Saturday, 27 August 2011

निकोलाई उशाकोव की कविता :पछतावा

नियति का वरद-लेख था 
मेरी हज़ार इच्छाएं पूरी होंगी.

पर हे भगवान !
आइसक्रीम
पेंसिल टार्च और
बोर्नियो के डाक टिकट जैसी 
ना जाने किन-किन इच्छाओं पर 
नियति-लेख को लुटा दिया मैंने.

एक दिन मैंने चाहा 
लातिन के शिक्षक कक्षा में 
न आएं और पर्चे में अपठित 
पद्यांश शामिल न करें.
शिक्षक नहीं आए और 
इम्तिहान के पर्चे में 
अपठित पद्यांश नहीं था.

यह पांचसौवीं इच्छा थी मेरी
जो पूरी हुई थी.
और इतनी ही बची थीं जो 
आगे पूरी होनी थीं.
लेकिन फिर भी मैं
नियति-वरद को लुटाता रहा 
अपनी इच्छाओं की पूर्ति के निमित्त :

मैंने चाहा 
कि बरसात हमारे सायंकालीन 
भ्रमण के आड़े न आए और 
मेरे देव-शिशु के पांव कीचड़
में न सन जाएं
कि दवा-विक्रेता के यहां 
सुगंध-बूटी हर वक़्त 
उपलब्ध रहे.
एक बार मैंने चाहा 
ट्रेन आने से पहले 
स्टेशन पहुंच जाऊं 
गाड़ी पांच मिनट के भीतर ही 
चली जानी थी पर मैंने गाड़ी पकड़ ली.

मैं और अधिक चौकस-चौकन्ना 
हो गया- कहीं ज़्यादा सतर्क.

मैंने चाहा
कि फा़ख्ता़ पहिए के नीचे
न आए  कि बूढ़े दादा को 
अस्पताल से जल्दी छुट्टी मिल जाए
कि सैनिक सही-सलामत 
घर लौट आएं
लड़ाई के मोर्चे से.
लेकिन लोग ल्युकेमिया से 
मरते रहे और परिंदे 
समंदर में ध्वस्त टेंकरों से 
रिसते तेल की वजह से.

एक बार मैंने चाहा
कि न सोचूं बड़े पैमाने पर 
जारी बमबारी  जानलेवा
नासूरों और कंप्यूटर- रचित 
कविताओं के बारे में. पर मैं 
सिर्फ़ इनके बारे में ही
सोचता रहा, सोचता ही चला गया.

मेरी ये सब इच्छाएं 
अधूरी ही रह गईं 
हज़ार के बाद की 
इच्छाएं जो थीं.

Tuesday, 16 August 2011

अन्‍ना का आंदोलन: व्‍यवस्‍था परिवर्तन (?)


