कात्यायनी की कविता में संवेदना और विचार का एकाकार एक अत्यंत विरल परिघटना है. एक घनघोर मानवीय त्रासदी पर हिंदी में कदाचित यह सर्वश्रेष्ठ रचना है. गुजरात को यह किसी अकेली या अपवादस्वरूप घटना के रूप में न देखकर समकालीन सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के विद्रूप को सामने लाकर यह कविता सामाजिक बदलाव को प्रतिश्रुत साहित्यकारों का आह्वान भी करती है कि वे फ़ौरी और दीर्घकालिक दोनों तरह के कार्यभारों के निर्वहन के लिए इकट्ठा हों.
आह मेरे लोगो ! ओ मेरे लोगो !
(गुजरात---2002)
धुआं और राख और जली-अधजली लाशों
और बलात्कृत स्त्रियों-बच्चियों और चीर दिए गर्भों
और टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए शिशु-शरीरों के बीच,
कुचल दी गई मानवता, चूर कर दिए गए विवेक और
दफ्न कर दी गई सच्चाई के बीच,
संस्कृति और विचार के ध्वंसावशेषों में
कुछ हेरते, भटकते,
रुदन नहीं सिसकी की तरह,
उमड़ते रक्त से रुंधे गले से
बस निकल पड़ते हैं नाज़िम हिकमत के ये शब्द :
'आह मेरे लोगो !'
'साधो, ये मुर्दों का गांव'
--सुनते हैं कबीर की धिक्कार.
नहीं है मेरा कोई देश कि रोऊं उसके लिए :
'आह मेरे देश !'
नहीं है कोई लगाव इस श्मसान-समय से, कि कहूं :
'आह मेरे समय !'
इन दिनों कोई कविता नहीं,
सीझते-पकते फ़ैसलों के बीच, बस तीन अश्रु-श्वेद-रक्त-स्नात शब्द :
'आह मेरे लोगो !'
दर-बदर भटकते ब्रेष्ट का टेलीग्राम कल ही कहीं से मिला,
अभी आज ही सुबह आया था
कॉडवेल, राल्फ़ फॉक्स, डेविड गेस्ट आदि का भेजा हुआ हरकारा
पूछता हुआ ये सवाल कि एक अरब लोगों के इस देश में
क्या उतने लोग भी नहीं जुट पा रहे
जितने थे इंटरनेशनल ब्रिगेड में
क्या हैं कुछ नौजवान इंसानियत की रूह में हरक़त पैदा करने के लिए
कुछ भी कर गुज़रने को तैयार?- पूछा है भगत सिंह ने.
ग़दरी बाबाओं ने रोटी के टुकड़े पर रक्त से
लिख भेजा है संदेश.
महज मोमबत्तियां जलाके, शांति मार्च करके,
कहीं धरने पर बैठने के बाद घर लौटकर
हम अपनी दीनता ही प्रकट करेंगे
और कायरता भी और चालाकी भरी हृदयहीनता भी
शताब्दियों पुराने कल्पित अतीत की ओर देश को घसीटते
हत्यारों का इतिहास तक़रीबन पचहत्तर वर्षों पुराना है.
धर्म-गौरव की मिथ्याभासी चेतना फैलती रही,
शिशु मंदिरों में विष घोले जाते रहे शिशु मस्तिष्कों में,
विष-वृक्ष की शाखाएं रोपी जाती रहीं मोहल्ले-मोहल्ले,
वित्तीय पूंजी की कृत्या की मनोरोगी संतानें
वर्तमान की सेंधमारी करती हुई,
भविष्य को गिरवी रखती हुई,
अतीत का वैभव बखानती रहीं
और हम निश्चिन्त रहे
और हम अनदेखी करते रहे
और फिर हम रामभरोसे हो गए
और फिर कहर की तरह बरपा हुआ रामसेवक समय.
अभी भी हममें से ज्यादातर रत हैं
प्रतीकात्मक कार्रवाइयों और विश्लेषणों में, पूजा-पाठ की तरह
अपराध-बोध लिए मन में.
ये समय है कि
वातानुकूलित परिवेश-अनुकूलित
गंजी-तुंदियल या छैल-छबीली वाम विद्वत्ताओं से
अलग करें हम अपने आपको,
संस्कृति की सोनागाछी के दलालों के साथ
मंडी हाउस या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में
कॉफ़ी पीने का लंपट-बीमार मोह त्यागें,
हमें
निश्चय ही'
निश्चय ही,
निश्चय ही,
अपने लोगों के बीच होना है.
हमें उनके साथ एक यात्रा करनी है
प्रतिरक्षा से दुर्द्धर्ष प्रतिरोध तक.
इस फ़ौरी काम के बाद भी हमें सजग रहना होगा.
ये हमलावर लौटेंगे बार-बार आगे भी, क्योंकि
विनाश और मृत्यु के ये दूत,
पीले-बीमार चेहरों की भीड़ लिए अपने पीछे
चमकते चेहरे वाले ये लोग ही हैं
इस तन्त्र की आखिरी पंक्ति.
सहयात्रियों का हाथ पकड़कर कहना चाहते हैं हम उनसे,
साथियो ! दूरवर्ती लक्ष्य तक पहुंचने के रास्ते और रणनीति के बारे में
अपने मतभेद सुलझाने तक,
तैयारी के निहायत ज़रूरी, लेकिन दीर्घकालिक काम निपटने तक
हम स्थगित नहीं रख सकते
अपना फ़ौरी काम.
गुजरात को न समझें एक गुजरी हुई रात.
इस एक मुद्दे पर हमें
एक साथ आना ही होगा.
'आह मेरे लोगो' - इतना कहकर अपनी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें
कि एक स्वर से आवाज़ दें :'ओ मेरे लोगो!'
-ये तय करना है हमें
अभी, इसी वक़्त !
क्यों कोसते हो इतना?
हम तो किसी का
कुछ नहीं बिगाड़ते ।
न ऊधो का लेते हैं
न माधो को देते हैं ।
संतोष को मानते हैं परम सुख ।
रहते हैं वैसे ही
जाहि बिधि रखता है राम ।
बिधना के विधान में
नहीं अड़ाते टांग।
जगत-गति
हमें नहीं व्यापती
तो तुमको क्या?
तुमको क्यों तकलीफ़ कि
हमारा आसमान छोटा-सा है
कुएं के मुंह के बराबर?
हमने क्या बिगाड़ा है
जो कोसते हो इतना
पानी पी-पीकर?
या कि होगा
एक दिन
पर्यावरण की सुरक्षा पर
कोई कार्यक्रम नहीं हुआ.
जनसंख्या-विस्फोट पर
नहीं प्रकट की गई कोई चिंता.
कला की शर्तें
पूरी करने के लिए
नीलामी नहीं बोली गई
सच की, या ईमान की
एक दिन
मृत्यु नहीं हुई किसी कवि की
या कविता की
नहीं बैठा कोई विद्वान
किसी पूर्वज की पीठ पर
न ही कोई पुरस्कार बंटा
न तालियां बजीं.
उस दिन
कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त
करने की
कोई नई कोशिश नहीं हुई
न कोई हत्या,डकैती,राहजनी हुई
न कोई व्यापार-समझौता ।
उस दिन
नहीं छपे पूरी दुनिया के अखबार ।
अद्भुत था वह एक दिन
जो नहीं था
वास्तव में कभी
पर सोचते हैं सभी
कि था कभी ऐसा एक दिन
जीने के वास्ते
या कि होगा ?