Wednesday 2 November 2011

शेक्‍सपीयर और आज का समय

शेक्सपीयर के नाटक Timon Of Athens की ये बहु-उद्धृत पंक्तियां मुझे केवल इसलिए प्रिय नहीं हैं कि ये प्रसिद्ध दार्शनिक कार्ल मार्क्स को बेहद प्रिय थीं. कार्ल मार्क्स ने बेशक इन्हें Economic and Philosophical Manuscripts of 1844 में उद्धृत किया था. यों तो यह तथ्य भी सामान्य जानकारी के दायरे में है कि मार्क्स के परिवार में सब लोग शाम को बैठ कर अन्त्याक्षरी खेलते थे, जिसमें सिर्फ़ शेक्सपीयर की पंक्तियां ही सुनानी होती थीं. मुझे इन पंक्तियों ने न जाने कब से गिरफ़्त में ले रखा है ! शायद पचास साल से, जब पहली बार मैंने इन्हें पढ़ा था. पहली से पचासवीं बार कब निकल गई यह भी याद नहीं. शेक्सपीयर इन पंक्तियों में एक भविष्य-द्रष्टा (Prophet) के रूप में सामने आते हैं. यों हर बड़ा साहित्यकार अपने समय का अतिक्रमण करके अपनी प्रासंगिकता क़ायम करता है, पर इन पंक्तियों को ध्यान से पढ़ कर आप भी इस बात से सहमत होंगे कि 'काल का ऐसा अतिक्रमण' अत्यंत विरल है. 'सोना' एक धातु के रूप में और 'पैसे' - ' धन' (मुद्रा) - के रूप में आज कितना बलशाली हो गया है यह हम सब अपनी-अपनी तरह से जानते हैं. या कहें हमें जानना चाहिए. पर आज से साढ़े चार सौ साल पहले यह देख पाना कि पूंजीवाद की चरम अवस्था में यह (सोना) क्या-क्या गुल खिला सकता है, क़तई आसान काम नहीं था. इससे अंदाज़ लगाया जा सकता है कि शेक्सपीयर नवजागरण काल में, पूंजी की बीज-सामर्थ्य को, उसके विकसित रूप को कैसे प्रक्षेपित कर पाने की क्षमता से संपन्न-समृद्ध थे.
आखि़री पंक्ति तक पहुंचते-पहुंचते, आप देखेंगे कि शेक्‍सपीयर ''संसार पर हैवानों के राज'' की भविष्‍यवाणी करते हैं. ज़रा आज के वैश्विक दृश्‍य-पटल पर नज़र डालिए और देखिए कि राज किसका चल रहा है.

“Gold? Yellow, glittering, precious gold?
No, Gods, I am no idle votarist! ...
Thus much of this will make black white, foul fair,
Wrong right, base noble, old young, coward valiant.
... Why, this
Will lug your priests and servants from your sides,
Pluck stout men’s pillows from below their heads:
This yellow slave
Will knit and break religions, bless the accursed;
Make the hoar leprosy adored, place thieves
And give them title, knee and approbation
With senators on the bench: This is it
That makes the wappen’d widow wed again;
She, whom the spital-house and ulcerous sores
Would cast the gorge at, this embalms and spices
To the April day again. Come, damned earth,
Thou common whore of mankind, that put’st odds
Among the rout of nations...


“O thou sweet king-killer, and dear divorce
‘Twixt natural son and sire! thou bright defiler
Of Hymen’s purest bed! thou valiant Mars!
Thou ever young, fresh, loved and delicate wooer
Whose blush doth thaw the consecrated snow
That lies on Dian’s lap! Thou visible God!
That solder’st close impossibilities,
And makest them kiss! That speak’st with every tongue,
To every purpose! O thou touch of hearts!
Think, thy slave man rebels, and by thy virtue
Set them into confounding odds, that beasts
May have the world in empire!”
 -Shakespeare, Timon of Athens

