Tuesday, 16 August 2011

अन्‍ना का आंदोलन: व्‍यवस्‍था परिवर्तन (?)


अन्‍ना के आंदोलन को लेकर बड़ी बहस चल रही है. इसमें गर्मी ज़्यादा और रोशनी कम दिख रही है. असली दिक्‍क़त इस समय यह है कि अन्‍ना के पीछे भावुकता में लगे लोगों ने खुली आंखों और खुले दिमाग़ से देखना-सोचना लगभग बंद कर दिया है. यह लगभग ऐसी उत्‍तेजना का समय है जिसमें विवेक ने विदा ले ली है. अंग्रेज़ी में एक कहावत भी है: when passion rules, reason takes leave. इस वक्‍त जो हो रहा है वह लगभग ऐसी ही स्थिति को दर्शाता है. समर्थकों में से कोई यह पूछने-जानने की कोशिश तक नहीं कर रहा है कि मात्र जनलोकपाल आ जाने से यह व्‍यवस्‍था कैसे बदल सकती है. इस समस्‍या के गहरा जाने के पीछे एक कारण मुझे यह भी दिखता है कि वामपंथियों के एक बड़े हिस्‍से ने तो इन मुद्दों पर अपना स्‍टैंड (यदि वह कोई/कुछ है भी तो ?) सार्वजनिक करना ही बंद कर दिया है. एक तबक़ा ऐसा भी है जो अपनी तरह से मांग तो उठा रहा है किंतु सिर्फ़ अपने बूते पर उसे कुछ भी होता नहीं दिख रहा है, इसलिए वह भी अन्‍ना के साथ कूद पड़ा है. उनकी स्‍वतंत्र इयत्‍ता न तो दिख रही है, न दिखाई जा रही है. उन पर सिर्फ़ अन्‍ना समर्थक होने का लेबल चस्‍पां कर दिया गया है, जिसमें मीडिया का भी पूरा हाथ है.
जब मास हिस्‍टीरिया का माहौल हो, तो बहुत कुछ रचनात्‍मक/सुधारात्‍मक कर पाना असंभव होता है. यह दूसरी बात है कि आज ही एक ब्‍लॉग चलाने वाले अति चर्चित मित्र ने यह कहा है कि अपनी गोलबंदी से अन्‍ना के आंदोलन की दिशा बदली जा सकती है, कि इतिहास में तमाशबीनों के लिए कोई जगह नहीं होती. काश ऐसा कर पाना संभव होता! ये लोग पता नहीं किस ख़ुशफ़हमी में हैं कि विवेकशून्‍य नेतृत्‍व और उनके अति उत्‍साही समर्थकों को दिशा बदल डालने को मजबूर कर दिए जाने की संभावना देख रहे हैं. जब तक इस देश के मेहनतकश, दबे-कुचले लोगों की रोज़मर्रा की समस्‍याओं पर उन्‍हें लामबंद नहीं किया जाता, तब तक व्‍यवस्‍था परिवर्तन की बात एक मोहक और उत्‍तेजक नारे के अलावा कुछ नहीं हो सकती. इस तरह की ख़ुशफ़हमियां विकल्‍प सुझाने के काम में लगे लोगों पर एक नकारात्‍मक टिप्‍प्‍णी के साथ-साथ आत्‍मप्रचार के इरादों को भी दर्शाती हैं. फिर भी हम लोगों के सामने यह चुनौती तो है ही कि विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी समझ को लोगों के साथ साझा करें और यह उम्‍मीद भी करें कि बहुत दिन तक लोगों को एक मोहक नारे की गिरफ़्त में नहीं रखा जा सकता. यह बताना भी ज़रूरी है कि अन्‍ना की गांधी से लेकर शिवाजी तक की विकास-यात्रा तथा भगवा राजनीति द्वारा उन्‍हें दिए जा रहे प्रत्‍यक्ष समर्थन के मायने क्‍या हैं. जो शिव सेना करती है, उसकी गांधी से कहां कितनी संगति बैठती है, यह हमें पता है. हम यह भी जानते हैं कि अन्‍ना इसका जवाब नहीं देंगे. पर शायद उनके उत्‍साही युवा समर्थकों को यह बात समझ आ जाए. इसे यूं भी देखने की ज़रूरत है कि इस आंदोलन में तमाम तरह के हताश और लुम्‍पेन तत्‍व शामिल हैं, जो सिविल सोसायटी का कितना हिस्‍सा हैं, इसे बहुत खुलासा करके समझाने की ज़रूरत नहीं है. यह भी साफ़ है कि अन्‍ना का समर्थन न करने का मतलब कहीं भी/किसी भी तरह भ्रष्‍टाचार का समर्थन करना नहीं होता. जिनको सिर्फ़ सियाह/सफ़ेद की शैली में चीज़ों को देखने की आदत है, उनकी वे जानें. यथार्थ रेखीय (linear) नहीं होता, जटिलताएं चीज़ों को जोड़कर देखने की अपेक्षा को अनिवार्य बना देती हैं. भ्रष्‍टाचार-भ्रष्‍टाचार का जाप करने मात्र से या कोई दैवीय शक्ति से संपन्‍न निरंकुश जनलोकपाल के अवतार ले लेने से भ्रष्‍टाचार दूर नहीं हो सकता. भ्रष्‍टाचार दूर करने के लिए ज़रूरी है मुनाफ़ाख़ोरी-कालाबाज़ारी-जमाख़ोरी-रिश्‍वत तथा अन्‍य प्रकार के अनैतिक-ग़ैरक़ानूनी आचरण को बढ़ावा देने वाली इस व्‍यवस्‍था की जड़ों पर चोट करना. ऐसा कैसे हो सकता है कि जड़ों को सींचा जाए और पेड़ पर लगने वाले ज़हरीले फल से बच निकला जाए?

