
और फिर
बड़े होकर वे निभा सकें
अपनी भूमिका घर-परिवार में,
समाज में.

ज़रूरत है इसके लिए बहुत ही
इस बात की
कि वे जोड़ सकें अपने-आपको
घर-परिवार से
आस-पड़ोस से
और देश से जो
बहुत अमूर्त-सा लगता है
सरोकारों के अभाव में.
सरोकार जो देते हैं
विस्तार
एक को दूसरे से जोड़ते हैं
फिर सौवें से हजारवें से
और लाखों-लाखवें से.
तभी तो बनता है,
ऐसे जुड़ते चले जाने ही से
बनता है देश और
समाज.

बच्चों को बढ़ने दो पेड़
की तरह
बोनसाई मत बनाओ उन्हें
सजावट-दिखावट की चीज़ नहीं
होते बच्चे. बच्चों पर गर्व करो
उनकी क्षमताओं के पल्लवित-पुष्पित
हो जाने पर
ग़लत है नाराज़ी उनसे तुम्हारे
सौंपे हुए सपनों की नाकामी पर.
                               -मोहन श्रोत्रिय 

यारोस्लाव साइफ़र्त की तीन कविताएं

चेक कवि यारोस्लाव साइफ़र्त (1901-1986) जीवन के प्रति गहरी काव्य-समझ रखने वाले और उसमें निरंतर आस्थावान कवि के रूप में विख्यात हैं. 1984 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित इस विश्व-कवि की कविताओं में प्रेम, प्रकृति और मानवीय जीवन के विविध रंग गहरे और अलग काव्यबोध के साथ स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं.

1. प्लेग मृतकों की क़तारें

उनके बहकावे में मत आओ
कि शहर में प्लेग का 
दौर-दौरा खत्म हो चुका है.
मैंने खुद देखी हैं
अपनी ही आंखों से 
शहर के प्रवेश-द्वार से गुज़रती 
एक के बाद एक
अनेक लाशें ताबूतों में
रखी हुई.

ध्यान रहे शहर में वह
अकेला प्रवेश-द्वार नहीं है 
और भी हैं.
प्लेग की प्रचंडता अभी भी जारी है
ज़ाहिर है कि दहशत न फैले
इसलिए इसे दूसरे-तीसरे 
नाम दे दिए हैं डॉक्टरों ने  

यह कुछ नहीं है
उसी पुरानी मौत के सिवा.


2. मछुए के जाल में अटका बसंत

मछुए के जाल की चक्राकार 
झालरों में अटका है अटका है बसंत
पेड़ पटे पड़े हैं नई खिली कलियों से
जो मुस्काती हैं हम पर
हमें इधर-उधर देखता पा कर.

मछुए के जाल की चक्राकार 
झालरों में टंगे हैं तीन सितारे
हम आपस में परिचित हैं
इनमें से एक सदा याद रखता है मुझे
अंधियारी यात्रा के खत्म होने तक
मेरे घर के पथ को करता रहता है
आलोकित. कम ही लोग 
इतने सौभाग्यशाली होते हैं
कि सितारों में अपनी 
सच्ची प्रेमिका पजाएं.

मछुए के जाल की चक्राकार
झालरों में जकड़ी पड़ी 
है हवा
इसकी हंसी को
पहचानती हैं तमाम औरतें 
महसूस करती हैं इसे जब वे 
आपस में बतियाती हैं
पुरुषों के बारे में.

मछुए के जाल की चक्राकार 
झालरों में फंसे हैं
नाखून करुण आशंकाओं के
वैसी ही आशंकाओं के 
जिनसे गुज़रते हैं पुरुष
जब वे बात कर रहे होते हैं
स्त्रियों के बारे में.


