Sunday, 15 April 2012

काव्य प्रतिभा: रसूल हमज़ातोव

रसूल हमज़ातोव के मेरा दागिस्तान की गणना विश्व क्लासिकों में होती है. यह पुस्तक अपने भीतर इतना कुछ समेटे हुए है जिससे परिचित होकर युवा लेखकों की पीढ़ी कविता से जुड़े न जाने कितने ज़रूरी घटकों की समझ से संपन्न बन सकती है. यहां भाषा, रचना-प्रक्रिया, रचना का प्रयोजन, लोक से प्राप्त मेधा का सृजनात्मक उपयोग से जुड़ी सामग्री का भंडार भरा पड़ा है. काव्य-प्रतिभा पर रसूल हमज़ातोव ने बड़े दिलचस्प तरीके से विचार किया है. उनकी शैली तो पाठक को बांध ही लेती है. पाठक में यदि धैर्य हो तब तो कहना ही क्या!


जलो कि प्रकाश हो !
                                          लैंप पर आलेख

कवि और सुनहरी मछली का क़िस्सा. कहते हैं कि किसी अभागे कवि ने कास्पियन सागर में एक सुनहरी मछली पकड़ ली.
       "कवि, कवि, मुझे सागर में छोड़ दो," सुनहरी मछली ने मिन्नत की.
       "तो इसके बदले युम मुझे क्या दोगी?"
       "तुम्हारे दिल की सभी मुरादें पूरी हो जाएंगी."
      कवि ने खुश होकर सुनहरी मछली को छोड़ दिया. अब कवि की किस्मत का सितारा बुलंद होने लगा. एक के बाद एक उसके कविता-संग्रह निकलने लगे. शहर में उसका घर बन गया और शहर के बाहर एक बढ़िया बंगला भी. पदक और "श्रम-वीरता के लिए" तमगा भी उसकी छाती पर चमकने लगे. कवि ने ख्याति प्राप्त कर ली और सभी की ज़बान पर उसका नाम सुनाई देने लगा. ऊंचे से ऊंचे ओहदे उसे मिले और सारी दुनिया
उसके सामने भुने हुए, प्याज और नींबू से मज़ेदार बने हुए सीख कबाब के सामान थी. हाथ बढ़ाओ, लो और मज़े से खाओ.
जब वह अकादमीशियन और सांसद बन गया था और पुरस्कृत हो चुका था, तो एक दिन उसकी पत्नी ने ऐसे ही कहा --
"आह, इन सब चीज़ों के साथ-साथ तुमने सुनहरी मछली से कुछ प्रतिभा भी क्यों न मांग ली?" 
कवि मानो चौंका, मानो वह समझ गया कि इन सालों के दौरान किस चीज़ की उसके पास कमी रही थी.
वह सागर-तट पर भागा-भागा गया और मछली से बोला -
 "मछली, मछली, मुझे थोड़ी-सी प्रतिभा भी दे दो."
  सुनहरी मछली ने जवाब दिया -
"तुमने जो भी चाहा, मैंने वह सभी कुछ तुमको दिया. भविष्य में भी जो कुछ तुम  चाहोगे, मैं तुम्हें दूंगी, 
मगर प्रतिभा नहीं दे सकती. वह, कवि-प्रतिभा तो खुद मेरे पास भी नहीं है."
  तो प्रतिभा या तो है, या नहीं. उसे न कोई दे सकता है, न ले सकता है. प्रतिभाशाली तो पैदा ही होना चाहिए.
...
...
पिताजी ने यह बात सुनाई. दूर के किसी गांव से एक पहाड़ी आदमी पिताजी के पास आया और अपनी कविताएं सुनाने लगा. पिताजी ने  इस नए कवि की रचनाएं बड़े ध्यान से सुनीं और फिर अपेक्षाकृत कमज़ोर और बेजान स्थलों की ओर संकेत किया. इसके बाद उन्होंने पहाड़ी को यह बताया कि वह खुद, त्सादा का हमज़ात इन्हीं कविताओं को कैसे लिखता..
"प्यारे हमज़ात," पहाड़ी आदमी कह उठा, "ऐसी कविताएं लिखने के लिए तो प्रतिभा चाहिए !"
"शायद तुम ठीक ही कहते हो, थोड़ी-सी प्रतिभा से तुम्हें कोई हानि नहीं होगी."
'तो यह बताइए वह कहां मिल सकती है, हमज़ात के जवाब में निहित व्यंग्य को न समझते हुए पहाड़ी ने खुश होकर पूछा.
"दुकानों पर तो मैं आज गया था, वहां वह नहीं थी, शायद मंडी में हो."