10 comments:

  1. आपकी बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि भ्रष्‍टाचार-भ्रष्‍टाचार का जाप करने मात्र से या कोई दैवीय शक्ति से संपन्‍न निरंकुश जनलोकपाल के अवतार ले लेने से भ्रष्‍टाचार दूर नहीं हो सकता. भ्रष्‍टाचार दूर करने के लिए ज़रूरी है मुनाफ़ाख़ोरी-कालाबाज़ारी-जमाख़ोरी-रिश्‍वत तथा अन्‍य प्रकार के अनैतिक-ग़ैरक़ानूनी आचरण को बढ़ावा देने वाली इस व्‍यवस्‍था की जड़ों पर चोट करना. जो लोग यह मानते हैं कि लोकपाल कानून के बन जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा दरअसल मुझे वे बहुत भोले लगते हैं। ये इनकी सद्भावना है।इन लोगों (अन्ना के समर्थन में उतरे ) की मंशा पर शक नहीं किया जा सकता है। ये ईमानदार लोग हैं । इनकी चाह है कि स्थितियाँ सुधरनी चाहिए। पर दिक्कत यह है कि ये घटनाओं या स्थितियों का द्वंद्वात्मक रूप से विश्लेषण नहीं करते। उसमें भी दोष इनका नहीं है क्योंकि व्यवस्था द्वारा उनको कुछ इसी तरह गढ़ा गया है। हमारा शैक्षिक ढाँचा ही कुछ इस तरह खड़ा किया गया है कि उसमें इसकी गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई है। जहाँ तक मुख्यधारा के जनसंचार माध्यमों का सवाल है वह तो सत्ता वर्ग के भोंपू बन कर रह गए हैं। उनसे हम जनता में विवेकशीलता पैदा करने की अपेक्षा भी नहीं कर सकते हैं। जब हम चीजों को सतही तौर पर देखेंगे तो इसी तरह के नतीजों पर पहुँचेंगे। अन्यथा यह बात सीधे-सीधे समझ में आ जाती है जब हम ग्लोबलाइजेशन-उदारीकरण-निजीकरण के पिछले बीस सालों का अवलोकन करते हैं ,हम पाते हैं कि जैसे-जैसे आर्थिक सुधारों की गति बढ़ती गई भारत में भ्रष्टाचार बढ़ता गया। इससे सीधे-सीधे निष्कर्ष निकलता है कि भ्रष्टाचार की जड़ कहीं न कहीं इन नीतियों में निहित है। होना भी है जिस व्यवस्था में अकूत धन-संपत्ति रखने और बनाने की अबाध छूट होगी ,इतना ही नहीं बल्कि उसके लिए एक वर्ग विशेष को पूरी सुविधा भी प्रदान की जाएगी तो भला कोई क्यों पीछे रहना चाहेगा। इसलिए हमें लगता है अगर भ्रष्टाचार दूर करना है तो इस व्यवस्था को बदलना होगा।

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  2. पूरी सहमति आपसे ! जब तक इस विष-वृक्ष को नहीं उखाड़ फेंका जायेगा तब तक इन जहरीले फलों से मुक्ति नहीं !

