Wednesday 26 June 2013

देखो यह आभार-प्रदर्शन !


उन्नीस सौ साठ के दशक के मध्य में एक गीत सुना था, कवि सम्मेलन में. यदि सही याद है, तो गीतकार मोहन अंबर का था. लगभग पूरा याद भी था. अब कुछ टुकड़े ही याद रह गए हैं. कल से गीत के दो अंतरों की आखिरी पंक्तियां बेसाख्ता याद आ रही हैं. मैंने पहले भी कभी कहा था कि कौन चीज़ कब और क्यों याद आजाए, इसकी तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती. मानव-मन के खेल निराले होते हैं !
बहरहाल, गीत की वे चार पंक्तियां यों हैं :


देखो शूल बिछाने वालो, यह मेरा आभार-प्रदर्शन
जितनी डगर न मैं चल पाऊं, उतनी डगर तुम्हें मिल जाए.
...

...
...
देखो धूल उड़ाने वालो, मैं बदला ऐसे लेता हूं
धुंध-अंजे मेरे नयनों की सारी नज़र तुम्हें मिल जाए.

उस समय के ढेर सारे गीत याद हैं, टुकड़ा-टुकड़ा, जिनमें जीवन के अनुभव बोलते थे, और सहृदय श्रोता के मन को छू लेते थे, अपनी सहज रूप से संप्रेषित अर्थवत्ता के कारण.

-मोहन श्रोत्रिय 

1 comment:

  1. सचमुच! याद रह जाने वाली पंक्तियां!

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