मैंने कहा था
कुछ नहीं है इस समय ऐसा
जो तुम्हें ख़ुशी दे सके. मुझे
और बहुत कुछ बता देना चाहिए था
तभी एक सांस में , बिना रुके...
यानी वह सब जो तुम्हारे पीछे से
हुआ है इस देश में. यह देश
बदल देना चाहते थे तुम
जिसकी तकदीर, जिसका मुस्तक़बिल
लिख देना चाहते थे अपने नए अंदाज़ में,
सच कहूं यह देश तुम्हारे लायक था ही नहीं.
क्यों आखि़र? सिर्फ़ इतना ही काफ़ी है
कि तुम्हारी शहादत को रुकवा सकते थे जो
वे मन से चाहते ही
नहीं थे कि आज़ादी का/ क्रांति का रास्ता
अपनाया था तुमने जिसे
वह सम्मान पा जाए
हक़दार था जिसका वह
भरपूर. यानी ग़ुलामी की ज़ंजीरों
को तोड़ कर एक नया भारत
बनाने का श्रेय तुम्हारे विचारों और
तरीक़ों को न मिल जाए यह
दिली ख़्वाहिश थी उनकी. विनम्रताओं
के पीछे भी
छुपी होती हैं कैसी महत्वाकांक्षाएं !
कैसे अहंकार !
और फिर जब तुम नहीं रहे
कम-से-कम देह के स्तर पर तो नहीं ही
(रूहानी मौजूदगी
तो बनी ही हुई है अभी तक,
उसे कौन कर सकता था ख़त्म? )
तो हिंसा/अहिंसा की चालाकी भरी
व्याख्याएं चल निकलीं
सुनियोजित तरीक़े से
ऐसे कि विरुदावली तो
'गाई जाती' लगे, पर 'किंतु-परंतुओं' की
झड़ी भी लग जाए.
तुमने विचार के सूत्र लिए थे
जहां से अपने यशस्वी जीवन
के आखिरी वर्षों में
उनके जो असल ध्वज-वाहक थे तुम्हारी शहादत
के बाद, उनको लेकर
तो कर ही चुका हूं
क्षमा-याचना पहले ही.
तुम्हारी 'नायक' की छवि
इतनी सम्मोहक थी
तुम्हारी आकर्षण-क्षमता
बन गई थी जैसे एक असरदार पर्याय
चुम्बक का,
कि 'लाल' को 'गेरुआ' में तब्दील करने को आतुर
एक खास तरह की 'देशभक्ति' ने
शुरू कर दिया अहर्निश जाप
तुम्हारे नाम का. बिना कोशिश किए
समझने की तुम्हारे विचारों की दुनिया को
तुम्हारे 'लिखे-पढ़े-किए' की
पड़ताल तक किए बिना
वैसे सच तो यह है कि
ऐसा कर पाने की सामर्थ्य भी
अर्जित नहीं कर पाए थे वे. आज तक नहीं
कर पाए हैं. जैसे- जैसे
और जब-जब उन्हें पता लगने लगा
अन्य स्रोतों से
कि तुम तो अग्नि-पिंड हो
कभी दिखावटी अनुराग से मुक्त होते
और फिर कभी
फ़ासला रखते हुए अपनाने का छल करते रहे.
ग़नीमत है अब तुम्हारी तस्वीर
लगती है सिर्फ़ प्रतीक के तौर पर
उनके सम्मेलनों- अधिवेशनों में.
मज़ा यह है भगत सिंह
कि तुम्हारे नाम का दोहन
सर्वाधिक किया है उन्होंने जिन्हें
बिना संकोच-झिझक तुम घोषित
कर देते अपना 'वर्ग शत्रु'
पूंजी पर टिके
फिल्म व्यवसाइयों ने.
पर यह तो मानना ही होगा
तुम्हें भी कि उन्होंने तुम्हारे नायकत्व
की 'कमाऊ' क्षमता को सबसे
पहले पहचान लिया था. सब से ज़्यादा भी.
तुम्हें 'बेचा' उन्होंने
'ब्रांड' बनाकर
एक-दो बार नहीं, कई-कई बार.
