कल लेनिन जयंती है. ठीक 142 बरस पहले दुनियाभर के मेहनतकशों के हमदर्द और पथ प्रदर्शक, तथा मार्क्स-एंगेल्स के दर्शन पर आधारित पहली क्रांति के जनक लेनिन का जन्म हुआ था, और सैंतालीस वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया था : दुनिया के पहले समाजवादी गणतंत्र की नींव रखकर. यह सच है कि आज वह समाजवादी गणतंत्र अस्तित्वमान नहीं है. पर इसके मायने ये क़तई नहीं हैं कि उस गणतंत्र के विखंडन के बाद, या दुनियाभर में समाजवादी ढांचे के कमज़ोर अथवा क्षीण हो जाने के बाद से समाजवाद के सपने की कोई जगह नहीं रह गई. पूंजीवादी और नव- साम्राज्यवादी मंसूबों के सार तत्व को जो तनिक भी समझ रहे हैं, वे इस बात से बाखबर हैं कि समाजवाद का सपना न केवल वक़्त की जरूरत है, बल्कि पूंजीवाद की निर्णायक पराजय की एकमात्र गारंटी है. ज़रूरी नहीं कि समाजवादी संरचना वैसी ही हो, जैसी पहली क्रांति के बाद हुई थी. पिछले दिनों समूची पूंजीवादी दुनिया में मार्क्सवाद की ओर आकृष्ट होने वाले जनगण की संख्या में न केवल बढ़ोतरी हुई है, बल्कि एक तरह का धमाकेदार जन-उद्घोष सुनाई पड़ने लगा है, जिसके संदेश को सार रूप में इसी तरह समझा जा सकता है कि मौजूदा संकट से मुक्ति की दिशा मार्क्सवाद के नज़दीक ही चिह्नित की जा सकती है.
यह कहने का आशय कतई यह न लिया जाए कि पूंजीवाद के पोषकों ने निर्णायक तौर पर उम्मीद छोड़ दी है, या वे पस्त-हिम्मत हो गए हैं. इसके एकदम उलट वे पूंजीवाद को चमकाने की तमाम कोशिशें कर रहे हैं. विकासशील देशों में फ़ोर्ड फाउंडेशन तथा अनेक अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा विभिन्न परियोजनाओं के तहत अनाप-शनाप पैसा सिर्फ़ इसलिए खर्च किया जा रहा है कि वाम-विरोध को फिर से उसी तरह ज़िंदा किया जा सके, जैसा शीतयुद्ध काल में, मैकार्थी के ज़माने में किया जा सका था. तब भी अमरीकी एजेंसियों की नज़र साहित्य-संस्कृति कर्मियों, वाम-विरोधी राजनेताओं आदि पर केंद्रित थी. तब विचारधारा और राजनीति के विरोध को हथियार बनाकर, पूंजीवाद-परस्त विचारधारा चलायी गई थी. भारत में तब इसके पुरोधा अज्ञेय थे. आज भी जो सक्रिय वाम-विरोधी हैं, उनमें से अधिकांश उनके शिष्य संप्रदाय से ही संबद्ध हैं. थोडा फ़र्क़ यह आया है कि स्थानीय स्तर पर, अज्ञेय के शताब्दी-मूल्यांकन के बहाने, इन लोगों को वाम वैचारिक शिविर में सेंध लगा पाने का अवसर मिल गया है. इसे विडंबना के अलावा क्या कहा जा सकता है कि अमरीकी साम्राज्यवाद के घोर विरोधी कुछेक शीर्षस्थ नाम अज्ञेय-स्तुतिगान में इनके साथ जुड़ गए. निस्संदेह, इससे वाम शिविर में थोडा भटकाव आया है, पर यह देर तक चल सकने वाली स्थिति नहीं बन सकती, क्योंकि बड़ी लड़ाईयां लड़ी जानी हैं, न केवल यहां, बल्कि दुनियाभर में.
लेनिन जयंती एक मौक़ा है, तमाम वामपक्षी संरचनाओं के लिए कि वे आत्म-निरीक्षण करें, निर्मम आत्मालोचन करें, और समय रहते अपनी छोटी-बड़ी भूलों को दुरुस्त करें. इतना ही नहीं, बल्कि नए सिरे से अपनी निष्ठा ज़ाहिर करें, एक नया समाज बनाने के संकल्प को दोहराते हुए. एक ऐसा समाज जहां किसी भी तरह की गैर-बराबरी को एक दंडनीय अपराध के रूप में मान्यता हो, जहां शोषण, दमन और उत्पीडन समूल नष्ट कर दिए जाने के संकल्प को मूर्तिमान करने के लिए किसी भी क़ुरबानी को बड़ा नहीं माना जाए.
"लेनिन को उनकी जयंती पर लाल सलाम" सिर्फ़ एक नारा न रहे, जनता के व्यापक हिस्सों को शिक्षित एवं संगठित करने का आह्वान बन जाए. लेखकों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों को और अधिक खुलकर काम करने की ज़रूरत है.