''सोना? पीला, चमचमाता, बहुमूल्‍य सोना?
नहीं, देवताओ, मैं नहीं झूठा उपासक!...
इतना-सा सोना बनाता स्‍याह को सफ़ेद, अनुचित को उचित,
निकृष्‍ट को उदात्‍त, वृद्ध को तरुण, कायर को नायक!
...यह
छीन लेता तुमसे तुम्‍हारे पुजारी और सेवक,
खींच लेता तकिये बलवानों के सिर के नीचे से:
यह पीत दास
जोड़ता-तोड़ता धर्मों को, अभिशप्‍तों को देता वरदान,
जीर्ण कोढ़ को बनाता उपास्‍य, दिलाता चोरों को सम्‍मान,
और पदवी, अवलम्‍ब, सभासदों के बीच स्‍थान:
यह क्रन्‍दन करती विध्‍ावा को फिर बना देता दुल्‍हन;
रिसते नासूर तथा अस्‍पताल भी भागें जिससे दूर,
कर देता उसे सुरभित, पुष्पित;
पीछे मुड़, अभिशप्‍त धरती, गणिका सारे जगत की,
कारण राष्‍ट्रों के युद्धों, वैमनस्‍य का
...''

''राजाओं का मधुर हत्‍यारा!
बच्‍चों से पिता का नाता प्‍यार से तोड़ता तू,
दंपति की पवित्र शय्या का दूषणकर्ता,
शूरवीर युद्ध देवता, तू!
चिर तरुण, चिर नूतन,
प्रणय-पात्र, प्रणय-याचक सुकोमल,
डियान* की गोदी का पावन हिम
तेरी लज्‍जारुणिमा से जाता पिघल!
तू प्रत्‍यक्ष भगवान
असम्‍भव है जिन्‍हें करना संलग्‍न,
उन्‍हें देता तू जोड़, बाध्‍य कर देता
उन्‍हें लेने को एक दूसरे का चुम्‍बन!
हर उद्देश्‍य के लिए, हर भाषा बोलने वाला तू,
ओ हृदय को छूने वाले, ज़रा सोच यह,
दास तेरा करता विद्रोह, तेरे बूते पर
उनमें होता कलह, रक्‍तपात,
ताकि संसार पर हो जाये हैवानों का राज!''

*आखेट-देवी

12 comments:

  1. जी हाँ, ये पंक्तियाँ बेहद प्रभावी है और सचमुच आज भी प्रासंगिक हैं, धन के कारण सदैव संघर्ष हुए, इसे बुरा और हर बुराई की जड़ भी कहा जाता है, इसी के कारण मनुष्य हर पाप-कर्म में लिप्त होता है....किन्तु शेक्सपियर ने जो एथेंस के राजा तिमन के मुहं से कहलवाया वह अर्धसत्य था...सोने तू भगवान नहीं किन्तु भगवान से कम भी नहीं....तिमन तब भी गलत था जब उसने सारा धन मूर्खता से चाटुकारों के हाथ गवां दिया था और तब भी जब सोना मिलने पर उसका सदुपयोग कर अपनी प्रतिष्ठा को पुनः नहीं प्राप्त किया..शायद धोखा खाकर वह वैरागी हो गया था और धन से उसका मोहभंग हो गया था...इसलिए सोना जीवन-मूल्यों से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हैं किन्तु महत्वहीन भी नहीं है...अति सर्वथा वर्ज्यते .....वस्तुतः मध्यम मार्ग ही उचित है.......

    ReplyDelete
  2. nishchit roop se bahut sashakt kavita hai.utana hi anuvad bhi......itani sundar kavita ke liye aapaka aabhar.

    ReplyDelete
  3. आप का संदेश मुझे उसी क्षण मिला जब मैं आपके ब्लॉग में डूबा हुआ था। बहुत अच्छा अंश। खो गया था, उसी में। इस अंश के लिए धन्यवाद।

    ReplyDelete
  4. आदरनीय मोहन सर ,
    कुछ दिन पहले ही में आपके ब्लॉग पर आई थी ,यहां जो खजाना मिला उसे देख कर अचम्भित हो गई ,क्या पढू क्या छोडू ,एक से बढ़कर एक अनमोल रचनाये ,मन बहुत उत्साहित हो रहा था सभी को पढ़ने के लिए ..समय की कमी की वजह से में एक दो पोस्ट ही पढ़ पाई ..आज की पोस्ट बहुत ही शशक्त रचना है ,आज के समय के लिए ही नहीं यह बात तो हमेशा प्रासंगिक रही है की धन सदेव संघर्ष का कारण रहा है ..इसकी कमी और अधिकता दोनों ही जीवन में दुखदाई रही हे .
    महान लेखक के लेखन से परिचय करवाने के लिए ह्रदय से आभार

    ReplyDelete
  5. पता नहीं कब पढीं थीं ये पंक्तियाँ...लेकिन अनुवाद में पहली बार पढ़ी हैं और कह सकता हूँ कि मूल का जो हल्का सा असर रह गया था वह इस अनुवाद को पढ़ने के बाद चिर स्थाई हो गया है.

