कल प्रिय प्रियंकर पालीवाल ने रामधारी सिंह दिनकर और महान इतालवी कवि दांते को उद्धृत करते हुए, '' जो तटस्थ हैं , समय लिखेगा उनके भी अपराध...........'' (दिनकर); ''The hottest places in the hell are reserved for those who,in the times of moral crisis maintain their neutrality.'' -- Dante (1265-1321), 'तटस्थता' का प्रश्न उठाया था. इसके प्रत्युत्तर में एक मित्र ने दिनकर की कविता का वह पूरा अंश भी उद्धृत किया था जो संदर्भित पंक्ति की पूरी पृष्ठभूमि को उजागर करता है, और इस तरह इसे संपूर्णता प्रदान करता है.
''अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध''
सामान्यतया फेसबुक की किसी टिप्पणी को ब्लॉग का आधार विषय बनाना कुछ लोगों को अटपटा लग सकता है. किंतु यह इतने बड़े महत्व का विषय है कि इस पर गंभीरता से विचार करना ज़रूरी लगता है.
बुनियादी प्रश्न यह है कि क्या कोई भी व्यक्ति वास्तव में तटस्थ हो सकता है. क्या तटस्थता एक नैतिक मूल्य के रूप में वरेण्य है? क्या दिखती हुई तटस्थता वास्तव में तटस्थता होती है? मुझे लगता है कि अपनी निजता दिखाने का विशेष आग्रह इसके पीछे अधिक क्रियाशील होता है, जो दरअसल अपनी कमज़ोरी/ होशियारी/ चालाकी छिपाने की प्रबल इच्छा के रूप में निहित होता है. यह सवाल इसलिए पक्षधरता से बचने के प्रयास के रूप में भी सामने आता है. आम व्यक्ति दिखाना यह चाहता है कि वह सारे निर्णय अपने स्वयं के विवेक के आधार पर करता है और किसी भी पक्ष से उसका आचरण अथवा निर्णय प्रभावित नहीं होता. या वह उसे किसी अन्य व्यक्ति/विचार द्वारा निर्धारित नहीं हुआ दिखाने का प्रयत्न करता है्. जब हम 'सत्यमेव जयते' को आदर्श वाक्य के रूप में स्वीकार और प्रस्तुत करते हैं, तो क्या इसका यह आशय नहीं होना चाहिए कि हम सत्य के पक्ष में खड़े हैं? जब हम न्याय की मांग करते हैं, तो क्या हम न्याय के बुनियादी सिद्धांतों का हनन होते देख सकते हैं? ऐसा कैसे हो सकता है कि हम न तो पिटने वाले के पक्ष में हैं और न पीटने वाले के? मानवीय गरिमा में यदि हमारा तनिक भी विश्वास है, कमज़ोर से कमज़ोर व्यक्ति के सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार को हम तनिक भी मान्यता देते हैं तो '' किसी का पक्ष न लेना हमारी चालाकी और धूर्तता है,'' इसके अलावा इसे कोई और संज्ञा नहीं दी जा सकती क्योंकि इससे यह पता चलता है कि हम या तो कायर हैं या मानवीय करुणा के भाव से पूरी तरह विहीन हैं.
चूंकि तटस्थता की स्थिति होती ही नहीं, 'दिखती' तटस्थता हमारे किन्हीं अव्यक्त/अघोषित उद्देश्यों की पूर्ति का एक ज़रिया भी हो सकती है. 'कोउ नृप होइ, हमहिं का हानी' का आज के समय में निहितार्थ यह भी है ही कि जो भी राजा बनेगा उससे हमारा काम सध जाएगा. तुलसी बेशक यह कहते हों कि परिचारिका रानी नहीं बन सकती, इसलिए उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि राजा कौन है, पर मौजूदा संदर्भ में यह बात इसलिए सही नहीं है कि हमने देखा है कि दिखती तटस्थता के बल पर 'न कुछ' लोग बहुत कुछ बन पाने में सफल हो जाते हैं. विचार और मूल्य उनके लिए एकदम निरर्थक हैं क्योंकि ये 'काम सधने' में रोड़ा बन जाते हैं. अंग्रेज़ी में एक जुमला है: "running with the hare, and hunting with the hound." यह मौक़ापरस्ती भी है और दिखती तटस्थता भी. दांते तटस्थता को एक नैतिक संकट के रूप में देखते थे, यह इसलिए भी बहुत उल्लेखनीय है कि वह नवजागरण की पूर्व पीठिका तैयार करते वक़्त नैतिक मूल्यों की स्थापना के प्रति इतने सजग थे. बड़े साहित्यकारों ने, चाहे वे किसी भी भाषा के हों, पक्षधरता को एक मूल्य के रूप में प्रतिपादित किया है. मुक्तिबोध न केवल ''बशर्ते तय करो, किस ओर हो तुम'' का आह्वान करते थे, बल्कि किसी नए व्यक्ति से मिलते वक़्त यह पूछना नहीं भूलते थे, ''तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है, पार्टनर''. गोर्की भी लेखकों को संबोधित करते वक़्त उन्हें यह तय करने की सलाह दिए बिना नहीं रहते थे कि वे अपने लेखन में यह तय करें कि वे किसकी तरफ़ हैं - शोषकों की तरफ़ या शोषितों की तरफ. प्रेमचंद के यहां भी हमें यह आग्रह भरपूर दिखता है, जीवन और साहित्य दोनों में. प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू, जो स्वयं बड़े लेखक थे, के व्याख्यान पर ध्यान दिया जाए तो यह बात और भी उभरकर सामने आती है.
पिछली शताब्दी के चौथे दशक में पूरे यूरोप में और ख़ासकर इंग्लैण्ड में लेखकों के जीवन व्यवहार का अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि फ़ासिज़्म के खिलाफ़ सबसे ज़्यादा लामबंदी, शिरकत और क़ुर्बानी उन लोगों ने ही दी थी. इस लड़ाई में रैल्फ़ फ़ॉक्स और क्रिस्टोफ़र कॉडवेल ने तो अपना जीवन ही गंवा दिया था.
बाज़ार-चालित समाज में 'ऊपर उठना' और 'सफल होना' चूंकि मूलमंत्र बन चुके हैं, इसलिए सही-ग़लत, नैतिक-अनैतिक का भेद लगभग समाप्त होता जा रहा है. बाज़ार एक मूल्य-निरपेक्ष समाज की रचना कर रहा है, इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि हम उन मूल्यों पर फिर-फिर ध्यान दें जो हमें 'हम' बनाते हैं यानी जनपक्षधरता से संपन्न.