Wednesday 26 June 2013

नया भाषा-संस्कार


भाषा-चेतस शरीफ़ लोग जिनसे सहमत नहीं होते, या जिन्हें अपने विरोधियों के रूप मे देखते हैं, उन्हें शोहदे का ख़िताब देकर सम्मानित करते हैं. अगले ही दिन उन्हें फ़ेसबुक के पंडे कहकर सम्मानित करते हैं. तीस दिन में तीस नए शब्द ख़िताब  का दर्ज़ा पा लेंगे, यह तय दिखता है क्योंकि हर दिन कुछ-न-कुछ ऐसा होता ही रहेगा कि पुराना ख़िताब नाकाफ़ी लगने लगेगा.
हर शब्द, उसे बरतने वाले व्यक्ति के मनोभावों-मनोदशाओं को प्रतिबिंबित करता है, ऐसा सुनते आए हैं, बचपन से. बचपन चाहे साठ बरस पीछे छूट गया हो, पर तब की बातें अभी तक चेतना में गुंथी हुई हैं. आप इन्हें संस्कार कह सकते हैं, यदि इसमें रूढिवादिता और पुराणपंथीपन की गंध न आए तो !
उस समय के शिक्षक हर बताई गई बात की गांठ बांध लेने का निर्देश दिया करते थे. अब वे गांठें खुल ही नहीं पाती तो क्या करूं? आप मुझे अतीत-जीवी कहने-मानने को स्वतंत्र तो हैं ही, मेरे बिना कहे भी.
निस्संग भाव से सोचकर देखें कि यह रुके, तो अच्छा नहीं रहेगा/लगेगा क्या? मन में पीड़ा-भाव न होता तो यह लिखने को विवश न होता.

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