अन्‍ना के आंदोलन को लेकर बड़ी बहस चल रही है. इसमें गर्मी ज़्यादा और रोशनी कम दिख रही है. असली दिक्‍क़त इस समय यह है कि अन्‍ना के पीछे भावुकता में लगे लोगों ने खुली आंखों और खुले दिमाग़ से देखना-सोचना लगभग बंद कर दिया है. यह लगभग ऐसी उत्‍तेजना का समय है जिसमें विवेक ने विदा ले ली है. अंग्रेज़ी में एक कहावत भी है: when passion rules, reason takes leave. इस वक्‍त जो हो रहा है वह लगभग ऐसी ही स्थिति को दर्शाता है. समर्थकों में से कोई यह पूछने-जानने की कोशिश तक नहीं कर रहा है कि मात्र जनलोकपाल आ जाने से यह व्‍यवस्‍था कैसे बदल सकती है. इस समस्‍या के गहरा जाने के पीछे एक कारण मुझे यह भी दिखता है कि वामपंथियों के एक बड़े हिस्‍से ने तो इन मुद्दों पर अपना स्‍टैंड (यदि वह कोई/कुछ है भी तो ?) सार्वजनिक करना ही बंद कर दिया है. एक तबक़ा ऐसा भी है जो अपनी तरह से मांग तो उठा रहा है किंतु सिर्फ़ अपने बूते पर उसे कुछ भी होता नहीं दिख रहा है, इसलिए वह भी अन्‍ना के साथ कूद पड़ा है. उनकी स्‍वतंत्र इयत्‍ता न तो दिख रही है, न दिखाई जा रही है. उन पर सिर्फ़ अन्‍ना समर्थक होने का लेबल चस्‍पां कर दिया गया है, जिसमें मीडिया का भी पूरा हाथ है.
जब मास हिस्‍टीरिया का माहौल हो, तो बहुत कुछ रचनात्‍मक/सुधारात्‍मक कर पाना असंभव होता है. यह दूसरी बात है कि आज ही एक ब्‍लॉग चलाने वाले अति चर्चित मित्र ने यह कहा है कि अपनी गोलबंदी से अन्‍ना के आंदोलन की दिशा बदली जा सकती है, कि इतिहास में तमाशबीनों के लिए कोई जगह नहीं होती. काश ऐसा कर पाना संभव होता! ये लोग पता नहीं किस ख़ुशफ़हमी में हैं कि विवेकशून्‍य नेतृत्‍व और उनके अति उत्‍साही समर्थकों को दिशा बदल डालने को मजबूर कर दिए जाने की संभावना देख रहे हैं. जब तक इस देश के मेहनतकश, दबे-कुचले लोगों की रोज़मर्रा की समस्‍याओं पर उन्‍हें लामबंद नहीं किया जाता, तब तक व्‍यवस्‍था परिवर्तन की बात एक मोहक और उत्‍तेजक नारे के अलावा कुछ नहीं हो सकती. इस तरह की ख़ुशफ़हमियां विकल्‍प सुझाने के काम में लगे लोगों पर एक नकारात्‍मक टिप्‍प्‍णी के साथ-साथ आत्‍मप्रचार के इरादों को भी दर्शाती हैं. फिर भी हम लोगों के सामने यह चुनौती तो है ही कि विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी समझ को लोगों के साथ साझा करें और यह उम्‍मीद भी करें कि बहुत दिन तक लोगों को एक मोहक नारे की गिरफ़्त में नहीं रखा जा सकता. यह बताना भी ज़रूरी है कि अन्‍ना की गांधी से लेकर शिवाजी तक की विकास-यात्रा तथा भगवा राजनीति द्वारा उन्‍हें दिए जा रहे प्रत्‍यक्ष समर्थन के मायने क्‍या हैं. जो शिव सेना करती है, उसकी गांधी से कहां कितनी संगति बैठती है, यह हमें पता है. हम यह भी जानते हैं कि अन्‍ना इसका जवाब नहीं देंगे. पर शायद उनके उत्‍साही युवा समर्थकों को यह बात समझ आ जाए. इसे यूं भी देखने की ज़रूरत है कि इस आंदोलन में तमाम तरह के हताश और लुम्‍पेन तत्‍व शामिल हैं, जो सिविल सोसायटी का कितना हिस्‍सा हैं, इसे बहुत खुलासा करके समझाने की ज़रूरत नहीं है. यह भी साफ़ है कि अन्‍ना का समर्थन न करने का मतलब कहीं भी/किसी भी तरह भ्रष्‍टाचार का समर्थन करना नहीं होता. जिनको सिर्फ़ सियाह/सफ़ेद की शैली में चीज़ों को देखने की आदत है, उनकी वे जानें. यथार्थ रेखीय (linear) नहीं होता, जटिलताएं चीज़ों को जोड़कर देखने की अपेक्षा को अनिवार्य बना देती हैं. भ्रष्‍टाचार-भ्रष्‍टाचार का जाप करने मात्र से या कोई दैवीय शक्ति से संपन्‍न निरंकुश जनलोकपाल के अवतार ले लेने से भ्रष्‍टाचार दूर नहीं हो सकता. भ्रष्‍टाचार दूर करने के लिए ज़रूरी है मुनाफ़ाख़ोरी-कालाबाज़ारी-जमाख़ोरी-रिश्‍वत तथा अन्‍य प्रकार के अनैतिक-ग़ैरक़ानूनी आचरण को बढ़ावा देने वाली इस व्‍यवस्‍था की जड़ों पर चोट करना. ऐसा कैसे हो सकता है कि जड़ों को सींचा जाए और पेड़ पर लगने वाले ज़हरीले फल से बच निकला जाए?

