अशोक कुमार पांडेय तीसरे कवि थे जिन्हें केन्द्र में रख कर समकालीन कविता में वैचारिकता के प्रश्न पर, पिछले महीने जोधपुर विश्वविद्यालय के पुनश्चर्या पाठ्यक्रम में अपने व्याख्यान में विचार किया था. अशोक फ़ेसबुक पर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, कवि-संपादक-ब्लॉगर-समीक्षक के रूप में उनकी पहचान बन चुकी है. समाज विज्ञान (अर्थशास्त्र जिसके मूल में है) के अध्येता होने के नाते वह मनुष्य के कार्य-व्यापार को अंतर-अनुशासनिक दृष्टि से देख पाते हैं, इसलिए उनकी कविता में भाव पक्ष के साथ विचार पक्ष भी बड़े प्रबल रूप में सामने आता है. वह जीवन की छोटी-बड़ी स्थितियों/ घटनाओं का वीक्षण करके मात्र चित्रित नहीं कर देते, बल्कि कवि-कर्म को गंभीरता से लेते हुए, उन पर टिप्पणी भी करते हैं.यहां यथार्थ 'जस-का-तस' चित्रित नहीं होता बल्कि विचार की कीमियागरी एक नए यथार्थ का सृजन कर देती है. उनके समवयस्क कई कवि शब्दों के जादू/चमत्कार/वैचित्र्य के सहारे छोटी-छोटी अनुभूतियों (अनुभवों नहीं) को रूपायित करने वाली, यद्यपि मन को छू लेने वाली कविताएं ही ज़्यादा लिखते हैं, विचार पक्ष या तो वहां ग़ायब मिलता है, या फिर अत्यंत दुर्बल रूप में अभिव्यक्ति पाता है. इसका एक कारण यह भी है कि वे विचार और भाव की संश्लिष्टता पैदा करने में या तो अपने आपको समर्थ नहीं पाते या फिर विचार को कविता के लिए अनुपयुक्त पाते हैं. कविता, मनुष्य के अन्य किसी सृजनात्मक कर्म की तरह, विचारमुक्त हो नहीं सकती. टी. एस. इलियट के प्रशंसक/अनुयायी बेशक ऐसा मानते हों पर उन मान्यताओं का खंडन तो बहुत पहले अंग्रेज़ी आलोचकों ने ही कर दिया था, इनमें ग़ैर मार्क्सवादी आलोचकों का भी योगदान समान रूप से उल्लेखनीय रहा था. तो अशोक कुमार पांडेय की कविता में विचार दोनों रूपों में प्रकट होता है: कहीं यह अंतर्वस्तु के साथ एकमेक हो जाता है तो कहीं ज़रूरत पड़ने पर अत्यंत प्रकट रूप में भी सामने आता है पर वह किसी भी तरह से कविता के 'कवितापन' को किसी भी अर्थ में कम नहीं होने देता बल्कि इसके उलट कविता की शक्ति को ही बढ़ाता है. विचार को लेकर कुछ लोगों के मन में यह भ्रम बना रहता है कि इससे कविता प्रचारात्मक'' बन जाती है. ऐसे लोगों को लेनिन की यह प्रसिद्ध उक्ति याद रखनी चाहिए: ''हर साहित्य प्रचार होता है किंतु हर प्रचार साहित्य नहीं होता.'' कवि की चेतना शून्य में निर्मित नहीं होती, इसी तरह कविताएं भी शून्य में जन्म नहीं लेतीं. उनका एक ठोस व सुनिश्चित सामाजिक संदर्भ होता है, सांस्कृतिक भी. ऐसे में विचार से बच पाने की इच्छा कहीं एक दोयम दर्जे के विचार की भी उंगली पकड़ सकती है. जब राजनीति हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित कर रही हो, ऐसे में उस राजनीति से कवि भी कैसे बच सकता है यदि वह एक सजग कवि है तो. हिंदी में जैसे कभी 'अराजनीति की राजनीति' का खेल चला था, वैसे ही 'विचारमुक्ति' का भी आग्रह दिखाई पड़ता है. इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि विचार का अर्थ एक ख़ास विचारधारा से जोड़कर ही लिया जाता है. एक प्रगतिशील/जनवादी कवि अपने विचारों को छुपाता नहीं है क्योंकि छुपाने का यह काम तो रूपवादी कवि करते हैं.
(छः)
यह पहला दशक है इक्कीसवीं सदी का
एक सलोने राजकुमार की स्वप्नसदी का पहला दशक
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों की स्वप्नसदी का पहला दशक
पहला दशक एक धुरी पर घूमते भूमण्डलीय गांव का
सबके पास हैं अपने-अपने हिस्से के स्वप्न
स्वप्नों के प्राणांतक बोझ से कराहती सदी का पहला दशक
हर तरफ एक परिचित सा शोर
‘पहले जैसी नहीं रही दुनिया’
हर तरफ फैली हुई विभाजक रेखायें
‘हमारे साथ या हमारे खिलाफ’
युद्ध का उन्माद और बहाने हजार
इराक, ईरान, लोकतंत्र या कि दंतेवाड़ा
हर तरफ एक परिचित सा शोर
मारे जायेंगे वे जिनके हाथों में हथियार
मारे जायेंगे अब तक बची जिनकी कलमों में धार
मारे जायेंगे इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज
मारे जायेंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के खिलाफ
और इस शोर के बीच उस जंगल में
नुचे पंखों वाला उदास मोर बरसात में जा छिपता किसी ठूंठ की आड़ में
फौजी छावनी में नाचती वनदेवी निर्वस्त्र
खेत रौंदे हुए हत्यारे बूटों से
पेड़ों पर नहीं फुनगी एक
नदियों में बहता रक्त लाल-लाल
दोनों किनारों पर सड़ रही लाशें तमाम
चारों तरफ हड्डियों के.... खालों के सौदागरों का हुजूम
किसी तलहटी की ओट में डरा-सहमा चांद
और एक अंधकार विकराल चारों ओर
रह-रह कर गूंजतीं गोलियों की आवाज
और कर्णभेदी चीत्कार
मणि उस जगमगाते कमरे के बीचोबीच सजी विशाल गोलमेज पर
चिल्ल पों, खींच तान ,शोर... खूब शोर... हर ओर
देखता चुपचाप दीवार पर टंगा मोर
पौधा बालकनी का हिलता प्रतिकार में...
सबसे बुरे दिन
सबसे बुरे दिन नहीं थे वे
जब घर के नाम पर
चैकी थी एक छह बाई चार की
बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जिस्म
लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध!
बुरे नहीं वे दिन भी
जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मज़बूर
कि लटपटा जाती थी जबान बार बार
और वे भी नहीं
जब दोस्तों की चाय में
दूध की जगह मिलानी होती थी मज़बूरियां.