कोई भी यह नहीं जानता कि आदमी में प्रतिभा कहां से आती है. यह भी किसी को मालूम नहीं कि कि इसे धरती देती है या आकाश. या शायद वह धरती और आकाश दोनों की संतान है? इसी तरह कोई नहीं जानता कि इंसान में वह किस जगह रहती है - दिल में, खून में या दिमाग़ में? जन्म के साथ ही वह छोटे-से इंसानी दिल में अपनी जगह बना लेती है या धरती पर अपना कठिन मार्ग तय करते हुए आदमी बाद में उसे हासिल करता है? किस चीज़ से उसे अधिक बल मिलता है -प्यार से या घृणा से, खुशी से या ग़म से, हंसी से या आंसुओं से? या प्रतिभा के इए इन सभी की ज़रूरत होती है वह विरासत में मिलती है या मानव जो कुछ देखता, सुनता, पढता, अनुभव करता और जानता है, उस सभी के परिणामस्वरुप यह उसमें संचित होती है?

प्रतिभा श्रम का फल है या प्रकृति की देन? यह आंखों के उस रंग के समान है, जो आदमी को जन्म के साथ ही मिलता है, या उन मांसपेशियों के समान है, जिनका दैनिक व्यायाम के फलस्वरूप वह विकास करता है? यह माली द्वारा बड़ी मेहनत से उगाए गए सेब के पेड़ के समान है या उस सेब के समान, जो पेड़ से सीधा लड़के की हथेली पर आ गिरता है?
...
दो प्रतिभावान व्यक्तियों की प्रतिभा एक जैसी नहीं होती, क्योंकि समान प्रतिभाएं तो प्रतिभाएं ही नहीं होतीं. शक्ल-सूरत की समानता पर तो प्रतिभा बिल्कुल ही निर्भर नहीं करती. मैंने अपने पिताजी के चेहरे से मिलते-जुलते चेहरों वाले बहुत-से लोग देखे हैं, मगर पिताजी के समान प्रतिभा मुझे किसी में दिखाई नहीं दी.
प्रतिभा विरासत में भी नहीं मिलती, वरना कला-क्षेत्र में वंशों का बोलबाला होता. बुद्धिमान के यहां अक्सर मूर्ख बेटा पैदा होता है, और मूर्ख का बेटा बुद्धिमान हो सकता है.

किसी व्यक्ति में अपना स्थान बनाते समय प्रतिभा कभी इस बात की परवाह नहीं करती कि वह किस राज्य में रहता है, वह कितना बड़ा है, उसकी जाति के लोगों की संख्या कितनी है. प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है, अप्रत्याशित ही आती है और इसलिए वह बिजली की कौंध, इंद्रधनुष अथवा गर्मी से बुरी तरह झुलसे और उम्मीद छोड़ चुके रेगिस्तान में अचानक आने वाली बारिश की तरह आश्चर्यचकित कर देती है...
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5 comments:

  1. रसूल की प्रतिभा के क्या कहने . वैसे हर किसी में कोई न कोई प्रतिभा तो होती ही है . बात उसे ठीक से पहचानने की है .

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  2. पढना शुरू किया था हाल में। भाषा पर तो बढिया लगा था। ... ... पढता हूँ जल्द ही।

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  3. आपकी सभी प्रस्तुतियां संग्रहणीय हैं। .बेहतरीन पोस्ट .
    मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए के लिए
    अपना कीमती समय निकाल कर मेरी नई पोस्ट मेरा नसीब जरुर आये
    दिनेश पारीक
    http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/04/blog-post.html

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  4. आभार इस प्रस्तुति के लिए!

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  5. रसूल की गद्य किताब *मेरा दागिस्तान * जितनी लोकप्रिय हुई उतनी उन की कविताएं कभी न हो पाईं . और मैं वजह जानना नही चाहता !

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