( एक चालीस साल पुरानी रूसी कविता जो मुझे बहुत प्रिय है, उसका उतना ही पुराना अनुवाद)
चारों हम मिले थे --
अनुवाद: मोहन श्रोत्रिय
चारों हम मिले थे --
आशा
संदेह
व्यथा
और मैं.
आधी रात का वक्त था
बरसात हो रही थी
और हवा दनदना रही थी
आशा बोली :
बरसात थम जाएगी
हवा का ज़ोर भी चुक जाएगा
रात बीतेगी
उगेगा दिन
उदय होगा सुनहरा सूर्य.
संदेह ने कहा
लेकिन कब?
पूछता हूं फिर कि आखिर कब?
पानी बदल जाए बरफ में तो?
हवा ले आए यदि तूफ़ान तो?
ठहर जाए अगर यह रात तो?
व्यथा बोली :
अगर बरसात थम भी जाए
और हवा का ज़ोर भी चुक जाए
तो क्या?
सुबह के पास ऐसा है ही क्या
जो कर दे शांत
मेरे भीतर की अकेली
चीखती आवाज़ को?
आशा ने दिया तर्क
संदेह ने विरोध किया
संदेह ने दिया तर्क
व्यथा ने नकार दिया.
और मैं?
मैं सुनता रहा बातें इन तीनों की
आशा की
संदेह की
व्यथा की.
और इंतज़ार करता रहा पौ फटने का
सुनहरी भोर का.
मैंने नहीं पूछा
कि भोर कब होगी
कि क्या लाएगी वह अपने साथ ?
ख़ामोशी के क्षणों में
मैं सुनता रहा आशा की खुसर-फुसर
बोलो!
मुझसे बोलो!
behtreen kavita utana hi anuvad bhi. aabhar itani sundar kavita padane ke liye. man khush ho gaya. aage bhi is tarah ki kavita ka intjar rahega.
ReplyDeleteदिल को छू लेने वाले शब्द. धन्यवाद मोहन जी
ReplyDeleteचालीस बरस पहले ये शब्द कितने आश्वस्तकारी थे ! आज भी हैं, शायद . इसे हर पढे लिखे व्यक्ति को अपनी टेबुल पर रखना चाहिए. कम से कम एक सप्ताह के लिए. मैं इसे अपने फेस बुक वाल पर शेयर करता हूँ.
ReplyDeletelazawaab kar diyaa is kavitaa ne....
ReplyDeleteसंदेह और व्यथा भी साथ होते हैं पर हमारे तमाम सपने और संघर्ष आशा की खुसर-फुसर से ही पुनर्बलित होते हैं . पुरखों के कोठार से पुराने चावल निकाल कर लाने के लिए आभार . शानदार कविता का सच्चा-सुबोध अनुवाद .
ReplyDeleteलाजवाब है यह कविता और इसका कथ्य एवं शिल्प... हम ऐसी कविताओं से ही अपने लिए उम्मीद के मोती चुनते हें... मोती चुनने को पूंजीवादी ना मना जाए..
ReplyDeleteकमाल की कविता ! इस शानदार कविता की प्रस्तुति और सुन्दर अनुवाद के लिए धन्यवाद , मोहन जी !
ReplyDeletenaye dhang ki kavita hai aur bahut achchhi hai. anuwaad to kamal ka hai. lekin is kavita me ek kami hai. vyatha ki jagah nirasha ko rakhana chahiye. vytha to parinam hai, nirasha us our le jane ka madhyam hai isliye wah tark degi
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर...हार्दिक आभार,इसे पढ़वाने के लिए...
ReplyDeleteख़ामोशी के क्षणों में
ReplyDeleteमैं सुनता रहा आशा की खुसर-फुसर
बोलो!
मुझसे बोलो!
...
एक आशा ही है जो मनुष्य को हर वक्त संबल देती है। अद्भुत है यह कविता अपने शिल्प और विन्यास में। आभार इसे हम तक पहुंचाने का।
asha vyatha aur sandeh isi se jeevan bana hai aur in teeno ka santulan hi jeevan hai.. bahut sundarta se kahi hui kavita man par chhap chhodti hai... abhaar.
ReplyDeleteकविता बेहद शानदार है और अनुवाद भी उतना ही रवाँ...
ReplyDeleteआशा जीवित रहे और क्या चाहिए ...
ReplyDeleteअच्छे साहित्यिक ब्लोग्स पढ़ने का मौका मिल रहा है ....आभार