लीना मल्होत्रा राव कवि ( जान-बूझ कर 'कवयित्री' नहीं कह रहा ) के रूप में एक ऐसा नाम है जो दिनों दिन हिंदी कविता में अपना एक ख़ास मुक़ाम और ख़ास पहचान बनाता जा रहा है. अपने समकालीन अन्य कवियों से एक अलग पहचान. न केवल स्त्री-प्रश्नों पर वरन हम सब को छूने वाले किन्हीं भी प्रश्नों पर उनकी मुखरता पाठक को सीधे अपनी ओर आकृष्ट करने की अद्भुत क्षमता के रूप में व्यक्त होती है. अभी पिछले महीने जोधपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग और यूजीसी द्वारा आयोजित एक पुनश्चर्या पाठ्यक्रम में समकालीन हिंदी कविता पर दिए गए चार (देने थे ६, पर अपने एक घनिष्ठ मित्र की मृत्यु का समाचार सुन कर चौथे व्याख्यान के बाद ही, बीच में कार्यक्रम छोड़कर, मुझे लौटना पड़ा ) व्याख्यानों में से एक मैंने लीना की कविताओं पर केंद्रित किया था. मुझे आप लोगों के साथ यह साझा करते खुशी है कि कई राज्यों से आए हिंदी के विश्वविद्यालयी एवं महाविद्यालयी शिक्षकों ने लीना की कविताओं को सर्वाधिक सराहा था. साथ ही ईमानदारी से उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि यह नाम उनके लिए एक दम नया था. दो या तीन अपवाद थे जिन्होंने फ़ेस बुक पर लीना की दो-चार रचनाएं देखी थीं. यहां चूंकि मैं लीना कविताओं तक ही अपने आपको सीमित रख रहा हूं ( अन्य कवियों, जिन पर मैंने वहां चर्चा की थी अलग व्याख्यानों में, के बारे मैं अलग से, और जल्दी ही ), लीना की ताज़ा लिखी तीन कविताओं को यहां प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं. तीनों कविताएं इतनी सहज हैं कि मुझे इन पर किसी अतिरिक्त टिप्पणी अथवा व्याख्या की ज़रूरत नहीं लगती. मुझे विश्वास है कि आपको भी ऐसा ही लगेगा. सहज जीवनानुभव में विचार कितना गुंथ जाता है, कथ्य के साथ एक-मेक हो जाता है, यह देखने-सराहने की चीज़ है. मैं कोई भविष्य वक्ता नहीं हूं, पर मेरा विश्वास है कि आगे के दिनों में जो चार-पांच नाम हिंदी कविता में पूरी प्रखरता के साथ चमकने वाले हैं, उनमें लीना की जगह सुरक्षित है. बाक़ी तीन-चार कवियों के बारे में; ऐसे ही, जल्दी ही.
मैं रात रात भर गिनती रहती मेरी छत से गुजरने वाले हवाई जहाज़ों को
और सोचती उनमे बैठे यात्रियों और उनकी पत्नियों के बारे में
जो शायद घर पर उनकी सलामती कि दुआएं मांग रही होंगी
जबकि उनकी सुखद यात्रा के कई स्पर्श और चुपके से लिए हुए चुम्बन
उन जहाजों से मेरी छत पर गिरते रहते
और रेंगते हुए मेरे बिस्तर तक आ जाते
इस तरह मेरी चादरों पर कढ़े फूलों के रंग फेड हो जाते
तब माचिस की डिबिया की सारी दियासिलाइयां सीलन से भर उठती
यही एक मात्र प्रतिरोध था जो मैंने
किया अपने सीमित साधनों से
पर आज मै निकली हूँ घर से
अपनी मर्ज़ी के सब फूल मैंने अपने
मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान
आज मैं एक लम्बी नींद से उठी हूँ
और मुझे ये दिन ही नही ये जिंदगी भी बिलकुल नई लग रही है
मै नही देखना चाहती
सोचना भी नही चाहती कि मैंने अपनी जिंदगी कैसे गुज़ारी है
वह पुरुष कहाँ होगा
जिसे मैंने
हर चाय के प्याले के साथ चोरी चोरी चुस्की भर पिया
और मुझे ये दिन ही नही ये जिंदगी भी बिलकुल नई लग रही है
मै नही देखना चाहती
सोचना भी नही चाहती कि मैंने अपनी जिंदगी कैसे गुज़ारी है
वह पुरुष कहाँ होगा
जिसे मैंने
हर चाय के प्याले के साथ चोरी चोरी चुस्की भर पिया
और वह पुरुष जो मेरा मालिक था
उसकी परेशानियों और इच्छाओं को समझना मेरा कर्तव्य था जैसे कि मै
कोई रेलगाड़ी की सामान ढोने वाली बोगी थी जिसमे वह
जब चाहे अपनी इच्छाएं और परेशानियाँ जमा कर सकता था
मेरी यात्रा में मै उन्हें उसकी मर्ज़ी के स्टेशन तक ढोती
उसकी परेशानियों और इच्छाओं को समझना मेरा कर्तव्य था जैसे कि मै
कोई रेलगाड़ी की सामान ढोने वाली बोगी थी जिसमे वह
जब चाहे अपनी इच्छाएं और परेशानियाँ जमा कर सकता था
मेरी यात्रा में मै उन्हें उसकी मर्ज़ी के स्टेशन तक ढोती
जहाँ से उतर कर वह यूँ विदा हो जाता जैसे कोई मुसाफिर चला जाता है.