यह अलग बात है कि
उनमें से कोई भी तुम्हारे क्रांति-कर्म
के मर्म को छू तक नहीं पाया
उसे आत्मसात करने की
तो कौन कहे.
बहुत अनुसंधान हुआ भगत सिंह
जीवन और जगत से जुड़े
तुम्हारे विचारों, लड़ाई के तरीक़ों
और अपना निज़ाम कैसा होगा
आदि सवालों के इर्द गिर्द. बड़ा काम
जो नहीं हुआ होता
जब वह हुआ था
तो आज की जवान पीढ़ी
तुम्हारे नाम तक से परिचित नहीं होती.
पर जैसा कि होता आया है यहां
न जाने कब से
तुम भी बन गए एक 'वस्तु'
उनके लिए.
शोध तो हुआ पर जैसे
प्रतिशोध भी निहित था इसमें
प्रतिशोध जो लगता है
एकदम 'घिनौना'
कम-से-कम तुम्हारे संदर्भ में.
डायरी हो या
दूसरे दस्तावेज़
शीर्षक/ शक्ल/ आकार
और हां 'कीमत' में भी आता रहा बदलाव
छपे ये कभी यहां से
कभी वहां से
क्योंकि तुम फिर
लगने लगे थे 'कमाऊ'.
एक 'कभी न बिक सकने वाली शख्सियत' को
आसानी से
इन्होंने बना दिया था 'बिकाऊ'
ज़्यादातर इनमें से दिखते रहे
'झंडाबरदार' तुम्हारे.
यह कडुवा यथार्थ है, भगत सिंह
जिसे मैं कहने से बच रहा था
पर फिर सोचा कि
कह ही दूं
कि यह राष्ट्र अख़बारी ख़बर में ही
'कृतज्ञ' होता है-
बशर्ते ख़बर छप जाए
'कि कृतज्ञ राष्ट्र ने फलां-फलां को
श्रद्धा-सुमन अर्पित किए'-
उसके आगे-पीछे तो यह निरा कृतघ्न
ही बना रहता है
निर्लज्जता के साथ
जो जितना संपन्न वो उतना ही ख़ुदगर्ज़
आत्म-केंद्रित और
आज़ादी की जड़ों में
किसका खून बना था खाद
और किसने संजीवनी भर दी थी
इन जड़ों में - इस सबसे बेख़बर.
संघर्ष तो चल रहे हैं
भगत सिंह
यहां-वहां
पर एका नहीं है उनके बीच
कोई तालमेल नहीं
संघर्ष तो उतने ही अहम हैं
जितना होते हैं जीने-मरने के संघर्ष
बहुसंख्यक जनता पिस रही है
वंचनाओं की चक्की में और अर्थशास्त्री
कर रहे हैं बहस कि
बत्तीस रुपया या छत्तीस (?)
क्या उचित है ग़रीब न कहे जाने के लिए.
घिन आती है, भगत सिंह
कितनी चौड़ी होती जा रही है खाई
मनुष्य और मनुष्य के बीच.
महाश्वेता की एक कहानी में
बैलों का रखवाला
'बैल' बन जाना चाहता है क्योंकि
उसकी नज़र में
बेहतर होता है सलूक
'बैल' के साथ, खुद उसकी तुलना में.
कहीं रेत में ढंकी-दबी है आग
और कहीं सुलग भी रही है
नहीं दिखती वह शक्ति
संगठित जन शक्ति,
नहीं दिखता दूर- दूर तक
एक और भगत सिंह जो
दिशा दे सके असंतोष को
बदल सके इस असंतोष को
विध्वंस और नए सृजन की
नियामक-नियंत्रक ऊर्जा
के रूप में.
बाजीगर आ रहे हैं
मजमेबाज़ भी
और उन्हें पीछे से कठपुतलियों
की तरह नचाने वाले लोग
भेस बदल-बदल कर.