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  3. आत्‍मप्रचार की जो बात अपने लेख में कही वो मर्मान्तक है |

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  4. महेश जी की टिप्‍पणी में ''घटनाओं या स्थितियों के 'द्वन्‍द्वात्‍मक' विश्‍लेषण'' और ''चीज़ों को 'सतही' तौर पर देखने'' जैसी शब्‍दावली पढ़ने को मिली, जोकि आजकल ग़ायब सी हो गई लगती है. बहुत अच्‍छा लगा. मुख्‍यधारा के मीडिया की भूमिका वही हो सकती है, जो आजकल दिखाई दे रही है, क्‍योंकि उनका मक़सद मुनाफ़ा कमाने के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं. इस व्‍यवस्‍था को दूर करने के लिए एक वैकल्पिक मीडिया की ज़रूरत को कुछ लोग बहुत ज़ोर देकर बता रहे हैं, इसके लिए उन्‍होंने एक अभियान भी चला रखा है, और इसके लिए कोशिश भी कर रहे हैं. इसके बिना शायद यह सम्‍भव प्रतीत नहीं होता.

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  5. ''व्‍यवस्‍था को दूर करने के लिए'' नहीं, ''व्‍यवस्‍था को बदलने'' के लिए पढ़ें. माफ़ी.

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  6. यह व्यवस्था बदलने का आन्दोलन न होकर एक सुधारवादी आन्दोलन है और उन शक्तियों द्वारा प्रेरित है जो पूंजीवादी व्यवस्था को सही मानती हैं , इसके बावजूद इस आन्दोलन में और बहुत से शोषित पीड़ित तबके भी शामिल हैं .यह जन-पीड़ा की अभिव्यक्ति भी है जिसको व्यक्त होने के लिए जहां जितनी गुंजाइश मिलती है वहीं वह फूटकर बहने लगती है.इसमें विचारधारात्मक पूर्णता देखना या उसकी कामना करना नादानी होगी इसे बदलाव की प्रक्रिया मानकर प्रतिक्रियावादी ताकतों के हाथों में सोंप देना भारी भूल होगी jeevan singh

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  7. भ्रष्‍टाचार दूर करने के लिए ज़रूरी है मुनाफ़ाख़ोरी-कालाबाज़ारी-जमाख़ोरी-रिश्‍वत तथा अन्‍य प्रकार के अनैतिक-ग़ैरक़ानूनी आचरण को बढ़ावा देने वाली इस व्‍यवस्‍था की जड़ों पर चोट करना. ऐसा कैसे हो सकता है कि जड़ों को सींचा जाए और पेड़ पर लगने वाले ज़हरीले फल से बच निकला जाए....nishkarsh swaroop kahi aapki yah baat sateek hai..
    Saarthak samyik prastuti ke liye aabhar!

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  8. जो लोग ऐसा सोचते हैं उनको लीड लेकर अपनी बातें जनता के सामने रखनी चाहिए ,संभव है कि इसी तरह का जन -उभार उनके साथ भी लग जाए .जब तक ऐसा कुछ करेंगे नहीं तो सही विकल्प सामने कैसे आयेगा जो मैदान में डटकर कुछ कर रहा है लोग उसी के साथ अपनी पीड़ा को व्यक्त कर रहे हैं भले ही यह सब निरर्थकता में बदल जाए jeenan singh

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  9. यह एक बेहतरीन टिप्पणी है. अफसोस है कि कम लोग इस समय इस बात के समर्थन में खडे रहने की ज़रूरत को समझ रहे हैं.

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  10. कष्ट इस बात का है कि ये लोग कोग्रेस के नाम पर विद्वान ,ईमानदार मनमोहन सिंह को टार्गेट कर रहे हैं !

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