Saturday 5 November 2011

हरीश करमचंदाणी की सात छोटी कविताएं: 'समय कैसा भी हो' से

हरीश करमचंदाणी के दो संग्रह आए हैं अभी तक. पहला - "पिता बोले थे", १९९२ में, और दूसरा,"समय कैसा भी हो" अभी-अभी छपकर आया है. मित्रों के साक्ष्य में इसका लोकार्पण भी अभी होना बाक़ी है. उन्नीस बरस में दो संग्रह. हरीश जैसे शांत जीवन में हैं, वैसे ही कविता में भी हैं. जो भी कहना है, बिना स्वर ऊंचा किए हुए कहते हैं, यद्यपि जो कहते हैं वह अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. आत्म-प्रचार से उतनी दूरी बनाए रखना आसान नहीं होता जितनी हरीश ने सहज रूप से बना रखी है. हम अक्सर देखते  हैं, किसी कवि का एक संग्रह छप जाता है, दो समीक्षाएं ठीक-ठाक सी आ जाती हैं, तो उसे किसी न किसी तरह से चर्चा में बनाए रखने के लिए तरह तरह के करतब किए जाते हैं. हरीश फ़ेसबुक पर हैं, पर छटे-चौमासे एक-दो कविताएं ही दिखाई पड़ती हैं, बस.
इन कविताओं में विविधता तो हम पाते ही हैं, यह देखना बेहद प्रीतिकर लगता है कि हमारे इर्दगिर्द की सामान्य सी घटनाएं-स्थितियां हरीश को कविता का कच्चा माल उपलब्ध करा देती हैं, जिसे वह बेहद सादगी से कविता में तब्दील कर देते हैं: जीवन-अनुभव को सादगी से काव्य-अनुभव में बदल देते हैं. हरीश मनुष्य और प्रकृति के पक्ष में खड़े आशावादी कवि हैं. मनुष्य और कविता दोनों पर गहराते संकट से वह बाखबर हैं, और जानते हैं कि मनुष्य बचेगा तभी तो कविता भी बच पाएगी.
उनकी कविताओं में, मनुष्य-विरोधी राजनीति की शिनाख्त के संकेत भी मिलते हैं, हालांकि वह शिनाख्तगी का यह काम बड़े महीन तरीक़े से करते हैं, बिना 'लाउड' हुए. हरीश कविता की आतंरिक लय को बनाए रखते हैं. शिल्पगत अलंकरण, भाषिक नक्क़ाशी और जादुई पदावली से अचक-पचक बचते हुए वह कविता की 'कविताई' को बनाए-बचाए रखते हैं. किसी भी कवि के लिए यह उपलब्धि कम नहीं होती.


दोष

नक्शा बहुत साफ़ था
मेरे मन में था 
मैं चाहता था वह निर्दोष साबित हो 
क्योंकि वह निर्दोष था 
और इसीलिए यह साबित करना 
बहुत मुश्किल था.

चौकीदार 

अंधेरे और सन्नाटे को चीरती 
गूंजती है आवाज़
जागते रहो.

यह आवाज़ सिर्फ़ वे सुनते हैं
जो जाग रहे होते हैं
सोये हुए लोग सोये ही रहते हैं.

सोचता हूं 
सोये हुओं को जगाने को जो कहेगा
वह आदमी कब आएगा?

उदास 

इस तरह तो मत होना उदास 
कि मैं पस्त हो जाऊं 
और सोच ही न सकूं 
कुछ भी अच्छा और आशा से भरा 
इस तरह तो मत होना उदास 
कि हंस ही न सकें इस बार 
जिस बात पर दुहरे हुए थे
हंसी के मारे पिछली बार.
मत होना 
मत होना 
मत होना उदास 
कि उदासी बुरी होती है
उसके चेहरे पर तो बहुत 
जिसने दुख से लड़ी हो लड़ाई हँसते-हँसते.