और मज़ा यह है कि
क्रांतिवादी मानते हैं जो ख़ुद को
वे भी अलग-थलग
न पड़ जाएं, ऐसी
जुगत बिठाने में लगे हैं
पूंजी के चेहरे पर रंग-रोगन पोतने वालों
के साथ खड़ा होना अटपटा लगता होगा
बेशक उन्हें भी,
खोज लाते हैं कोई न कोई तर्क
अपने पक्ष में.
ज़ाहिर है, बुरा समय है यह
भगत सिंह
पर बुरे समय में ही तो 'अपने'
याद आते हैं बहुत- बहुत.
और इसीलिए शायद
मैंने अपने मन की
तमाम पीड़ा, सारी चिंताएं,
मन का सारा अवसाद --सब कुछ ही
उंडेल दिया है
तुम्हारे सामने
कि जी हल्का हो सके.
स्वार्थी भी दिख सकता हूं मैं.
पर सुनाना भी तो तुम्हीं को था !
-मोहन श्रोत्रिय
केंद्र में भगत सिंह हैं !इर्द गिर्द वृत में पूरा राष्ट्र ,पूरी कुव्यवस्था की चीर फाड़ है !कविता एक धारावाहिक की तरह है !इसे अति स्पस्ट कहना गुस्ताखी होगी !इस नायक को आजकल कौन याद करता है ,विशेषकर कविता में !आप साधूवाद के पात्र हैं !
ReplyDeleteबहुसंख्यक जनता पिस रही है
ReplyDeleteवंचनाओं की चक्की में और अर्थशास्त्री
कर रहे हैं बहस कि
बत्तीस रूपया या छत्तीस (?)
क्या उचित है ग़रीब न कहे जाने के लिए.
घिन आती है, भगत सिंह
कितनी चौड़ी होती जा रही है खाई
मनुष्य और मनुष्य के बीच.
अमर शहीद से बात करती हुई सशक्त रचना!
Devdeep Mukherjee एक अर्से बाद सशक्त अभिव्यक्ति के साथ मौजूद हैं आप...आपकी उसी गमकती हुई आवाज में इसका पाठ कानों के भीतर रस घोल रहा है...तकरीबन 23 साल के अंतराल के बाद...बधाई सर....
ReplyDeleteSeptember 28 at 8:02pm · Like · 1 person
Devdeep Mukherjee भगतसिंह को अगर वामपंथियों ने शुरू से ही अपना पथिकृत माना होता और उनके आदर्शों को जिया होता तो शायद वामपंथ का स्वरूप कुछ अलग होता...
September 28 at 8:04pm · Like · 2 people
Ish Mishra ati sundar
September 28 at 8:08pm · Like
Kuldeep Kumar WONDERFUL...I liked it immensely.
September 28 at 8:16pm · Like
Shamshad Elahee Ansari मोहन जी...आप बस एक माध्यम बन गये हैं, आपके संवाद..भारत की बिलखती आवाम के संवाद है, जो जैसे एक रिपोर्ट दे रही हो..कि २३ मार्च सन १९३१ के बाद से अब तक क्य क्या नहीं हुआ...धीरे धीरे १०० बरस हो जायेंगे..और आस लगाने वाले आस से ही बैठे है..कान धरे कि वह आता होगा. बहुत संदर है और उतना ही संजीदा भी...बहुत बहुत बधाई आपको एक सफ़ल इतिहासपरक काव्य रचना के लिये.
September 28 at 9:29pm · Like · 2 people
Sataydeep Bhojak sapno ke khooni ham tumhare chain se bharte hai ham pet maa ki aazadi ke sapno ke aakhar sab chadhe swarth ki bhaint bhagat tumhe kya me batlawoo koi desbaghat nahi hai loot rahe aaz dono hato khate tumhe me khud lazawoo
September 28 at 9:38pm · Like
Arun Misra मोहन जी ,आपने कुछ भी नहीं छोड़ा कहने को ,उनके लिए भी जो भगत सिंह को सही ढंग से प्रक्षिप्त नहीं कर पाए और गलत प्रक्षेपण का विरोध भी नहीं किया और उनके लिए भी जिन्होंने भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए किया ! बहुत शानदार कविता ! भगत सिंह को सच्ची श्रद्धांजलि !