कतई बुरे नही थे वे दिन
जब नहीं थी दरवाज़े पर कोई नेमप्लेट
और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाज़े
बन्द थे हमारे लिये.
इतने बुरे तो खैर नही हैं ये भी दिन
तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद
आ ही जाती है सात आठ घण्टों की गहरी नीद
और नींद में वही अजीब अजीब सपने
सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन
और फाइलों पर टिप्पणियां लिखकर ऊबी क़लम
अब भी हुलस कर लिखती है कविता.
बुरे होंगे वे दिन
अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला
दोस्तों की शक्लें हो गईं बिल्कुल ग्राहकों सीं
नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम
नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई ग़ुलाम
और कविता लिखी गई फाइलों की टिप्पणियों सी.
बहुत बुरे होंगे वे दिन
जब रात की शक्ल होगी बिल्कुल देह जैसी
और उम्मीद की चेकबुक जैसी
विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
खुशी घर का कोई नया सामान
और समझौते मजबूरी नही बन जायेंगे आदत.
लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
जब आने लगेंगे इन दिनों के सपने!
बुझे चूल्हे की कब्र पर तो कबके बन गये मकान
और उस कस्बे में अब तक नहीं खुली चिप्स की फैक्ट्री
और खुल भी जाती तो कहां होती जगह जगन की अम्मा के लिए?
क्या कर रहे होंगे आजकल
मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हाथ?
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले
होती हैं अनेक भयावह संभावनायें....
जेबें टटोलते मेरे शर्मिन्दा हाथों को देखते हुए ग़ौर से
दुकानदार ने बिटिया को पकड़ा दिये हैं- अंकल चिप्स!
अशोक कुमार पांडेय की कविताओं से गुज़रना एक ख़ास अनुभव इसलिए बन जाता है कि आज के इस जटिल दौर में कविता और साहित्य की अन्य विधाओं को भी सामाजिक बदलाव में जो भूमिका अदा करनी है, ये कविताएं काफ़ी हद तक उस काम को अंजाम देती दिखाई पड़ती हैं. ऐसे में कविता यदि कहीं बहस का रूप लेती दिखती है या अपने पक्ष को ज़ोरदार ढंग से रखती दिखती है तो मेरी राय में यह बुरे वक़्त में कविता का प्रमुख कार्यभार है.
अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार
(एक)
इस जंगल में एक मोर था
आसमान से बादलों का संदेशा भी आ जाता
तो ऐसे झूम के नाचता
कि धरती के पेट में बल पड़ जाते
अंखुआने लगते खेत
पेड़ों की कोख से फूटने लगते बौर
और नदियों के सीने में ऐसे उठती हिलोर
कि दूसरे घाट पर जानवरों को देख
मुस्कुरा कर लौट जाता शेर
एक मणि थी यहां
जब दिन भर की थकन के बाद
दूर कहीं एकान्त में सुस्ता रहा होता सूरज
तो ऐसे खिलकर जगमगाती वह
कि रात-रात भर नाचती वनदेवी
जान ही नहीं पाती
कि कौन टांक गया उसके जूड़े में वनफूल
एक धुन थी वहां
थोड़े से शब्द और ढेर सारा मौन
उन्हीं से लिखे तमाम गीत थे
हमारे गीतों की ही तरह
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने
उस मणि की उन्मुक्त रोशनी में जो गाते थे वे
झिंगा-ला-ला नहीं था वह
जीवन था उनका बहता अविकल
तेज पेड़ से रिसती ताड़ी की तरह
इतिहास की कोख से उपजी विपदायें थीं
और उन्हें काटने के कुछ आदिम हथियार
समय की नदी छोड़ गयी थी वहां
तमाम अनगढ़ पत्थर, शैवाल और सीपियां...
(एक)
इस जंगल में एक मोर था
आसमान से बादलों का संदेशा भी आ जाता
तो ऐसे झूम के नाचता
कि धरती के पेट में बल पड़ जाते
अंखुआने लगते खेत
पेड़ों की कोख से फूटने लगते बौर
और नदियों के सीने में ऐसे उठती हिलोर
कि दूसरे घाट पर जानवरों को देख
मुस्कुरा कर लौट जाता शेर
एक मणि थी यहां
जब दिन भर की थकन के बाद
दूर कहीं एकान्त में सुस्ता रहा होता सूरज
तो ऐसे खिलकर जगमगाती वह
कि रात-रात भर नाचती वनदेवी
जान ही नहीं पाती
कि कौन टांक गया उसके जूड़े में वनफूल
एक धुन थी वहां
थोड़े से शब्द और ढेर सारा मौन
उन्हीं से लिखे तमाम गीत थे
हमारे गीतों की ही तरह
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने
उस मणि की उन्मुक्त रोशनी में जो गाते थे वे
झिंगा-ला-ला नहीं था वह
जीवन था उनका बहता अविकल
तेज पेड़ से रिसती ताड़ी की तरह
इतिहास की कोख से उपजी विपदायें थीं
और उन्हें काटने के कुछ आदिम हथियार
समय की नदी छोड़ गयी थी वहां
तमाम अनगढ़ पत्थर, शैवाल और सीपियां...
(दो)
वहां बहुत तेज रोशनी थी
इतनी कि पता ही नहीं चलता
कि कब सूरज ने अपनी गैंती चाँद के हवाले की
और कब बेचारा चाँद अपने ही औजारों के बोझ तले
थक कर डूब गया
बहुत शोर था वहां
सारे दरवाजे बंद
खिड़कियों पर शीशे
रौशनदानों पर जालियां
और किसी की श्वासगंध नहीं थी वहां
बस मशीने थीं और उनमें उलझे लोग
कुछ भी नहीं था ठहरा हुआ वहां
अगर कोई दिखता भी था रुका हुआ
तो बस इसलिये
कि उसी गति से भाग रहा दर्शक भी...
वहां दीवार पर मोरनुमा जानवर की तस्वीर थी
गमलों में पेड़नुमा चीज जो
छोटी वह पेड़ की सबसे छोटी टहनी से भी
एक ही मुद्रा में नाचती कुछ लड़कियां अविराम
और कुछ धुनें गणित के प्रमेय की तरह जो
खत्म हो जाती थीं सधते ही...
वहां भूख का कोई संबध नहीं था भोजन से
न नींद का सपनों से
उम्मीद के समीकरण कविता में नहीं बहियों में हल होते
शब्द यहां प्रवेश करते ही बदल देते मायने
उनके उदार होते ही थम जाते मोरों के पांव
वनदेवी का नृत्य बदल जाता तांडव में
और सारे गीत चीत्कार में
जब वे कहते थे विकास
हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते
वहां बहुत तेज रोशनी थी
इतनी कि पता ही नहीं चलता
कि कब सूरज ने अपनी गैंती चाँद के हवाले की
और कब बेचारा चाँद अपने ही औजारों के बोझ तले
थक कर डूब गया
बहुत शोर था वहां
सारे दरवाजे बंद
खिड़कियों पर शीशे
रौशनदानों पर जालियां
और किसी की श्वासगंध नहीं थी वहां
बस मशीने थीं और उनमें उलझे लोग
कुछ भी नहीं था ठहरा हुआ वहां
अगर कोई दिखता भी था रुका हुआ
तो बस इसलिये
कि उसी गति से भाग रहा दर्शक भी...
