Thursday, 29 September 2011

क्या कहूं, भगत सिंह !?






क्या कहूं, भगत सिंह
सिवा इसके कि मैं क्षमा-प्रार्थी हूं
उन सबकी ओर से
जो ज़ोर-ज़ोर से कहते थे
हर जलसे-जुलूस में
इंकिलाब ज़िंदाबाद
ज़िंदाबाद इंकिलाब.
बड़े होते थे इनके जलसे,
और उनसे भी बड़े होते थे जुलूस
बेहद अनुशासित/ मर्यादित.

अनुयायी कहते थे ख़ुद को ये सब
उसी क्रांतिकारी का
जिससे* बात कर रहे थे तुम फांसी के ऐन पहले
हम ही नहीं भूले हैं तो तुम कैसे
भूल गए हो सकते हो
किताब पढ़ रहे थे तुम जब
जेलर तुम्हें ले जाने आया था 'वध-स्थल तक की
यात्रा के लिए. तुमने सही ही आदेश दिया
उसको ठहर कर प्रतीक्षा का
क्योंकि तुम्हारे ही शब्दों में
"एक क्रांतिकारी कर रहा है बात
दूसरे क्रांतिकारी से." रौंगटे आज भी
खड़े हो जाते हैं, भगत सिंह इन
शब्दों की याद आते ही. हम कितने ही निकम्मे
सिद्ध हो गए हों, फिर भी.

जिससे तुम बात कर रहे थे
वह क्रांतिकारी गांधी से एक बरस छोटा था
पर गांधी से तीस बरस पहले ही
पा लिया था अपना लक्ष्य,
उसने पूरा कर लिया था अपना 'मिशन'.
गांधी को तो तीस बरस
बाद भी करना पड़ा था संतोष
खंडित लक्ष्य-प्राप्ति से ही.

उस क्रांतिकारी की तेजस्विता का प्रमाण ही था यह
कि ये अनुयायी आज़ादी के बाद
वोट के ज़रिये दूसरी सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरे थे
पहली ही लोक सभा में. चलते रहते
उसी रास्ते पर संकल्प की प्रचंडता के साथ
तो यक़ीन मानो, भगत सिंह , नहीं देखने पड़ते
ये दिन, जिन्हें 'दुर्दिनों' के अलावा किसी और नाम से
पुकारना नासमझी होगी या चालाकी
जो मैं करना नहीं चाहता.
आज हम वहां खड़े हैं, भगत सिंह
जहां जनता बस कहना ही चाहती है कि
ऐसा राज अब और बर्दाश्त नहीं होगा हमें,
और सत्ता भी निकम्मेपन और
हालात पर नियंत्रण खो चुकने
के कारण यह महसूस कर ही लेने वाली है
कि शासन इस तरह नहीं चलाया जा सकता.
उस क्रांतिकारी विचारक
और दुनिया की पहली सफल क्रांति के नायक ने
"क्रांति की अनिवार्य स्थिति कहा था" ऐसी
ही परिस्थिति को.
लानत फेंको
'अपनी और तुम्हारी प्रतिश्रुति' से दग़ा
करने वाले हम सब पर. कितनी ही बार
सार्वजनिक शर्मिंदगी भी राह भूल भटक गए हैं जो
उन्हें सही रास्ते पर ले आती है
मंज़िल की ओर फिर से
चल पड़ने को प्रेरित/ विवश कर देती है.
कुछ भी ठीक नहीं है, भगत सिंह इस समय तो
ऐसा जो तुम्हें तनिक भी खुश कर सके.
आज बस इतना ही, शेष फिर.

*लेनिन

                                       -मोहन श्रोत्रिय

6 comments:

  1. ये दिन, जिन्हें 'दुर्दिनों' के अलावा किसी और नाम से
    पुकारना नासमझी होगी या चालाकी
    जो मैं करना नहीं चाहता.
    कितनी सटीक है यह बात...
    दर्द बड़ी शिद्दत से संप्रेषित हुआ है!