पैरों से रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल- लेनिन
पैरों से
रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल
और अधिक चटख रंगों में
फिर से खिलने के लिए।
जब भी बहता है
मेहनतकश का लहू सड़कों पर,
परचम और अधिक सुर्ख़रू
हो जाता है।
शहादतें इरादों को
फ़ौलाद बनाती हैं।
क्रान्तियाँ हारती हैं
परवान चढ़ने के लिए।
गिरे हुए परचम को
आगे बढ़कर उठा लेने वाले
हाथों की कमी नहीं होती।
यह कहने का आशय कतई यह न लिया जाए कि पूंजीवाद के पोषकों ने निर्णायक तौर पर उम्मीद छोड़ दी है, या वे पस्त-हिम्मत हो गए हैं. इसके एकदम उलट वे पूंजीवाद को चमकाने की तमाम कोशिशें कर रहे हैं. विकासशील देशों में फ़ोर्ड फाउंडेशन तथा अनेक अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा विभिन्न परियोजनाओं के तहत अनाप-शनाप पैसा सिर्फ़ इसलिए खर्च किया जा रहा है कि वाम-विरोध को फिर से उसी तरह ज़िंदा किया जा सके, जैसा शीतयुद्ध काल में, मैकार्थी के ज़माने में किया जा सका था. तब भी अमरीकी एजेंसियों की नज़र साहित्य-संस्कृति कर्मियों, वाम-विरोधी राजनेताओं आदि पर केंद्रित थी. तब विचारधारा और राजनीति के विरोध को हथियार बनाकर, पूंजीवाद-परस्त विचारधारा चलायी गई थी. भारत में तब इसके पुरोधा अज्ञेय थे. आज भी जो सक्रिय वाम-विरोधी हैं, उनमें से अधिकांश उनके शिष्य संप्रदाय से ही संबद्ध हैं. थोडा फ़र्क़ यह आया है कि स्थानीय स्तर पर, अज्ञेय के शताब्दी-मूल्यांकन के बहाने, इन लोगों को वाम वैचारिक शिविर में सेंध लगा पाने का अवसर मिल गया है. इसे विडंबना के अलावा क्या कहा जा सकता है कि अमरीकी साम्राज्यवाद के घोर विरोधी कुछेक शीर्षस्थ नाम अज्ञेय-स्तुतिगान में इनके साथ जुड़ गए. निस्संदेह, इससे वाम शिविर में थोडा भटकाव आया है, पर यह देर तक चल सकने वाली स्थिति नहीं बन सकती, क्योंकि बड़ी लड़ाईयां लड़ी जानी हैं, न केवल यहां, बल्कि दुनियाभर में.
लेनिन जयंती एक मौक़ा है, तमाम वामपक्षी संरचनाओं के लिए कि वे आत्म-निरीक्षण करें, निर्मम आत्मालोचन करें, और समय रहते अपनी छोटी-बड़ी भूलों को दुरुस्त करें. इतना ही नहीं, बल्कि नए सिरे से अपनी निष्ठा ज़ाहिर करें, एक नया समाज बनाने के संकल्प को दोहराते हुए. एक ऐसा समाज जहां किसी भी तरह की गैर-बराबरी को एक दंडनीय अपराध के रूप में मान्यता हो, जहां शोषण, दमन और उत्पीडन समूल नष्ट कर दिए जाने के संकल्प को मूर्तिमान करने के लिए किसी भी क़ुरबानी को बड़ा नहीं माना जाए.
"लेनिन को उनकी जयंती पर लाल सलाम" सिर्फ़ एक नारा न रहे, जनता के व्यापक हिस्सों को शिक्षित एवं संगठित करने का आह्वान बन जाए. लेखकों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों को और अधिक खुलकर काम करने की ज़रूरत है.
पैरों से रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल- लेनिन
पैरों से
रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल
और अधिक चटख रंगों में
फिर से खिलने के लिए।
जब भी बहता है
मेहनतकश का लहू सड़कों पर,
परचम और अधिक सुर्ख़रू
हो जाता है।
शहादतें इरादों को
फ़ौलाद बनाती हैं।
क्रान्तियाँ हारती हैं
परवान चढ़ने के लिए।
गिरे हुए परचम को
आगे बढ़कर उठा लेने वाले
हाथों की कमी नहीं होती।
बहुत बढ़िया लेख.....और बेहतरीन रचना.....
ReplyDelete(अब तो लाल सलाम नक्सलियों की याद दिलाता है)
शुक्रिया तहे दिल से....
सादर.
गिरे हुए परचम को
ReplyDeleteआगे बढ़कर उठा लेने वाले
हाथों की कमी नहीं होती।
शहादतें इरादों को
ReplyDeleteफ़ौलाद बनाती हैं।''
ऊपर से भले ही ऐसा दिखता हो कि यह शहादतों का नहीं खुदकुशियों का दौर है , मगर पूरा सच यह है कि शहादतों का दौर जारी है .चंद्रशेखर से ले कर भैया राम यादव तक यह सिलसिला बेरोकटोक जारी है . इसलिए आने वाला वक्त जरूर फौलादी होगा.
व्लादी मीर इलीच लेनिन की जयंती के अवसर पर आपने जो स्दाशा व्यक्त की है वह अवश्य सफल हो ,हम सब यही कामना करते हैं।
ReplyDeleteलेनिन की सोच के पीछे केवल मार्क्स नही है बल्कि तोल्स्तोय जैसे लोगों का हाथ भी है..जिसे उन्होंने गाहे-बगाहे स्वीकारा भी है! पर इस बात से इनकार नही किया जा सकता है कि उनका शासनकाल मार्क्सवाद का स्वर्णिम काल था!
ReplyDeleteबेहद ईमानदारी से लिखा गया पीस। आत्म-निरीक्षण और निर्मम आत्मालोचन के जरिए ही `खोए नक्शे को` फिर से पाया जा सकता है।
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