वहां दीवार पर मोरनुमा जानवर की तस्वीर थी
गमलों में पेड़नुमा चीज जो
छोटी वह पेड़ की सबसे छोटी टहनी से भी
एक ही मुद्रा में नाचती कुछ लड़कियां अविराम
और कुछ धुनें गणित के प्रमेय की तरह जो
खत्म हो जाती थीं सधते ही...
वहां भूख का कोई संबध नहीं था भोजन से
न नींद का सपनों से
उम्मीद के समीकरण कविता में नहीं बहियों में हल होते
शब्द यहां प्रवेश करते ही बदल देते मायने
उनके उदार होते ही थम जाते मोरों के पांव
वनदेवी का नृत्य बदल जाता तांडव में
और सारे गीत चीत्कार में
जब वे कहते थे विकास
हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते
(तीन)
हमें लगभग बीमारी थी ‘हमारा’ कहने की
अकेलेपन के ‘मैं’ को काटने का यही हमारा साझा हथियार
वैसे तो कितना वदतोव्याघात
कितना लंबा अंतराल इस ‘ह’ और ‘म’ में
हमारी कहते हम उन फैक्ट्रियों कों
जिनके पुर्जों से छोटा हमारा कद
उस सरकार को कहते ‘हमारी’
जिसके सामने लिलिपुट से भी बौना हमारा मत
उस देश को भी
जिसमे बस तब तक सुरक्षित सिर जब तक झुका हुआ
...और यहीं तक मेहदूद नहीं हमारी बीमारियां
किसी संक्रामक रोग की
तरह आते हमें स्वप्न
मोर न हमारी दीवार पर, न आंगन में
लेकिन सपनों में नाचते रहते अविराम
कहां-कहां की कर आते यात्रायें सपनों में ही...
ठोकरों में लुढ़काते राजमुकुट और फिर
चढ़कर बैठ जाते सिंहासनों पर...
कभी उस तेज रौशनी में बैठ विशाल गोलमेज के चतुर्दिक
बनाते मणि हथियाने की योजनायें
कभी उसी के रक्षार्थ थाम लेते कोई पाषाणयुगीन हथियार
कभी उन निरंतर नृत्यरत बालाओं से करते जुगलबंदी
कभी वनदेवी के जूड़े में टांक आते वनफूल...
हर उस जगह थे हमारे स्वप्न
जहां वर्जित हमारा प्रवेश!
(चार)
इतनी तेज रोशनी उस कमरे में
कि जरा सा कम होते ही
चिंता का बवण्डर घिर आता चारों ओर
दीवारें इतनी लंबी और सफेद
कि चित्र के न होने पर
लगतीं फैली हुई कफन सी आक्षितिज
इतनी गति पैरों में
कि जरा सा शिथिल हो जायें
तो लगता धरती ने बंद कर दिया घूमना
विराम वहां मृत्यु थी
धीरज अभिशाप
संतोष मौत से भी अधिक भयावह
भागते-भागते जब बदरंग हो जाते
तो तत्क्षण सजा दिये जाते उन पर नये चेहरे
इतिहास से निकल आ ही जाती अगर कोई धीमी सी धुन
तो तत्काल कर दी जाती घोषणा उसकी मृत्यु की
इतिहास वहां एक वर्जित शब्द था
भविष्य बस वर्तमान का विस्तार
और वर्तमान प्रकाश की गति से भागता अंधकार
यह गति की मजबूरी थी
कि उन्हें अक्सर आना पड़ता था बाहर
उनके चेहरों पर होता गहरा विषाद
कि चौबीस मामूली घंटों के लिये
क्यूं लेती है धरती इतना लंबा समय?
साल के उन महीनों के लिये बेहद चिंतित थे वे
जब देर से उठता सूरज और जल्दी ही सो जाता
उनकी चिंता में शामिल थे जंगल
कि जिनके लिये काफी बालकनी के गमले
क्यूं घेर रखी है उन्होंने इतनी जमीन ?
उन्हें सबसे ज्यादा शिकायत मोर से थी
कि कैसे गिरा सकता है कोई इतने कीमती पंख यूं ही
ऐसा भी क्या नाचना कि जिसके लिये जरूरी हो बरसात
शक तो यह भी था
कि हो न हो मिलीभगत इनकी बादलों से...
उन्हें दया आती वनदेवी पर
और क्रोध इन सबके लिये जिम्मेदार मणि पर
वही जड़ इस सारी फसाद की
और वे सारे सीपी, शैवाल, पत्थर और पहाड़
रोक कर बैठे न जाने किन अशुभ स्मृतियों को
वे धुनें बहती रहती जो प्रपात सी निरन्तर
और वे गीत जिनमे शब्दों से ज्यादा खामोशियां...
उन्हें बेहद अफसोस
विगत के उच्छिष्टों से
असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिये
मनुष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर
थोड़ी दया, थोड़ी घृणा और थोड़े संताप के साथ
आदिवासी कहते उन्हें ...
उनके हंसने के लिये नहीं कोई बिंब
रोने के लिये शब्द एक पथरीला - अरण्यरोदन
इतना आसान नहीं था पहुंचना उन तक
सूरज की नीम नंगी रोशनी में
हजारों प्रकाशवर्ष की दूरियां तय कर
गुजरकर इतने पथरीले रास्तों से
लांघकर अनगिनत नदियां,जंगल,पहाड़
और समय के समंदर सात ...
हनुमान की तरह हर बार हमारे ही कांधे थे
जब-जब द्रोणगिरियों से ढूंढ़ने निकले वे अपनी संजीवनी...
हमें लगभग बीमारी थी ‘हमारा’ कहने की
अकेलेपन के ‘मैं’ को काटने का यही हमारा साझा हथियार
वैसे तो कितना वदतोव्याघात
कितना लंबा अंतराल इस ‘ह’ और ‘म’ में
हमारी कहते हम उन फैक्ट्रियों कों
जिनके पुर्जों से छोटा हमारा कद
उस सरकार को कहते ‘हमारी’
जिसके सामने लिलिपुट से भी बौना हमारा मत
उस देश को भी
जिसमे बस तब तक सुरक्षित सिर जब तक झुका हुआ
...और यहीं तक मेहदूद नहीं हमारी बीमारियां
किसी संक्रामक रोग की
तरह आते हमें स्वप्न
मोर न हमारी दीवार पर, न आंगन में
लेकिन सपनों में नाचते रहते अविराम
कहां-कहां की कर आते यात्रायें सपनों में ही...