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  2. Prashant Kumar बहुत ही सटीक शब्दों में अंपने कर्तब्यों को याद दिलाने वाली कविता.
    September 27 at 12:36pm · Like

    Awesh Tiwari हाँ भगत सिंह हाँ , इस क्षमा प्रार्थना में मेरे शब्द भी शामिल हैं |
    September 27 at 12:38pm · Like

    Alakh Pandey अच्छा लेख है मोहन जी ..थोड़े तथ्य कम रह गए ..
    September 27 at 12:39pm · Like

    Prashant Kumar इस क्षमा प्रार्थना के बाद संकल्प ले प्रायश्चित का..........उस क्रांति को साकार करने का .
    September 27 at 12:41pm · Like

    Ashutosh Partheshwar शर्मिंदा हैं हम भगत सिंह
    September 27 at 12:42pm · Like · 1 person
    Mohan Shrotriya अलख भाई, यह लेख नहीं है. कुछ सन्दर्भ-भर हैं, और हम हैं जिन्होंने उस महान विरासत के साथ बदसलूकी की है. आज के मौके पर मन के कुछ उदगार हैं ये. इससे अधिक कुछ नहीं. इन उदगारों को कविता कहने का saaहस तक नहीं जुटा पाया.
    September 27 at 12:52pm · Like · 4 people

    Mayank Shandilya Akshrashah satya hain aapki panktiyan.
    September 27 at 12:53pm · Like

    Alakh Pandey हाँ जी ..उदगार तो मर्म भेदी हैं ..कविता नही लगे थे मुझे भी .. तो क्षमा ..
    September 27 at 12:55pm · Like · 1 person

    Ashish Tripathi kai zaroori baten utha rahi hai yah kavita..
    September 27 at 1:03pm · Like · 2 people

    Arun Misra यह क्षमा आखिरी हो ,इसकी नौबत फिर न आये ! भगत सिंह का मिशन हमारा मिशन है !यह पूरा होगा !
    September 27 at 1:20pm · Like · 3 people

    Bodhi Sattva नाउम्मीदी में भी उम्मीद छिपी है....दूर तक जाएगी बात
    September 27 at 2:00pm · Like · 2 people

    Neel Kamal Behad jaroori post ...Mohan Shrotriya ji ka aabhaar..
    September 27 at 2:41pm · Like · 2 people

    Best Web Designers बहुत खूब!! मान गए श्रोत्रिय साहब..
    September 27 at 3:16pm · Like

    Arun Prakash Mishra A very lively poem. I analyse that the path of Bhagat Singh was the right path for a better India. What we are today is simple a negative path. I am always ascertaining that all the socio-economic eveils are the by-product of Gandhi and I once again say, Gandhi was a misrable faulure as he could not bring any socio-economic change in independent India.
    September 27 at 3:37pm · Like

    Leena Malhotra Rao ek zaroori kavita.. mujhe bahut dukh hota hai jab bhagatsingh ko faansi di jaa rahi thi us samay desh ka netrtv kar rahe log chup rah gye..
    September 27 at 3:47pm · Like · 1 person

    Leena Malhotra Rao bhagat singh mere priy neta hain..
    September 27 at 3:47pm · Like · 1 person

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  3. Rajeev Rahi क्या कहूं, भगत सिंह
    सिवा इसके कि मैं क्षमा-प्रार्थी हूं
    September 27 at 4:33pm · Like

    Hema Dixit किसी भी प्रकार के उद्द्यम से जुड़ा एक सामान्य व्यक्ति, एक दिन मात्र में जाने कितने ही बार, जीवन के छोटे से छोटे अंश में घुसे बैठे भ्रष्टाचारी चक्र की कभी भी पूरित ना की जा सकने वाली मांगो में अपने को फंसा हुआ पाता है | छोटी से छोटी सत्ता को हस्तगत करके बैठा एक नामालूम सा अस्तित्वतंत्र कभी भी एक अच्छे ईमानदार सामन्य जन के गिरहबान घर और प्रतिष्ठा पर हाथ डाल सकने में समर्थ है .बहुत ध्यान देने की बात है कि ये तंत्र हमारे ही चलो हटाओ क्यों मुसीबत मोल लेनी झंझट काटो शायद रास्ते कोई और आ कर बनाएगा की सुविधात्म्क और वैयक्तिक सुरक्षा के संकीर्ण दृष्टिकोणों के चलते ही पनपा है.बार-बार कन्नी काट कर पीछे की गलियों से गुजर जाने ने आज हमें कही का नहीं छोड़ा है | और यह तंत्र हमारे दबते जाने और निष्क्रिय विरोधो में जीने को अपनी विजय मान कर अपनी छाती दिन दुनी रात चौगुनी चौड़ी कर के घूम रहा है. पर उसे अंदाजा नहीं है निष्क्रिय ज्वालामुखी के विष्फोट की क्षमताओं का .निरीह सा दीखता सामान्य जन अब और नहीं बर्दाश्त होता वाली स्थिति में है.जितने बार वो बेजा दबाया जाता है उतने बार उसके अंदर विरोध के क्रांति बीज उठते है .संभवतः इस तरह की सार्वजनिक शर्मिंदगी के अहसास की लिखतें ही क्रान्ति बीजो को एक पूर्ण वयस्क रूप दे और हम सिर्फ कहने से और अपने पूर्वजो के प्रति सिर्फ शब्दों में आभारी होने से आगे बढ़े और वास्तव में कुछ करे भी ! .
    September 27 at 4:44pm · Like · 1 person

