नियति का वरद-लेख था
मेरी हज़ार इच्छाएं पूरी होंगी.
पर हे भगवान !
आइसक्रीम
पेंसिल टार्च और
बोर्नियो के डाक टिकट जैसी
ना जाने किन-किन इच्छाओं पर
नियति-लेख को लुटा दिया मैंने.
एक दिन मैंने चाहा
लातिन के शिक्षक कक्षा में
न आएं और पर्चे में अपठित
पद्यांश शामिल न करें.
शिक्षक नहीं आए और
इम्तिहान के पर्चे में
अपठित पद्यांश नहीं था.
यह पांचसौवीं इच्छा थी मेरी
जो पूरी हुई थी.
और इतनी ही बची थीं जो
आगे पूरी होनी थीं.
लेकिन फिर भी मैं
नियति-वरद को लुटाता रहा
अपनी इच्छाओं की पूर्ति के निमित्त :
मैंने चाहा
कि बरसात हमारे सायंकालीन
भ्रमण के आड़े न आए और
मेरे देव-शिशु के पांव कीचड़
में न सन जाएं
कि दवा-विक्रेता के यहां
सुगंध-बूटी हर वक़्त
उपलब्ध रहे.
एक बार मैंने चाहा
ट्रेन आने से पहले
स्टेशन पहुंच जाऊं
गाड़ी पांच मिनट के भीतर ही
चली जानी थी पर मैंने गाड़ी पकड़ ली.
मैं और अधिक चौकस-चौकन्ना
हो गया- कहीं ज़्यादा सतर्क.
मैंने चाहा
कि फा़ख्ता़ पहिए के नीचे
न आए कि बूढ़े दादा को
अस्पताल से जल्दी छुट्टी मिल जाए
कि सैनिक सही-सलामत
घर लौट आएं
लड़ाई के मोर्चे से.
लेकिन लोग ल्युकेमिया से
मरते रहे और परिंदे
समंदर में ध्वस्त टेंकरों से
रिसते तेल की वजह से.
एक बार मैंने चाहा
कि न सोचूं बड़े पैमाने पर
जारी बमबारी जानलेवा
नासूरों और कंप्यूटर- रचित
कविताओं के बारे में. पर मैं
सिर्फ़ इनके बारे में ही
सोचता रहा, सोचता ही चला गया.
मेरी ये सब इच्छाएं
अधूरी ही रह गईं
हज़ार के बाद की
इच्छाएं जो थीं.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteएक गजब की कविता का उतना ही बेहतर अनुवाद
ReplyDeleteगजब की अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमेरी ये सब इच्छाएं
ReplyDeleteअधूरी ही रह गईं
हज़ार के बाद की
इच्छाएं जो थीं.
....लाजवाब अभिव्यक्ति ।
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ReplyDeleteबहुत बेहतरीन रचना,इसके अलावा कुछ कहने को शब्द नहीं मिले........निशब्द किया रचना ने ......
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