अनागत कुछ ज़्यादा ही
उम्मीदें जगाता है...
गुज़रे कल के
और आज के अनुभव
जन्म देते हैं आशंकाओं को
बढ़ाते हैं भय को भी
बेशक.
रात कितनी भी लंबी हो
दुख की
चाहे अंधेरी हो
कितनी ही
भोर की
प्रतीक्षा रहती ही है
दुखों की उम्र पूरी
हो जाने का भरोसा भी.
अनागत जैसे ही बदलता है
आगत में
और क्रमशः जुड़ता
चला जाता है विगत में
भय और आशंकाएं
नहीं लगते आधारहीन.
जाने में कुछ ज़्यादा ही
धीमा हो गया है साल
उसका धीरे-धीरे जाना
बहुत साल रहा है
ज़ब्ह होते बकरे को
लगता होगा ऐसा ही.
वक़्त का गंडासा भोंटा
कब पड़ेगा
यह सवाल उठता है
मन में बार-बार !
कब रुकेगा वहशियाना कारोबार
कब बंद होगा माना जाना
स्त्रियों को भोग की वस्तु
कब तक पुंसत्व और गुंडई
पर्याय बने रहेंगे
एक-दूसरे के?
सत्ताएं कब तक बनी रहेंगी
इतनी ही क्रूर और संवेदनहीन?
क़ानून का राज कब शुरू होगा?
और कब खड़ा होने लगेगा
क़ानून बहुजन के पक्ष में?
जल-जंगल और ज़मीन
कब शुमार होने लगेंगे फिर से
साझी मिल्कियत में?
किसी ईश्वर ने पैदा नहीं की है
गैर-बराबरी
न कोई ईश्वर अवतरित होकर
करेगा इसे दूर. लुटेरे कब तक
बने रहेंगे जोंक
और पीते रहेंगे खून
कमेरों का? कब तक
भारी पड़ता रहेगा अपराधियों का
मानवाधिकार लुटे-पिटे जन-गण
के अधिकारों पर? ये भी तो
मानव ही हैं कदाचित !
क्या नया साल
लेकर आएगा अपने साथ
जवाब इन सवालों का?
या जटिल से जटिलतर होते
चले जाएंगे हालात
इस हद तक
कि उम्मीद रखना भी कुफ़्र
बन जाए?
रखना नाख़ुदा से ख़ैर
करने की आस
क्या कम होगा कुफ़्र से?
यह देखा था
झेला था जैसे
झेलेंगे वैसे ही तुमको भी
नए साल !
आओ स्वागत है तुम्हारा
फिर चाहे जो भी हो मन में
तुम्हारे !
उम्मीदें जगाता है...
गुज़रे कल के
और आज के अनुभव
जन्म देते हैं आशंकाओं को
बढ़ाते हैं भय को भी
बेशक.
रात कितनी भी लंबी हो
दुख की
चाहे अंधेरी हो
कितनी ही
भोर की
प्रतीक्षा रहती ही है
दुखों की उम्र पूरी
हो जाने का भरोसा भी.
अनागत जैसे ही बदलता है
आगत में
और क्रमशः जुड़ता
चला जाता है विगत में
भय और आशंकाएं
नहीं लगते आधारहीन.
जाने में कुछ ज़्यादा ही
धीमा हो गया है साल
उसका धीरे-धीरे जाना
बहुत साल रहा है
ज़ब्ह होते बकरे को
लगता होगा ऐसा ही.
वक़्त का गंडासा भोंटा
कब पड़ेगा
यह सवाल उठता है
मन में बार-बार !
कब रुकेगा वहशियाना कारोबार
कब बंद होगा माना जाना
स्त्रियों को भोग की वस्तु
कब तक पुंसत्व और गुंडई
पर्याय बने रहेंगे
एक-दूसरे के?
सत्ताएं कब तक बनी रहेंगी
इतनी ही क्रूर और संवेदनहीन?
क़ानून का राज कब शुरू होगा?
और कब खड़ा होने लगेगा
क़ानून बहुजन के पक्ष में?
जल-जंगल और ज़मीन
कब शुमार होने लगेंगे फिर से
साझी मिल्कियत में?
किसी ईश्वर ने पैदा नहीं की है
गैर-बराबरी
न कोई ईश्वर अवतरित होकर
करेगा इसे दूर. लुटेरे कब तक
बने रहेंगे जोंक
और पीते रहेंगे खून
कमेरों का? कब तक
भारी पड़ता रहेगा अपराधियों का
मानवाधिकार लुटे-पिटे जन-गण
के अधिकारों पर? ये भी तो
मानव ही हैं कदाचित !
क्या नया साल
लेकर आएगा अपने साथ
जवाब इन सवालों का?
या जटिल से जटिलतर होते
चले जाएंगे हालात
इस हद तक
कि उम्मीद रखना भी कुफ़्र
बन जाए?
रखना नाख़ुदा से ख़ैर
करने की आस
क्या कम होगा कुफ़्र से?
यह देखा था
झेला था जैसे
झेलेंगे वैसे ही तुमको भी
नए साल !
आओ स्वागत है तुम्हारा
फिर चाहे जो भी हो मन में
तुम्हारे !
सटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteअनागत, विगत के साथ आगत पर विमर्श के लिए विवश करती कविता.
ReplyDeleteलाजवाब रचना |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page