मैं रात रात भर गिनती रहती मेरी छत से गुजरने वाले हवाई जहाज़ों को
और सोचती उनमे बैठे यात्रियों और उनकी पत्नियों के बारे में
जो शायद घर पर उनकी सलामती कि दुआएं मांग रही होंगी
जबकि उनकी सुखद यात्रा के कई स्पर्श और चुपके से लिए हुए चुम्बन
उन जहाजों से मेरी छत पर गिरते रहते
और रेंगते हुए मेरे बिस्तर तक आ जाते
इस तरह मेरी चादरों पर कढ़े फूलों के रंग फेड हो जाते
तब माचिस की डिबिया की सारी दियासिलाइयां सीलन से भर उठती
यही एक मात्र प्रतिरोध था जो मैंने
किया अपने सीमित साधनों से
पर आज मै निकली हूँ घर से
अपनी मर्ज़ी के सब फूल मैंने अपने
सूटकेस में रख लिए हैं
यही मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान है
एक पगडण्डी सुख
मैं आज एक अनजाने सुख से भरी हूँ
एक नये शहर में मै पहली बार अकेली आ गई हूँ
मै एक ऐसा दिन जीने जा रही हूँ
जिसमे सिर्फ मेरी यात्रा तय है
ये नही की कैसी होगी मेरी यात्रा
और कौन होगा मेरे साथ ?
मै समझ पाई हूँ जीवन को
एक नई दृष्टि से
कि यदि भरे पूरे शहर में तुम्हारा घर न हो
न ही होटल का कमरा
और कोई दोस्त भी न हो आस पास
तो असुरक्षा को
शहर की बिल्लियों से दोस्ती करके
कैसे दूर भगाया जा सकता है
कैसे शहर की गलियां और साईकिल रिक्शा वाला
आत्मीय हो जाता है
और भरोसे के कितने ही फूल अचानक खिल उठते हैं
और उनकी सुगंध तुम्हे जीत का एक आश्वासन दे सकती है .
एक उडती हुई तितली तुम्हारे लिए एक रास्ते का निर्माण कर सकती है
जिसकी लय पर बेख़ौफ़ बिना पीछे देखे तुम चलते रह सकते हो
बाग़ में उडती हुई चिड़ियाँ
दरख्तों पर लटके पत्तो का रिश्ता कितना नायाब होता है
और कैसे वे आसमान और मिटटी को एक कटोरी चीनी की तरह उधार लेते देते हैं..
मैंने जाना
प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ उपहार आज भी हमें बिना मूल्य चुकाए ही मिलते हैं
और हमारे घर की अलमारियों में बंद सोने चांदी और हरे नोट
सिर्फ डर चिंता और उपभोक्ता ही पैदा कर सकते हैं
मैने अजनबी चेहरों में तलाशा थोडा अपनापन
और जाना कि
कि हमारे भौतिकता से लबरेज़ दिलों में थोड़ी ऊष्मा बाकी है
उनके पसीने से भरे चेहरे और मैले कपडे उनकी गरीबी का नहीं
बल्कि उनके बीच एक अनोखे समाजवाद की घोषणा करते हैं.
और हमें उनके जैसा होने के लिए सिर्फ धूल और धूप ही चाहिए
बनारस में पिंडदान
घाट जब मंत्रो की भीनी मदिरा पीकर बेहोश हो जाते हैं
तब भी जागती रहती हैं घाट की सीढियां
गंगा खामोश नावों में भर भर के लाती हैं पुरखे
बनारस की सोंधी सड़कों से गिरते पड़ते आते हैं पगलाए हुए पुत्र,
पिंड के आटे में बेटे चुपचाप गूंथ देते हैं अपना अफ़सोस
अंजुरी भर उदासी जल में घोल नहला देते हैं पिता को
रोली मोली से सज्जित कुपित पिता
नही कह पाते वो शिकायते
जो इतनी सरल थी की उन्हें बेटों के अलावा कोई भी समझ सकता था
और इस नासमझी पर बेटे को शहर से निकाल दिया जाना चाहिए था
किन्तु
तब भी जानते थे पिता बेटे के निर्वासन से शहर वीरान हो जायेंगे
भूखे पिता यात्रा पर निकलने से पहले खा लेते हैं
जौ और काले तिल बेटे के हाथ से
चूम कर विवश बेटे का हाथ एक बार फिर उतर जाते हैं पिता घाट की सीढियां
घाट की सीढियां बेटियों सी पढ़ लेती हैं अनकहा इस बार भी
सघन हो उठती है रहस्यों से हवाएं
और बनारस अबूझ पहेली की तरह डटा रहता है
डूबता है बहता नही....