3. पिकेडिली से आया छाता 

जिसे पता न हो अपने 
सच्चे प्यार के ठिकाने का
चौंको मत, वह मरने लग सकता है
इंग्लैंड की महारानी पर भी.
क्यों न हो! उसका चेहरा पुराने 
साम्राज्य के हर डाक टिकट पर
देखने वाले को आकृष्ट करता रहता है.
इसमें कोई शुबहा नहीं
कि गर वो चाहे मिलना महारानी से
हाइड पार्क में, तो बस यूं ही
इंतज़ार करता रह जाएगा.
अक्ल ज़रा सी भी 
काम में ले ले तो वह बुदबुदाता हुआ 
खुद को समझाता पाया जाएगा :
'मुझे पता है
हाइड पार्क में बरसात हो रही है.'

मेरा बेटा जब लौटा
इंग्लैंड से तो 
पिकेडिली से छाता ले आया
मेरे लिए.
जब भी ज़रूरत होती है मैं 
पा लेता हूं अपने सिर के ऊपर
मेरा अपना छोटा-सा आकाश
चाहे वह काला ही क्यों न हो!
इसकी तनी हुई पसलीनुमा
तानों में प्रवाहित होती रहती है
ईश-कृपा बिजली की तरह 
पानी न बरस रहा हो 
तो भी मैं खोल लेता हूं छाता
शेक्सपीयर के सानेटों की किताब पर
जो हर वक़्त मेरे साथ होती है 
मेरी जेब में.

कभी कभी मैं घबरा जाता हूं
ब्रह्मांड के दमकते गुलदस्ते को
देख कर. इसकी सुंदरता सब कुछ को
पीछे छोड़ जाती है, पर घुड़की लगाती है,
आंखें तरेरती है इसकी असीमता. बहुत
मिलती-जुलती लगती है वह 
मौत के बाद की नींद से.
हम निरंतर भयग्रस्त रहते हैं
हिमीभूत शून्य से, असंख्य सितारों के 
संकुलों से नहीं. बेशक उनकी दमक के आगे 
हम ठगे-से रह जाते हैं.
जिस सितारे को शुक्र 
नाम दिया गया, वह डराता है
आतंकित करता है, वहां अभी भी 
चट्टानें उबल रही हैं
और पर्वत श्रृंखलाएं विशाल लहरों की भांति 
उत्तप्त सांसें लेती हैं. वहां बरसात 
पानी की नहीं आग और 
गंधक की होती है.
हम न जाने कब से 
पूछते आए हैं कि नरक 
कहां है? बेशक यह वहीं है!
पर ब्रह्माण्ड के खिलाफ़ एक 
कमज़ोर-सा छाता कर ही क्या
सकता है? और फिर इसे
हर वक़्त साथ रखता भी 
कहां हूं?
मेरे लिए यही काफ़ी है
कि मैं धरती से जुड़ा-चिपका रहूं
जैसे रात्रि-कीट दिन कि रोशनी में
पेड़ की खुरदरी छाल से चिपके
रहते हैं.

कभी यहां स्वर्ग था. तमाम उम्र 
मैं उसी की तलाश करता रहा हूं
उसके कुछ निशान भी मिले हैं
मुझे एक स्त्री के
प्यार की गर्माहट से भरे होठों 
व गोलाकारों पर.
तमाम उम्र मैं तडपता रहा हूं 
मुक्ति के लिए. आखिरकार मैंने
खोज ही लिया एक दरवाज़ा
वहां तक पहुंचने के लिए.
मृत्यु!
आज जब मैं बूढ़ा हो गया हूं
एक सुंदर स्त्री का चेहरा कभी-कभी
मेरी पलकों को छू कर हौले से 
गुज़र जाता है. उसकी मुस्कान मेरे
खून में सरसराहट पैदा कर देती है.
लजाता हुआ-सा मैं देखता हूं
उसकी ओर और मुझे याद आती है
इंग्लैंड की महारानी जिसका चेहरा पुराने 
साम्राज्य के हर डाक टिकट पर 
छपा हुआ मिलता है.

ईश्वर महारानी की रक्षा करे !

अरे हां, मुझे अच्छी तरह से पता है
कि आज इस वक़्त
हाइड पार्क में बरसात हो रही है!
                          अनुवाद : मोहन श्रोत्रिय 

Wednesday 25 April 2012

साहिल के तमाशाई

कल सुबह मीना कुमारी का एक शेर स्टेटस में दिया था.    साहिल के तमाशाई, हर डूबने वाले पर
अफ़सोस तो करते हैं, इमदाद नहीं करते.