एव्तुशेंको की दो कविताएं


बच्चों से झूठ बोलना ग़लत है............

बच्चों से झूठ बोलना ग़लत है
ग़लत है यह सिद्ध करना कि झूठ ही सच है.
उन्हें यह बताना  कि ईश्वर स्वर्ग में 
बैठा हुआ है और 
दुनिया में अमन-चैन है 
ग़लत है.

वे तुम्हारे अर्थ जानते हैं 
वे मनुष्य हैं 
उन्हें बताओ कि दिक्क़तें-मुसीबतें गिनी नहीं जातीं 
और उन्हें देखने-समझने दो
न सिर्फ भविष्य 

वर्त्तमान भी अपलक दृष्टि के साथ
उनसे कहो कि अवरोध होते तो हैं 
पर वे उनका सामना करें 
पीड़ा और तकलीफ़ें होती हैं 
लेकिन इस सबसे क्या?
कौन नहीं जानता कि 
खुशी यूं ही तो नहीं मिल जाती 
उसकी भी क़ीमत होती है

ग़लती जो दिखे तुम्हें 
क्षमा मत करो 
यह बढ़ेगी
और अपने आपको दोहराएगी 
और फिर 
बड़े होने पर अपने बच्चे
क्षमा कर दिए जाने के लिए 
हमें क्षमा नहीं करेंगे.

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सहृदयता

यह नहीं चल सकता 
अपनी तरह का एक ही अन्याय है यह 
पता नहीं कब, कि साल में 
शुरू हुआ इसका प्रचलन.
जीवितों के प्रति सोची-समझी उदासीनता 
और
मृतकों की चिरौरियां.

उनके कंधे झुक जाते हैं 
और कभी-कभी
वे नशे में धुत्त हो जाते हैं 
एक-एक करके प्रस्थान करने लगते हैं
क़ब्रिस्तान में वक्‍ताओं के मुख से 
झरने लगते हैं कोमल-मधुर शब्द
इतिहास के लिए.

वह क्या था जिसने मायकोव्‍स्की से
उसकी जान छीनली थी
वह क्या था जिसने उसकी 
अँगुलियों के बीच थमा दी थी बंदूक
काश ! उसकी दमदार वाणी 
और प्रखर व्यक्तित्व को
कभी दिए होते उन्होंने
कुछ टुकड़े शराफ़त के.

लोग जीते हैं, लोग लुच्चे होते हैं
सहृदयता-प्रदर्शन एक 
सम्मान है जो मिलता है
मरणोपरांत.

(अनुवाद: मोहन श्रोत्रिय)

Saturday, 13 August 2011

सुबह होगी - रसूल रज़ा

( एक चालीस साल पुरानी रूसी कविता जो मुझे बहुत प्रिय है, उसका उतना ही पुराना अनुवाद)


चारों हम मिले थे --
आशा
संदेह 
व्यथा 
और मैं.

आधी रात का वक्त था 
बरसात हो रही थी
और हवा दनदना  रही थी 

आशा बोली :
बरसात थम जाएगी
हवा का ज़ोर भी चुक जाएगा 
रात बीतेगी 
उगेगा दिन 
उदय होगा सुनहरा सूर्य.

संदेह ने कहा 
लेकिन कब?
पूछता हूं फिर कि आखिर कब?
पानी बदल जाए बरफ में तो?
हवा ले आए यदि तूफ़ान तो?
ठहर जाए अगर यह रात तो?

व्यथा बोली :
अगर बरसात थम भी जाए 
और हवा का ज़ोर भी चुक जाए 
तो क्या?
सुबह के पास ऐसा है ही क्या 
जो कर दे शांत 
मेरे भीतर की अकेली 
चीखती आवाज़ को?

आशा ने दिया तर्क 
संदेह ने विरोध किया 
संदेह ने दिया तर्क 
व्यथा ने नकार दिया.
और मैं?
मैं सुनता रहा बातें इन तीनों की
आशा की 
संदेह की 
व्यथा की.
और इंतज़ार करता रहा पौ फटने का 
सुनहरी भोर का.
मैंने नहीं पूछा
कि भोर कब होगी 
कि क्या लाएगी वह अपने साथ ?
ख़ामोशी के क्षणों में 
मैं सुनता रहा आशा की खुसर-फुसर
बोलो!
मुझसे बोलो!