मनुष्य के पक्ष में 

उसके चेहरे पर क़ायम रहे हंसी
इस खातिर 
जलते हुए ब्रह्मांड की तुलना में
चाहूंगा हो मेरे पास एक मनुष्य भर छांह 

एक सिकुड़ती हुई दुनिया 
एक खिलते हुए फूल के सामने दयनीय है

पहाड़ की चोटी पर टिका सूर्य 
फिसल कर गिर न पड़े 
मैं सोचता हूं उसे भी ज़रूरत है 
किसी सहारे की

आहट किए बगैर
जतलाए बिना 
यही तो कर रहा है मनुष्य 
सदियों से.

एक आस्तिक की डायरी से 

एक दिन
मैंने सोचा कि ईश्वर से मिलूंगा
और खूब बात करूंगा उससे.

यह भी कि उसके सामने विनीत रहने वाले 
वास्तव में कितने क्रूर और निर्मम हैं
कि डर और आतंक फैला रखा है उन्होंने 
भ्रष्टाचार तो वे अधिकार भाव से करते हैं
यह भी कि सच्चे और ईमानदार लोग ज़्यादा दुखी हैं 
पीड़ित हैं और डरे हुए भी.

कि बहुत-बहुत सी बातें बताऊंगा ईश्वर को
जो शायद उसे मालूम ही नहीं रहीं होंगी

यह सब सोचा मैंने 
और तय किया कि एक दिन मैं 
पक्का ही पक्का मिलूंगा 
ईश्वर से
और मैं ईश्वर से मिलता 
उससे पहले ही एक ख्याल आया
मुझ जैसे साधारण आदमी को ये सब पता है
और उस 'शक्तिमान' को पता ही नहीं 
क्या यह मुमकिन है?
तो कहीं ईश्वर भी...
और दहल गया मैं.
  
रथ के पीछे

रथ के गुज़र जाने के बाद
उड़ रही थी धूल
धुआं फैल गया था चारों ओर
गंध तीखी आ रही थी
बारूद की या रक्त की
हां रथ जा चुका था आगे
विजय पताका फहराता हुआ
छोड़कर गर्द-गुबार गम और धुआं

एक औरत कच्ची पगडण्डी पर सुबकते हुए
चिंतातुर थी अपने तरुण बेटे के लिए
जो चला गया था रथ के पीछे-पीछे
मानो नींद में था
धूल और धुएं से घिरा 
हांफता दौड़ता उन्माद का हिस्सा बनता
किसी और की खातिर
किसी और का हथियार बनता 
किसी और के बेटे को 
अपना शत्रु मानता
खुद को मरने मारने को विवश
और अभिशप्त
हां वह तरुण फिर न लौटेगा 
जानती है मां 
अनगिनत बच्चे खो चुकी है मां 
सदियों से 
रथ पर आसीन सुरक्षित विजेता के लिए.

पेड़

पेड़ कट रहा था 
और मेरे पास शब्द नहीं थे
लकड़हारे के विरुद्ध

काट रहा था वह तो ठेकेदार के लिए

मैंने कनखियों से मगर गौर से देखा उसे
लगा 
वह खुद भी कट रहा था साथ साथ

और उसका कटना 
पेड़ के कटकर गिर जाने के बाद भी 
जारी था.


29 comments:

  1. एक बेहद संवेदनशील व्‍यक्ति और कवि के रूप में मैं हरीश जी की कविता का पुराना प्रशंसक हूं। यह अत्‍यंत खुशी की बात है कि इतने बरसों बाद उनका दूसरा संग्रह आया है। संग्रह मैं एकबारगी तो पूरा पढ़ गया हूं और निश्चित तौर पर विश्‍वास के साथ कह सकता हूं कि यह उनकी काव्‍य यात्रा का नया उत्‍कर्ष है। आपने बहुत अच्‍छी कविताएं चुनकर यहां प्रस्‍तुत की हैं, हार्दिक आभार।

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  2. दोष....चौकीदार,उदास और पेड़ .......मुझे ये छोटी-छोटी कविताएँ अपने आप में मानवीय संवेदना और संघर्ष की पूरक कड़ियाँ लगी|इतनी सरल और सुंदर भाषा कविता की अपनी अलग पहचान है.....इस सुंदर कृति के रचनाकार को हार्दिक बधाई......और आपका आभार!

