हरिशंकर परसाई का व्यंग्य कितना ही पुराना हो जाए, ऐसा लगता है जैसे आजकल में ही लिखा गया है. यह अकारण नहीं है कि हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य में उनके क़द का कोई दूसरा लेखक नहीं दिखता. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि विदेशी भाषाओं में उनके लेखन का अनुवाद नहीं हो पाया, वरना यह बात बड़े इत्मीनान के साथ कही जा सकती है कि उनकी गिनती दुनिया के श्रेष्ठ लेखकों में होती.
"मैं लेखक छोटा हूं, पर संकट बड़ा हूं."
"हमारी हज़ारों साल की महान संस्कृति है और यह समन्वित संस्कृति, यानी यह संस्कृति द्रविड़, आर्य, ग्रीक, मुस्लिम आदि संस्कृतियों के समन्वय से बनी है. इसलिए स्वाभाविक है कि महान समन्वित संस्कृति वाले भारतीय व्यापारी इलायची में कचरे का समन्वय करेंगे, गेहूं में मिट्टी का, शक्कर में सफ़ेद पत्थर का, मक्खन में स्याही सोख काग़ज़ का. जो विदेशी हमारे माल में "मिलावट" की शिकायत करते हैं, वे नहीं जानते कि यह "मिलावट" नहीं "समन्वय" है जो हमारी संस्कृति की आत्मा है. कोई विदेशी शुद्ध माल मांगकर भारतीय व्यापारी का अपमान न करे."
"अगर दो साइकिल सवार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़ें तो उनके लिए यह लाज़िमी हो जाता है के वे उठकर सबसे पहले लडें, और फिर धूल झाडें. यह पद्धति इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि गिरकर न लड़ने वाला साइकिल सवार "बुज़दिल" माना जाता है, "क्षमाशील संत" नहीं."
"जब विद्यार्थी कहता है कि उसे "पंद्रह दिए", उसका अर्थ होता है कि उसे"पंद्रह नंबर "मिले" नहीं हैं, परीक्षक द्वारा "दिए गए" हैं. मिलने के लिए तो उसे पूरे नंबर मिलने थे. पर "पंद्रह नंबर" जो उसके नाम पर चढ़े हैं, सो सब परीक्षक का अपराध है. उसने उत्तर तो ऐसे लिखे थे कि उसे शत-प्रतिशत नंबर मिलने थे, पर परीक्षक बेईमान हैं जो इतने कम नंबर देते हैं. इसीलिए, कम नंबर पाने वाला विद्यार्थी "मिले" की जगह "दिए" का प्रयोग करता है.''
"बेचारा आदमी वह होता है जो समझता है कि मेरे कारण कोई छिपकली भी कीड़ा नहीं पकड़ रही है. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है सब मेरे दुश्मन हैं, पर सही यह है कि कोई उस पर ध्यान ही नहीं देता. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है कि मैं वैचारिक क्रांति कर रहा हूं, और लोग उससे सिर्फ़ मनोरंजन करते हैं. वह आदमी सचमुच बड़ा दयनीय होता है जो अपने को केंद्र बना कर सोचता है."
"टुथपेस्ट के इतने विज्ञापन हैं, मगर हरेक में स्त्री ही 'उजले दांत' दिखा रही है. एक भी ऐसा मंजन बाज़ार में नहीं है जिससे पुरुष के दांत साफ़ हो जाएं. या कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस देश का पुरुष मुंह साफ़ करता ही नहीं है. यह सोचकर बड़ी घिन आई कि ऐसे लोगों के बीच में रहता हूं, जो मुंह भी साफ़ नहीं करते."
"जो नहीं है, उसे खोज लेना शोधकर्ता का काम है. काम जिस तरह होना चाहिए, उस तरह न होने देना विशेषज्ञ का काम है. जिस बीमारी से आदमी मर रहा है, उससे उसे न मरने देकर दूसरी बीमारी से मार डालना डॉक्टर का काम है. अगर जनता सही रास्ते पर जा रही है, तो उसे ग़लत रास्ते पर ले जाना नेता का काम है. ऐसा पढ़ाना कि छात्र बाज़ार में सबसे अच्छे नोट्स की खोज में समर्थ हो जाए, प्रोफ़ेसर का काम है."
"हम उत्पादक के लिए मनुष्य नहीं, उपभोक्ता हैं. हमारा कुल इतना उपयोग है कि हम खरीदार बने रहें."
"भारत की प्रतिष्ठा इसलिए भी बढ़ी है कि पुलिस लाठीचार्ज अब न के बराबर है. इससे दुनिया के लोग समझते हैं कि पुलिस अब बहुत 'दयालु' हो गई है. पर हमारी पुलिस अब सीधे गोली चलाती है, लाठीचार्ज के झंझट में नहीं पड़ती. गोली बनाने के कारखाने जनता के पैसे से चलते हैं, उनमें बना माल जनता के ही काम आना चाहिए."
