Thursday 26 April 2012

1. बच्चे सपना देखते हैं 

बच्चे सपना देखते हैं
पहले भी देखते थे सपने वे
घोड़े पर बैठे राजकुमार
के रूप में
खुद को देखते थे सपनों में
या फिर परियों की संगत में
उड़ते-फिरते रहते थे
आसमान में
सपनों में.

उनके आज के सपनों का
सारतत्व बदल गया है
बदल क्या गया है
बदलवा दिया है
मा-बाप ने
ऐसे सपने जो छीन लेते हैं
बचपन
बना देते हैं अकाल युवा.
चिंताग्रस्त युवा जो घबराता है
सपनों के बोझ से.


2. बच्चों को बड़ा होने दो पेड़ सा 

बच्चों को उनके अधिकार
बताने का कोई अर्थ नहीं है
बड़ों को बताओ
बच्चों के प्रति उनके कर्तव्य.
कि बच्चे खेल-कूद सकें
पढ़-लिख सकें
बड़े हो सकें
जैसे उन्हें होना चाहिए बड़ा.
और फिर?
और फिर
बड़े होकर वे निभा सकें
अपनी भूमिका घर-परिवार में,
समाज में.

ज़रूरत है इसके लिए बहुत ही
इस बात की
कि वे जोड़ सकें अपने-आपको
घर-परिवार से
आस-पड़ोस से
और देश से जो
बहुत अमूर्त-सा लगता है
सरोकारों के अभाव में.
सरोकार जो देते हैं
विस्तार
एक को दूसरे से जोड़ते हैं
फिर सौवें से हजारवें से
और लाखों-लाखवें से.
तभी तो बनता है,
ऐसे जुड़ते चले जाने ही से
बनता है देश और
समाज.

बच्चों को बढ़ने दो पेड़
की तरह
बोनसाई मत बनाओ उन्हें
सजावट-दिखावट की चीज़ नहीं
होते बच्चे. बच्चों पर गर्व करो
उनकी क्षमताओं के पल्लवित-पुष्पित
हो जाने पर
ग़लत है नाराज़ी उनसे तुम्हारे
सौंपे हुए सपनों की नाकामी पर.
                               -मोहन श्रोत्रिय 

5 comments:

  1. बच्चो की आँखों से अपने सपने देखते हुए हम उनके सपने छीन लेते हैं.. यदि इस बात को माता पिता समझ ले तो शायद बहुत सी विसंगतियाँ कम हो जाएँ.. सुन्दर कविताये.

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  2. वाकई आज बच्चों पर ढेर सारी उम्मीदों का बोझ डालते हुए उनका बचपन छीन लिया जाता है और सहज रूप में उन्हें बड़ा नहीं होने दिया जाता। उम्मीद करते हैं कि हर मां-बाप आपकी बात सुनें और समझें...

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  3. बहुत बहुत सुंदर.................

    सहमत हूँ आपके हर एक भाव से...अक्षरशः !!!

    सादर.

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  4. वास्तव में हम कैसा भविष्य बनाना चाहते हैं ....? गंभीर चिंताजनक है यह परिदृश्य....

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  5. गंभीर एवं विचारणीय

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