महेश पुनेठा नए उभरते कवियों में अपनी देशज सहजता के कारण अलग से पहचाने जाने लगे हैं. जो संकोच उन्हें व्यक्ति के रूप में अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग खड़ा कर देता है, वह संकोच कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, उनकी कविता की भी विशेषता बन जाता है. कविता में आने वाला हर शब्द जैसे बहुत ही हौले-से बोला जा रहा हो. पिछले महीने जोधपुर में पुनश्चर्या पाठ्यक्रम मेरे व्याख्यानों के दायरे में आने वाले वह दूसरे कवि थे. कहना न होगा कि लीना की कविताओं से भिन्न स्वभाव और तेवर की होने के बावजूद महेश की कविताओं ने भी प्रतिभागियों का ध्यान अच्छे-से खींचा. पर जैसी कि वास्तविकता है, विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के अधिकांश हिंदी शिक्षक चूंकि पाठ्यक्रम के बाहर की चीज़ों में दिलचस्पी कम रखते हैं, उनका नाम भी प्रतिभागियों को परिचित-सा नहीं लगा. पर इसका एक फ़ायदा भी होता है कि श्रोता किसी तरह के पूर्वाग्रह से भी ग्रस्त नहीं होते, इसलिए वे कवि को जिस सन्दर्भ में और जिस तरह से पढ़ा-प्रस्तुत किया जा रहा हो, उससे तादात्म्य क़ायम करने की स्थिति में भी आसानी से आ जाते हैं.
महेश पुनेठा की कविताओं की खूबी यह है कि वह आसपास पड़े-बिखरे ढेर सारे विषयों में से किसी एक को उठाकर उसे कविता के अनुकूल बना लेते हैं, और सहज ढंग से कविता का रूप देकर उसे पाठक को संप्रेषित कर देते है. जब वह 'प्रार्थना' पर कविता लिखते हैं तो उनकी प्रार्थना उनके समकालीन यश-कामी कवि की प्रार्थना से एकदम भिन्न होती है; एक तरह से प्रार्थना के औचित्य को भी स्थापित कर देती है. अन्य कविताएं भी बिना किसी व्याख्या-विश्लेषण की मांग किए पाठक के मन को, बिना किसी आहट के - बिना चौंकाए और चमत्कृत किए, छू कर गुज़र जाती हैं, और 'इनके होने की' 'सुवास' और 'आत्मीयता' देर तक मुग्ध किए रखती हैं. महेश पुनेठा बेशक पाठक की चेतना को झकझोरते नहीं हैं, पर यह आश्वस्ति का भाव ज़रूर देते हैं कि उन्हें अपनी जड़ों का अहसास है, और वह जीवनानुभव की ठोस ज़मीन पर खड़े हैं.
प्रार्थना
विपत्तियों से घिरे आदमी का
जब
नहीं रहा होगा नियंत्रण
परिस्थितियों पर
फूटी होगी
उसके कंठ से पहली प्रार्थना
विपत्तियों से उसे
बचा पायी हो या नहीं प्रार्थना
पर विपत्तियों ने
अवश्य बचा लिया प्रार्थना को.
इस बहरे वक्त में
खेलते हुए अन्य बच्चों के साथ
अपने साथ हो रहे खेड़ी का
विरोध कर रहा है मेरा बेटा
चिल्ला-चिल्लाकर
काफ़ी कर्कश
लग रही है आवाज़ उसकी
बार-बार जाने को होता हूं तैयार
कि रोकूं उसे
इस तरह चिल्लाने से
प्यार से भी
रखी जा सकती है अपनी बात
पर कुछ सोचकर
ठिठक जाते हैं क़दम
इस बहरे वक्त में
लगता है मुझे
ज़रूरी पूर्वाभ्यास की तरह
उसका चिल्लाना.
संतोषम् परम् सुखम्
पहली-पहली बार
दुनिया बड़ी होगी एक क़दम आगे
जिसके क़दमों पर
असंतोषी रहा होगा वह पहला.
