Thursday 11 July 2013

ऐसे आसानी से नहीं छोड़ देंगी पार्टियां जातिवादी खेल खेलना...



हमारी प्रमुख पार्टियां राजनीतिक लाभ के लिए जातिवाद का खेल खेलना आसानी से बंद कर देंगी, यह उम्मीद करने का कोई ठोस सामाजिक आधार नज़र नहीं आता. जिस तरह से बसपा, भाजपा, सपा और कांग्रेस ने कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया है, तुरत-फ़ुरत, उससे ही संदेह पैदा होता है. जो कल तक विभिन्न जातियों के महा सम्मेलन आयोजित कर रहे थे, वे अचानक इस परिघटना को दुर्भाग्यपूर्ण मानने-घोषित करने लग जाएं, तो यह तो ज़ाहिर हो ही जाता है कि ये अपना तरीक़ा बदलने भर का मन बना रहे हैं. आयोजनों की अंतर्वस्तु के बदल जाने के संकेत ग्रहण करना जल्दबाज़ी होगी. राजनीतिक पार्टियों के चुनाव-अभियान-कौशल को कम करके आंकने की ग़लती भी.

कल प्रकाश जावडेकर ने तो ग़ज़ब ही कर दिया ! एक चर्चा में बार-बार कठघरे में खड़ा किए जाने की स्थिति में उन्होंने जनता के अधिसंख्य हिस्से के मतदान-मनोविज्ञान को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया. जैसे कि जातियां अपने मन से, अपने बूते पर इन सम्मेलनों का आयोजन करती हों. यानि जनता खुद चाहती है संगठित जाति के रूप में वोट डालना, और ये "बेचारी-निर्दोष-निस्स्वार्थ-निष्कपट-पार्टियां" तो जनता का मन रखने के लिए इन आयोजनों में शरीक होती हैं. यह तर्क वैसा ही है जैसा हमारे घटिया फ़िल्मकार देते हैं घटिया फ़िल्में बनाने के पक्ष में. कि वे वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं. जातिवाद की जड़ों को सींचने का काम राजनीतिक पार्टियों ने सर्वाधिक किया है, यह किसी से छुपा नहीं है. आगे आने वाला समय यह प्रमाणित कर देने वाला है कि सिर्फ़ कानूनी प्रावधानों/अंकुशों के चलते समाज नहीं बदल सकता.

बदल जाए तो बहुत खुशी होगी.




-मोहन श्रोत्रिय

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(13-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  2. जब तक फ़ायदा उठा सकते हैं क्यों छोड़ें -कच्ची गोलियाँ नहीं खेले हैं वे !

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