अनुवाद: मोहन श्रोत्रिय

Tuesday, 9 August 2011

तटस्‍थता बनाम पक्षधरता

कल प्रिय प्रियंकर पालीवाल ने रामधारी सिंह दिनकर और महान इतालवी कवि दांते को उद्धृत करते हुए, '' जो तटस्थ हैं , समय लिखेगा उनके भी अपराध...........'' (दिनकर); ''The hottest places in the hell are reserved for those who,in the times of moral crisis maintain their neutrality.'' -- Dante (1265-1321), 'तटस्थता' का प्रश्न उठाया था. इसके प्रत्‍युत्‍तर में एक मित्र ने दिनकर की कविता का वह पूरा अंश भी उद्धृत किया था जो संदर्भित पंक्ति की पूरी पृष्‍ठभूमि को उजागर करता है, और इस तरह इसे संपूर्णता प्रदान करता है.
''अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध''
सामान्‍यतया फेसबुक की किसी टिप्‍पणी को ब्‍लॉग का आधार विषय बनाना कुछ लोगों को अटपटा लग सकता है. किंतु यह इतने बड़े महत्‍व का विषय है कि इस पर गंभीरता से विचार करना ज़रूरी लगता है.
बुनियादी प्रश्‍न यह है कि क्‍या कोई भी व्‍यक्ति वास्‍तव में तटस्‍थ हो सकता है. क्‍या तटस्‍थता एक नैतिक मूल्‍य के रूप में वरेण्‍य है? क्‍या दिखती हुई तटस्‍थता वास्‍तव में तटस्‍थता होती है? मुझे लगता है कि अपनी निजता दिखाने का विशेष आग्रह इसके पीछे अधिक क्रियाशील होता है, जो दरअसल अपनी कमज़ोरी/ होशियारी/ चालाकी छिपाने की प्रबल इच्‍छा के रूप में निहित होता है. यह सवाल इसलिए पक्षधरता से बचने के प्रयास के रूप में भी सामने आता है. आम व्‍यक्ति दिखाना यह चाहता है कि वह सारे निर्णय अपने स्‍वयं के विवेक के आधार पर करता है और किसी भी पक्ष से उसका आचरण अथवा निर्णय प्रभावित नहीं होता. या वह उसे किसी अन्‍य व्‍यक्ति/विचार द्वारा निर्धारित नहीं हुआ दिखाने का प्रयत्‍न करता है्. जब हम 'सत्‍यमेव जयते' को आदर्श वाक्‍य के रूप में स्‍वीकार और प्रस्‍तुत करते हैं, तो क्‍या इसका यह आशय नहीं होना चाहिए कि हम सत्‍य के पक्ष में खड़े हैं? जब हम न्‍याय की मांग करते हैं, तो क्‍या हम न्‍याय के बुनियादी सिद्धांतों का हनन होते देख सकते हैं? ऐसा कैसे हो सकता है कि हम न तो पिटने वाले के पक्ष में हैं और न पीटने वाले के? मानवीय गरिमा में यदि हमारा तनिक भी विश्‍वास है, कमज़ोर से कमज़ोर व्‍यक्ति के सम्‍मानपूर्वक जीने के अधिकार को हम तनिक भी मान्‍यता देते हैं तो '' किसी का पक्ष न लेना हमारी चालाकी और धूर्तता है,'' इसके अलावा इसे कोई और संज्ञा नहीं दी जा सकती क्‍योंकि इससे यह पता चलता है कि हम या तो कायर हैं या मानवीय करुणा के भाव से पूरी तरह विहीन हैं.