September 28 at 9:48pm · Like · 1 person
Mahesh Punetha बहुत शानदार ....बहुत संजीदा .....बहुत सशक्त अभिव्यक्ति .
September 28 at 10:02pm · Like · 1 person
Mahesh Punetha तुम्हारे नाम का दोहन
सर्वाधिक किया है उन्होंने जिन्हें
बिना संकोच-झिझक तुम घोषित
कर देते अपना 'वर्ग शत्रु'
पूँजी पर टिके
फिल्म व्यवसाइयों ने.
September 28 at 10:03pm · Like · 2 people
Mahesh Punetha कि 'लाल' को 'गेरुआ' में तब्दील करने को आतुर
एक खास तरह की 'देशभक्ति' ने
शुरू कर दिया अहर्निश जाप
तुम्हारे नाम का. बिना कोशिश किए
समझने की तुम्हारे विचारों की दुनिया को
तुम्हारे 'लिखे-पढ़े-किए' की
पड़ताल तक किए बिना
September 28 at 10:09pm · Like · 2 people
Ashok Kumar Pandey भगत सिंह पर कविता लिखना बेहद मुश्किल काम है. हम चाहें न चाहें भटकते हैं, भावुक होते हैं, क्रोधित होते हैं, दुखी होते है, उत्साहित होते हैं. इन सारे शेड्स के साथ आपने बहुत कुछ समेटने की कोशिश की है. यह प्रेरित करने वाली कविता है...
September 28 at 10:48pm · Like · 2 people
Ish Mishra adbhut mohan bhai. bhagat singh to itihas men ek bar hota hai lekin aise yugdrashtaon ke sapne tamam vighn-badhaon ke bavjood age badhenge. unake sapanon ke dushman bhi unhe co-opt karne ki koshish karen tounke vicharon ki saiddhantik vijay hai, vyavhar me lana samay ki bat hai. paida hote rahenge bhagat singh shoshan rahit samaj ke liye. "krantikari gam ke maton ke liye ladte hain kyonki ki aaur koi rasta nahi hai.
September 28 at 10:48pm · Like · 1 person
Hitendra Patel is kavita ko kavita ki tarah bhi padha jaye aur ek text ke rup mein bhi jisme ek sachche man se ek pratibaddha man ne apne aur apne generation ke failure ko abhivyakti di hai. ek hatasha hai, ek bechaini ke sath hi... ek rag (krodh) bhi hai unke prati jinhone unka dohan kiya aur unhein Lal se Bhagawa banane ki koshishe kee. Kya is Chaman ke Lal ise aisa hone denge ? Shayad nahi. ek star par Bhagat Singh aaj bhi hamare liye ek prerana shrot hain yahi praman hai ki ummeed abhi baki hai.
September 28 at 11:11pm · Like · 1 person
Hitendra Patel kavita bhi ek text hai lekin maine text ke hawale se yah kahne ki koshish ki hai ki Kavita ke rup mein iska jaisa bhi mulyankan ho mere liye isme vyakt vichar ise ek mahattvapurna text banate hain, sochne ke liye bhi aur khud ko sajag rakhne ke liye bhi.
ReplyDeleteSeptember 28 at 11:13pm · Like
Prabhat Pandey खूबसूरत रचना कितना कुछ कहती हुई .....
September 29 at 7:15am · Like
Matuk Nath कविता का आरम्भ इतना भावपूर्ण है कि शुरू करते ही आँखें भींग गईं . फिर चिंतन और चिंता से गुजरते हुए सही जगह पर खत्म हुई. यह कविता ऐसी दीपशिखा है जो भगत सिंह के अनेक प्रकार के प्रेमियों के प्रेम को स्पष्ट रूप से उजागर कर देती है.