ठोकरों में लुढ़काते राजमुकुट और फिर
चढ़कर बैठ जाते सिंहासनों पर...
कभी उस तेज रौशनी में बैठ विशाल गोलमेज के चतुर्दिक
बनाते मणि हथियाने की योजनायें
कभी उसी के रक्षार्थ थाम लेते कोई पाषाणयुगीन हथियार
कभी उन निरंतर नृत्यरत बालाओं से करते जुगलबंदी
कभी वनदेवी के जूड़े में टांक आते वनफूल...
हर उस जगह थे हमारे स्वप्न
जहां वर्जित हमारा प्रवेश!
(चार)
इतनी तेज रोशनी उस कमरे में
कि जरा सा कम होते ही
चिंता का बवण्डर घिर आता चारों ओर
दीवारें इतनी लंबी और सफेद
कि चित्र के न होने पर
लगतीं फैली हुई कफन सी आक्षितिज
इतनी गति पैरों में
कि जरा सा शिथिल हो जायें
तो लगता धरती ने बंद कर दिया घूमना
विराम वहां मृत्यु थी
धीरज अभिशाप
संतोष मौत से भी अधिक भयावह
भागते-भागते जब बदरंग हो जाते
तो तत्क्षण सजा दिये जाते उन पर नये चेहरे
इतिहास से निकल आ ही जाती अगर कोई धीमी सी धुन
तो तत्काल कर दी जाती घोषणा उसकी मृत्यु की
इतिहास वहां एक वर्जित शब्द था
भविष्य बस वर्तमान का विस्तार
और वर्तमान प्रकाश की गति से भागता अंधकार
यह गति की मजबूरी थी
कि उन्हें अक्सर आना पड़ता था बाहर
उनके चेहरों पर होता गहरा विषाद
कि चौबीस मामूली घंटों के लिये
क्यूं लेती है धरती इतना लंबा समय?
साल के उन महीनों के लिये बेहद चिंतित थे वे
जब देर से उठता सूरज और जल्दी ही सो जाता
उनकी चिंता में शामिल थे जंगल
कि जिनके लिये काफी बालकनी के गमले
क्यूं घेर रखी है उन्होंने इतनी जमीन ?
उन्हें सबसे ज्यादा शिकायत मोर से थी
कि कैसे गिरा सकता है कोई इतने कीमती पंख यूं ही
ऐसा भी क्या नाचना कि जिसके लिये जरूरी हो बरसात
शक तो यह भी था
कि हो न हो मिलीभगत इनकी बादलों से...
उन्हें दया आती वनदेवी पर
और क्रोध इन सबके लिये जिम्मेदार मणि पर
वही जड़ इस सारी फसाद की
और वे सारे सीपी, शैवाल, पत्थर और पहाड़
रोक कर बैठे न जाने किन अशुभ स्मृतियों को
वे धुनें बहती रहती जो प्रपात सी निरन्तर
और वे गीत जिनमे शब्दों से ज्यादा खामोशियां...
उन्हें बेहद अफसोस
विगत के उच्छिष्टों से
असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिये
मनुष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर
थोड़ी दया, थोड़ी घृणा और थोड़े संताप के साथ
आदिवासी कहते उन्हें ...
उनके हंसने के लिये नहीं कोई बिंब
रोने के लिये शब्द एक पथरीला - अरण्यरोदन
इतना आसान नहीं था पहुंचना उन तक
सूरज की नीम नंगी रोशनी में
हजारों प्रकाशवर्ष की दूरियां तय कर
गुजरकर इतने पथरीले रास्तों से
लांघकर अनगिनत नदियां,जंगल,पहाड़
और समय के समंदर सात ...
हनुमान की तरह हर बार हमारे ही कांधे थे
जब-जब द्रोणगिरियों से ढूंढ़ने निकले वे अपनी संजीवनी...
(पाँच )
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखण्ड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हजार किस्से संघर्ष के
और यह भी नहीं कि बस अरण्यरोदन तक सीमित उनका प्रतिकार
उस अलिखित इतिहास में बहुत कुछ
मोर, मणि और वनदेवी के अतिरिक्त
इतिहास के आगे बहुत आगे जाने की इच्छा
इच्छा जंगलों से बाहर
क्षितिज के इस पार से उस पार तक की यात्रा की
जो था उससे बहुत बेहतर की इच्छा...
इच्छाओं के गहरे समंदर में तैरना चाहते थे वे
पर उन्हें कैद कर दिया गया शोभागृहों के एक्वेरियम में
उड़ना चाहते थे आकाश में
पर हर बार छीन ली गयी उनकी जमीन...
और फिर सिर्फ ईंधन के लिये नहीं उठीं उनकी कुल्हाड़ियां
हाँ ... नहीं निकले जंगलों से बाहर छीनने किसी का राज्य
किसी पर्वत की कोई मणि नहीं सजाई अपने माथे पर
शामिल नहीं हुए लोभ की किसी होड़ में
किसी पुरस्कार की लालसा में नहीं गाये गीत
इसीलिये नहीं शायद सतरंगा उनका इतिहास!
हर पुस्तक से बहिष्कृत उनके नायक
राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति
साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की
पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुण्डा
किसी प्रातः स्मरण में जिक्र नहीं टट्या भील का
जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई सिधू-कान्हू
बस विकास के हर नये मंदिर की आहुति में घायल
उनकी शिराओं में कैद हैं वो स्मृतियां
उन गीतों के बीच जो खामोशियां हैं
उनमें पैबस्त हैं इतिहास के वे रौशन किस्से
उनके हिस्से की विजय का अत्यल्प उल्लास
और पराजय के अनन्त बियाबान...
इतिहास है कि छोड़ता ही नहीं उनका पीछा
बैताल की तरह फिर-फिर आ बैठता उन चोटिल पीठों पर
सदियों से भोग रहे एक असमाप्त विस्थापन ऐसे ही उदास कदमों से
थकन जैसे रक्त की तरह बह रही शिराओं में
क्रोध जैसे स्वप्न की तरह होता जा रहा आंखों से दूर
पर अकेले ही नहीं लौटते ये सब
कोई बिरसा भी लौट आता इनके साथ हर बार
और यहीं से शुरु होता उनकी असुविधाओं का सिलसिला
यहीं से बदलने लगती उनकी कुल्हाड़ियों की भाषा
यहीं से बदलने लगती उनके नृत्य की ताल
गीत यहीं से बनने लगते हुंकार
और नैराश्य के गहन अंधकार से निकल
उन हुंकारों में मिलाता अपना अविनाशी स्वर
यहीं से निकल पड़ता एक महायात्रा पर हर बार
हमारी खंडित चेतना का स्वपनदर्शी पक्ष
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखण्ड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हजार किस्से संघर्ष के
और यह भी नहीं कि बस अरण्यरोदन तक सीमित उनका प्रतिकार
उस अलिखित इतिहास में बहुत कुछ
मोर, मणि और वनदेवी के अतिरिक्त
इतिहास के आगे बहुत आगे जाने की इच्छा
इच्छा जंगलों से बाहर
क्षितिज के इस पार से उस पार तक की यात्रा की
जो था उससे बहुत बेहतर की इच्छा...