एक मित्र को लगा इस पर आलेख-जैसा कुछ हो तो बात और खुले. मैंने वादा तो किया था एक पूरे आलेख का लेकिन  दिन में कुछ अन्य न टाले जा सकने वाले कामों को पूरा करने के चक्कर में इतने से ही मन को तसल्ली देनी पड़ी. टिप्पणियां देखते हुए मिलती-जुलती ज़मीन पर उनका ही एक शेर और साझा किया.
दिन डूबे है या डूबे बारात लिए क़श्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता.

लिखते-लिखते यकायक कौंधा कि दुष्यंत कुमार ने भी एकदम इसी भाव-भूमि पर एक शेर कहा था, जिसने एक ज़माने में बेहद लोकप्रियता हासिल कर ली थी. कह सकते हैं, अनेक लोगों की ज़बान पर चढ़ गया था, यह शेर.
वो कोई बारात हो या वारदात अब
किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां.

इन तीनों शेरों की जो भाव-भूमि है, वह लोगों की उदासीनता और तटस्थता पर चोट करती है. "क्या फ़र्क़ पड़ता है के भाव पर!" यानि जो 'रोज़ घटित होने वाली बातें हैं, उन पर कितना/क्या स्यापा किया जाए.' लोहार वाली चोट तो नहीं कहा जा सकता इन्हें, सुनार वाली चोट कह लीजिए. दोनों शायरों की जो अंतर्निहिहित दृष्टि है, वह व्यंग्य के बहुत क़रीब है. लोगों की बढ़ती चेतना-शून्यता पर. अचानक दुष्यंत कुमार का ही एक और शेर याद आया जो आज पहले कभी से ज़्यादा प्रासंगिक लगता है.
लहू-लुहान नज़ारों की बात आई तो,
शरीफ़ लोग उठे, दूर जाके बैठ गए.
कहने की ज़रूरत नहीं कि यहां इशारा न केवल वास्तविक जीवन की घटनाओं के प्रति उदासीनता की ओर है बल्कि उस दुविधा और भयग्रस्त मानसिकता की ओर भी है जो लोगों को किसी भी तरह के संभावित संकट की ज़द में आ जाने से अपनेआपको बचाने की उत्कट इच्छा की ओर भी है.
यह सब सोच ही रहा था कि एक मित्र ने याद दिलाया कि आज दिनकर जी की पुण्यतिथि है. दिनकर जी, जिन्होंने तटस्थता पर सबसे घनघोर प्रहार किया था.
...जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध. दिनकर जी की उत्कृष्ट सामाजिक सचेतनता का ही नहीं अपितु स्पष्ट एवं मुखर सामाजिक पक्षधरता का भी साक्ष्य मिलता है इस पंक्ति में. प्रसंगवश, वह जनता के साथ थे, यह तो उनकी बहु-उद्धृत पंक्ति (जिसने नारे का रूप भी ग्रहण कर लिया था) : सिंहासन खाली करो कि जनता आती है  से भी साफ़ ही है.