शांति में
घंटियों में
मंत्रो में
शोर में
गंगा में....
- लीना मल्होत्रा
लीना जी के बारे में आपने बिल्कुल सही कहा है श्रोत्रिय जी। इधर जिन कवियों ने एक तरह से अपनी रचनात्मकता से चमत्कृत सा किया है उनमें लीना जी महत्वपूर्ण कवि हैं। मुझे लीना की कविताओं में जो चिंतन, संवेदनाओं की सघनता, बिल्कुल नए अनूठे बिंब, एक गहरी आशा और आस्था से भरी दुनिया दिखाई देती है, वह निश्चय ही उन्हें हिंदी कविता के भविष्य की बड़ी लेखिका सिद्ध करती है। उनके यहां फिक्र के साथ एक बेफिक्री का भी खूबसूरत अहसास है जो उनकी काव्ययात्रा को मजबूती देता है। वे बिलावजह दुनिया के रोने धोने में यकीन नहीं करती, बल्कि जो कुछ भी हमारे समय में आशा और सकारात्मक जीवन के संकेत उपलब्ध हैं उन्हें बिना किसी तय शिल्पविधान के बहुत सुंदरता से एक नए काव्यात्मक आस्वाद के साथ प्रस्तत करती हैं। ये कविताएं मेरी आशा की कविताएं हैं। मेरी जानकारी में पिता के अंतिम संस्कार पर ऐसी कविता किसी पुत्र ने नहीं लिखी है अब तक। इन्हें पढ़कर मन बहुत प्रसन्न है।
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ReplyDeleteयही एक मात्र प्रतिरोध था जो मैंने
ReplyDeleteकिया अपने सीमित साधनों से
पर आज मै निकली हूँ घर से
अपनी मर्ज़ी के सब फूल मैंने अपने
सूटकेस में रख लिए हैं
यही मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान है
prabhavshalee hain
लीना की कविताएँ मै जब भी पढ़ता हूँ , वे काफ़ी देर तक दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं. ये कविताएँ इतनी सहज, सरल और अ-कृत्रिम होती हैं कि चुपचाप आपको अपने साथ कर लेती हैं ! काफ़ी देर बाद पता चलता है कि आप भावों की एक दूसरी दुनिया में ही चले गए थे ! ब्लाग -'' सोची-समझी ''पर लीना जी की 3 कविताएँ प्रकाशित हुई हैं जिन्हें अपनी हालिया यात्रा के दौरान उन्होंने लिखा है. ये कविताएँ बताती हैं कि अपने परिवेश को कितनी सूक्ष्मता और संवेदनशीलता के साथ वे देखती और महसूस करती हैं ! इनमे से -- '' एक पगडण्डी सुख '' में अगर उनका वर्षों पुराना अल्हड़पन दिखता है, तो --'' मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान '' में जिम्मेदारियों से लदी और स्व को भूल चुकी उस स्त्री की व्यथा है जो इस उब को एक झटके से फेंक ख़ुद के वजूद को पूरी तरह महसूस करना चाहती है. निहायत व्यक्तिगत होते हुए भी ये कविताएँ सबकी अपनी लगती हैं. खासकर युवतियों को. लीना ने निःसंदेह काव्य रचना को एक स्व निर्मित विधा दी है, उन्हें साधुवाद !!
ReplyDeleteमोहन सर ने ठीक कहा है कि लीना एक बहुत प्रतिभाशाली कवियित्री हैं ! एक कवियित्री के तौर पर और एक इंसान, एक सहृदय महिला, एक ममतामयी माँ, एक प्रेमिल पत्नी, और मेरे लिए एक सच्ची दोस्त और पथ-प्रदर्शक के तौर पर जितना मैं लीना को जान पाई हूँ, पूरे विश्वास और गर्व से यह कह सकती हूँ कि लीना एक मुकम्मल महिला के रूप में अनुकरणीय हैं! उनकी कवितायेँ पाठक के दिलो-दिमाग पर एक असर छोड़ देती हैं और सोचने पर मजबूर कर देती हैं, उन ज्वलंत मुद्दों और प्रश्नों के बारे इन जो वे कविता के माध्यम से उठाती हैं! मोहन सर की भविष्यवाणी एक दिन ये साबित कर देगी कि लीना मल्होत्रा राव आधुनिक कविता का सशक्त हस्ताक्षर हैं! मेरी ओर से मोहन सर को धन्यवाद ओर लीना को ढेर सी बधाई और शुभकामनायें !
ReplyDeleteबेचैन कर देने वाली कवितायें।
ReplyDeleteबहुत ही अलग तरह की मौलिक और दिलचस्प छू लेनेवाली अनुभूतियां है..