इच्छाओं के गहरे समंदर में तैरना चाहते थे वे
पर उन्हें कैद कर दिया गया शोभागृहों के एक्वेरियम में
उड़ना चाहते थे आकाश में
पर हर बार छीन ली गयी उनकी जमीन...
और फिर सिर्फ ईंधन के लिये नहीं उठीं उनकी कुल्हाड़ियां
हाँ ... नहीं निकले जंगलों से बाहर छीनने किसी का राज्य
किसी पर्वत की कोई मणि नहीं सजाई अपने माथे पर
शामिल नहीं हुए लोभ की किसी होड़ में
किसी पुरस्कार की लालसा में नहीं गाये गीत
इसीलिये नहीं शायद सतरंगा उनका इतिहास!
हर पुस्तक से बहिष्कृत उनके नायक
राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति
साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की
पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुण्डा
किसी प्रातः स्मरण में जिक्र नहीं टट्या भील का
जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई सिधू-कान्हू
बस विकास के हर नये मंदिर की आहुति में घायल
उनकी शिराओं में कैद हैं वो स्मृतियां
उन गीतों के बीच जो खामोशियां हैं
उनमें पैबस्त हैं इतिहास के वे रौशन किस्से
उनके हिस्से की विजय का अत्यल्प उल्लास
और पराजय के अनन्त बियाबान...
इतिहास है कि छोड़ता ही नहीं उनका पीछा
बैताल की तरह फिर-फिर आ बैठता उन चोटिल पीठों पर
सदियों से भोग रहे एक असमाप्त विस्थापन ऐसे ही उदास कदमों से
थकन जैसे रक्त की तरह बह रही शिराओं में
क्रोध जैसे स्वप्न की तरह होता जा रहा आंखों से दूर
पर अकेले ही नहीं लौटते ये सब
कोई बिरसा भी लौट आता इनके साथ हर बार
और यहीं से शुरु होता उनकी असुविधाओं का सिलसिला
यहीं से बदलने लगती उनकी कुल्हाड़ियों की भाषा
यहीं से बदलने लगती उनके नृत्य की ताल
गीत यहीं से बनने लगते हुंकार
और नैराश्य के गहन अंधकार से निकल
उन हुंकारों में मिलाता अपना अविनाशी स्वर
यहीं से निकल पड़ता एक महायात्रा पर हर बार
हमारी खंडित चेतना का स्वपनदर्शी पक्ष
यहीं से सौजन्यतायें क्रूरता में बदल जातीं
और अनजान गांवों के नाम बन जाते इतिहास के प्रतिआख्यान!
और अनजान गांवों के नाम बन जाते इतिहास के प्रतिआख्यान!
(छः)
यह पहला दशक है इक्कीसवीं सदी का
एक सलोने राजकुमार की स्वप्नसदी का पहला दशक
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों की स्वप्नसदी का पहला दशक
पहला दशक एक धुरी पर घूमते भूमण्डलीय गांव का
सबके पास हैं अपने-अपने हिस्से के स्वप्न
स्वप्नों के प्राणांतक बोझ से कराहती सदी का पहला दशक
हर तरफ एक परिचित सा शोर
‘पहले जैसी नहीं रही दुनिया’
हर तरफ फैली हुई विभाजक रेखायें
‘हमारे साथ या हमारे खिलाफ’
युद्ध का उन्माद और बहाने हजार
इराक, ईरान, लोकतंत्र या कि दंतेवाड़ा
हर तरफ एक परिचित सा शोर
मारे जायेंगे वे जिनके हाथों में हथियार
मारे जायेंगे अब तक बची जिनकी कलमों में धार
मारे जायेंगे इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज
मारे जायेंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के खिलाफ
और इस शोर के बीच उस जंगल में
नुचे पंखों वाला उदास मोर बरसात में जा छिपता किसी ठूंठ की आड़ में
फौजी छावनी में नाचती वनदेवी निर्वस्त्र
खेत रौंदे हुए हत्यारे बूटों से
पेड़ों पर नहीं फुनगी एक
नदियों में बहता रक्त लाल-लाल
दोनों किनारों पर सड़ रही लाशें तमाम
चारों तरफ हड्डियों के.... खालों के सौदागरों का हुजूम
किसी तलहटी की ओट में डरा-सहमा चांद
और एक अंधकार विकराल चारों ओर
रह-रह कर गूंजतीं गोलियों की आवाज
और कर्णभेदी चीत्कार
मणि उस जगमगाते कमरे के बीचोबीच सजी विशाल गोलमेज पर
चिल्ल पों, खींच तान ,शोर... खूब शोर... हर ओर
देखता चुपचाप दीवार पर टंगा मोर
पौधा बालकनी का हिलता प्रतिकार में...
सबसे बुरे दिन
सबसे बुरे दिन नहीं थे वे
जब घर के नाम पर
चैकी थी एक छह बाई चार की
बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जिस्म
लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध!
बुरे नहीं वे दिन भी
जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मज़बूर
कि लटपटा जाती थी जबान बार बार
और वे भी नहीं
जब दोस्तों की चाय में
दूध की जगह मिलानी होती थी मज़बूरियां.
कतई बुरे नही थे वे दिन
जब नहीं थी दरवाज़े पर कोई नेमप्लेट
और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाज़े
बन्द थे हमारे लिये.
इतने बुरे तो खैर नही हैं ये भी दिन
तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद
आ ही जाती है सात आठ घण्टों की गहरी नीद
और नींद में वही अजीब अजीब सपने
सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन
और फाइलों पर टिप्पणियां लिखकर ऊबी क़लम
अब भी हुलस कर लिखती है कविता.
बुरे होंगे वे दिन
अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला
दोस्तों की शक्लें हो गईं बिल्कुल ग्राहकों सीं
नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम
नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई ग़ुलाम
और कविता लिखी गई फाइलों की टिप्पणियों सी.
बहुत बुरे होंगे वे दिन
जब रात की शक्ल होगी बिल्कुल देह जैसी
और उम्मीद की चेकबुक जैसी
विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
खुशी घर का कोई नया सामान
और समझौते मजबूरी नही बन जायेंगे आदत.
लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
जब आने लगेंगे इन दिनों के सपने!
कहां होंगी जगन की अम्मा ?
सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा शर्मिंदा सा जेबें टटोलते
अचानक पहुंच जाता हूं
बचपन के उस छोटे से कस्बे में
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं
और मां बांस की रंगीन सी डलिया में
दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर
जहां इंतज़ार में होती थीं
सुलगती हुई हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा.