तटस्थता ढोंग है. दिखावा है. आत्म-प्रवंचना है, कायरता है. हम जब तटस्थ दिखने का उपक्रम कर रहे होते हैं, उस समय भी मन ही मन एक पक्ष ले रहे होते हैं. पक्षधरता को उजागर करना जोखिम भरा काम लगता है, तो लोग तटस्थ होने का भरम फैलाते हैं. कोई भी व्यक्ति 'पिटने वाले' और 'पीटने वाले' के प्रति सम भाव नहीं रख सकता. उसकी मनुष्यता का लोप ही हो गया हो तो बात अलग है. वैसे भी, मैं इस कोटि के लोगों के बारे में बात नहीं कर रहा. आज जैसी स्थितियां-परिस्थितियां बनती दिख रही हैं, इनके आलोक में एक चीज़ दिन की तरह उजागर है कि जो लोग भी समतामूलक समाज की स्थापना के स्वप्न को अभी भी प्रासंगिक मानते हैं, जो कॉरपोरेटी लूट के निहितार्थों और फलितार्थों को समझते हैं, जो जात-मजहब के खतरनाक खेल की हक़ीक़त को समझते हैं, उन्हें घोषित रूप से पक्ष तो लेना ही पड़ेगा. अमरीकी साम्राज्यवाद निकृष्टतम राजनीति करते हुए भी दुनियाभर में 'अराजनैतिक होने' को एक 'वरेण्य मूल्य' के रूप में प्रस्तावित-प्रचारित करता रहता है, इस हक़ीक़त की गहराई में जाकर ग़लत राजनीति के खिलाफ़ और सही राजनीति के पक्ष में खड़ा होना होगा. दुविधाग्रस्त मन दुश्मन के काम को आसान बना देता है. ब्रेख्त की इस मुतल्लिक कविता फ़ेसबुक पर ही रोज़ दिख जाती है. मुक्तिबोध जब बशर्ते तय करो किस ओर हो तुम  का आह्वान करते हैं, या पूछते हैं तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है, पार्टनर? तो वह सबसे ज़रूरी सवालों को सीधे समझ में आ जाने वाली भाषा में रखते हैं, ताकि दुरूहता/दुर्बोधता का आरोप न लगे उन पर.
समय आ गया है कि साहिल पर खड़े लोग सिर्फ़ अफ़सोस न करें, इमदाद भी करें ; क़श्ती डूबे तो साहिल पर खड़े लोगों के बीच कोहराम भी मचे ; वारदात हो या बारात निकले तो घरों की खिड़कियां खुलने लगें. 
लहू-लुहान नज़ारों की बात आए तो न केवल समूची वास्तविकता को जानने-समझने से नज़रें न चुराएं. कुल मिलाकर यह कि हमारे चारों ओर जो भी घटित हो रहा है, उसमें हमारा रचनात्मक हस्तक्षेप हमारे सरोकारों, हमारी चिंताओं और हमारी पक्षधरता का साक्ष्य प्रस्तुत करे. बेलाग और बेलौस तरीक़े से. 