किसी असंतुष्ट ने ही देखा होगा
पहली बार सुंदर दुनिया का सपना
पहिए का विचार आया होगा
पहली-पहली बार
किसी असंतोषी के ही मन में
आग को भी देखा होगा पहली बार ग़ौर से
किसी असंतोषी ने ही.
असंतुष्टों ने ही लांघे पर्वत पार किए समुद्र
खोज डाली नई दुनिया
असंतोष से ही फूटी पहली कविता
असंतोष से एक नया धर्म
इतिहास के पेट में
मरोड़ उठी होगी असंतोष के चलते ही
इतिहास की धारा को मोड़ा
बार-बार असंतुष्टों ने ही
उन्हीं से गति है
उन्हीं से ऊष्मा
उन्हीं से यात्रा पृथ्वी से चांद
और
पहिए से जहाज़ तक की
असंतुष्टों के चलते ही
सुंदर हो पाई है यह दुनिया इतनी
असंतोष के गर्भ से ही
पैदा हुई संतोष करने की कुछ स्थितियां.
फिर क्यों
सत्ता घबराती है असंतुष्टों से
सबसे अधिक
क्या इसीलिए कहा गया होगा
संतोषम् परम् सुखम्.
घसियारिनें
ऐसे मौसम में
जब दूर -दूर तक भी
दिखाई न देता हो तिनका
हरी घास का.
जब कमर में खोंसी दरांती पूछती हो
मेरी धार कैसे भर सकेगी
तुम्हारी पीठ पर लदा डोका
बावजूद इसके एक आशा लिए
निकल पड़ती हैं घर से वे
इधर-उधर भटकती हैं
झाड़ी-झाड़ी तलाशती हैं
खेत और बाड़ी-बाड़ी
अनावृष्टि चाहे जितना सुखा दे जंगल
उनकी आंखों का हरापन नहीं सुखा सकती
आकाश में होगा तो वहां से लाएगी
पाताल में होगा तो वहां से
वे अंततः हरी घास लाती लौट रही हैं घर
जैसे उनके देखने भर से उग आयी हो घास
उनकी पीठ पर हरियाली से भरा डोका
किसिम-किसिम की हरियाली का एक गुलदस्ता है.
बदल गया है ज़माना
अब भी नहीं कर सकती हो तुम
एक पुरुष से दोस्ती
ठीक-ठीक उसी तरह
जैसे कि किसी एक स्त्री से
तुम चाहती हो दोस्ती करना
किसी ऐसे पुरुष से
जिससे मिलते हों तुम्हारे विचार
भावों में हो जिसके निश्छलता
जिससे बातें करना
लगता हो तुम्हें अच्छा
जिसके साथ काम करने में
तुम्हें महसूस होती हो सहजता
तुम कर सकती हो और बेहतर प्रदर्शन
लेने लगेंगे लोग
अतिरिक्त रुचि
तुम्हारे साथ-साथ काम करने पर
साथ-साथ चलने पर
आपस में बातें करने पर.
खोलने लगेंगे लोग
संबंधों के परतों के भीतर की परतें
लगी रहेंगी
छोटी-छोटी गतिविधियों पर भी नज़रें
करने लगेंगे कानाफूसी
लगने लगेगा लोगों को
कि हो रहा है कोई अनर्थ
जिसे रोका जाना
है उनका परम कर्तव्य.
क्या ख़ाक़ बदला है ज़माना ?
महेश भाई की कविताएँ अपनी सहजता और स्पष्ट पक्षधरता के कारण हमेशा आकर्षित और प्रेरित करती हैं. आपने उन पर बेहद आत्मीयता और जिम्मेदारी से लिखा है.
