-महावीरप्रसाद द्विवेदी
कविता-प्रणाली के बिगड़ जाने पर यदि कोई नए तरह की स्वाभाविक कविता करने लगता है तो लोग उसकी निंदा करते हैं. कुछ नासमझ और नादान आदमी कहते हैं, यह बड़ी भद्दी कविता है. कुछ कहते हैं यह कविता ही नहीं. कुछ कहते हैं कि यह कविता तो ‘छंदोदिवाकर’ में दिए गए लक्षणों से च्युत है; अतएव यह निर्दोष नहीं..बात यह है कि जिसे अब तक कविता कहते आए हैं, वही उनकी समझ में कविता है और सब कोरी कांव-कांव !
इसी तरह की नुक़ताचीनी से तंग आकर अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ ने अपनी कविता को संबोधन करके उसकी सांत्वना की है. वह कहता है, “कविते !यह बेक़दरी का ज़माना है. लोगों के चित्त को तेरी तरफ़ खींचना तो दूर रहा, उलटी सब कहीं तेरी निंदा होती है. तेरी बदौलत सभा-समाजों और जलसों में मुझे लज्जित होना पड़ता है. पर जब मैं अकेला रहता हूं, तब तुझ पर मैं घमंड करता हूं. याद रख तेरी उत्पत्ति स्वाभाविक है. जो लोग अपने प्राकृतिक बल पर भरोसा रखते हैं, वे निर्धन होकर भी आनंद से रह सकते हैं. पर अप्राकृतिक बल पर किया गया गर्व कुछ दिन बाद ज़रूर चूर्ण हो जाता है.”
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आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज़ समझ रखा है. यह भ्रम है. कविता और पद्य में वही भेद है जो अंग्रेज़ी की पोएट्री (Poetry) और वर्स (Verse) में है. किसी प्रभावोत्पादक लेख, बात या वक्तृता का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुई सतरों का नाम पद्य है. जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता, वह कविता नहीं है. गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है. तुकबंदी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं. संस्कृत का प्रायः सारा पद्य समूह बिना तुकबंदी का है और संस्कृत से बढ़कर कविता शायद ही किसी और भाषा में हो. अरब में भी सैकड़ों अच्छे-अच्छे कवि हो गए हैं. वहां भी शुरू-शुरू में तुकबंदी का बिलकुल खयाल नहीं था.अंग्रेज़ी में भी बेतुकी कविता होती है. हां, एक ज़रूरी बात है कि वज़न और काफ़िये से कविता चित्ताकर्षक हो जाती है. पर कविता के लिए ये बातें ऐसी ही हैं जैसे शरीर के लिए वस्त्राभरण. यदि कविता का प्रधान धर्म, मनोरंजकता और प्रभावोत्पादकता उनमें न हो तो इनका होना निष्फल समझना चाहिए. पद्य के लिए काफ़िये वगैरह की ज़रूरत है, कविता के लिए नहीं. कविता के लिए तो ये बातें उलटी हानिकारक हैं. तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूंढने से कवियों के विचार-स्वातंत्र्य में बड़ी बाधा आती है. पद्य के नियम कवि के लिए एक तरह की बेड़ियां हैं. उनसे जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करे. पर काफ़िया और वज़न उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं. काफ़िये और वज़न को पहले ढूंढकर कवि को अपने मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है. इससे कवि अपने भाव स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट कर सकता. फल यह होता है कि कवि की कविता का असर कम हो जाता है. कभी-कभी तो वह बिलकुल ही जाता रहता है. अब आप ही कहिए कि जो वज़न और काफ़िया कविता के लक्षण का को अंश नहीं उन्हें ही प्रधानता ऐना भारी भूल है या नहीं?
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आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज़ समझ रखा है. यह भ्रम है. कविता और पद्य में वही भेद है जो अंग्रेज़ी की पोएट्री (Poetry) और वर्स (Verse) में है. किसी प्रभावोत्पादक लेख, बात या वक्तृता का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुई सतरों का नाम पद्य है. जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता, वह कविता नहीं है. गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है. तुकबंदी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं. संस्कृत का प्रायः सारा पद्य समूह बिना तुकबंदी का है और संस्कृत से बढ़कर कविता शायद ही किसी और भाषा में हो. अरब में भी सैकड़ों अच्छे-अच्छे कवि हो गए हैं. वहां भी शुरू-शुरू में तुकबंदी का बिलकुल खयाल नहीं था.अंग्रेज़ी में भी बेतुकी कविता होती है. हां, एक ज़रूरी बात है कि वज़न और काफ़िये से कविता चित्ताकर्षक हो जाती है. पर कविता के लिए ये बातें ऐसी ही हैं जैसे शरीर के लिए वस्त्राभरण. यदि कविता का प्रधान धर्म, मनोरंजकता और प्रभावोत्पादकता उनमें न हो तो इनका होना निष्फल समझना चाहिए. पद्य के लिए काफ़िये वगैरह की ज़रूरत है, कविता के लिए नहीं. कविता के लिए तो ये बातें उलटी हानिकारक हैं. तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूंढने से कवियों के विचार-स्वातंत्र्य में बड़ी बाधा आती है. पद्य के नियम कवि के लिए एक तरह की बेड़ियां हैं. उनसे जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करे. पर काफ़िया और वज़न उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं. काफ़िये और वज़न को पहले ढूंढकर कवि को अपने मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है. इससे कवि अपने भाव स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट कर सकता. फल यह होता है कि कवि की कविता का असर कम हो जाता है. कभी-कभी तो वह बिलकुल ही जाता रहता है. अब आप ही कहिए कि जो वज़न और काफ़िया कविता के लक्षण का को अंश नहीं उन्हें ही प्रधानता ऐना भारी भूल है या नहीं?
('महावीरप्रसाद द्विवेदी रचना संचयन' से साभार. संपादन : भारत यायावर)