तुम्हारे बाहर जा बसने से
मैं गु़स्सा था हुसेन
बेहद बेइंतिहा. यूं गु़स्सा तो
था मैं सियासतदानों से भी
और इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के
वज़ीरों और हुक़्मरानों और
मुल्क़ की सबसे बड़ी कचहरी से भी.
मज़हबी जुनूनियों और लम्पट तबकों को
तो "हर दिन होली और रात दिवाली" का
तोहफ़ा दे दिया तुमने अनजाने ही
अपने बाहर जा बसने के फै़सले से
और बसने के लिए चुना भी
तो एक इस्लामी देश.
करेला और नीम चढ़ा.
तुम्हें क्यों ख़याल तक
नहीं आया अपने
करोड़ों मुरीदों का ?
कि तुम निराश करोगे उन्हें
अपने इस क़दम से
इस फै़सले से...
मैंने पहली बार जब नाम
पढ़ा था तुम्हारा और जाना था
तुम्हे एक बेहद मशहूर
चित्रकार के रूप में
तो शब्दकोश में खोजे थे
मायने "मक़बूल" के.
जितने भी अर्थ मिले मक़बूल के
वे सब के सब आयद होते थे तुम पर
"हर दिल अज़ीज़"
"स्वीकृत-सम्मानित" और
"वाक् सिद्ध".
क्यों नहीं था तुम्हें खु़द को
यक़ीन कि बेमानी नहीं थे
ये मायने तुम्हारे
नाम के?
तुम्हारे प्रशंसकों की तादाद इतनी भी
कम न थी कि डिग जाना सही हो
तुम्हारे आत्मविश्वास का.
टिकना था टिके रहना था
तुम्हें रहना था अडिग अविचल
जो तुम नहीं रहे यही नहीं
तुम अपने फै़सले को सही ठहराने
में जुट गए
और तुम्हें यहां से धकियाने वालों को
मिल गया एक हथियार
तुम्हारे खिलाफ़ जिसने
बना दिया और अधिक लाचार
तुम्हारे अपने ही
समर्थकों को जो हर सूरत में
चाहते थे तुम्हारी वापसी
ससम्मान वापसी
उस धरती पर
जहां तुम चलते थे नंगे पैर
मुक्तिबोध की शवयात्रा में शामिल
होने के दिन से ही.
यह पैंतालीस
साल का वक़्फा इतना कम भी
तो न था कैसे चले होगे तुम
अजनबी मुल्क़ की धरती पर?
कैसे समझ सकते थे तुम्हारे काम की
क़ीमत और अहमियत
वे लोग जिन्हें कोई सलीका
न था कला के मूल्यांकन का,
जो प्रशिक्षित हैं बचपन से और
अभ्यस्त भी देखने के
हर चीज़ को मज़हब के दकियानूसी
चश्मे से?
तुम्हें क्यों नहीं लगा कि
तुम कर रहे थे कमज़ोर
अपने ही लोगों को जो
लगातार बेनक़ाब करने में लगे थे
खजुराहो और कोणार्क की विरासत
पर फ़ख्र करने वालों के दोग़लेपन को.
मक़बूल तुम कैसे
ज़िंदा रह सकते थे परायी धरती पर
ज़फ़र के दर्द से तुम इतने नावाकिफ़
थे क्या?
परायी धरती में दफ़नाए गए तुम
ज़फ़र ही की तरह
बेहद तकलीफ़ है मुझे इससे.
बहुतेरे औरों को भी यह नाग़वार गुज़रा है.
सियासतदानों को कोई ख़ास फ़र्क़
नहीं पड़ता इससे
पर जो यकीन करते हैं इस मुल्क़ की
गंगा-जमुनी तहज़ीब की
तहरीक में जी-जान से,
वे सब तो शर्मसार हैं. पर यह तो
मानोगे तुम भी
मक़बूल फ़िदा हुसेन कि
तुम भी विचलित हो गए
और चूक गए इस तहरीक में अपना
यक़ीन ज़ाहिर करने से.
मक़बूल तुम और मक़बूल
होते-होते रह गए. चित्रकार तो
बड़े थे ही तुम
रह गए कुछ और बड़ा इंसान
बनते-बनते. एक हद से ऊपर उठ पाना
संभव भी नहीं होता शायद. खै़र......
- मोहन श्रोत्रिय
No comments:
Post a Comment