September 29 at 8:32am · Like
Nand Bhardwaj वाकई भगतसिंह के बहाने गुजरे सालों में उनकी विरासत के साथ हुए सुलूक को मूर्त कर दिया इस कविता में। कितनी एकाग्रता और पीडा को दर्शाती है ये कविता। जरूरत है ऐसी कविताओं की जो हमें अपनी इस शानदार विरासत पर गहरई से सोचने पर उप्रेरित करे।
September 29 at 9:05am · Like
Santosh Kr. Pandey ये मात्र एक कविता नहीं बल्कि कई छद्म को उधेरती और सच को स्थापित करता एक शिल्प है ! सब कुछ तो कह दिया आपने , बहुत ही स्पष्ट !बचा क्या है! फिर भी आँख पर बाजीगरी का चद्दर पड़ा है ! बहुत आभार मोहन सर !
September 29 at 1:51pm · Like
विमलेश त्रिपाठी बाजीगर आ रहे हैं
मजमेबाज़ भी
और उन्हें पीछे से कठपुतलियों
की तरह नचाने वाले लोग
भेस बदल-बदल कर.
और मज़ा यह है कि
क्रांतिवादी मानते हैं जो खुद को
वे भी अलग-थलग ..... सच लिखा है आपने ... बधाई...
September 29 at 2:30pm · Like
Hitendra Patel kaun hain ye bajigar, majmebaj. kathputaliyo ki tarah nachane wale log ? kuchh clue bhi dijiye . kab tak adrishya shatru se ladte hue apni pratibaddhata ka praman denge ham ?
September 29 at 3:15pm · Like
Mohan Shrotriya हाल ही में बहुत कुछ देखा है हम सभी ने. न तो ये अदृश्य हैं, और न अमूर्त. समाज व्यवस्था को बदलने का सवाल इन्हें मूर्त रूप दे देता है. फिर से देख लें एक बार. एक 'नारा' तो महज़ इसिलए लगाया गया था ताकि इस क्रांतिकारी के साथ अपना संबंध जोड़ पाएं. और पत्रकारों के सामने इस तथ्य को बार-बार लाया भी गया. थोड़ी कोशिश करें तो और संकेत भी पा जाएंगे.
September 29 at 4:48pm · Like · 1 person
Neha Avasthy Proud of you uncleji !!! Its really hard hitting !! :-)
September 29 at 8:45pm · Like
Viros Sharma Papa, Bhagat Singh se baat karne ke liye jo samvendansheelata, desh and samaj prem chahiye aur jis charam tak chahiye, usee ke chalte dukh ko aisee abhivyakti mil sakti hai. Yah abhivyakti eik vaicharik kranti ke liye chingaree hai jiske failne ke baad eik din karm kee shakti milegi - kab aur kaise to samay ke garbh mein hai par iski sambhavan shata-pratishat hai. Shayad ham mein se hee kuchh in bhavanaon aur vichaaron se prerana lein aur dina prati dina kee bhagam bhag va bhaya se bhare sabhee ke eik se pratikiyaveheen jeevan mein apne dil kee sun payein - vah sab kar payein jismein fal ka dar na ho.
September 29 at 11:17pm · Like
Viros Sharma Hats off to your expression!
September 29 at 11:17pm · Like
प्रायः कविताएँ खासकर प्रेरक और अपने आदर्श व्यक्तियों पर भावुकता से भरने लगती हैं...
ReplyDeleteलेकिन यहाँ लम्बी कविता में बहुत सी बातें आई... कुल मिलाकर एक सहज कविता...
फिल्म वाले अगर पूँजीवाद के खिलाफ नारा दे देंगे भगतसिंह के फिल्मों के माध्यम से तो कैसे रहेंगे वे, जो वे हैं!
क्या एक अच्छी और सच्ची फिल्म भगतसिंह पर नहीं बनायी जानी चाहिए! इसके लिए प्रयास होना चाहिये।
महाश्वेता की एक कहानी में
बैलों का रखवाला
'बैल' बन जाना चाहता है क्योंकि
उसकी नज़र में
बेहतर होता है सलूक
'बैल' के साथ, खुद उसकी तुलना में।
यह अंश अलग सा लगा!
भगतसिंह को फाँसी से बचाने पर विचारों में फिर एक भावुकता ही लगी!
http://www.dli.ernet.in/scripts/FullindexDefault.htm?path1=/data/upload/0044/442&first=1&last=425&barcode=5990010044437 पर 330 पृष्ठ पर भगतसिंह का 4 अक्तूबर 1930 को लिखा पत्र इस मामले में द्रष्टव्य है!