ReplyDeleteबुखार से तप रहा हूँ लिखने की स्थिति में नहीं था । यूँ ही फेसबुक में क्या चल रहा है यह देखने मात्र के लिए यहाँ आया तो देखा पहली पोस्ट ही लीना मल्होत्रा राव की कविताओं से संबंधित वह भी मोहन श्रोत्रीय जी के ब्लाग में यह कैसे हो सकता था कि मैं आगे बढ़ जाता । ब्लाग खोलकर जब कविताएं पढ़ी हमेषा की तरह प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । फिर ऐसी स्थिति में टिप्पणी कब हो गई मुझे पता ही नहीं चला । मैं लीना मल्होत्रा राव को लेकर मोहन जी की राय से सहमत हूँ वास्तव में लीना में भविष्य की हिंदी कविता को लेकर बहुत संभावना है । यही बात पहली बार उनकी कविताएं पढ़ते हुए भी मैंने उनसे कही थी। मुझे आष्चर्य होता है कि ऐसी कवयित्री प्रिंट में आने से कैसे वंचित रह गई। लीना में अद्भुत कल्पनाषीलता तथा संवेदनषीलता है जो उनके रूपकों और प्रतीकों में दिखाई देती है साथ ही आवष्यक प्रतिरोध भी । यही तत्व हैं जो किसी कविता को महत्वपूर्ण बनाते हैं। उनके पास अपनी बात को कहने का साहस भी और एक संप्रेषणीय षिल्प भी है। उनकी कविता मन और मस्तिष्क दोनों से ग्रहण की जानी वाली कविता है जिसका कि आज के बहुत सारे स्वनामधन्य कवियों की कविताओं में अभाव दिखाई देता है। उनके बिंब इतने ताकतवर हैं कि मन-मस्तिष्क में टक जैसे जाते हैं। इन बिंबों को वह कहीं दूर से नहीं बल्कि अपने आसपास से ही उठाते हुए ऐसे कविता में ले आती हैं कि जैसे वे इसी के लिए बने हों। विषय चयन भी अच्छा है। स्त्री मन के अंतर्विरोध , अंतर्संघर्ष और हलचल उनकी कविताओं में प्रभावषाली तरीके से व्यक्त होते हैं। उनमें जीवन को नई दृष्टि से देखने की इच्छा है। सबसे बड़ी बात तमाम विसंगतियों-विडंबनाओं के बावजूद उनके भीतर बहुत कुछ बचा होने का विष्वास बचा हुआ है जिसे वह अपनी कविताओं में समेटती हैं। उनकी कविता अजनबी चेहरों पर भी भरोसे की तलाष है। निष्चित रूप से उनकी कविता हिंदी में भरोसे के फूल की तरह खिल रही है जिसकी खूषबू से हिंदी साहित्य का पूरा आकाष सुरभित होगा। बस उनके यहाँ कभी-कभी जो हल्की सी भावुकता दिखाई देती है उससे अपनी वैचारिकता को सषक्त करते हुए उन्हें बाहर आना होगा। यह निरंतर अध्ययन से प्राप्त होने वाली चीज है। मेरी यह टिप्पणी इन कविताओं से बाहर जाती हुई लग रही होगी उसका कारण यही है कि इन कविताओं पर लिखते हुए उनकी पहले पढ़ी हुई कविताएं मेरे अचेतन से चेतन में लगातार दस्तक देती रही।
ReplyDeleteकविताओं में एक सुखद कथ्यात्मक रवानगी है !एक नाव जैसे बिना रुके बह रही है और चप्पू चलाने में ज़ोर नहीं पड़ रहा !पानी भी शांत कल कल बह रहा है !किनारा आने के बाद भी उतरने को मन नही करता !ईश्वर करे ,ये नाव तेज पानियों से बची रहे !प्रत्येक संभावित सूराख से बची रहे !
ReplyDeleteशुभकामनाएँ !
मोहन जी ,आप साधूवाद के पात्र हैं
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ReplyDeleteतीनों ही कविताएं अच्छी हैं. श्रोत्रिय जी का आभार. लीना... आपको बधाई.
ReplyDeleteअद्धभुत.....!
ReplyDeleteबहुत अच्छी कवितायेँ हैं लीना जी की ! बेहद आत्मीय और सहज अपनी ओर आती हुई ! बहुत बधाई लीना जी को ! और मोहन जी का आभार यहाँ प्रस्तुत करने के लिए !
ReplyDeleteलीना का अपना संसार है .. कहन और संवेदना विस्मित करती हैं .. गद्य में कविता का शरीर किस गीतात्मकता से बढ़ता है ... उसके हाथ -पैर , माथा ... पूरी देह यथार्थ से ऐंद्रिकता की ओर ले जाते हैं .. ये जादू है अपने तरह का .. बधाई ! लीना और श्रोतिया सर को .. सुन्दर कविताएँ , अनुपम चयन ..
