धरा क्या है, नाम में?
कॉलेज में पढ़ाते सात-आठ दिन बीते होंगे कि एक दिन सुबह-सुबह ही धुआंधार बरसात शुरू हो गई. सिर्फ़ एक क्लास हो पाई थी. आगे की कोई संभावना नहीं थी क्योंकि वहां एक अलिखित परिपाटी चली आ रही थी कि आठ बजे तक तेज़ बरसात शुरू हो जाए तो कालेज आने की ज़रूरत नहीं. इसका असल कारण यह था कि वज़ीरपुर दरवाज़े से निकलते ही एक ढलान शुरू हो जाता था, जो चारसौ - पांच सौ गज के बाद चढाई में तब्दील हो जाता था. वहां से क़रीब दो सौ गज चलने के बाद कॉलेज का मुख्य द्वार आता था. तो एक तरफ़ से, शहर का, और दूसरी तरफ़ से कॉलेज वाली सड़क का पानी उस ढलान वाले इलाक़े को सराबोर कर देता था, सरोवर में तब्दील कर देता था. कई दफ़ा तो आदमी-डुबान पानी हिलोरें मारता रहता था वहां.
तो इसके बाद क्लास ही नहीं होनी थीं, इसका मतलब छुट्टी थोड़े ही था, हमारे लिए. छुट्टी कर भी दी जाती, तो घर कैसे पहुंचते ! स्टाफ़रूम का सहायक भी नहीं आया था, इसलिए चाय भी नहीं मिल सकती थी. दूध भी तो वह ही लेकर आता था.
दो मित्रों ने कहा चलो, बाहर चाय पी आते हैं. छाते तो वहां सबके पास होते ही थे (मैंने भी खरीद लिया था, वहां पहुंचने के अगले ही दिन), कॉलेज के सामने से, बाईं ओर से जो सड़क निकलती थी (गंगापुर-कैलादेवी की तरफ़), उस पर एक थडी थी, (जो क़ायदे से थी तो कॉलेज परिसर में ही), वहां चाय के साथ पकोड़े सुबह से शाम तक कभी भी मिल सकते थे.
थडी के मालिक के बारे में इतना तो पता चल ही चुका था कि वह लोक-गायक हैं, और आशु कवि भी हैं. ज़ाहिर है, उनसे मिलने की मेरी इच्छा भी अब तक बलवती हो चुकी थी. मैंने हां ही नहीं कर दी, बल्कि मैं तो आगे बढ़ भी लिया. वहां पहुंचने के लिए हमें कॉलेज परिसर से बाहर निकलने की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि केमिस्ट्री-लैब में होकर भी वहां तक जा सकते थे.
वहां पहुंचकर देखा कि कि एक पांच-फ़ुट से कम लंबाई वाला व्यक्ति सफ़ेद बुर्राक कुरता-धोती पहने बैठा हुआ है, और एक सहायक चाय बना रहा है. दूसरी सिगड़ी पर कड़ाही में तेल औंट रहा था. मेरे वरिष्ठ मित्र ने मेरा परिचय कराया उनसे. वह खुश हुए. उनकी लंबाई ही कम थी, चौड़ाई तो ठीक से अधिक ही थी. यानि उनका "मध्य प्रदेश" काफ़ी फैलाव लिए हुए था. उनका नाम बताया गया, "टुच्चे गुरु". मैं चौंका, पर शायद वह खुद मेरे आश्चर्य के भाव को भांप गए थे, तो हंसकर बोले मेरा यही नाम है. दो-चार मिनट तक औपचारिक बात-चीत चलती रही. इसके बाद, मेरे वरिष्ठ मित्र की फ़रमाइश पर उन्होंने अपना खुद का लिखा हुआ एक बेहद लोकप्रिय पद सुनाया :
"मेरे श्याम के नैन बने हैं फूल कमल के
लहर-लहर लहराएं हिलोरे जमुना-जल के".
मैं आज भी उनकी गायन-मुद्रा को देख सकता हूं, आंख बंद करके, और मुझे कोई संकोच नहीं यह कहने में कि मैंने ऐसी शानदार प्रस्तुति जीवन में अन्यत्र कहीं नहीं देखी. अंग-अंग थिरक रहा था, और गाने के सौंदर्य में न जाने कितने चांद-सूरज जड़ रहा था.