फेसबुक से आज इस ब्लॉग पर पहुँचा और यह कविता देखी । आपको बधाई ।
ReplyDeleteआज के संदर्भ मे अति- आवश्यक पोस्ट है यह ,इसका अधिकाधिक प्रचार किए जाने की आवश्यकता है। निश्चय ही हम बाम-पंथियों के लिए दुखद है कि क्रांतिकारी भगत सिंह जी का भगवाकरण करने का छली प्रयास किया जा सका।
ReplyDeleteआपको नव संवत्सर 2069 की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDelete----------------------------
कल 23/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
एक 'कभी न बिक सकने वाली शख्सियत' को
ReplyDeleteआसानी से
इन्होंने बना दिया था 'बिकाऊ' sateek aur marmik.. bhagat singh ka balidaan vyrth chla jaane diya..kivta sundar hai..
nai purani halchal ke madhyam se aapke is blog ka pata chala khush hoon ki aap jaise budhdhijan ki ek shreshthtam prastuti padhne ko mili.kavita ke madhyam se shaheed bhagat singh ke sammukh apne man ke bhaavon ko is tah rakhna adddbhut ...addbhut hai.
ReplyDeletebahut hi achchi prastuti.
ReplyDeleteभगत सिंह पर कविता का मतलब अभी तक विरुदावली जैसा ही कुछ समझ आता था ....आज देखा नायक का तटस्थ विश्लेषण कैसे होता है ....बहुत मूल्यांकनपरक कविता ....एक नए दृष्टिकोण से परिचय करवाने का आभार सर
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सार्थक विचारशील प्रस्तुती ..
ReplyDeleteपहले और आज की युवा सोच कितनी बदल गयी है.. सच में बेहद चिंतनीय है ..
अमर वीर शहीदों को नमन!
नवसंवत्सर 2069 एवं नवरात्रि पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ !
आप सब बड़े ज्ञानी लोगो की बाते पढ़ने के बाद ....कुछ कहने भर की हिम्मत कर रही हूँ .....९० के दशक के बच्चो ने भगतसिंह का नाम सिर्फ किताबो में पढ़ा हैं ...वैसे हमने भी सिर्फ इतिहास की किताबो में ही पढ़ा हैं उनका नाम....तो वो लोग हम से भी बाद की पीढ़ी के हैं ....हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो सब भगतसिंह ,सुखदेव को याद रखेंगे .......वो जो देख रहे हैं ...समझ रहे हैं ...उनके लिए वही सच भी हैं और आदर्श भी ...अगर वो देखेंगे या समझेंगे तो आज के वक्त के लोगो को ...उनके आदर्श आज के सचिन और अखिलेश यादव हैं ...जो उनके सामने कुछ करके दिखा रहे हैं...आज का युवा वही सोचता हैं जो वो देखता हैं और उनकी सोच बहुत बेहतर हैं ...ये लोग बातों में नहीं ..कुछ कर दिखाने में विश्वास रखते हैं .....अगर टिप्पणी में कुछ गलत लगा हो तो क्षमा चाहूंगी ...
ReplyDeleteइस कविता के लिए कोई शब्द नहीं हैं मेरे पास... बस अद्भुत कह सकती हूं। यह दिमाग को झंकृत कर देने वाला आह्वान है, लेकिन दुर्भाग्यवश इस देश में बहुसंख्बयक वर्ग बहरों का है।
ReplyDeleteसार्थक चिंतन/रचना।
ReplyDeleteसार्थक मनन किया है कविता में ... सही खाका खींच दिया है देश का ...
ReplyDeleteमैंने पढ़ा , समझा और सीखा .....!
ReplyDeleteयथार्थ का तिलिस्म !!मैं तो सम्मोहित-सा ही रहा /अंतिम शब्द तक !!! फिर पढ़ा और फिर पढ़ा !!!कविता का ये स्वरुप अनुपम है ० अनन्य रचना !!!
ReplyDelete