ReplyDeleteLeena, Namaskaar. bahut sundar bhav, vichaar, abhivyakti. Aaj aap se baat karan sobhagya shali raha, varna, aap ke iss roop ke baare me jaankari hi nhn hoti. Stree ke manobhavon evam saamajik vastusthiti ki kavita me itni sundar abhivyakti, atyant sarahniya h. Hum dua karte hn, aap iss vidhaa me nikharti jaayen, evem sahitya jagat me ek alag jagah banaayen. Hamari shubh kaamnayen sadiav aapke saath hn.
ReplyDeleteLeena, Namaskaar. bahut sundar bhav, vichaar, abhivyakti. Aaj aap se baat karan sobhagya shali raha, varna, aap ke iss roop ke baare me jaankari hi nhn hoti. Stree ke manobhavon evam saamajik vastusthiti ki kavita me itni sundar abhivyakti, atyant sarahniya h. Hum dua karte hn, aap iss vidhaa me nikharti jaayen, evem sahitya jagat me ek alag jagah banaayen. Hamari shubh kaamnayen sadiav aapke saath hn.
ReplyDeletekhaas taur par pahalee aur teesaree kavitaa ddor tak vichalit karatee hai.
ReplyDeletedoor tak
ReplyDeleteमोहनदा, कृपया Word verification हटा दीजिये.
ReplyDeleteलीना की कविताओं से परिचय फेसबुक पर ही हुआ और दावे से कह सकता हूँ कि वह हिन्दी की मुख्यधारा में लिख-छप रहे तमाम कवियों से कहीं आगे की कविताई कर रही हैं. उन्हें बहुत जल्द प्रिंट में प्रमुखता से देखने की ख्वाहिश है.
ReplyDeleteBeautifully written. Bahut hi sunder abhivayakti.
ReplyDeleteआभार आप सब मित्रों के स्नेह का, सराहना का... आशुतोष जी, अशोक जी, महेश जी मेरे लिए आप सभी के ये शब्द अमूल्य हैं जो मुझे आगे बढ़ने में मेरा मार्गदर्शन करेंगे, प्रोत्साहन देंगे, आदरणीय मोहन श्रोतिया जी को तो आभार कैसे कहूं उनसे तो बस यही आग्रह कर सकती हूँ कि अपना स्नेह बनायें रखें , मैं बहुत सौभाग्यशाली हूँ कि उन्होंने मुझे चुना पहले आख्यान के लिए फिर ब्लॉग के लिए भी .. यह उन्ही का बडप्पन हैं ..उनके स्नेह के आगे नतमस्तक हूँ. नमन.
ReplyDeletebahut hi khoobsurat kavitayen hai .
ReplyDeleteनील कमल संवेदनशील कवि और समीक्षक हैं. जिस कविता में गिरते पड़ते पगलाए बेटे अफ़सोस , उदासी और विवशता के साथ आये हों , उस में बेटों की क्रूर छवि उन्होंने कैसे देख ली , यह आश्चर्यजनक है. मन्त्रों की मदिरा पी कर घाट बेहोश हों , लेकिन सीढियां जागती हों , सड़कें सोंधी हों , इस में बनारस के इतिहास और वर्तमान का समूचा अंतर्विरोध देखा जा सकता है. पैरों के नीचे बिछी जागती सीढियां घाटों तक ले जाती हैं , लेकिन मुक्ति , हिन्दू परम्परा में , घाट पर बेटों के हाथों ही मिल सकती है. अंतिम संसकारों तक में पितृसत्ता के इस हस्तक्षेप की विडम्बना को जितनी मार्मिकता से इस कविता में कहा गया है , उस का सम्बन्ध पिता और पुत्रों के रिश्ते की समूची जटिलता से जुड़ जाता है. यह कविता निस्संदेह बनारस पर लिखी केदारजी की प्रसिद्द कविता से आगे जाती है.