Saturday 21 April 2012

लेनिन की 142वीं जयंती की पूर्वसंध्या पर

कल लेनिन जयंती है. ठीक 142 बरस पहले दुनियाभर के मेहनतकशों के हमदर्द और पथ प्रदर्शक, तथा मार्क्स-एंगेल्स के दर्शन पर आधारित पहली क्रांति के जनक लेनिन का जन्म हुआ था, और सैंतालीस वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया था : दुनिया के पहले समाजवादी गणतंत्र की नींव रखकर. यह सच है कि आज वह समाजवादी गणतंत्र अस्तित्वमान नहीं है. पर इसके मायने ये क़तई नहीं हैं कि उस गणतंत्र के विखंडन के बाद, या दुनियाभर में समाजवादी ढांचे के कमज़ोर अथवा क्षीण हो जाने के बाद से समाजवाद के सपने की कोई जगह नहीं रह गई. पूंजीवादी और नव- साम्राज्यवादी मंसूबों के सार तत्व को जो तनिक भी समझ रहे हैं, वे इस बात से बाखबर हैं कि समाजवाद का सपना न केवल वक़्त की जरूरत है, बल्कि पूंजीवाद की निर्णायक पराजय की एकमात्र गारंटी है. ज़रूरी नहीं कि समाजवादी संरचना वैसी ही हो, जैसी पहली क्रांति के बाद हुई थी. पिछले दिनों समूची पूंजीवादी दुनिया में मार्क्सवाद की ओर आकृष्ट होने वाले जनगण की संख्या में न केवल बढ़ोतरी हुई है, बल्कि एक तरह का धमाकेदार जन-उद्घोष सुनाई पड़ने लगा है, जिसके संदेश को सार रूप में इसी तरह समझा जा सकता है कि मौजूदा संकट से मुक्ति की दिशा मार्क्सवाद के नज़दीक ही चिह्नित की जा सकती है.
यह कहने का आशय कतई यह न लिया जाए कि पूंजीवाद के पोषकों ने निर्णायक तौर पर उम्मीद छोड़ दी है, या वे पस्त-हिम्मत हो गए हैं. इसके एकदम उलट वे पूंजीवाद को चमकाने की तमाम कोशिशें कर रहे हैं. विकासशील देशों में फ़ोर्ड फाउंडेशन तथा अनेक अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा विभिन्न परियोजनाओं के तहत अनाप-शनाप पैसा सिर्फ़ इसलिए खर्च किया जा रहा है कि वाम-विरोध को फिर से उसी तरह ज़िंदा किया जा सके, जैसा शीतयुद्ध काल में, मैकार्थी के ज़माने में किया जा सका था. तब भी अमरीकी एजेंसियों की नज़र साहित्य-संस्कृति कर्मियों, वाम-विरोधी राजनेताओं आदि पर केंद्रित थी. तब विचारधारा और राजनीति के विरोध को हथियार बनाकर, पूंजीवाद-परस्त विचारधारा चलायी गई थी. भारत में तब इसके पुरोधा अज्ञेय थे. आज भी जो सक्रिय वाम-विरोधी हैं, उनमें से अधिकांश उनके शिष्य संप्रदाय से ही संबद्ध हैं. थोडा फ़र्क़ यह आया है कि स्थानीय स्तर पर, अज्ञेय के शताब्दी-मूल्यांकन के बहाने, इन लोगों को वाम वैचारिक शिविर में सेंध लगा पाने का अवसर मिल गया है. इसे विडंबना के अलावा क्या कहा जा सकता है कि अमरीकी साम्राज्यवाद के घोर विरोधी कुछेक शीर्षस्थ नाम अज्ञेय-स्तुतिगान में इनके साथ जुड़ गए. निस्संदेह, इससे वाम शिविर में थोडा भटकाव आया है, पर यह देर तक चल सकने वाली स्थिति नहीं बन सकती, क्योंकि बड़ी लड़ाईयां लड़ी जानी हैं, न केवल यहां, बल्कि दुनियाभर में.
लेनिन जयंती एक मौक़ा है, तमाम वामपक्षी संरचनाओं के लिए कि वे आत्म-निरीक्षण करें, निर्मम आत्मालोचन करें, और समय रहते अपनी छोटी-बड़ी भूलों को दुरुस्त करें. इतना ही नहीं, बल्कि नए सिरे से अपनी निष्ठा ज़ाहिर करें, एक नया समाज बनाने के संकल्प को दोहराते हुए. एक ऐसा समाज जहां किसी भी तरह की गैर-बराबरी को एक दंडनीय अपराध के रूप में मान्यता हो, जहां शोषण, दमन और उत्पीडन समूल नष्ट कर दिए जाने के संकल्प को मूर्तिमान करने के लिए किसी भी क़ुरबानी को बड़ा नहीं माना जाए.
"लेनिन को उनकी जयंती पर लाल सलाम" सिर्फ़ एक नारा न रहे, जनता के व्यापक हिस्सों को शिक्षित एवं संगठित करने का आह्वान बन जाए. लेखकों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों को और अधिक खुलकर काम करने की ज़रूरत है.

पैरों से रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल- लेनिन 

पैरों से
रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल
और अधिक चटख रंगों में
फिर से खिलने के लिए।

