Sunday, 1 April 2012

रुकना चाहिए यह सिलसिला

सही वक़्त पर सही सवाल 
खड़े करने से कतराते रहने का 
यह सिलसिला कभी टूटेगा भी
या चलता ही रहेगा यह 
यूं ही अनवरत? ज़रूरी है 
सब कुछ की समीक्षा
बेलाग बेलौस ढंग से.

यों तो पुस्तक समीक्षा भी ज़रूरी है बेशक
पर लगता है कई बार कि 
समीक्षाओं की समीक्षा ज़रूरी है
क्योंकि
समीक्षाओं से उनके छद्म का 
तिलिस्म तो टूटता नहीं दिखता
पता ही नहीं चलता क्यों
लिखी जाती हैं जैसी 
लिखी जाती हैं वे? जुगाड़ किया जाता 
है जो, रहस्यों को परत-दर-परत
छिपाने का ही करता है काम
रचना का, समीक्षा का पूरा सच 
नहीं आ पाता सामने. 

कैसे हो जाता है 
कि युवा कवि लिख देता है
चार कविताएं "बड़े" कवि की शान में
और औचक रह जाती है साहित्यिक दुनिया
जब पा जाता है युवा कवि एक 
प्रतिष्ठित पुरस्कार "न कुछ कविता"
के बूते पर! पुरस्कार के लिए अनुशंसा भी
तो समीक्षा ही होती है, मूलतः और
अंततः ...

मज़ा यह कि तिकडम के सहारे
इस तरह बहुत कुछ पा जाने वाले 
रोते ही रहते हैं रोना फिर भी 
शिकार बन जाने का  न जाने किस-किस 
तरह के पूर्वाग्रहों का
पुरस्कृत-सम्मानित होते हुए भी 
वंचित रखे जाने का 
ध्यान अपने पर से हटाने का
समय-सिद्ध टोटका है यह जब
भीड़ में घुस कर चोर ही चिल्लाने लगे 
"चोर,चोर" क्योंकि कर ही नहीं सकती 
कोई शक़ ऐसे आदमी पर वह भीड़
जो भागी जा रही है चोर की तलाश में !

कैसा लगे जब पता चले
कि कविता में पूरी धरती से 
सरोकार जताने वाला कवि
परदे के पीछे
"पुरबिया" बन जाता है
पुरस्कार पाने को, एक 
"बड़े" कवि-निर्णायक का 
दुमछल्ला बन जाता है !

कि कैसे एक कवि 
अच्छी-दिखती कविताएं लिखने
के साथ-साथ ही 
गुमनाम पत्र भी लिखता है
बेहद पुरअसर और फलदायी
अपने "नामित प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ़
पुरस्कार-आयोजक-संपादक की
सलाह पर ! नेपथ्य में चलता रहता है जो
वह दुनिया को, हमारी दुनिया को
कुछ ज़्यादा ही बदसूरत बना देता है.
"भीतर" और "बाहर" के बीच ऐसा
फ़र्क़ तो नहीं होता था आज से
कुछ समय पहले तक. यों लोभ-लालच से
मुक्त नहीं थी दुनिया तब भी
पूर्वाग्रह काम करते थे तब भी
निजी पसंद-नापसंद का मसला 
उतना "गौण" नहीं हो गया था,
और जात-बिरादरी का खेल झांक ही
जाता था उन दिनों भी
यानि समीक्षा का स्वर्ण युग वह भी नहीं था
फिर भी इतनी समझदारी नहीं 
आ गई थी, समयपूर्व 
कवियों में
"साधने" की कला में ऐसी महारत 
हासिल नहीं थी...अपवाद हो सकते थे
इक्का-दुक्का. और खेल की चालें भी 
उतनी उजागर नहीं हई थीं.

समीक्षा के औजारों की समझ  जितनी ज़रूरी है
उससे कम ज़रूरी नहीं है
समीक्षा के औजारों की समीक्षा.
इसीसे संभव होगी समीक्षा की समीक्षा
इसीसे खुलेंगे रचना-समीक्षा के प्रयोजन
गिरोहबंदियां भी होंगी उद्घाटित इसी से.
खुला खेल फ़रुक्काबादी
कैसे चल सकता है अनवरत?

तो क्यों नहीं होनी चाहिए कवियों की 
पक्षधरताओं  की और 
उतनी ही कड़ी समीक्षा समीक्षकों,
निर्णायकों और 
प्रस्तावित-अनुमोदित-प्रोन्नत 
करने वालों की भी?

यह सब नहीं होगा तो
जीवन की समीक्षा का क्या होगा?
और जीवन की समीक्षा नहीं 
तो साहित्य की क़ीमत क्या?
                               -मोहन श्रोत्रिय 

7 comments:

  1. Crystal clear and apt expression!!!

    Regards,

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  2. हमारे समय का बेहद कटु यथार्थ, और दुखद यह कि इन प्रपंचों अधिसंख्य किसी न किसी रूप में सलंग्न है...

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  3. यह तो समीक्षा की सभ्यता- समीक्षा सी हो गयी. लेकिन 'खिलाड़ी ' खिलाड़ी मैदान पर तभी हावी होते हैं , जब समर्पित खिलाड़ी मैदान छोड़ देते हैं.

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    1. तो इसे समर्पित खिलाडियों का आह्वान भी मान लीजिए, ताकि "खिलाडियों" को साहित्य को बदनाम करने के खेल के बाहर किया जा सके. मेरी तो गिलहरी-जितनी भूमिका ही हो सकती है.

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  4. sir, yah kvita yaad rakhi jaayegi.. aur bahut baar uddhrit kee jaane laayak hai..

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  5. लीना सही कह रही हैं।

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  6. सटीक बात कहती सुंदर रचना

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