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी
बस जगन की अम्मा थीं वह
हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं
एक पति भी रहा होगा ज़रूर
पर कभी ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई उसे जानने की
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू
और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान.
हालांकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर
नहीं था कहीं उसका विज्ञापन
हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं
अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्डिगें
और जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका ज़िक्र
पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू
और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य.
मुट्ठियां भर भर कर फांकते हुए इसे
हमने खेले बचपन के तमाम खेल
ऊंघती आंखों से हल कि ये गणित के प्रमेय
रिश्तेदारों के घर रस के साथ यही मिला अक्सर
एक डलिया में बांटकर खाते बने हमारे पहले दोस्त
फ्राक में छुपा हमारी पहली प्रेमिकाओं ने
यही दिया उपहार की तरह
यही खाते खाते पहले पहल पढ़े
डिब्बाबंद खाने और शीतल पेयों के विज्ञापन!
और फिर जब सपने तलाशते पहुंचे
महानगरों की अनजान गलियों के उदास कमरों में
आतीं रहीं अक्सर जगन की अम्मा
मां के साथ पिता के थके हुए कंधो पर
पर धीरे धीरे घटने लगा उस खुशबू का सम्मोहन
और फिर खो गया समय की धुंध में तमाम दूसरी चीज़ों की तरह.
बरसों हुए अब तो उस गली से गुज़रे
पता ही नहीं चला कब बदल गयी
बांस की डलिया प्लास्टिक की प्लेटों में
और रस भूजा - चाय नमकीन में!
अब कहां होंगी जगन की अम्मा?
सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा शर्मिंदा सा जेबें टटोलते
अचानक पहुंच जाता हूं
बचपन के उस छोटे से कस्बे में
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं
और मां बांस की रंगीन सी डलिया में
दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर
जहां इंतज़ार में होती थीं
सुलगती हुई हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा.
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी
बस जगन की अम्मा थीं वह
हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं
एक पति भी रहा होगा ज़रूर
पर कभी ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई उसे जानने की
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू
और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान.
हालांकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर
नहीं था कहीं उसका विज्ञापन
हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं
अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्डिगें
और जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका ज़िक्र
पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू
और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य.
मुट्ठियां भर भर कर फांकते हुए इसे
हमने खेले बचपन के तमाम खेल
ऊंघती आंखों से हल कि ये गणित के प्रमेय
रिश्तेदारों के घर रस के साथ यही मिला अक्सर
एक डलिया में बांटकर खाते बने हमारे पहले दोस्त
फ्राक में छुपा हमारी पहली प्रेमिकाओं ने
यही दिया उपहार की तरह
यही खाते खाते पहले पहल पढ़े
डिब्बाबंद खाने और शीतल पेयों के विज्ञापन!
और फिर जब सपने तलाशते पहुंचे
महानगरों की अनजान गलियों के उदास कमरों में
आतीं रहीं अक्सर जगन की अम्मा
मां के साथ पिता के थके हुए कंधो पर
पर धीरे धीरे घटने लगा उस खुशबू का सम्मोहन
और फिर खो गया समय की धुंध में तमाम दूसरी चीज़ों की तरह.
बरसों हुए अब तो उस गली से गुज़रे
पता ही नहीं चला कब बदल गयी
बांस की डलिया प्लास्टिक की प्लेटों में
और रस भूजा - चाय नमकीन में!
अब कहां होंगी जगन की अम्मा?
बुझे चूल्हे की कब्र पर तो कबके बन गये मकान
और उस कस्बे में अब तक नहीं खुली चिप्स की फैक्ट्री
और खुल भी जाती तो कहां होती जगह जगन की अम्मा के लिए?
क्या कर रहे होंगे आजकल
मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हाथ?
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले
होती हैं अनेक भयावह संभावनायें....
जेबें टटोलते मेरे शर्मिन्दा हाथों को देखते हुए ग़ौर से
दुकानदार ने बिटिया को पकड़ा दिये हैं- अंकल चिप्स!
मां की डिग्रियां
घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीज़ों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
मां की डिग्रियों का एक पुलिन्दा
बचपन में अक्सर देखा है मां को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिन्दा
कभी क्रोध कभी खीझ
और कभी हताश रूदन के बीच
टुकड़े-टुकड़े सुनी बातों को जोड़कर
धीरे-धीरे बुनी मैंने साड़ी की कहानी
कि कैसे ठीक उस रस्म के पहले
घण्टों चीखते रहे थे बाबा
और नाना बस खडे रह गये थे हाथ जोड़कर
मां ने पहली बार देखे थे उन आंखों में आंसू
और फिर रोती रही थीं बरसों
अक्सर कहतीं
यही पहनाकर भेजना चिता पर
और पिता बस मुस्कुराकर रह जाते...
डिग्रियों के बारे में तो
चुप ही रहीं मां
बस एक उकताई सी मुस्कुराहट पसर जाती आंखों में
जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते
‘उस ज़माने की एम.ए. हैं साहब
चाहतीं तो कालेज में होतीं किसी
हमने तो रोका नहीं कभी
पर घर और बच्चे रहे इनकी पहली प्राथमिकता
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ’
बहुत बाद में बताया नानी ने
कि सिर्फ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी क़ीमत
अनेक छोटी-बड़ी लड़ाइयां
दफ़्न थीं उन पुराने काग़ज़ों में...
आठवीं के बाद नहीं था आसपास कोई स्कूल
और पूरा गांव एकजुट था शहर भेजे जाने के खिलाफ़
उनके दादा ने तो त्याग ही दिया था अन्न-जल
पर निरक्षर नानी अड़ गयी थीं चट्टान सी
और झुकना पड़ा था नाना को पहली बार
अन्न-जल तो ख़ैर कितने दिन त्यागते
पर गांव की उस पहली ग्रेजुएट का
फिर मुंह तक नहीं देखा दादा ने
डिग्रियों से याद आया
ननिहाल की बैठक में टंगा
वह धूल-धूसरित चित्र
जिसमें काली टोपी लगाये लम्बे से चोगे में
बेटन सी थामे हुए डिग्री
मां जैसी शक्लोसूरत वाली
एक लड़की मुस्कुराती रहती है
मां के चेहरे पर तो
कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान
कॉलेज के चहचहाते लेक्चर थियेटर में
तमाम हमउम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की?
क्या सोचती होगी
रात के तीसरे पहर
इतिहास के पन्ने पलटते हुए?
क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक
कालेज की चहारदीवारी पर बैठा
कोई करता होगा इंतज़ार?
(जैसे मैं करता था तुम्हारा)
क्या उसकी किताबों में भी
कोई रख जाता होगा
सपनों का महकता गुलाब?