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  3. वाह.. दिल से कहती हूँ .. अद्भुत..इन्हें अपनी वाल पर सजाने का लोभ हो आया है मुझे.. बहुत बधाई..

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  4. मामूली बतकही के अंदाज़ में निपट मनुष्य की गैरमामूली बाते .जैसे कविता में कहा गया है -आहट किये बिना / जतलाये बगैर / यही तो कर रहा है मनुष्य!सभी कवितायेँ मन को छू गयीं , लेकिन मनुष्य के पक्ष में अविस्मरनीय है .

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  5. सोचता हूं
    सोये हुओं को जगाने को जो कहेगा
    वह आदमी कब आएगा?.....हरीश जी की कवितायेँ उसी आदमी की पुकार हैं....जो हमे जगा रही हैं .......उन्हें बधाई

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  6. मनुष्य बचेगा तभी तो कविता भी बच पाएगी.
    उसके चेहरे पर क़ायम रहे हंसी
    इस खातिर
    जलते हुए ब्रह्मांड की तुलना में
    चाहूंगा हो मेरे पास एक मनुष्य भर छांह bahu achhee kavitaen

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  7. हरीश जी अब देहरादून में हैं, यूं मुलाकात तो उनसे कई हुई पर मिलवाया तो आज आपने है, यह कहने में कतई संकोच नहीं अब। बहुत मुश्किल था उसे निर्दोष साबित करना। ये कैसी विसंगति है कि जिसके निर्दोष होने की हर स्थिति से वाकिफ है कवि बावजूद उसे निर्दोष साबित करवा पाने की ताकत नहीं उसमें। यहीं सवाल है कि वो कौन सी व्यवस्था है जो निर्दोष दोषी करार दिये है और जिसके निर्दोष होने के पते ठिकाने technical कारणों पर टिके हैं। सारी कविताएं उसी व्यवस्था के अंधेरे के विरूद्ध हैं। बहुत बहुत बधाई हरीश जी को संग्रह के लिए।

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  8. सोचता हूं
    सोये हुओं को जगाने को जो कहेगा
    वह आदमी कब आएगा?

    बेहद सुन्दर कवितायेँ!

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  9. आदमी होने की कुछ अनिवार्य सी शर्तों को रेखांकित करती तथा पूर्ण संवेदना के साथ जीवन के महत्त्व पूर्ण पक्षों को उद्घाटित करती ये कवितायेँ बहुत ही मारक तरीके से अंदर घुसती हैं ......आप की पारखी नज़र का असर तो है ही

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  10. तो कहीं ईश्वर भी...
    और दहल गया मैं..........
    हरीशजी की कवितायेँ पढ़ी. बेहद संवेदनशील... समय काल से परे सदैव वर्तमान की कवितायेँ. सीधी सरल और उत्कृष्ट रचनाएँ.. हार्दिक आभार!

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  11. सीधी सच्ची पर अर्थ बिम्बों से भरपूर कविताएँ ! ऐसी सहज भाषा में लिखने वाले कम ही हैं क्योंकि कभी कभी किसी किसी का लिखा पढने पर तो लगने लगता है कि कविता समझने के लिए कोचिंग क्लास अटेंड करना पड़ेगा ! जन पाठकों की समझ के करीब की कविताएँ हैं हरीश जी की कविताएँ ! उन्हें बधाई और पढवाने के लिए मोहन जी का आभार !