वहां एक लोक विधा प्रचलित है - आशु कविताई और गायन की. यह स्पर्धा के रूप में आयोजित होती है. कई टीमें भाग लेती हैं. इसे किलगी-तुर्रा कहा जाता है. और जब यह प्रतियोगिता होती है, तो सुनने के लिए जैसे पूरा क़स्बा उमड़ आता है. रात भर चलता है यह कार्यक्रम. और अपने, चाय-पकोड़े वाले ये "टुच्चे गुरु" इस कार्यक्रम की जान होते थे, साल-दर-साल. असल नायक ! और उस दिन जैसे उनका क़द काफ़ी बढ़ जाता था. क़स्बे में उन्हें जो सम्मान हासिल था, वह बड़े-बड़ों की ईर्ष्या का सबब था.
मेरे पिताजी जब करौली आते (ठहरते चूंकि एक ही रात थे), तो हमारे घर एक संगीत का कार्यक्रम होता था, हर बार, बिना किसी अपवाद के. मेरे पिता तबला शानदार बजाते थे, और ग़ज़लें भी उतने ही जानदार ढंग से सुनाते थे. क़स्बे के लगभग सभी कलाकार इसमें शामिल होते थे, तथा मेरे मित्र भी, जो बेसब्री से इस आयोजन का इंतज़ार करते थे. टुच्चे गुरु इस कार्यक्रम की भी "जान" हुआ करते थे. वह मेरे पिता के समवयस्क होने के बावजूद उनके घुटनों तक झुककर अपना सम्मान प्रकट करते थे (इससे ज़्यादा तो वह झुक भी नहीं सकते थे, चाहकर भी), पर उनकी प्रस्तुति के बाद मेरे पिता उन्हें गले लगा लिया करते थे.
कार्यक्रम के दो-तीन महीने बाद ही, जब भी टुच्चे गुरु से बात होती, वह छूटते ही कहते, "बुलवा लो न साब, अपने पिताजी को. बहुत दिन हो गए अब तो !"
वह व्यक्ति, वह कला-साधक-महानायक अब नहीं है, पर मेरी याददाश्त के एक कोने में तो अभी भी हैं, वह अपनी पूरी धज के साथ. और जब तक मैं हूं, उनकी जगह बनी रहेगी.
***
कल पिता की बरसी थी. सोलहवीं.
कल दिन भर उनका गायक का रूप दिल-ओ-दिमाग़ पर हावी रहा. सतत्तर बरस की उम्र तक तबले पर थिरकती उनकी उंगलियां दिखती रहीं, मन की आंखों से. ब्रज के लोकगीत और रसिया गूंजते रहे. पचास के दशक में आकाशवाणी पर वह यह सब सुनाते थे. फिर स्वाद बदलने को, 'जाग दर्दे इश्क़ जाग, दिल को बेक़रार कर...' और ' मैं कोई पत्थर नहीं इंसान हूं. कैसे कह दूं, ग़म से घबराता नहीं...कोई साग़र दिल को बहलाता नहीं' सुनते थे, यह सब कानों में गूंजता रहा.
उनके बहाने नौटंकी सम्राट गिर्राज जी की भी याद ताज़ा हो आई. वह पिता के घनिष्ठतम मित्रों में से थे. अब तो वह भी नहीं रहे. उनके निधन तक जब भी मैं कामां जाता था, तो उनके साथ तीन-चार घंटे की बैठक होती ही थी, निरपवाद रूप से. कम लोगों को पता है कि पचास के दशक में नौटंकी मंडली "मनोहर-गिर्राज" की मंडली के रूप में जानी जाती थी. मनोहर जी बहुत जल्दी चले गए. उन्हें गिर्राज जी से भी अधिक प्रतिभाशाली माना जाता था. खुशी की बात आखिरकार यही रही कि गिर्राज जी को उनकी कला के लिए तमाम सम्मानों से नवाज़ा गया. उनसे जब भी बात होती थी तो वह मनोहर जी और मेरे पिता का स्मरण श्रद्धापूर्वक करते थे, और मिलने पर मुझे बांहों में भरकर 'कुंवर साब' कहते, और इस तरह अपना ममत्व लुटाते.
वृन्दावन में, जहां पिता ने तीस बरस बिताए, आज भी वहां के लोग उनके 'समाज-गायन' की न केवल प्रशंसा करते हैं, इस बात पर दुख भी जताते हैं कि जब से वह गए हैं, वृन्दावन का 'समाज-गायन' वैसा नहीं रहा. न तो कला की दृष्टि से, और न निष्ठा की दृष्टि से !
-मोहन श्रोत्रिय
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