जब भी बहता है
मेहनतकश का लहू सड़कों पर,
परचम और अधिक सुर्ख़रू
हो जाता है।

शहादतें इरादों को
फ़ौलाद बनाती हैं।
क्रान्तियाँ हारती हैं
परवान चढ़ने के लिए।

गिरे हुए परचम को
आगे बढ़कर उठा लेने वाले
हाथों की कमी नहीं होती।

Sunday 15 April 2012

काव्य प्रतिभा: रसूल हमज़ातोव

रसूल हमज़ातोव के मेरा दागिस्तान की गणना विश्व क्लासिकों में होती है. यह पुस्तक अपने भीतर इतना कुछ समेटे हुए है जिससे परिचित होकर युवा लेखकों की पीढ़ी कविता से जुड़े न जाने कितने ज़रूरी घटकों की समझ से संपन्न बन सकती है. यहां भाषा, रचना-प्रक्रिया, रचना का प्रयोजन, लोक से प्राप्त मेधा का सृजनात्मक उपयोग से जुड़ी सामग्री का भंडार भरा पड़ा है. काव्य-प्रतिभा पर रसूल हमज़ातोव ने बड़े दिलचस्प तरीके से विचार किया है. उनकी शैली तो पाठक को बांध ही लेती है. पाठक में यदि धैर्य हो तब तो कहना ही क्या!


जलो कि प्रकाश हो !
                                          लैंप पर आलेख

कवि और सुनहरी मछली का क़िस्सा. कहते हैं कि किसी अभागे कवि ने कास्पियन सागर में एक सुनहरी मछली पकड़ ली.
       "कवि, कवि, मुझे सागर में छोड़ दो," सुनहरी मछली ने मिन्नत की.
       "तो इसके बदले युम मुझे क्या दोगी?"
       "तुम्हारे दिल की सभी मुरादें पूरी हो जाएंगी."
      कवि ने खुश होकर सुनहरी मछली को छोड़ दिया. अब कवि की किस्मत का सितारा बुलंद होने लगा. एक के बाद एक उसके कविता-संग्रह निकलने लगे. शहर में उसका घर बन गया और शहर के बाहर एक बढ़िया बंगला भी. पदक और "श्रम-वीरता के लिए" तमगा भी उसकी छाती पर चमकने लगे. कवि ने ख्याति प्राप्त कर ली और सभी की ज़बान पर उसका नाम सुनाई देने लगा. ऊंचे से ऊंचे ओहदे उसे मिले और सारी दुनिया
उसके सामने भुने हुए, प्याज और नींबू से मज़ेदार बने हुए सीख कबाब के सामान थी. हाथ बढ़ाओ, लो और मज़े से खाओ.
जब वह अकादमीशियन और सांसद बन गया था और पुरस्कृत हो चुका था, तो एक दिन उसकी पत्नी ने ऐसे ही कहा --
"आह, इन सब चीज़ों के साथ-साथ तुमने सुनहरी मछली से कुछ प्रतिभा भी क्यों न मांग ली?" 
कवि मानो चौंका, मानो वह समझ गया कि इन सालों के दौरान किस चीज़ की उसके पास कमी रही थी.
वह सागर-तट पर भागा-भागा गया और मछली से बोला -
 "मछली, मछली, मुझे थोड़ी-सी प्रतिभा भी दे दो."
  सुनहरी मछली ने जवाब दिया -
"तुमने जो भी चाहा, मैंने वह सभी कुछ तुमको दिया. भविष्य में भी जो कुछ तुम  चाहोगे, मैं तुम्हें दूंगी, 
मगर प्रतिभा नहीं दे सकती. वह, कवि-प्रतिभा तो खुद मेरे पास भी नहीं है."
  तो प्रतिभा या तो है, या नहीं. उसे न कोई दे सकता है, न ले सकता है. प्रतिभाशाली तो पैदा ही होना चाहिए.
...
...
पिताजी ने यह बात सुनाई. दूर के किसी गांव से एक पहाड़ी आदमी पिताजी के पास आया और अपनी कविताएं सुनाने लगा. पिताजी ने  इस नए कवि की रचनाएं बड़े ध्यान से सुनीं और फिर अपेक्षाकृत कमज़ोर और बेजान स्थलों की ओर संकेत किया. इसके बाद उन्होंने पहाड़ी को यह बताया कि वह खुद, त्सादा का हमज़ात इन्हीं कविताओं को कैसे लिखता..
"प्यारे हमज़ात," पहाड़ी आदमी कह उठा, "ऐसी कविताएं लिखने के लिए तो प्रतिभा चाहिए !"
"शायद तुम ठीक ही कहते हो, थोड़ी-सी प्रतिभा से तुम्हें कोई हानि नहीं होगी."
'तो यह बताइए वह कहां मिल सकती है, हमज़ात के जवाब में निहित व्यंग्य को न समझते हुए पहाड़ी ने खुश होकर पूछा.
"दुकानों पर तो मैं आज गया था, वहां वह नहीं थी, शायद मंडी में हो."