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  12. जीवन की जटिलता के नाम पर अक्सर कविता में जटिलता का समर्थन किया जाता है । कहा जाता है कि जब जीवन में जटिलता आई है तो स्वाभाविक है कि कविता भी जटिल होगी ही । पर मुझे यह तर्क सही नहीं लगता है । मैं मानता हूँ कि कवि-कौशल या प्रतिभा इसी बात में तो है कि जीवन की जटिलता को सहज-संप्रेषणीय रूप में प्रस्तुत किया जाय और कविता में सरसता बनी रहे जो एक अच्छी कविता का आवश्यक तत्व है। यह जीवन की निकटता और मनुष्यता की पक्षधरता से आती है। हरीश करम चंदाणी की ये कविताएं इस बात का प्रमाण हैं । जीवन के जटिल पक्षों को कवि ने बहुत सहज व सरस रूप में व्यक्त कर दिया है। इस तरह रूप के स्तर पर ये कविताएं जटिलता का प्रतिरोध करती हैं। कथ्य के स्तर पर ये कविताएं संकीर्णता , कट्टरता ,धर्मान्धता , अज्ञानता , उन्माद , उदासी ,अंधआस्था ,युद्ध ,उदासी के खिलाफ खड़ी होती हैं। इस तरह जीवन और मनुष्यता का पक्ष लेती हैं। एक सुंदर दुनिया का स्वप्न देखती और दिखाती हैं। ये कविताएं आकार में भले छोटी हों पर प्रभाव में बहुत बड़ी हैं जिसके चलते पाठक की संवेदना का विस्तार करती हैं। इन कविताओं में हाशिए में खड़े आदमी के प्रति गहरी संवेदना और मानवीय मूल्यों की स्थापना की आकंाक्षा छुपी है। जब कवि कहता है कि - एक सिकुड़ती हुई दुनिया /एक खिलते हुए फूल के सामने दयनीय है। इसका आशय है कि कवि दुनिया को खिलते हुए फूल की तरह देखना चाहता है जहाँ खुशी भी हो और सौंदर्य भी । यह कब संभव है जब उदासी का अंत हो ,उदासी खत्म होगी अंधकार के अंत से और अंधकार तब समाप्त होगा जब सदियों से रथ पर आसीन विजेता का अंत होगा जिसके चलते माँ अपने अनगिनत बच्चों को खो चुकी हैं। लकड़हारे का कटना भी तब ही रूक पाएगा।
    इतनी सरस एवं विचारोत्तेजक कविताओं से परिचित करवाने के लिए श्रोत्रिय जी निःसंदेह साधुवाद के पात्र हैं। हरीश जी को उनके नये संग्रह के लिए बधाई ।

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  13. सोचता हूं
    सोये हुओं को जगाने को जो कहेगा
    वह आदमी कब आएगा?

    और उसका कटना
    पेड़ के कटकर गिर जाने के बाद भी
    जारी था.

    अद्भुत कविताएँ...

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  14. जीवन के निकट बिन्दुओ की जटिलता को सहज भाषा में उजागर किया है ,कविताओ में संवेदनाओ की तीखी मार सीधी ह्रदय के पार पहुचती है , हरीश जी की रचनाओ से परिचय करवाने के लिए आपका बहुत बहुत आभार

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  15. अंधेरे और सन्नाटे को चीरती
    गूंजती है आवाज़
    जागते रहो.

    यह आवाज़ सिर्फ़ वे सुनते हैं
    जो जाग रहे होते हैं
    सोये हुए लोग सोये ही रहते हैं.

    सोचता हूं
    सोये हुओं को जगाने को जो कहेगा
    वह आदमी कब आएगा?

    बहुत सुंदर रचनाएँ..
    आभार पढवाने के लियें ..

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  16. पहाड़ की चोटी पर टिका सूर्य
    फिसल कर गिर न पड़े
    मैं सोचता हूं उसे भी ज़रूरत है
    किसी सहारे की
    ..........सभी कवितायेँ सीधी, सरल किन्तु असरदार हैं.....संक्षिप्त शब्दों में कही गई बात दिल को छू लेती है......

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  17. ये छोटी-छोटी और बोलती-बतियाती कविताएँ अपने प्रभाव में अत्यंत मारक हैं. जैसे 'एक आस्तिक की डायरी से' जैसी कविता ईश्वर की सत्ता के खिलाफ दिए जाने वाले तमाम तर्कों से अधिक असर डालती है. पाठक इसे जितनी सहजता से पढ ले जाता है उतना ही बेचैन होता है. ऐसा अमूमन हर कविता के साथ है...

    देर से आने की मोहन सर और हरीश जी दोनों से क्षमायाचना के साथ...

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  18. सारी ही कवितायेँ एक बेहतरीन चित्र खींचती हैं ......पढना बहुत रुचिकर लगा !!