    ReplyDelete
  6. सोने की चमक हमें चौंधिया रही है और हमारे मूल्यबोध पर लोभ-लालच का पर्दा पड़ गया है . शेक्सपीयर जैसे 'विज़नरी' लेखक ने सचमुच सही-सही भांप लिया था कि सोना 'निकृष्‍ट को उदात्‍त, वृद्ध को तरुण, कायर को नायक' बनाने की ताकत रखता है और भविष्य मे‍ वह 'जीर्ण कोढ़ को उपास्‍य' बना देगा तथा 'चोरों को सम्‍मान' दिलवा देगा. आवारा पूंजी के चरमोत्कर्ष काल में सोने के पुजारी हैवानों ने धरती-मां को सचमुच 'गणिका' का रूप दे दिया है . आने वाले समय के बारे मे‍ ऐसी साफ-साफ चेतावनी शेक्सपीयर जैसा महान कवि ही दे सकता है .

    आपको शायद याद न हो कि एम.ए.फाइनल में 'शेक्सपीयर एण्ड हिज़ कंटेम्परैरीज़' वाला पर्चा हमें आप ही पढ़ाते थे . खूब डूब कर .

    ReplyDelete
  7. शॆक्स्पियर की ये पँक्तियाँ के पूँजी के इस अतिरेकवादी समय के सन्दर्भ में सर्वथा सटीक हैं
    सच है उदात्त रचना कालातीत होती है ! आभार सर!

    ReplyDelete
  8. shakespeare ko itne sarthak tarike se uddhrit karne ke liye aapka bahut aabhar...aapne jis tippadi ke sath use prastut kiya hai , wah laajbab hai....kaaljayee rachnakar isi doordarshita ke liye kaljayee kahlata hai....400-500 salo ka pichhla itihas kitna parivartankari aur uthal puthal wala raha hai , fir bhi in bato ka mahtwa usi prakar kayam hai , waran yah kahe ki badh gaya hai....kabhi kabhi to dar paida hone lagta hai ki sabhyata ke chalak bane ye log apne saath sath ham sabko bhi kis mukam tak pahucha kar chhodenge...itne lalach ke sahare manav jaati aakhir kaha tak pahuchana chahti hai...aapka bahut aabhar...ramji , ballia, u.p

    ReplyDelete
  9. शेक्सपीयर जैसे महान रचनाकार की सोच का क्षितिज सचमुच विस्मित करता है..ऐसा लगता है यह कविता आज की कविता है.. ऐसी कालजयी रचना को पढवाने के लिए आपका आभार. अनुवाद पढकर और भी अच्छा लगा...

    ReplyDelete
  10. मैं एक बार मियाँ शेक्सपीयर से नाराज़ हो गयी कुछ पढ़ के ..कई दिनों तक नहीं पढ़ा .. कई बार सिर्फ़ स्टूडेंट्स को पढ़ाने के लिए जितना पढ़ना था उतना ही पढ़ा.. पढ़ाया और नमस्ते कर लिया.
    ( क्षमा कीजिये सर , उस महान कवि और नाटककार के विचारों के साथ मेरा पुराना पंगा है. पर उनकी कुछ सोनेट्स और नाटक के टुकड़ों से निस्संदेह प्रभावित हूँ. )
    लेकिन आज उनका ये extract सुन्दर अनुवाद के साथ quote करके आपने मुझे ये सोचने में मजबूर किया है कि मैं पूर्वाग्रह छोड़ के दस साल बाद दुबारा उनसे रिश्ते बनाने के बारे में सोचूं :-)(दस साल में ज़रूर मेरी भी सोच पकी होगी ! )
    आभार.
    पुनश्च :ये मैंने कॉलेज के दिनों में पढ़ा था. सुन्दर पीस है. अर्थपूर्ण . :-)

    ReplyDelete
  11. शेक्सपीयर को पढ़ना अपने आप में जैसे जीवन को पढ़ना है मुझे बेहद प्रिय हैं एम्.ए.में उनके दो तीन नाटकों में अभिनय भी किया...आज तक याद हैं वो पल... आज फिर से उन्हें पढकर यादें ताज़ा हो गयीं..

    एक सुंदर कविता और अनुवाद भी बेहद सटीक... आभार..

    ReplyDelete