ReplyDeletekavi neel kamal kee teep -
ReplyDeleteकविता की खिड़की से बनारस को देखना
by Neel Kamal on Monday, October 10, 2011 at 5:37am
सुबहे बनारस और शामे अवध । ये दोनों ही अपनी खासियत के लिए जगत विख्यात हैं । बनारस से लौट कर एक बार के लिए किसी का भी मन आध्यात्मिकता में डूब जाने की सम्भावना सौ फ़ीसदी रहती है । बनारस है ही ऐसा - मृत्यु को उसकी सहजता में जीता , मुक्ति के दरवाज़ों पर दस्तक देता और जिन्दगी की अव्वल परेशानियों को पान की पीक के साथ बाहर फ़ेंकता हुआ । बनारस अपने में एक रहस्य छुपाता शहर भी है ।
ऐसे में बनारस पर लिखी कोई भी कविता एक बार अपनी ओर देखने के लिए पर्याप्त आकर्षण रखती है । "बनारस में पिण्डदान" ( कवि - लीना मल्होत्रा ) कविता इस खास शहर के अन्दर झाँकने के लिए खिड़कियाँ खोलती है । कविता का स्वर कोमल होते हुए भी इसमें कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर किसी भी पाठक की जिग्यासा का विषय हो सकता है । प्रथम पंक्ति में ही मन्त्रों की भीनी मदिरा पीकर बहोश घाट पर जागती सीढ़ियों का चौंकाने वाला बिम्ब है । बनारस के घाट और बेहोश !! वह भी मन्त्रों की मदिरा पीकर ?? तो फ़िर सीढ़ियाँ कैसे जाग रही हैं ? बनारस का एक खुला रहस्य यह है कि इसके घाटों में से कुछ तो ऊँघते भी नहीं । यह शिव की नगरी है । कोई मदिरा बनारस के घाटों को बेहोश कर दे तो हैरत होनी चाहिए उस मदिरा की तासीर पर । बनारस मे अनुमानत: चौंतीस घाट हैं जिनमें से एक तो ऐसा कि जहाँ चिताओं की आग कभी बुझती ही नहीं - यह मणिकर्णिका है ।
एक अन्य बिम्ब है बनारस की सोंधी सड़कों पर गिरते पड़ते आते पगलाए पुत्र का । यह बिम्ब भी बड़ा चौंकाने वाला है । बनारस की सड़कें सोंधी कब से होने लगीं । हाँ पान-ज़र्दे की एक खुशबू की बात फ़िर भी ज़्यादा विश्वसनीय हो सकती थी । कविता में आगे रोली मोली से सज्जित कुपित पिता का एक ऐसा ही तीसरा बिम्ब है । कवि का संकेत है कि बेटों की नासमझी पर उन्हें शहर से निकाल देना चाहिए था । प्रश्न यहाँ यह है कि ये बेटे आखिर इस कदर पगलाए हुए और नासमझ क्यों हैं ? इस प्रश्न का प्रतिकार करती बेटियों सी सीढ़ियाँ पिता के अनकहे को पढ़ लेती हैं । यह ज़रूर एक सहज कोमल भावना का ही विस्तार हो सकता है । पिंड के आटे में बेटे चुपचाप गूंथ देते हैं अपना अफ़सोस - यह अफ़सोस कैसा है ? क्या बेटे सच में इतने ही निष्ठुर होते होंगे ?? क्या ये वही बेटे होंगे जो पिता की देह पर आखिरी यात्रा से पहले घी और चन्दन का लेप करने की विडम्बना को जीते है ? जो पिता को मुखाग्नि देते वक्त आत्मा की गहनतम तहों तह काँप जाते हैं , क्या ये वही बेटे हैं ? या कही कवि के अवचेतन में बेटों की कोई क्रूर छवि अंकित है ।ये सभी प्रश्न एक सामान्य पाठक के प्रश्न हो सकते हैं ।
लीनाजी द्वारा रचित कुछ और नई एवम ताज़ा कवितायेँ... पढना.. बार-बार पढना और खुद को कविता में खो जाने का मन करता है! लाजवाब रचनाएँ! मन के संवेदनशील हिस्से को अपनी खुराक मिल जाती है! कम शब्दों में - एक आत्ममुग्ध भावपूर्ण कविता संग्रह. धन्यवाद श्रोत्रियजी.
ReplyDeleteलीना की कविताएँ जीवन्तता और अकूत उमंग भरी है. इनका लेखन अंदाज़ और विषय आधुनिक नारी की सशक्त प्रस्तुति है, जिसमे नारी के सन्दर्भ में, मानवीय रिश्ते- की रचनागत विशिष्टता दिखती है. इनके लेखन शैली ने अनेक कवियों को और कवयित्रियों को एक नया साहस दिया है. इन्होने अपनी रचनाओं से साहित्य जगत में अपने जीवन के एक नए युग का आरम्भ किया है. अक्सर कैजुअल अंदाज़ में कई गंभीर बातों को कह देना इनकी कविताओं की विशेषता है. इश्वर से प्रार्थना है की आप लिखती रहें, लिखती रहें.
मैं मोहनजी से पूर्णतः सहमत हूँ कि हिंदी कविता में एवम कवि जगत में लीना की जगह एकदम सुरक्षित है!
neel kamal kee teep par meree teep par mohanda kee teep - कविता में व्यक्त यथार्थ को आपने उसकी पूरी द्वन्दात्मकता में, इतिहास और वर्तमान दोनों के अंतर्विरोधों की पृष्ठभूमि तथा uski गत्यात्मकता के सन्दर्भ के साथ जोड़कर, कविता को वह अर्थ दे दिया है, जो संदर्भित टिप्पणी में नज़रों से ओझल हो गया था. एक संवेदनशील कवि(लीना, प्रस्तुत सन्दर्भ में) की यथार्थ की पकड़ 'रेखीय' नहीं होती, खासकर वहां जहां जटिलताएं इतनी हों कि यथार्थ के अंतर्विरोध सामान्य व्यक्ति की पकड़ से 'फ़िसल' जाने का खतरा पैदा कर देते हों. यह कविता निस्संदेह इस दौर की श्रेष्ठ कविताओं में से है. जब लीना ने यह कविता, अन्य कविताओं के साथ, मुझे भेजी तो सच कहूं, पहले पाठ में ही यह कविता मुझे विशेष रूप से 'भा' गई. मेरे पास चयन के विकल्प थे क्योंकि लीना की पिछले दिनों लिखी लगभग बीस कविताएं मेरे पास पहले से थीं. पर मैंने इस कविता को आखिर में रखा " कभी की बिनाका गीतमाला की आखिरी पायदान पर" की तर्ज़ पर, और यह महज़ संयोग नहीं है कि यहां भी इस कविता को खूब सराहा गया है.