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  19. हरीश जी को पहले भी पढ़ा है कई बार. संकलन नहीं है उनका लेकिन जल्द ही प्राप्त करने का प्रयास करूँगा.

    इन कविताओं पर इतना कुछ कहा जा चुका है कि नया कुछ कह पाना संभव नहीं. इसीलिए दुहरा रहा हूँ कि इनकी साधारणता और सहजता ही इनकी सबसे बड़ी खूबी है. जिसे 'धोखादेह सादगी' कहते हैं वह इनमें भरपूर है. इसीलिए ये अंतिम पंक्ति के साथ खत्म नहीं होतीं बल्कि पाठक को मथती रहती हैं. जैसे 'एक आस्तिक की डायरी'...अब यह कविता चुपचाप इतना कुछ कहती है जितना नास्तिकता के पक्ष में किया गया तमाम शोर शराबा नहीं कह पाता. फिर इन कविताओं का अपना मुहाविरा है..अपना शिल्प जो इनको समकालीन कविताओं के विविधतापूर्ण परिवेश में एक और आयाम जोड़ने वाला बनाता है.

    बस मोहन सर का आभार और हरीश जी को बधाई...

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  20. nirdosh ko nirdosh sabit karna sachmuch kathin hi hai.

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  21. कभी-कभी बारीक संकेतों में कही बात सीधी बात से अधिक असरदार हो जाती है , ऐसी ही लगीं ये कवितायेँ ! मोहन जी का आभार इन कविताओं की प्रस्तुति के लिए और हरीश जी को बधाई !

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  22. कथ्य को गद्य की तमाम बंदिषों से मुक्त कर आकर्शक और संप्रेशणीय बना देना एक श्रेश्ठ कवि कर्म है। हरीष जी की कविताएं पढी। समझ में भी आई। समझ में आई जानबूझकर लिख रहा हूँ कई कविताएं समझने में या तो जोर लगाना पढ़ता है या फिर कविता साहित्य जगत के विद्वानों को मुग्ध करने की कोई वस्तु बनकर रह जाती है। पाठक तक बात पहुँचाना उसे संवेदनषील बनाना यदि कविता के उद्देष्य हैं तो उसे सरल तो होना ही चाहिए, और यदि इसे कला मानकर आनन्द के लिए प्रयोग किया जाय तो कविता और भी सरल होनी चाहिए। कविता जीवन के विशयों पर रची जाती है जीवन की जटिलताओं को सुलझाने के लिए उन्हें उलझाने और रहस्यमय बना देने के लिए नहीं। कविता पढ़ने के लिए कोचिंग क्लास जाना पढ़े तो वो कविता है ही नहीं। पाठक को क्या आ पढ़ी है पजल सुलझाने की। कविता तो ऐसी हो कि पाठक पढ़े तो कुछ पंक्तियों को दुहराने का मन करे। बार-बार याद आए। ऐसी गत्यात्मकता हो कि ध्वनि अन्दर गूँजती रहे। जीवन से तारतम्य ऐसा कि लय बन जाय। पुनेठा जी ने सटीक टिप्पणी की है। रथ के पीछे, पेड़, उदास, कविताएं दिल में उतर गयी सीधे।

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  23. किस कविता के बारे में क्या लिखूं ? एक से बढकर एक है सभी ............

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  24. अपनी कविताओ पर मिली टिप्पणियों से सच में अभिभूत हूँ .मेरी इस मान्यता को संबल मिला की सम्प्रेषणियता अनिवार्य हैं बेशक कविता तो होनी ही चाहिए ,तभी साधारीकरण भी संभव हो पता हैं .आप की सम्मतियों के लिए मैं आभारी हूँ .प्रो. मोहन श्रोत्रियजी सह्रदय आलोचक भर नहीं स्वंय अच्छे कवि हैं सो उनका स्नेह सौजन्य मिला.. ,उनका आभार .

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  25. बहुत खूबसूरत कविताएँ हैं. इन्‍हें पढ़वाने के लिए शुक्रिया.

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  26. खुप छान कविता मनापासून आवडल्या

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