चूंकि तटस्‍थता की स्थिति होती ही नहीं, 'दिखती' तटस्‍थता हमारे किन्‍हीं अव्‍य‍क्‍त/अघोषित उद्देश्‍यों की पूर्ति का एक ज़रिया भी हो सकती है. 'कोउ नृप होइ, हमहिं का हानी' का आज के समय में निहितार्थ यह भी है ही कि जो भी राजा बनेगा उससे हमारा काम सध जाएगा. तुलसी बेशक यह कहते हों कि परिचारिका रानी नहीं बन सकती, इसलिए उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि राजा कौन है, पर मौजूदा संदर्भ में यह बात इसलिए सही नहीं है कि हमने देखा है कि दिखती तटस्‍थता के बल पर 'न कुछ' लोग बहुत कुछ बन पाने में सफल हो जाते हैं. विचार और मूल्‍य उनके लिए एकदम निरर्थक हैं क्‍योंकि ये 'काम सधने' में रोड़ा बन जाते हैं. अंग्रेज़ी में एक जुमला है: "running with the hare, and hunting with the hound." यह मौक़ापरस्‍ती भी है और दिखती तटस्‍थता भी. दांते तटस्‍थता को एक नैतिक संकट के रूप में देखते थे, यह इसलिए भी बहुत उल्‍लेखनीय है कि वह नवजागरण की पूर्व पीठिका तैयार करते वक्‍़त नैतिक मूल्‍यों की स्‍थापना के प्रति इतने सजग थे. बड़े साहित्‍यकारों ने, चाहे वे किसी भी भाषा के हों, पक्षधरता को एक मूल्‍य के रूप में प्रतिपादित किया है. मुक्तिबोध न केवल ''बशर्ते तय करो, किस ओर हो तुम'' का आह्वान करते थे, बल्कि किसी नए व्‍यक्ति से मिलते वक्‍़त यह पूछना नहीं भूलते थे, ''तुम्‍हारी पॉलिटिक्‍स क्‍या है, पार्टनर''. गोर्की भी लेखकों को संबोधित करते वक्‍़त उन्‍हें यह तय करने की सलाह दिए बिना नहीं रहते थे कि वे अपने लेखन में यह तय करें कि वे किसकी तरफ़ हैं - शोषकों की तरफ़ या शोषितों की तरफ. प्रेमचंद के यहां भी हमें यह आग्रह भरपूर दिखता है, जीवन और साहित्‍य दोनों में. प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्‍मेलन में जवाहरलाल नेहरू, जो स्‍वयं बड़े लेखक थे, के व्‍याख्‍यान पर ध्‍यान दिया जाए तो यह बात और भी उभरकर सामने आती है.
पिछली शताब्‍दी के चौथे दशक में पूरे यूरोप में और ख़ासकर इंग्‍लैण्‍ड में लेखकों के जीवन व्‍यवहार का अध्‍ययन करें तो हम पाएंगे कि फ़ासिज्‍़म के खिलाफ़ सबसे ज्‍़यादा लामबंदी, शिरकत और क़ुर्बानी उन लोगों ने ही दी थी. इस लड़ाई में रैल्‍फ़ फ़ॉक्‍स और क्रिस्‍टोफ़र कॉडवेल ने तो अपना जीवन ही गंवा दिया था. 