कोई भी यह नहीं जानता कि आदमी में प्रतिभा कहां से आती है. यह भी किसी को मालूम नहीं कि कि इसे धरती देती है या आकाश. या शायद वह धरती और आकाश दोनों की संतान है? इसी तरह कोई नहीं जानता कि इंसान में वह किस जगह रहती है - दिल में, खून में या दिमाग़ में? जन्म के साथ ही वह छोटे-से इंसानी दिल में अपनी जगह बना लेती है या धरती पर अपना कठिन मार्ग तय करते हुए आदमी बाद में उसे हासिल करता है? किस चीज़ से उसे अधिक बल मिलता है -प्यार से या घृणा से, खुशी से या ग़म से, हंसी से या आंसुओं से? या प्रतिभा के इए इन सभी की ज़रूरत होती है वह विरासत में मिलती है या मानव जो कुछ देखता, सुनता, पढता, अनुभव करता और जानता है, उस सभी के परिणामस्वरुप यह उसमें संचित होती है?

प्रतिभा श्रम का फल है या प्रकृति की देन? यह आंखों के उस रंग के समान है, जो आदमी को जन्म के साथ ही मिलता है, या उन मांसपेशियों के समान है, जिनका दैनिक व्यायाम के फलस्वरूप वह विकास करता है? यह माली द्वारा बड़ी मेहनत से उगाए गए सेब के पेड़ के समान है या उस सेब के समान, जो पेड़ से सीधा लड़के की हथेली पर आ गिरता है?
...
दो प्रतिभावान व्यक्तियों की प्रतिभा एक जैसी नहीं होती, क्योंकि समान प्रतिभाएं तो प्रतिभाएं ही नहीं होतीं. शक्ल-सूरत की समानता पर तो प्रतिभा बिल्कुल ही निर्भर नहीं करती. मैंने अपने पिताजी के चेहरे से मिलते-जुलते चेहरों वाले बहुत-से लोग देखे हैं, मगर पिताजी के समान प्रतिभा मुझे किसी में दिखाई नहीं दी.
प्रतिभा विरासत में भी नहीं मिलती, वरना कला-क्षेत्र में वंशों का बोलबाला होता. बुद्धिमान के यहां अक्सर मूर्ख बेटा पैदा होता है, और मूर्ख का बेटा बुद्धिमान हो सकता है.

किसी व्यक्ति में अपना स्थान बनाते समय प्रतिभा कभी इस बात की परवाह नहीं करती कि वह किस राज्य में रहता है, वह कितना बड़ा है, उसकी जाति के लोगों की संख्या कितनी है. प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है, अप्रत्याशित ही आती है और इसलिए वह बिजली की कौंध, इंद्रधनुष अथवा गर्मी से बुरी तरह झुलसे और उम्मीद छोड़ चुके रेगिस्तान में अचानक आने वाली बारिश की तरह आश्चर्यचकित कर देती है...
...    

Sunday 1 April 2012

रुकना चाहिए यह सिलसिला

सही वक़्त पर सही सवाल 
खड़े करने से कतराते रहने का 
यह सिलसिला कभी टूटेगा भी
या चलता ही रहेगा यह 
यूं ही अनवरत? ज़रूरी है 
सब कुछ की समीक्षा
बेलाग बेलौस ढंग से.