परिणामों के ठीक पहले वाली रात
क्या हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल?
और अगली रात
पंख लगाये डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त...
जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह
एहसास होगा ही उसे
अपनी उम्र के साथ गहराती जा रही पिता की चिन्ताओं का
तो क्या परीक्षा के बाद किताबों के साथ
ख़ुद ही समेटने लगी होगी स्वप्न?
या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है
मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक
कि आंखों में जगह ही न बचे किसी अन्य दृश्य के लिए?
.
.
.
पूछ तो नहीं सका कभी
पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद
इतना तो समझ सकता हूँ
कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे
दब जाने के लिये नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियां.
घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीज़ों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
मां की डिग्रियों का एक पुलिन्दा
बचपन में अक्सर देखा है मां को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिन्दा
कभी क्रोध कभी खीझ
और कभी हताश रूदन के बीच
टुकड़े-टुकड़े सुनी बातों को जोड़कर
धीरे-धीरे बुनी मैंने साड़ी की कहानी
कि कैसे ठीक उस रस्म के पहले
घण्टों चीखते रहे थे बाबा
और नाना बस खडे रह गये थे हाथ जोड़कर
मां ने पहली बार देखे थे उन आंखों में आंसू
और फिर रोती रही थीं बरसों
अक्सर कहतीं
यही पहनाकर भेजना चिता पर
और पिता बस मुस्कुराकर रह जाते...
डिग्रियों के बारे में तो
चुप ही रहीं मां
बस एक उकताई सी मुस्कुराहट पसर जाती आंखों में
जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते
‘उस ज़माने की एम.ए. हैं साहब
चाहतीं तो कालेज में होतीं किसी
हमने तो रोका नहीं कभी
पर घर और बच्चे रहे इनकी पहली प्राथमिकता
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ’
बहुत बाद में बताया नानी ने
कि सिर्फ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी क़ीमत
अनेक छोटी-बड़ी लड़ाइयां
दफ़्न थीं उन पुराने काग़ज़ों में...
आठवीं के बाद नहीं था आसपास कोई स्कूल
और पूरा गांव एकजुट था शहर भेजे जाने के खिलाफ़
उनके दादा ने तो त्याग ही दिया था अन्न-जल
पर निरक्षर नानी अड़ गयी थीं चट्टान सी
और झुकना पड़ा था नाना को पहली बार
अन्न-जल तो ख़ैर कितने दिन त्यागते
पर गांव की उस पहली ग्रेजुएट का
फिर मुंह तक नहीं देखा दादा ने
डिग्रियों से याद आया
ननिहाल की बैठक में टंगा
वह धूल-धूसरित चित्र
जिसमें काली टोपी लगाये लम्बे से चोगे में
बेटन सी थामे हुए डिग्री
मां जैसी शक्लोसूरत वाली
एक लड़की मुस्कुराती रहती है
मां के चेहरे पर तो
कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान
कॉलेज के चहचहाते लेक्चर थियेटर में
तमाम हमउम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की?
क्या सोचती होगी
रात के तीसरे पहर
इतिहास के पन्ने पलटते हुए?
क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक
कालेज की चहारदीवारी पर बैठा
कोई करता होगा इंतज़ार?
(जैसे मैं करता था तुम्हारा)
क्या उसकी किताबों में भी
कोई रख जाता होगा
सपनों का महकता गुलाब?
परिणामों के ठीक पहले वाली रात
क्या हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल?
और अगली रात
पंख लगाये डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त...
जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह
एहसास होगा ही उसे
अपनी उम्र के साथ गहराती जा रही पिता की चिन्ताओं का
तो क्या परीक्षा के बाद किताबों के साथ
ख़ुद ही समेटने लगी होगी स्वप्न?
या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है
मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक
कि आंखों में जगह ही न बचे किसी अन्य दृश्य के लिए?
.
.
.
पूछ तो नहीं सका कभी
पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद
इतना तो समझ सकता हूँ
कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे
दब जाने के लिये नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियां.
अशोक जी की कविताओं को आपकी सारगर्भित टिप्पणी के साथ पढ़ना अच्छा लगा. टिप्पणी में आपने एक महत्वपूर्ण बहस को समेटा है. कविताएँ बहुत अच्छी लगीं. 'जगन की अम्मा' ने बचपन में पहुंचा दिया. मन में अभी तक कुछ खदक रहा है. 'मां की डिग्रियां' कविता तो बेजोड़ है.
ReplyDeleteAshok bhai ki ye sabhi kavitayen achchhi hain in par meri ray is link main padi ja sakati hai-http://likhoyahanvahan.blogspot.com/2011/07/blog-post_10.html yahna MOhan ji ne bhi un par vistar se likhakar na keval unaki khasiyat ko rekhankit kiya hai balki samkaleen kavita ki seemaon ki or bhi sanket kar diya hai jo is post ko mahtvapoorn bana deta hai.
ReplyDeleteवाकई आपकी टिप्पणी के साथ इन कविताओं को पढ़ना शानदार रहा..जाने कितने विचार और उदासी फ़िक्र से घेरती कवितायें अपने दायित्व के प्रति सजग समर्थ कवि हैं अशोक ..माँ की डिग्रियां और वनदेवी मुझे बहुत ही पसंद आई ! आपका आभार भाई को बधाई !
ReplyDeleteसभी कवितायेँ बहुत अच्छी लगी.. लेकिन मेरे दिल के करीब ' सबसे बुरे दिन ' ही रही..विघटित होते मूल्यों पर ऐसा कटाक्ष, मन सिहर कर रह गया... सचमुच बहुत बुरे होंगे वे दिन.. अशोकजी की कवितायेँ ज़रूरी कवितायेँ होती हैं और बहुत क्रूर और वीभत्स बातों को रेखांकित करते हुए भी अपनी सुंदरता बनाये रखती हैं.. बधाई अशोक जी आभार मोहन सर ..
ReplyDeleteश्रोत्रिय जी,
ReplyDeleteअशोक की कविताएँ पसंद आयीं। विचार और संवेदना, दोनों के धनी हैं अशोक।
विसंगतियों तथा अपने समय के सवालों से सशक्तता से जूझती गम्भीर कविताएँ
ReplyDeleteयहीं से सौजन्यतायें क्रूरता में बदल जातीं
और अनजान गांवों के नाम बन जाते इतिहास के प्रतिआख्यान!
ashok mera pasandida kavi hai. uski kavitaon par aapki rai se sahmati hai.