बाज़ार-चालित समाज में 'ऊपर उठना' और 'सफल होना' चूंकि मूलमंत्र बन चुके हैं, इसलिए सही-ग़लत, नैतिक-अनैतिक का भेद लगभग समाप्‍त होता जा रहा है. बाज़ार एक मूल्‍य-निरपेक्ष समाज की रचना कर रहा है, इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि हम उन मूल्‍यों पर फिर-फिर ध्‍यान दें जो हमें 'हम' बनाते हैं यानी जनपक्षधरता से संपन्‍न. 

Monday, 8 August 2011

दोस्त हों तो ऐसे : मार्क्स-एंगेल्स थे जैसे

कल एक मित्र ने कहा :" दुनिया में प्रेमियों के किस्से तो खूब हैं, क्या आप प्रसिद्ध दोस्तियों के कुछ उदाहरण दे सकते हैं?" मैं सोचने लगा, कृष्ण-सुदामा के नाम लेना नहीं चाहता था क्योंकि उनसे जुड़ा एक ही मित्रता-प्रसंग आता है, जो किसी को भी पता है. वैसे भी मैं पौराणिक प्रसंगों की प्रामाणिकता में यक़ीन न होने की वजह से इस तरह के प्रसंगों से बचना भी चाहता था। बहुत देर तक सोचने के बाद मार्क्स-एंगेल्स के अलावा मुझे कोई अन्य मित्रता याद नहीं आई, जो इतने लंबे अरसे तक चली और जो एकदम निस्स्वार्थ थी, सभी अर्थों में. एंगेल्स ने मार्क्स को मार्क्स बनाने में जो भावनात्मक और आर्थिक सहयोग दिया ,वह अविस्मरणीय है. वह मार्क्स के कृतित्व के महत्व को अन्य किसी भी व्यक्ति की तुलना में अधिक जानते-समझते थे. मार्क्सवाद के रचनात्मक/वैचारिक आधार एंगेल्स ने भी निर्मित किए थे,पर उन्होंने अपनी क्षमता से कम काम किया क्योंकि उनका अधिक वक्त इस उद्यम में लग जाता था कि मार्क्स के घर की रसोई चलती रहे, चूल्हा जलता रहे , और मार्क्स निश्चिंत,निर्विघ्न काम कर सकें. एंगेल्‍स ने कुछेक बुनियादी प्रश्‍नों पर ऐतिहासिक महत्‍व का लेखन किया. पर वह मार्क्‍स को 'जीनियस' और स्‍वयं को महज़ प्रतिभाशाली मानकर चलते थे और इसलिए मार्क्‍स के लिए जीवन-यापन की अधिकतम सुविधाएं जुटा पाने में ही अपनी सार्थकता पाते थे. इनकी मित्रता की प्रगाढ़ता का इससे बड़ा उदाहरण क्‍या हो सकता है कि दोनों के नाम साथ-साथ आते हैं, बीच में होता है सिर्फ एक योजक चिह्न '-' यानी 'मार्क्‍स-एंगेल्‍स'. धन्य हैं ये दोस्त जिन्होंने मानवजाति को मुक्ति का मार्ग दिखाया.
आज के दौर में बहुत से लोगों को यह दोस्‍ती किंवदंती जैसी या कपोलकल्पित लग सकती है. इससे परिचित लोगों में भी बहुतेरे ऐसे हो सकते हैं, जिनके मन में यह सवाल आए कि एंगेल्‍स ने मार्क्‍स को दी गई आर्थिक सहायता के बदले किसी तरह की वाहवाही लूटने अथवा अपना पलड़ा भारी करने की तो कोई चेष्‍टा नहीं की. ऐसा विचार पैदा होना पूरी तरह अस्‍वाभाविक भी नहीं है, किंतु सच यह है कि जीवनपर्यंत एंगेल्‍स ने मनसा-वाचा-कर्मणा यह प्रमाणित कर दिया कि उन्‍होंने जो कुछ भी किया उसका उन्‍हें कोई गुमान तक नहीं था. वह जानते थे कि मार्क्‍स में ही दुनिया को बदलने की क्षमता रखनेवाले दर्शन का प्रतिपादन करने की क्षमता थी. मार्क्‍स की प्रसिद्ध 'थीसीज़ ऑन फ़ायरबाख़' की पहली ही स्‍थापना - ''अभी तक दार्शनिकों ने दुनिया की सिर्फ व्‍याख्‍या की है, जबकि असल काम उसे बदलने का है'' - में उन्‍हें हम लोगों से हज़ार गुना अधिक विश्‍वास जो था.
मार्क्‍स की मृत्‍यु से वह अकल्‍पनीय रूप से विक्षुब्‍ध थे. उन्‍होंने मार्क्‍स के चिंतन को आगे बढ़ाने का संकल्‍प व्‍यक्‍त करने के साथ-साथ बहुत खुलकर उनकी स्‍मृति-सभा में कहा था कि इस दर्शन का नाम मार्क्‍स के नाम के साथ ही जुड़ने का औचित्‍य है क्‍योंकि उनकी स्‍वयं की भूमिका तो मात्र एक सहायक की रही है. इसका खुलासा करते हुए उन्‍होंने यह भी स्‍वीकार किया कि इस दर्शन को जो योगदान मेरा है वह नहीं भी होता तो भी मार्क्‍स अपनी मेधा और अध्‍ययन के सहारे उन निष्‍कर्षों तक स्‍वयं पहुंच जाते.