यों तो पुस्तक समीक्षा भी ज़रूरी है बेशक
पर लगता है कई बार कि 
समीक्षाओं की समीक्षा ज़रूरी है
क्योंकि
समीक्षाओं से उनके छद्म का 
तिलिस्म तो टूटता नहीं दिखता
पता ही नहीं चलता क्यों
लिखी जाती हैं जैसी 
लिखी जाती हैं वे? जुगाड़ किया जाता 
है जो, रहस्यों को परत-दर-परत
छिपाने का ही करता है काम
रचना का, समीक्षा का पूरा सच 
नहीं आ पाता सामने. 

कैसे हो जाता है 
कि युवा कवि लिख देता है
चार कविताएं "बड़े" कवि की शान में
और औचक रह जाती है साहित्यिक दुनिया
जब पा जाता है युवा कवि एक 
प्रतिष्ठित पुरस्कार "न कुछ कविता"
के बूते पर! पुरस्कार के लिए अनुशंसा भी
तो समीक्षा ही होती है, मूलतः और
अंततः ...

मज़ा यह कि तिकडम के सहारे
इस तरह बहुत कुछ पा जाने वाले 
रोते ही रहते हैं रोना फिर भी 
शिकार बन जाने का  न जाने किस-किस 
तरह के पूर्वाग्रहों का
पुरस्कृत-सम्मानित होते हुए भी 
वंचित रखे जाने का 
ध्यान अपने पर से हटाने का
समय-सिद्ध टोटका है यह जब
भीड़ में घुस कर चोर ही चिल्लाने लगे 
"चोर,चोर" क्योंकि कर ही नहीं सकती 
कोई शक़ ऐसे आदमी पर वह भीड़
जो भागी जा रही है चोर की तलाश में !

कैसा लगे जब पता चले
कि कविता में पूरी धरती से 
सरोकार जताने वाला कवि
परदे के पीछे
"पुरबिया" बन जाता है
पुरस्कार पाने को, एक 
"बड़े" कवि-निर्णायक का 
दुमछल्ला बन जाता है !

कि कैसे एक कवि 
अच्छी-दिखती कविताएं लिखने
के साथ-साथ ही 
गुमनाम पत्र भी लिखता है
बेहद पुरअसर और फलदायी
अपने "नामित प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ़
पुरस्कार-आयोजक-संपादक की
सलाह पर ! नेपथ्य में चलता रहता है जो
वह दुनिया को, हमारी दुनिया को
कुछ ज़्यादा ही बदसूरत बना देता है.
"भीतर" और "बाहर" के बीच ऐसा
फ़र्क़ तो नहीं होता था आज से
कुछ समय पहले तक. यों लोभ-लालच से
मुक्त नहीं थी दुनिया तब भी
पूर्वाग्रह काम करते थे तब भी
निजी पसंद-नापसंद का मसला 
उतना "गौण" नहीं हो गया था,
और जात-बिरादरी का खेल झांक ही
जाता था उन दिनों भी
यानि समीक्षा का स्वर्ण युग वह भी नहीं था
फिर भी इतनी समझदारी नहीं 
आ गई थी, समयपूर्व 
कवियों में
"साधने" की कला में ऐसी महारत 
हासिल नहीं थी...अपवाद हो सकते थे
इक्का-दुक्का. और खेल की चालें भी 
उतनी उजागर नहीं हई थीं.

समीक्षा के औजारों की समझ  जितनी ज़रूरी है
उससे कम ज़रूरी नहीं है
समीक्षा के औजारों की समीक्षा.
इसीसे संभव होगी समीक्षा की समीक्षा
इसीसे खुलेंगे रचना-समीक्षा के प्रयोजन
गिरोहबंदियां भी होंगी उद्घाटित इसी से.
खुला खेल फ़रुक्काबादी
कैसे चल सकता है अनवरत?

तो क्यों नहीं होनी चाहिए कवियों की 
पक्षधरताओं  की और 
उतनी ही कड़ी समीक्षा समीक्षकों,
निर्णायकों और 
प्रस्तावित-अनुमोदित-प्रोन्नत 
करने वालों की भी?

यह सब नहीं होगा तो
जीवन की समीक्षा का क्या होगा?
और जीवन की समीक्षा नहीं 
तो साहित्य की क़ीमत क्या?
                               -मोहन श्रोत्रिय