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ReplyDeleteachhee kavitayen ...is bahre vaqt me aur praarthna bahut achhee ....shubhkamnayen
ReplyDeleteसब कविताये बहुत सुंदर हैं......सहज अभिव्यक्ति .....एक आम आदमी का मौन मुखर होकर जब शब्दों की शक्ल अख्तियार करता है तो कविता दिल से जुड़ जाती है और लम्बे समय तक असर बनाये रखती है! महेश जी की कवितायेँ भी कुछ इसी श्रेणी की हैं.....इतनी सुंदर कविताओं के लिए बधाई......
ReplyDeleteमहेश पुनेठा जी की कवितायेँ एक ठंडी ताज़ी हवा की तरह हैं , ठिठके हुए लम्हों का विस्तार करती ये कवितायेँ इतनी सरल सहज और निष्कपट हैं कि आप हैरत में पड़ जाते हैं कि एक दृष्टि यह भी हो सकती थी.. मुझे उनकी कविता प्रार्थना बहुत अच्छी लगी और बहरे समय की टीस दूसरी कविता में साफ़ झलकती है . घसियारिन कविता में हरियाली ढून्ढ लाने की एक स्त्री की कवायद हर उस काम काजी स्त्री की कोशिश है जो दोहरे काम के बोझ को अपनी आत्मा पर ढो रही है, और कहीं से भी लाये किन्तु बंजर होते रिश्तों की हरियाली को बचाए रखती है..स्त्रियों के प्रति उनकी यह कोमल दृष्टि मैंने उनकी पहले कि एक कविता ' बाकी सब ठीक है ' में भी पढ़ी थी और मै विस्मित थी कि एक पुरुष इतनी उदारता से एक स्त्री के मन को कैसे पढ़ सकता है.. महेश जी को इन सोंधी कविताओं के लिए बधाई और मोहन जी का आभार...
ReplyDeletesundar kavitain hain nahesh ki aur unpr aapki tippni ekdam makool. yah achchhi baat hai ki hindi sahity ki ek simit duniya ke beech bhi anjan rah ja rahe rachnakaron ko aap bina kisi purvagrah ke padh rahen hain aur un par bat kar rahe hain.sach yah ullekhniy ghatna ki tarah hai mere liye tou.
ReplyDeleteमहेश पुनेठा की कविताएँ धीरे-धीरे अपना प्रभाव छोड्ती हैं लेकिन वह प्रभाव दूरगामी होता है . सरलता और सहजता उनकी कविताओं की खूबी है.
ReplyDeleteमुझे पुनेठा का विषय को विस्तार देना और विषय को बाँधे रहना भाता है ...
ReplyDeleteमहेश पुनेठा की कवितायेँ सीधे जीवन से आई कविता है ...... अपने सहज रंग रूप में ......वे बिना किसी भाषाई चमत्कार के कविता को वहां संभव बनाते हैं ........ जहाँ से उनके समकालीन बिना देख परख किये आगे बढ़ जाते हैं .......उनकी कवितायेँ पढने के बाद अक्सर ऐसा होता है की आप सोचते हैं कि कवी ने कितनी सरल और सहज बात की है........यह तो सभी जानते और समझते हैं.......बस यही बात है जो इन कवितायों और महेश पुनेठा जी को विशेष बनाती है ......कि वे ऐसे ही विषयों को कविता में ढाल कर हमारी सोयी हुए दृष्टि को जागृत करते हैं.....जिसके बाद हम अपने आस पास को और खुद को भी ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं...........उन्हें पढवाने के लिए आपका आभार .......
ReplyDeletemahesh punetha ki kavitayen mujhe pasand aayeen. paardarshi bhasha, taral, saral aur sashakt abhivyakti sahsa man ko baandh leti hai. isame jo vichar aaye hain, unke doosare paksh bhi hain, jinhen itminan se kabhi rakhana chahoonga.
ReplyDeleteमहेश जी की कवितायेँ प्रभावित कर रही हैं... खास तौर पर पहली कविता प्रार्थना... और घसियारिने... कविता के बीच में घसियारिन है यह देख कर अच्छा लगा....
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