"जनता उन मनुष्यों को कहते हैं जो वोटर हैं और जिनके वोट से विधायक तथा मंत्री बनते हैं. इस पृथ्वी पर जनता की उपयोगिता कुल इतनी कि उसके वोट से मंत्रिमंडल बनते हैं. अगर जनता के बिना भी सरकार बन सकती हो, तो जनता की कोई ज़रूरत नहीं है."
"अगर दो साइकिल सवार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़ें तो उनके लिए यह लाज़िमी हो जाता है के वे उठकर सबसे पहले लडें, और फिर धूल झाडें. यह पद्धति इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि गिरकर न लड़ने वाला साइकिल सवार "बुज़दिल" माना जाता है, "क्षमाशील संत" नहीं."
"जब विद्यार्थी कहता है कि उसे "पंद्रह दिए", उसका अर्थ होता है कि उसे"पंद्रह नंबर "मिले" नहीं हैं, परीक्षक द्वारा "दिए गए" हैं. मिलने के लिए तो उसे पूरे नंबर मिलने थे. पर "पंद्रह नंबर" जो उसके नाम पर चढ़े हैं, सो सब परीक्षक का अपराध है. उसने उत्तर तो ऐसे लिखे थे कि उसे शत-प्रतिशत नंबर मिलने थे, पर परीक्षक बेईमान हैं जो इतने कम नंबर देते हैं. इसीलिए, कम नंबर पाने वाला विद्यार्थी "मिले" की जगह "दिए" का प्रयोग करता है.''
"बेचारा आदमी वह होता है जो समझता है कि मेरे कारण कोई छिपकली भी कीड़ा नहीं पकड़ रही है. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है सब मेरे दुश्मन हैं, पर सही यह है कि कोई उस पर ध्यान ही नहीं देता. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है कि मैं वैचारिक क्रांति कर रहा हूं, और लोग उससे सिर्फ़ मनोरंजन करते हैं. वह आदमी सचमुच बड़ा दयनीय होता है जो अपने को केंद्र बना कर सोचता है."
"टुथपेस्ट के इतने विज्ञापन हैं, मगर हरेक में स्त्री ही 'उजले दांत' दिखा रही है. एक भी ऐसा मंजन बाज़ार में नहीं है जिससे पुरुष के दांत साफ़ हो जाएं. या कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस देश का पुरुष मुंह साफ़ करता ही नहीं है. यह सोचकर बड़ी घिन आई कि ऐसे लोगों के बीच में रहता हूं, जो मुंह भी साफ़ नहीं करते."
"जो नहीं है, उसे खोज लेना शोधकर्ता का काम है. काम जिस तरह होना चाहिए, उस तरह न होने देना विशेषज्ञ का काम है. जिस बीमारी से आदमी मर रहा है, उससे उसे न मरने देकर दूसरी बीमारी से मार डालना डॉक्टर का काम है. अगर जनता सही रास्ते पर जा रही है, तो उसे ग़लत रास्ते पर ले जाना नेता का काम है. ऐसा पढ़ाना कि छात्र बाज़ार में सबसे अच्छे नोट्स की खोज में समर्थ हो जाए, प्रोफ़ेसर का काम है."
"हम उत्पादक के लिए मनुष्य नहीं, उपभोक्ता हैं. हमारा कुल इतना उपयोग है कि हम खरीदार बने रहें."
"भारत की प्रतिष्ठा इसलिए भी बढ़ी है कि पुलिस लाठीचार्ज अब न के बराबर है. इससे दुनिया के लोग समझते हैं कि पुलिस अब बहुत 'दयालु' हो गई है. पर हमारी पुलिस अब सीधे गोली चलाती है, लाठीचार्ज के झंझट में नहीं पड़ती. गोली बनाने के कारखाने जनता के पैसे से चलते हैं, उनमें बना माल जनता के ही काम आना चाहिए."
"जनता उन मनुष्यों को कहते हैं जो वोटर हैं और जिनके वोट से विधायक तथा मंत्री बनते हैं. इस पृथ्वी पर जनता की उपयोगिता कुल इतनी कि उसके वोट से मंत्रिमंडल बनते हैं. अगर जनता के बिना भी सरकार बन सकती हो, तो जनता की कोई ज़रूरत नहीं है."
परसाई जी, कभी भी भारतीय समाज में अप्रासंगिक नहीं होंगे... जब तक कि कोई बड़ा सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन नहीं हो जाए।... पता नहीं मुझे क्यों लगता रहा है कि परसाई जी की रचनाओं का अनुवाद में वो असर नहीं रहेगा, जो हिंदी में है। फिर भी किया जाना चाहिये। मुझे नहीं पता उनका कितना अनुवाद अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में हुआ है।
ReplyDelete