ReplyDeleteपुनश्च...... 'घाट की सीढियां बेटियों सी' यह रूपक विशेष रूप से उल्लेखनीय हो जाता है, इसके बाद आने वाले 'क्रिया-पद' के बल पर.
aur ant men leenaji - Ashutosh kumarji , mohan shrotriya ji... मै आभारी हूँ की आपने मेरी कविता का मर्म समझा और उसे अभिव्यक्त किया...neelkamalji मदिरा और मन्त्र दोनों ही रूपांतरण करते हैं.. रहस्यों पर से पर्दा उठाते हैं. .. बनारस जीवन और मृत्यु के संधि स्थल पर टिका हुआ लगा मुझे.. घाट और सीढिया इसी अन्र्विरोध में परिलक्षित होते हैं. और और पंडो की दुकानदारी ने ८४ दानो का जिस तरह व्यापार चलाया है वह मुझे किसी शराबी की दूकान पर जुटी भीड़ से अधिक नही लगा...यह एक सर्व विदित सत्य है की आज माँ बाप को पिंडदान में भोग मिल सकता है लेकिन जीते जी प्यार की रोटी नही. ..सीढ़ियों का जागे रहना एक बिम्ब है.. जिसे कोई भी कवि मन समझ सकता है.. इसकी तुलना इसी लिए मैंने बेटियों से की है.. यह मेरा दृष्टिकोण है. और हाँ दिल्ली आइयेगा.. यहाँ के ट्रेफिक में फंस कर लगभग बहरे होकर जब आप घर पहुँचते हैं. ऐसे में काशी की रिक्शा और वहां की धीमी गति से गुजरती सड़कें आपको भी सोंधी ही लगेगीं. ..
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सुन्दर कवितायें
ReplyDeleteलीना जी की कविता सचमुच ही अद्भुत है. बहुत सधी, और दूर तक देखने वाली. बनारस पर केदार जी की कविता में कुछ नए आयाम जोडती है यह. सार्थक आयाम. चूंकि कहने की बातें काफी और बदली हुई हैं, और शब्द कम हैं, इसलिए कविता कई बार इशारतन बतियाती है. दूसरे यह कविता बनारस को मेरे हिसाब से एक जगह फ्रीज करती है. कविता पढते हुए बनारस पर लिखी हुई और कवितायें पृष्ठभूमि बनाती हैं. बनारस-बोध. अब यह लीना जी का बनारस इसी गतिशील पृष्ठभूमि में ठहराया गया है. 'बेटियों सी...' एक सुगठित काव्य बिम्ब है जो इस काव्य-संरचना में भीषण अर्थ हासिल कर लेता है. शायद.
ReplyDeleteनीलकमल जी की टिप्पणी पढते हुए लगता रहा कि पता नहीं क्यों, हम कवि भी कई बार दूसरों की कविता के लिए वे औजार इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें हम अपनी कविता पर लागू नहीं होने देना चाहते.
मसलन काव्य-तर्क. हर कवि इस बात से झल्ला उठेगा कि उसकी कविता को "तर्कशास्त्र" के नियमों पर कसा जा रहा है. कविता के तर्क सामान्य तर्क नहीं होते. पर जब दूसरे की कविता से प्रश्न होगा तो यही होगा कि 'घाट मदिरा पिए?' या 'सोंधी खुशबू, वह भी बनारस में?' या 'सोता हुआ घाट?'
किसी काव्य बिम्ब में ये बातें उतनी ही सहज हैं, जितनी पानी में मछली.
पता नहीं क्यों, पर मुझे लगता है कि कवि की आलोचना, आलोचकों के घिसे हथियारों के इस्तेमाल में सहलता महसूस करती है. कवि अपनी कविता और कविता की आलोचना को संबद्ध नहीं करता. यह करना चाहिए/होगा. और मेरे हिसाब से यह रास्ता रचना-प्रक्रिया के विश्लेषण की तरफ खुलता है.
मै अपनी इस कविता पर प्राप्त लगभग ५० टिप्पणियों में से कुछ टिप्पणियां यहाँ पोस्ट कर रही हूँ.. इसका आशय सिर्फ इतना है की कविता अपना मर्म यदि पाठक तक संप्रेषित कर देती है तो मेरी दृष्टि में वह कविता है अन्यथा कविता नही है.. और पाठक की आलोचना किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नही होती ....