    Jai Narain Budhwar ham sab ke bheetar h ek bhagt singh soya hua.....,ghamndi,aalsi,chaploos,dohre chritrawala,swarthi ye gun ghun ki tarah lag gaye hain hamari chetna main,maafi maangne se ab kaam n chalega,apne bheetar jhanke aur apne ko pahchan kar badlen.aisi kavitayen ek mahaul banati h
    September 27 at 4:56pm · Like

    Mahesh Punetha उस क्रांतिकारी की तेजस्विता का प्रमाण ही था यह
    की ये अनुयायी आज़ादी के बाद
    वोट के ज़रिये दूसरी सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरे थे
    पहली ही लोक सभा में. चलते रहते
    उसी रास्ते पर संकल्प की प्रचंडता के साथ
    तो यकीन मानो, भगत सिंह , नहीं देखने पड़ते
    ये दिन, जिन्हें 'दुर्दिनों' के अलावा किसी और नाम से
    September 27 at 5:34pm · Like · 1 person

    Mahesh Punetha aapaki pida ke sath hun.....is avasar par sochana hoga bhagat singh ke sapanon kaise pure honge.....?
    September 27 at 5:37pm · Like · 1 person

    Ashutosh Singh इस अच्छी कविता के लिए आभारी हूँ।भगत सिंह के दर्शन को आज भी परिवर्तन के दीवाने सीने से लगाये हुए हैं।उनकी संख्या कम नहीं हुई है।
    September 27 at 8:35pm · Like · 1 person

    Shamshad Elahee Ansari मोहन जी...कविता नहीं यह, आपने भारतीय क्रांति के आत्मसंघर्ष की पूरी व्याख्या कर दी है, भगत सिंह के हवाले से..और सच में, अब भगत सिंह से मुखातिब होने पर भी शर्मिंदगी का एहसास होता है, उससे आंख कैसे मिला सकते है? संवाद भी नहीं किया जा सकता...हम कुछ भी तो नहीं कर सके..२३ मार्च १९३१ के बाद से आज तक क्या किया है हमने? २८ सितंबर और फ़िर २३ मार्च का इंतज़ार...हम व्यवहारिक हैं...इसी व्यवस्था में रहने की आदत है..नाली के कीडों को सफ़ाई कर्मी का इंतज़ार जो रहता है...कि गोधुलि में आयेगा कोई..और साफ़ कर देगा नरक हमारा...क्रांति.
    September 27 at 9:14pm · Like · 1 person

    Hitendra Patel बैचैन कर देने वाले भाव को सीधे सीधे व्यक्त करती अभिव्यक्ति. हम सबके मन में इस कविता को ढूँढा जा सकता है. क्रांति की अनिवार्यता को भूल जाने वाले 'क्रांतिकारी' लोग भी इस समय के लिए दायी हैं.
    September 27 at 9:48pm · Like · 1 person
    Mohan Shrotriya ‎@ शम्स भाई, हितेंद्र.... कल इसकी अगली कड़ी.
    September 27 at 9:55pm · Like

    Shamshad Elahee Ansari I will wait for it...Sir..:-)
    September 27 at 10:03pm · Like

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  4. सब कुछ कह देती पंक्ति..."कुछ भी ठीक नहीं है, भगत सिंह इस समय तो
    ऐसा जो तुम्हें तनिक भी खुश कर सके."

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  5. सब कुछ कह देती पंक्ति..."कुछ भी ठीक नहीं है, भगत सिंह इस समय तो
    ऐसा जो तुम्हें तनिक भी खुश कर सके."

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  6. बदलना तो बहुत दूर की बात है
    चीजों को उसके
    सही परिप्रेक्ष्य में
    समझने की कोशिशें भी
    नहीं हुई हैं
    अब तो ऐसा लगता है
    जैसे सब कुछ तभी बदलेगा
    जब पूरा देश कुम्भस्नान कर लेगा
    ख़ास तौर से
    पढ़ा-लिखा वर्ग
    सत्ता का भेडिया
    अब
    गुर्राता नहीं , दहाड़ता है

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