ReplyDeleteमोहनदा की सुलझी हुयी टीप कविताओं पर गहराई से सोचती है.इस टीप से सोचने के लिए कई सवाल उठते हैं.कविता और विचार में क्या अंतर है, और क्या अंतर्संबंध? कविता विचार से जन्म लेती है या कविता से विचार ?वह ''कवितापन'' है क्या , जो विचार के बावजूद बचा रहता है या उस के होने से ही अधिक गाढा हो जाता है ? कविता में अर्थ की तलाश क्या विचार की ही तलाश है , या किसी और चीज़ की ? किस चीज़ की ? अनुभूति क्या विचार से अलग या उलट भी हो सकती है ?कविता में अर्थ की तलाश करनी चाहिए या नहीं ?..हिंदी कविता का तेवर बदल रहा है , इसलिए ऐसे सवाल अब और अधिक मौजूं हो गए हैं.
ReplyDelete'सबसे बुरे दिन' तो खैर अच्छी है ही पर मैं 'माँ की डिग्रियां'पढकर जाने कैसी कैसी सोच में डूब गया . आप मेरे घर कब आये ...?
ReplyDeleteअशोक जी को पढना एक ऐसा अनुभव होता है, जब यथार्थ, संवेदनाओं को छूते हुए, आपके बिलकुल करीब से गुजरता है, आपको केवल पढना ही काफी नहीं होता, बल्कि सोचने की लम्बी प्रक्रिया में खो जाना पड़ता है! उनकी कवितायेँ पहले भी मुझे बहुत भाती है, वस्तुतः वे जो चित्रण प्रस्तुत करते हैं वह वास्तविकता के करीब तो होता है, किन्तु काव्य को सरस बनाये रखता है....जैसे पहली कविता में वन जीवंत हो गया है, इनमे पर्यावरण, अरण्य,वन्य जीव, आदिवासी जीवन पर पड़े आधुनिकता के प्रभाव को इस तरह शब्दरूप दिया गया कि शब्द मोर कि तरह नाचते एक पल में तो आपको मोह लेते हैं कितु दूसरे ही पल में यथार्थ की पथरीली जमीन पर वनों की करुण चीत्कार सोचने पर विवश करती है, .........उम्मीद के समीकरण कविता में नहीं बहियों में हल होते शब्द यहाँ प्रवेश करते ही बदल देते मायने........ .शब्द अशोकजी की लेखनी से निकलकर कागज़ पर उतरे तो न केवल मायने बदल गए, अपितु ढल गए उन संवेदनाओं में जो गहरे तक आपके हृदय को बींद देती हैं.......अन्य कवितायेँ जीवन में होने वाले सभी परिवर्तनों के प्रति सचेत करते हुए एक विवशता से परिचय कराती हैं जहाँ हम निरुपाय स्वीकार करते हैं परिवर्तन को चाहे और अनचाहे, आखिरी कविता मेरी प्रिय कविता है जिसे पहले भी पढ़ा मैंने, कई बार पढ़ा...एक लड़की के आकाश छूने की कहानी, सपनों को पाने फिर दूर जाते हुए देखने को विवश लड़की कोई भी हो सकती है, अपनी माँ की याद हो आई, जिन्हें मैंने उनकी छोड़ी किताबों, कलाकृतियों, अधूरे काढ़े रुमालों से ही जाना, होती तो शायद वे भी ऐसी ही होती...............अशोकजी को ढेर सी बधाई, इस उम्मीद के साथ कि वे हमेशा ऐसे ही हमें अच्छी कवितायेँ पढने का मौका देंगे......और मोहन सर को सादर धन्यवाद् मुझे इन्हें पढने के लिए प्रेरित करने के लिए.......
ReplyDeleteमोहनजी ! अशोक जी की इन कविताओं को प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार ! ये कविताये मेरी पसंदीदा कवितायेँ हैं ! इन कविताओं में न कही वैचारिक झोल आया है और न कहीं भाषा हकलाई है ! 'मुक्तिबोध' के शब्दों में ये कवितायेँ 'विक्षुब्ध बुद्धि के मारक स्वर' हैं ! सारगर्भित टिप्पणी के साथ प्रस्तुतीकरण के लिए आभार और अशोक जी को बधाई !
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी ने इन कविताओं का महत्व और बढ़ा दिया है। अशोक मेरे प्रिय कवि हैं, उन्हें पढ़ना हमारी वैचारिकी को स़दृढ़ करना होता है। वे हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण सवालों को गहरी काव्य संवेदना के साथ अभिव्यक्त करते हैं और एक नई काव्यभाषा को संभव बनाते हैं।
ReplyDeleteजिनको पढते हुए आप जवान हुए...लिखना सीखा...उनका स्नेह अक्सर भावुक कर देता है. बस इतना कि कोशिश करूँगा कि इन उम्मीदों को शर्मिन्दा न करूँ.
ReplyDeleteप्रेमचंद भाई, अरुण जी, अंजू शर्मा, हिमांशु, आशुतोष भाई, विजय भाई, कल्पना जी, गणेश पाण्डेय सर,लीना जी,वंदना दी, महेश भाई, मनीज भाई ... आप सबका बहुत-बहुत आभार.
आशुतोष भाई ने कुछ ज़रूरी सवाल उठाये हैं. वह एक समर्थ और जागरूक आलोचक हैं. मेरा उनसे आग्रह है कि समकालीन कविता की आलोचना का जो एक ज़रूरी काम ड्यू है...उसे वे अपने हाथ में लें.
एक प्रगतिशील/जनवादी कवि अपने विचारों को छुपाता नहीं है क्योंकि छुपाने का यह काम तो रूपवादी कवि करते हैं.
ReplyDeleteअशोक कुमार पांडेय की कविताओं से गुज़रना एक ख़ास अनुभव इसलिए बन जाता है कि आज के इस जटिल दौर में कविता और साहित्य की अन्य विधाओं को भी सामाजिक बदलाव में जो भूमिका अदा करनी है, ये कविताएं काफ़ी हद तक उस काम को अंजाम देती दिखाई पड़ती हैं.
थोड़े से शब्द और ढेर सारा मौन
उन्हीं से लिखे तमाम गीत थे
हमारे गीतों की ही तरह
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने
*****
वहां भूख का कोई संबध नहीं था भोजन से
न नींद का सपनों से
उम्मीद के समीकरण कविता में नहीं बहियों में हल होते
शब्द यहां प्रवेश करते ही बदल देते मायने
उनके उदार होते ही थम जाते मोरों के पांव
*****
उनके हंसने के लिये नहीं कोई बिंब
रोने के लिये शब्द एक पथरीला - अरण्यरोदन
इतना आसान नहीं था पहुंचना उन तक
सूरज की नीम नंगी रोशनी में
*****
पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू
और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य.
मुट्ठियां भर भर कर फांकते हुए इसे
हमने खेले बचपन के तमाम खेल
*****
साक्षी है कि कवि आदमी के अस्तित्त्व के संरक्षण के लिए कितना उद्वेलित और बेचैन है. ये कविताएं सबसे बड़ा सवाल है इस क्रूर समय का..अशोक जी को बधाई! इतनी लंबी धीर-गंभीर संचेतना के लिए