ReplyDeleteVineeta Johri badi hriday ko chhuti hui marmik Kavita hai Aparnaji, Maan vaise hi aaj Jagjit singh ji ki mrityu se kafi pighla hua sa hai, uss par ye antarmann ko jhhakjhhorti hui , zeevan aur mrityu ke mayne samjhati Kavita...........
Rajeev Kumar BEHAD UMDA....!
Shahbaz Ali Khan आपकी बनारस पे लिखी कविता पढ़ी ,अबतक की आपकी सभी कविताओं में सबसे अच्छी लगी .यूँ मैं हिंदी कविता का विशेष पाठक और समीक्षक दोनों नहीं हूँ लेकिन ये कविता सीधे अंदर तक उतर गयी ...शुक्रिया यूँही लिखती रहें .और किसी रचना की तत्काल समीक्षा से उसके रस ग्रहण में बाधा पहुँचती है. इस तरह की समीक्षाओं के लिए कहूँगा.. माना कि " बहुत कड़वी है मय इस साक़ी की/रंग लाएगी गर सांसों में उतर जाने दो".....
Monday at 4:08am
Rajesh Tripathi nice one..apne bahoot bade reality ko kaha hai is kavita ke madhyam se....really touching........
Sandhya Yadav यथार्थवादी कविता...
Jai Narain Budhwar kavita me anubhht yatharth aur gahan samvedna h.badhai leena ji
October 7 at 10:50pm
Veena Bundela leena aap zindgi se kavita bunti hain ya aapki kavitayen jeevan ka tana bana ..sunder kavitayen.jaldi me padhi hain sukun se padhana baki hai abhi....
Nirmal Paneri भूखे पिता यात्रा पर निकलने से पहले खा लेते हैं
जौ और काले तिल बेटे के हाथ से
चूम कर विवश बेटे का हाथ एक बार फिर उतर जाते हैं पिता घाट की सीढियां .... मर्म को आप ने शब्दों में बांधा वो बहुत लाजवाब है ...बध्याई ..बाकि मैने पढ़ी है ये आज ही देखि है !!!!!!!!!!!!!!!!!!
चड्ढ़ा Rajesh Chadha राजेश अद्धभुत.....!
October 6 at 8:46am ·
Meethesh Nirmohi Kavitaon par bahut kuch kaha ja sakata hai,Lekin kavitayen imandaree se rachee gayee hain..Mohan ji ne bahut kuch kah diya hai,Badhai.
ashish pandey said....
घाट की सीढियां बेटियों सी पढ़ लेती हैं अनकहा इस बार भी...
अंतिम दो कविताओं में बनारस की यात्रा और वहाँ के अनुभवों को यूँ जी कर शब्दों में में बिखेर देना जैसे " बादल से चले आते हैं मज़मून मेरे आगे "
और स्त्री मनःस्थिति को स्वर देना वह भी पुरुष के पौरुष को यूँ उदारता से दुखाते हुए ... लीना जी आभार
isme koi shak hi nahi ki leena ki kavitayen aaj ke daur me khaas jagah rakhti hain. Badhai Leena!
ReplyDeleteलीना जी की कविताओं को पढ़ते हुए मैंने उन्हें प्रायः एक सजग और गहरे आत्मबोध के कवि के रूप में ही पहचाना है | यहाँ प्रकाशित, वाराणसी प्रवास के दौरान लिखी उनकी कविताओं में आत्म के विस्तार की जो आकांक्षा अभिव्यक्त होती दिखती है उसमें निरी समकालीनता नहीं है, बल्कि उसके पार जाने की चेष्टा भी नज़र आती है | यह उनकी कविता को और उनके कवि को एक क्लैसिकल आयाम देता है |
ReplyDeleteअच्छी कविताओं के लिए शुक्रिया....!
ReplyDeleteLeena jee aap bahut accha likhti hain.aapko hardik badhai. - kamal jeet choudhary ( j and k )
ReplyDeleteदुख हमारे जीवन का मूल भाव है लेकिन कवि के लिए एक अनुभव है .कविता में दुख को कैसे प्रकट करना चाहिए यह कवि के सामने एक चुनैती है.निराला की कविता दुख ही जीवन की कथा रही .याद करे तो हमे लगेगा कि उनका दुख अकेले का दुख नही है .हम सब उसमे शामिल है .कविता की सफल्ता यही है.इधर लीना ने अलग तरह की कविताये लिखी है जो मर्म को छूती है.उन्हे दूसरे भावभूमि का भी चुनाव करना चाहिये ताकि उनकी कविता में नये लोक उदघाटित हो.अच्छी कविता के लिये शुभकामनाये
ReplyDeleteलीना ! मार्मिक कविता । प्राञ्जल-प्रवाह-पूर्ण ।
ReplyDeleteसुन्दर
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